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हमें उनके जीवन में पग-पग पर होते रहते हैं। मन की यही दृढ़ता अनपढ़ है। युवक केवलदास को एक दिन सिद्धक्षेत्र की यात्रा के लिये बलात संचालित करती है और पारसप्रभु के पादमूल में बैठकर त्यागी जीवन अपनाने की हिम्मत दे देती है। मन की यही दृढ़ता उनके सारे सांसारिक मोह-व्यामोह का परिहार करती है और तरह-तरह से यही दृढ़ता उन्हें अकम्पित पगों से, एक-एक IF सीढ़ी चढ़ाती हुई, श्रावक से मुनिः मुनि से आचार्य और आचार्य से सल्लेखना-निरत क्षपक के पद तक पहुँचा देती है। उनके जीवन में ऐसे अनेक प्रसंग उपस्थित होते रहे हैं, जब उनकी संकल्पशीलता और उनकी आस्था को जनमानस की कसौटी पर अपनी स्वर्णरेखा अंकित करनी पड़ी है। समय और समाज दोनों ने उन्हें हर परिस्थिति में, हर ओर से परखकर ही अपने सिर पर बिठाया था। अपने निर्धारित लक्ष्य के प्रति ऐसी एकान्त समर्पण-भावना, और अपने आराध्य के प्रति ऐसी उत्कृष्ट भक्ति उन्हें किसी के उपदेश से नहीं मिली थी। आत्मानुभूति के निसर्गज-संस्कारों के बल पर, स्वयं अपने आप में वैसी पात्रता प्रगट करके ही उन्होंने ये गुण अर्जित किये थे।
आजीवन ब्रह्मचर्य का संकल्प कर लेने पर सातवीं प्रतिमा के व्रत धारण करने के पूर्व पर्वतराज सम्मेदाचल की हर टोंक पर जाकर, हर तीर्थकर भगवन्त को अपने संकल्प का साक्षी बनने के लिये निमन्त्रित करना,
और पारस-प्रभु के पादमल में बैठकर अपने भविष्य के प्रति प्रतिबद्ध होना, उनकी इसी सहज और समर्पित भक्ति-भावना को रेखांकित करता है।
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"अनाग्रही दृष्टि" और "व्यावहारिक निर्णय"
स्वयं प्रेरित और स्वयं दीक्षित छाणी महाराज को हर प्रसंग में अपने अनुभवों से ही सीखना था। अपने आप अपनी प्रगति का आकलन करके पग-पग पर अपने आप को नियंत्रित करना था। यही कारण था कि समय-समय पर स्वयं अपनी समीक्षा करके उन्होंने अपनी भूलों का परिमार्जन किया। उन्हें जब जैसा उचित लगा, अपनी चर्या में वैसा परिवर्तन करने में उन्होंने कभी संकोच या प्रमाद नहीं किया। अपनी किसी भी धारणा के प्रति आग्रह उनके
मन में कभी नहीं रहा। उनकी इस सरलता को प्रमाणित करने वाली एक-दो - घटनाएँ यहाँ प्रस्तुत हैं1 प्रशममूर्ति आचार्य शान्तिसागर गणी स्मृति-ग्रन्थ
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