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-यहाँ के चौमासे के समय आचार्य महाराज को दूध के सिवाय सभी - रसों का और हरित मात्र का त्याग था। उनके जैसी दृढ़ता, शान्तता और वीतरागता के दर्शन अन्यत्र बहुत ही कम दृष्टिगोचर हुए।"
-आचार्य शान्तिसागर जन्मशताब्दी स्मृतिग्रन्थ पृ. 1089 वे सभी लोग निश्चित ही बड़े सौभाग्यशाली थे, जिन्होंने उस चातुर्मास को निकट से देखा और उन दुर्लभ क्षणों को अपनी स्मृति में बंदी बना लिया। जिसे भी उस अपूर्व घटना के बारे में बोलने-लिखने का अवसर मिला उसने सर्वथा अलग ही ढंग से अपने अनुभव व्यक्त किये हैं।
स्मृति-ग्रन्थ में चारित्र-चक्रवर्ती आचार्य शान्तिसागरजी महाराज की जीवनी लिखते हुए डॉ. सुभाषचन्द्र अक्कोले ने उस पावन-प्रसंग की एक TE अंतरंग झाँकी इन शब्दों में प्रस्तुत की है
-"व्यावर का चातुर्मास सांस्कृतिक इतिहास का एक सुवर्णपत्र हो सकता है। आचार्यश्री 108 शान्तिसागरजी छाणीवालों का भी चातुर्मास योगायोग से व्यावर में हुआ। दोनों संघों का एकत्र रहना यह विशेषता थी।
छाणीवाले महाराज की परंपरा तेरापंथ की थी, जब कि आचार्य महाराज की + परंपरा बीस पंथ की थी, फिर भी दोनों में परस्पर पूरा मेल रहा। जहाँ पर
जिस प्रकार के व्यवहार का चलन हो उस प्रकार की प्रवृत्ति चलने देनी चाहिए उसमें अन्य परंपरा वालों को किसी मात्रा में भी ठेस नहीं पहुँचनी चाहिए, सहिष्णुता का भाव होना ही चाहिए, इस प्रकार का संकेत संघस्थ सबको बराबर दिया गया था।
जातिलिंगविकल्पेन येषां च समयाग्रहः।
तेऽपि न प्राप्नुवंति परमं पदमात्मनः ।। अर्थात जाति और वेश-परिवेश का विकल्प साधना में परा बाधक एवं हेय होता है। इसी प्रकार तेरह पंथ या बीसपंथ में विकल्पों से आत्मसाधना अर्थात् परमार्थभूत धर्मसाधना अत्यंत दूर होती है। धर्मदृष्टि के अभाव का ही यह परिणाम है। टंकोत्कीर्ण धर्मसाधना लुप्तप्राय होती जा रही है और तेरह-बीस के झगड़े दृढमूल बनाए जा रहे हैं, और उन्हें धर्माचार का रूप दिया जा रहा है। समाज में आज भी जो भाई तेरह और बीस पंथ के नाम से समय-समय पर वितंडा उपस्थित करते हैं, और समाज के स्वास्थ्य को ठेस पहुंचाते हैं, उनकी उस प्रवृत्ति को जो समाज के लिए महारोग के प्रशममूर्ति आचार्य शान्तिस्यगर आणी स्मृति-ग्रन्थ
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