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हो चुकी थी। उनके नाम पर अनेक स्थानों में कन्या विद्यालय, जैन
पाठशालाएँ, छात्रावास तथा सरस्वती-भवन आदि स्थापित हो चुके थे। जहाँ - भी उनका विहार होता, वहाँ ऐसी संस्थाएँ जन्म ले रही थीं।
इतिहास की आँखों से देखा जाय तो समाज-सुधार और शिक्षा-प्रसार का जो आन्दोलन श्री गणेशप्रसाद वर्णी ने पच्चीस-तीस साल पहले बुन्देलखण्ड में चलाया था, और जिसकी बेलें अन्य अनेक प्रदेशों तक फैल चुकी थीं, मुनिराज श्री शान्तिसागर जी छाणी महाराज ने वैसा ही आन्दोलन तीस के दशक में राजपूताने में चलाया था। इतिहास यह भी प्रमाणित करता है कि इस आन्दोलन में छाणी महाराज को उल्लेखनीय सफलता मिली थी/मिल रही थी।
मुनिश्री के जीवनी लेखक ब्र. भगवानसागरजी उन्हीं के शिष्य थे। गोरखपुर के पंचकल्याणक में महमूदाबाद, जिला सीतापुर निवासी भगवानदास अग्रवाल को सातवीं प्रतिमा के व्रत प्रदान कर मुनिजी ने ही उन्हें ब्र. भगवानसागर बनाया था। भगवानसागरजी अच्छे लेखक थे। इस जीवनी के बाद उन्होंने महाराज की एक और जीवनी लिखी थी जिसमें अग्रहायण शुक्ला एकम् संवत् 1983 से लेकर आश्विन शुक्ला पूनम संवत् 1985 तक के दो वर्षों का वृत्त संकलित किया गया था। सागर निवासी, ईडर प्रवासी पं. शान्तिकुमार जैन शास्त्री ने इस जीवनी की भूमिका लिखी
थी। चौबीसठाणा चर्चा, शान्तिधर्म संग्रह और मुनि शान्तिसागर पूजन के साथ - इस जीवनी का प्रकाशन गिरीडीह में फर्म सेठ हजारीलाल किशोरीलाल के
बाब किशोरीलाल रामचन्द्र जी ने कराया था।
ब्र. भगवानसागरजी ने और भी पुष्कल साहित्य की रचना की थी। आपके द्वारा रचे गये-1. भाषा-पूजन अठत्तरी, 2. समवशरण पाठ सचित्र, 3. श्री शिखर-सम्मेद पाठ, 4. श्री पंचकल्याणक पाठ, 5. श्री त्रिलोकसार पाठ
वचनिका, 6. नेमिचन्द्रिका, 7. पाताल-दश्य, 8. सिद्धान्त-प्रदीपिका.9.शान्ति — धर्म प्रकाश, और 10. श्री शान्ति जैन शतक-इन दस ग्रन्थों की सूचना 51 ब्रह्मचारीजी के चित्र के साथ इन दूसरी जीवनी में छपी है। वहीं यह भी
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प्रशममूर्ति आचार्य शान्तिसागर भणी स्मृति-ग्रन्थ
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