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काश, आज का शिष्यवर्ग ऐसे उदाहरणों से कुछ प्रेरणा प्राप्त कर सके और गुरु-दक्षिणा के रूप में ही क्यों न हो, अपने गुरु का गुणानुवाद करने का प्रयास करे तो अनेक पूज्य-पुरुषों के जीवन के अनेक प्रेरक-प्रसंग जन-सामान्य के समक्ष उद्घाटित होकर उसकी प्रेरणा का अजस्र स्रोत बन सकते हैं। इस सन्दर्भ में एक यह तथ्य भी ध्यान में रखा जाना चाहिये कि सुयोग्य शिष्य क्षमता के अनुरूप यदि अपने गुरु के संस्मरण लिखकर अपनी कृतज्ञता ज्ञापन नहीं करता, तो उन महापुरुष के जीवन की घटनाएँ सदा के लिये अनावृत्त ही रह जायेंगी, क्योंकि साक्षात् शिष्य के बाद की पीढ़ी यह कार्य कर ही नहीं सकेगी। घटनाओं का जीवन्त चित्रण तो अनुभवन के आधार पर ही किया जा सकता है। मात्र सुनकर वैसा प्राणवान् लेखन सम्भव नहीं होता । छाणीजी के जीवन-चरित की भूमिका में बाबू कामताप्रसादजी ने लिखा था - " अंत में हमारी हार्दिक भावना है कि जिस तरह ब्र. भगवानसागरजी ने मुनि शान्तिसागरजी का चरित्र लिखा है, वैसे ही अन्य विद्वान् दूसरे मुनि महाराजों के चरित्र रचकर जैन साधुओं की महत्वशाली जीवनी का परिचय सर्व साधारण को कराकर पुण्योपार्जन करें।" इतिहास साक्षी है कि पैंसठ साल में भी बाबू कामताप्रसादजी की भावना की बेल में फल-फूल लगने अभी प्रारम्भ नहीं हुए हैं।
यह आलेख लिखते समय मेरी कठिनाई यह है कि मुझे आचार्यश्री के दर्शनों का सौभाग्य नहीं मिला। उनके बारे में पढ़कर और सुनकर ही मैंने कुछ थोड़ी सी जानकारी प्राप्त की। मैं देखता हूँ कि यही कठिनाई अग्रज बाबू कामताप्रसादजी के समक्ष उस समय थी, जब वे 1927 में महाराज की जीवनी की भूमिका लिख रहे थे। अन्तर केवल यह है कि उस समय यदि बाबूजी चाहते तो जाकर महाराज का दर्शन कर सकते थे, परन्तु आज मेरा ऐसा भी भाग्य नहीं है, फिर भी मैं अपनी इस विवशता को समाधान देने के लिये, प्रथम जीवनी की भूमिका में से स्व. बाबूजी के ही शब्द उद्धृत करके अपने आपको स्पष्ट करने का प्रयत्न करता हूँ। उन्होंने लिखा था
- "श्री शान्तिसागर जी महाराज के प्रस्तुत चरित्र के लेखक ब्र. भगवानसागरजी ने मुझसे इस पुस्तिका के लिये "आदि के दो शब्द" लिख देने का विशेष अनुरोध किया है। किन्तु मैं मुनि शान्तिसागरजी के जीवन
सन्दर्भों से परिचित नहीं हूँ, यहाँ तक कि अभी तक मुझको उनके दर्शन करने
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प्रशममूर्ति आचार्य शान्तिसागर छाणी स्मृति ग्रन्थ
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