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भाव को न लेकर, आजकल के छापाखानों में हिंसामयी पदार्थों का संसर्ग
होने की वजह से ही लिया प्रतीत होता है। तब ही तो उन्होंने छपे ग्रन्थों - को दूसरे के हाथ से पढ़ना अनिवार्य रखा है। वास्तव में छपे और लिखे 7 ग्रन्थ एक समान हैं। छपे .ग्रन्थों में भी वही आप्त-वाक्य हैं, जो लिखे हुए
ग्रन्थों में हैं. इसलिये उनसे परहेज किया ही कैसे जा सकता है? परन्तु उस निमित्त जो हिंसा कार्य हो, तो वह अवश्य ही धर्मात्मा लोगों के लिये असह्य है। क्या ही अच्छा हो कि उन सिद्धान्त-ग्रन्थों की पवित्रता के साथ प्रकाशन के लिये अनेक छापाखाने स्थापित हो जायें।
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दीक्षार्थी की पात्र-परीक्षा के बारे में आचार्यश्री के निर्णय की सराहना बाबूजी ने इन शब्दों में की थी
-"मुनि महाराज ने जो मुमुक्षु-श्रावकों को मुनि-दीक्षा देने के पहले एक वर्ष तक अपने संघ में 'अभ्यासी' के तौर पर रखने का नियम करके
जो दूरदर्शिता का कार्य किया है, वह सर्वथा आजके योग्य है। हमारी तो । यही भावना है कि आपके समान अनेक मुनिजन इस मही को पवित्र करें
और श्रीसमन्तभद्राचार्य एवं अकलंकस्वामी की तरह देश-विदेशों, ग्रामों-नगरों और सभा भवनों अथवा राज-सभाओं में जैन-धर्म का यश विस्तृत करें। श्रीमाघनन्दि मुनि के समान प्रतिदिन पाँच मिथ्यात्वी जीवों को जैन-धर्म में दीक्षित करने में दत्त-चित्त रहें। इतना ही क्यों, श्रीजिनसेनाचार्य की तरह गाँव के गाँव को जैनी बनायें। वह दिन शुभ होगा जिस दिन पुनः मुनिजनों
का बाहुल्यता से पवित्रकारी विहार भारत के कोने-कोने में होने लगे।" LE यहाँ कुछ अन्य तथ्य भी ध्यान देने योग्य हैं
विक्रम संवत् 1983 : सन् 1926 ई. में शिखरजी की वन्दना करने तक शान्तिसागरजी छाणी "मुनि" ही थे। यहाँ से चलकर इसी वर्ष गिरीडीह के चातुर्मास में उन्हें आचार्य पद पर प्रतिष्ठित किया गया।
इस समय तक छाणी महाराज के सदुपदेशों से समाज में बहुत काम हो चुका था। उनके प्रभाव से राजस्थान में हिंसा और बलि का त्याग करने वाले अजैनों की संख्या सैंकड़ों तक पहुँच चुकी थी। मांसाहार और मद्यपान तथा हुक्का-तम्बाकू का त्याग तो हजारों की संख्या में लोग कर चुके थे। कन्या-विक्रय और छाती पीटकर रुदन-विलाप करने की प्रथा कई जगह बन्द
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प्रशममूर्ति आचार्य शान्तिसागर छाणी स्मृति-ग्रन्थ