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15454545454545454545454545454545 4 समान हैं, हम समझते हैं। आचार्यश्री का सामंजस्य दूरदृष्टिता का व्यवहार - एक अद्भुत कल्याणकारी अमृतोपम रसायन हो सकता है।" - -"नगरसेठ श्रीमान् चंपालालजी रानीवालों ने और उनके सुपुत्रों ने संघ का जो प्रबंध किया वह अपनी शान का उदारतापूर्ण अलौकिक ही था।"
-आ. शान्तिसागरजी जन्मशताब्दि स्मृतिग्रंथ, पृष्ठ 33-34 L. LE "भक्ति की शक्ति" और "संकल्प की दृढ़ता"
जीवन के प्रारम्भ से ही आचार्य शान्तिसागरजी छाणी के सामने वैराग्य । की साधना के लिये प्रेरित करनेवाला अथवा दिशा-निर्देश देनेवाला कोई
जीवन्त आदर्श नहीं था। यहाँ तक कि उन्हें चारित्र-चक्रवर्ती आचार्यश्री की तरह कोई दीक्षा-गुरु भी उपलब्ध नहीं हुये। भगवान महावीर ने कहा था-'अप्प दीवो भव' : स्वयं अपना दीपक बनो। शायद यह निर्देश छाणी महाराज को अपने आप पर चरितार्थ करना था। परन्तु अपनी यात्रा में वे एकदम असहाय
भी नहीं थे। उनके अंतरंग में उमड़ती वैराग्य की लहरें इतनी प्रचण्ड थीं ा कि उनके मन की सारी दुविधाएँ उन लहरों के आघात से छिन्न-भिन्न होती
चली गई और एक निष्कम्प व अडिग आत्म-विश्वास वहाँ उत्पन्न होता गया। वस्तुतः जो व्यक्ति साधना के क्षेत्र में स्वयं अपना मार्ग दर्शक बनने की ठान ले, उसे किसी अन्य के सहारे की आवश्यकता ही कहाँ रह जाती है? फिर तो उसका "स्वावलम्बन" ही उसका सबलतम-सम्बल होता है और भगवान्
अरहन्त स्वयं उसके आदर्श होते हैं। । यहाँ इतना ध्यान रखना होगा कि छाणी महाराज का, अरहन्त भगवान
को साक्षी बनाकर, स्वयं दीक्षित होने का पुरुषार्थ, किसी भी प्रकार गुरु की
अवहेलना या तिरस्कार का कदम नहीं था। वह तो गुरु चरणों की शरण 2ी प्राप्त नहीं होने की दशा में, बाध्य होकर, अपने भीतर ही अपना गुरु तलाशने - की एक विवशता-भरी प्रक्रिया थी। युग के परिप्रेक्ष्य में इस साहसिक कदम एक - की प्रशंसा की जानी चाहिये परन्तु वर्तमान में गुरु की शरण उपलब्ध होते
हुए भी, निरंकुशता-पूर्वक, इस युग में स्वतः दीक्षा आदि लेने की आगम-विरुद्ध प्रवृत्ति की किसी भी प्रकार सराहना नहीं की जानी चाहिये।
वैराग्य की उत्कटता में, भगवान की साक्षी-पूर्वक आगे बढ़ने पर छाणी 31 महाराज के भीतर जो आत्म-विश्वास स्वतः उपजा था, उसकी दृढ़ता के दर्शन 140
प्रशममूर्ति आचार्य शान्तिसागर छाणी स्मृति-ग्रन्थ
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