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1 चारित्र-चक्रवर्ती आचार्य शान्तिसागर स्मृति-ग्रन्थ में व्यावर के प्रमुख श्रावक
नगरसेठ श्रीमान सेठ तोतालाल हीरालाल रानीवाला ने अपने संस्मरण लिखते हए याद किया है
-"परमपूज्य चारित्र-चक्रवर्ती आ. शान्तिसागरजी महाराज के दर्शन करने का सौभाग्य सर्वप्रथम हमें सन् 1927 में तीर्थाधिराज सम्मेद शिखरजी पर प्राप्त हुआ, जब हम पूरे परिवार के साथ वहाँ गये थे। तभी हमारे सारे
परिवार की यह भावना हुई कि यदि आचार्य महाराज का विहार हमारे प्रान्त TE में हो और व्यावर में चातुर्मास का सुयोग प्राप्त हो, तो हम लोगों का जीवन
कृतार्थ हो जाये। "यादृशी भावना यस्य सिद्धिर्भवति तादृशी" की नीति के अनुसार हम लोगों की भावना सफल हुई और वि. सं. 1990 में आचार्य महाराज के संघ का चातुर्मास व्यावर में हुआ। उस समय हमारा सारा परिवार आनन्द विभोर हो गया, जब पूरे चौमासे भर हमें महाराजश्री के चरणों के समीप
बैठने, उनका उपदेशामृत पान करने और सेवा करने का सुअवसर प्राप्त TE हुआ। उस समय के कुछ संस्मरण इस प्रकार हैं
-"इस चातुर्मास की सबसे बड़ी उल्लेखनीय बात तो यह थी, कि L: आचार्य महाराज के संघ के साथ ही आचार्य श्रीशान्तिसागरजी छाणी के संघ
का भी चातुर्मास व्यावर में ही हुआ था और दोनों संघ हमारी नसियाँजी में का एक साथ ही ठहरे थे। छाणीवाले महाराज बड़े महाराज को गुरुतुल्य मानकर 4 उठते-बैठते, आते-जाते, उपदेशादि देने में उनके सम्मान-विनय आदि का
बराबर ध्यान रखते थे, और बडे महाराज भी उन्हें अपने जैसा ही मानकर उनके सम्मान का समुचित ध्यान रखते थे। यहाँ यह बात उल्लेखनीय है कि छाणीवाले महाराज अवसर पाकर प्रतिदिन बड़े महाराज की नियमित रूप से वैयावृति करते थे।"
-"हमारे नसियॉजी में पूजन, अभिषेक आदि तेरह पंथ की आम्नाय से होता है और आचार्यश्री के अधिकांश व्यक्ति तथा दक्षिण से आने वाले दर्शनार्थी बीसपंथी आम्नाय से अभिषेक पूजनादि करते हैं, तब अपने संघ
को एवम दक्षिण से आनेवाले लोगों को लक्ष्य करके श्री आचार्य महाराज LF कहा करते थे कि, जहाँ जो आम्नाय चली आ रही हो, वहाँ उसमें हस्तक्षेप - नहीं करना चाहिये और सबको अपनी-अपनी श्रद्धा-भक्ति के अनुसार यह
कार्य करना चाहिये।
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प्रशममूर्ति आचार्य शान्तिसागर छाणी स्मृति-ग्रन्थ
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