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455454545454545454545454545454 भी बनते ही दोनों ने दीक्षा के पूर्व से ही ले लिया था।
चारित्र-चक्रवर्ती महाराज के लम्बे-लम्बे उपवास और अंत में बारह वर्ष की सावधि-सल्लेखना से उनकी साधना तो अद्वितीय रही परन्तु छाणी महाराज भी बहुत उपवास करते थे। दस या सोलह उपवास तो उन्होंने कई बार किये। ब्रह्मचारी अवस्था में गोरेला में सोलहकारण के 17 उपवास और अगले वर्ष ईडर में भाद्रपद के 32 उपवास वे कर चुके थे। इस बीच में पाँच-सात दिनों के अन्तराल से मात्र जल लेते थे। यद्यपि अन्त में अधिक समय तो उन्हें नहीं मिला, फिर भी जब जीवन का अन्त निकट लगा तब, निष्प्रमाद होकर यम सल्लेखना भी उन्होंने अंगीकार कर ली थी।
यह विचित्र संयोग है कि आचार्यश्री ज्ञानसागरजी और एक-दो आचार्यों की सल्लेखना को छोड़कर प्रायः बाद में आचार्यों को यम-सल्लेखना का सुयोग नहीं मिल पाया। कई उदाहरण सामने आ चुके हैं कि अन्त तक आचार्य पद का त्याग किये बिना, और सल्लेखनापूर्वक, यम रूप से आहार आदि का त्याग किये बिना ही आचार्य भगवन्तों का समाधि-मरण प्रायः हुआ
है। जबकि इसके विपरीत मुनि पद से अनेक महाराजों ने उत्तम - सल्लेखना-मरण प्राप्त किया है। इस सन्दर्भ में इन दोनों पूज्य आचार्यों ने
जो उदाहरण सामने रखे थे, ऐसा लगता है कि उन्हें विस्मृत कर दिया गया
.
है।
व्यावर का अविस्मरणीय चौमासा
दोनों संतों का साक्षात्कार तो शायद दो-तीन बार हुआ है, परन्तु राजस्थान की व्यावर नगरी में संवत् 1990 (सन् 1933) में दोनों संघों का एक साथ जो सम्मिलित चातुर्मास सम्पन्न हुआ, उससे दोनों आचार्यों की वन्दनीय महानता की छाप इतिहास पर पड़ी है।
व्यावर का अनोखा चातुर्मास वास्तव में बीसवीं शताब्दी के TE जैन-संस्कृति के इतिहास का एक दुर्लभ पृष्ठ है। दक्षिण के साथ उत्तर भारत
का, कन्नड़ और मराठी के साथ हिन्दी और मेवाड़ी का, तथा बीसपंथ के साथ तेरापंथ का, जैसा अद्भुत, अनाग्रही, और आत्मीयता-पूर्ण समन्वित स्वरूप जैनाजैन जनता ने उस चौमासे में साक्षात् देखा, वैसा अतिशयकारी रूए उसके पूर्व, या उसके पश्चात् कभी, कहीं देखने को नहीं मिला। प्रशममूर्ति आचार्य शान्तिसागर छाणी स्मृति-ग्रन्थ
137 नादार