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अनुपलब्ध है। साधक के लिये जिसमें प्रेरणाओं का अनन्त स्रोत भरा है, ऐसी वह जीवनी, जिसे हर साधक के पास सबसे पहले होना चाहिये, आज ग्रन्थागारों में भी ढूँढे नहीं मिलती। बड़े-बड़े स्वरचित ग्रन्थों के प्रकाशन की अनुमति देनेवालों का ध्यान अपने गुरु की जीवनी पर नहीं जाता। इसे क्या कहा जाये? संतोष की बात है कि आचार्यश्री के कुछ संक्षिप्त जीवन-परिचय : यदा-कदा निकलते रहते हैं। महासभा ने पूज्य.विशुद्धमती माताजी से लिखाकर ऐसा एक संस्करण अभी इस वर्ष निकाला है। ऐसे प्रयास स्तुत्य हैं और होते रहने चाहिए। एक और महापुरुष श्री गणेश वर्णी
इन दो महान आचार्यों के समकालीन एक और महापुरुष का जन्म ' बुन्देलखण्ड में हुआ. जिसका नाम था "गणेशप्रसाद वर्णी"। सन् 1874 में जन्म लेकर 1961 में समाधि-पर्यन्त अपना दीर्घ जीवन पूज्य वर्णीजी ने सामाजिक कुरीतियों के उन्मूलन, शिक्षा-प्रसार और ज्ञानाराधना के लिये समर्पित कर दिया था। युवावस्था में गृह तथा वाहन का त्याग करके पूरे TE उत्तर भारत में पद-यात्रा द्वारा उन्होंने अपना संदेश जन-जन तक पहुँचाने । का प्रयत्न किया और उसमें ऐतिहासिक सफलता प्राप्त की।
वर्णीजी के जीवन की एक विशेषता यह रही कि उन्हें भी अपनी राह स्वयं बनानी पड़ी। युवावस्था में ही वे विद्यार्जन की पिपासा लेकर देशाटन के लिये निकल पड़े। रूढ़ियों के जाल में फंसी हुई और अशिक्षा के अंधकार में डूबी हुई समाज की दुर्दशा को उन्होंने स्वयं देखा और अनुभव : किया था। समाज की इस व्यथा से पीड़ित होकर उसी आयु से वे विद्या-प्रसार के काम में जुट गये। उन्हें आयु भी अच्छी प्राप्त हुई। अठासी साल की आयु में सन् 1961 में सल्लेखना-पूर्वक ईसरी के आश्रम में उनका समाधि-मरण हुआ। इस प्रकार उन्हें साठ-पैंसठ वर्षों का अत्यंत सक्रिय । कार्यकाल प्राप्त हुआ, जिसमें उन्होंने ज्ञान और चारित्र की अनवरत आराधना की। आयु समाप्त होने के पचास-पचपन वर्षों पूर्व ही वे बुन्देखण्ड
में, और क्वचित् उसके बाहर भी अनेक जैन विद्यालयों, पाठशालाओं और LS कन्या-पाठशालाओं की स्थापना कर चुके थे। उनके द्वारा सन् 1905 ई. में पE
स्याद्वाद महाविद्यालय, बनारस और सन 1908 में श्रीगणेश संस्कृत महाविद्यालय, सागर की स्थापना हुई। इस प्रकार अपने दिव्य-अवदान के प्रशममूर्ति आचार्य शान्तिसागर छाणी स्मृति-ग्रन्थ
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