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ने अपना जीवन परिवर्तन करके जैनेश्वरी दीक्षा धारण की। इनमें उल्लेखनीय नाम हैं--परमपूज्य 108 श्री आचार्य सूर्यसागर जी महाराज का। आचार्य सूर्यसागर जी महाराज आपके प्रथम पट्टाधीश शिष्य थे। आपका जीवन भी बडा आदर्शमय था। विचारों में उदारता, और हृदय में विशालता थी। मैंने स्वयं प्रत्यक्ष में देखा था-वे गांवों में छोटी से छोटी जाति को संबोधित करके मद्य, मांस और मधु का त्याग कराते थे। आपमें प्रदर्शन की भावना नहीं थी। रात्रि में भयंकर श्मशान भूमि में जाकर एकांत साधना किया करते थे। आपका आहार भी साधारण था, वही आहार ग्रहण करते थे जो श्रावक नित्य स्वंय के लिए बनाता था। आप कभी आहार में किसी भी फल विशेष को नहीं लेते थे। वे प्रवचन में कहा करते थे, जिस चीज का उपयोग श्रावक अपने भोजन में नहीं करते, कम से कम वे चीजें तो साधु को आहार में नहीं दें। साधु को वही आहार देना चाहिए जिससे उनका साधनामय जीवन बना रहे। महाराज श्री की परंपरा में ही आज हमें 108 श्री उपाध्याय ज्ञानसागर जी जैसे संतों के दर्शन हो रहे हैं, जिससे आज हम धन्य हैं। अंत में उन आदर्श सन्त परम पूज्य 108 श्री आचार्य शान्तिसागर जी महाराज के चरणों में श्रद्धा अर्पित करता हुआ यही भावना भाता हूँ, कि हमें भी वह आदर्श जीवन प्राप्त
हो।
उज्जैन
सत्यन्धर कुमार सेठी
स्वयंबुद्ध महान् तपस्वी आचार्य महाराज शान्तिसागर (छाणी) को मैं "स्वयंबुद्ध" मुनि मानता हूँ। अन्य दीक्षाचार्य के अभाव में तीर्थराज सम्मेदशिखर पर भगवान पार्श्वनाथ के प्रतिबिम्ब को साक्षी बनाकर बह्मचर्य व्रत लेना एवं बांसवाड़ा में विधान के समय 1008 श्री आदिनाथ भगवान् की प्रतिमा के सामने क्षुल्लक दीक्षा
लेना यह सब बिना आन्तरिक प्रेरणा व आत्मकल्याण की भावना के बिना ा नहीं हो सकता, फिर क्षुल्लक अवस्था में 30 दिन का उपवास बिना पूर्व परंपरा
के रखना अपने आप में तत्कालीन अभूतपूर्व अद्वितीय घटना थी। जो आत्मकल्याण हेतु कठोर साधना की प्रतीक थी। लोकैषणा, लौकिकाभ्युदय की लेशमात्र भी चाह नहीं थी। प्रशममूर्ति आचार्य शान्तिसागर छाणी स्मृति-ग्रन्थ
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