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19वीं शताब्दी के तृतीय चरण के अंत में भारतीय जन-मानस पर अंग्रेजी शासन की पकड़ मजबूत हो चकी थी। देश अंग्रेजी शिक्षा की ओर बढ़ रहा था। समाज में भी वैचारिक क्रांति का सूत्रपात होने लगा था। उत्तर भारत में विशेष कर राजस्थान में श्रीमहावीर जी. नागौर और अजमेर की भट्टारक पीठों की प्रतिष्ठा समाप्त हो रही थी। भट्टारकों का प्रभाव नगण्य हो गया था और उनका स्थान स्थानीय पंचायतों ने ले लिया था। जैन पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन प्रारम्भ हो चुका था और सन् 1888 से पूर्व समाज में 10 पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन होने लगा था। सन् 1992 में जम्बूस्वामी चौरासी मथुरा में अखिल भारतीय दिगम्बर जैन महासभा की स्थापना हुई। इस प्रकार समाज के नेताओं में सामाजिकता की भावना बढ़ने लगी थी। समाज के कार्यकर्ताओं, श्रेष्ठियों एवं पंडितों में नेतृत्व की क्षमता जाग्रत होने लगी और वे पुरानी निरर्थक रूढ़ियों एवं परम्पराओं को त्यागने में भी पीछे नहीं रहे।
राजस्थान की भूमि वीरों की भूमि रही है। जिस प्रकार यहाँ के रणबांकुरों ने अपनी जन्मभूमि की रक्षार्थ अपने प्राणों की आहुति देने में अपने आपको आगे रखा उसी प्रकार यहाँ सैकड़ों संत भी हुए, जिन्होंने साहित्य,
संस्कृति एवं धर्म की भावना को सदैव जीवित रखा और अपने त्याग एवं - तपस्या से धर्म की अभूतपूर्व प्रभावना की। जिस प्रकार देश की रक्षार्थ चित्तौड़ LE एवं रणथम्भौर जैसे दर्गों का निर्माण हआ उसी तरह जैन संतों ने नागौर.
अजमेर, आमेर, जयपुर, पाटन जैसे नगरों में साहित्य के बड़े-बड़े भण्डार स्थापित करके साहित्य की सुरक्षा के लिये सार्थक और सराहनीय पुरुषार्थ
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किये।
राजस्थान में उदयपुर, डूंगरपुर, बांसवाड़ा, प्रतापगढ़ के राज्य बागड़ । प्रदेश के नाम से जाने जाते हैं। इस प्रदेश में हूमड़, नागदा, नरसिंहपुरा
जैसी जैन जातियों का विशेष प्रभाव है। तीनों ही जातियाँ अपनी धार्मिकता Hएवं अपने साधु-स्वभाव के लिए सर्वत्र प्रसिद्ध हैं। बागड़ प्रदेश में विशाल
1 मंदिर हैं, और डूंगरपुर, सागवाड़ा, प्रतापगढ़ आदि के मंदिरों में विशाल शास्त्र LE भंडार हैं। ये मंदिर एवं शास्त्र भंडार दोनों ही साहित्य एवं संस्कृति के ऐसे
सुरक्षित दुर्ग हैं जिनके कारण बागड़ प्रदेश में जैनधर्म एवं जैन-संस्कृति की 21 रक्षा हो सकी। सागवाड़ा एवं प्रतापगढ़ में अधिकांश मंदिर मुख्य बाजारों
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प्रशममूर्ति आचार्य शान्तिसागर छाणी स्मृति-ग्रन्थ .
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