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वसन छोड़ दिये तो वासनायें भी गला दी
दिगम्बर जैन मुनि/आचार्य उद्दिष्ट आहार के त्यागी होते है। केवल मुनि के निमित्त से बनाया गया आहार. वे ग्रहण नहीं करते। मुनि के छह प्रकार के बाह्य तप में चार का सम्बन्ध मुनि की "आहार प्रविधि" में निरासक्त वृत्ति के लिए अभिप्रेत है।
जैनियों के घरों में चौके की पात्रता अब तो खोजनी या बनानी पड़ती है। किसी त्यागी/व्रती के लिए, हाथ की चक्की का आटा और कुएं का शुद्ध जल, नगरों की बात छोड़िये, गांव में भी खोजना पड़ता है। शोध की वैज्ञानिकता, मात्र बाहरी हाइजिनिक रह गई है, अहिंसात्मक नहीं। ऐसे माहौल में, मुनि आहार के लिए चौका एक विशेष तैयारी का उपक्रम बन गया है। खानपान की बिगड़ती स्थिति ने "जैन चौका" पर एक प्रश्न चिह्न लगा दिया है?
आज से 50 वर्ष पूर्व मुनि आहार किसी भी जैन परिवार के चौके के लिए एक सहज/सामान्य बात थी। उस समय मुनि भी "वृत्तिपरिसंख्यान" तप का कठोरता से पालन करते थे। क्योंकि हर गांव/नगर "आहार" के महत पुण्य भाव को प्राप्त कर लेना चाहता था।
इस सन्दर्भ में पू.आ. शान्तिसागर जी महाराज (छाणी) का एक अनोखा संस्मरण, मैंने बचपन में अपनी मां के द्वारा सुना था। ग्राम मडावरा (ललितपुर) लेखक का गृह गांव है। संवत् 1996 के पूर्व की घटना है। मुनि श्री का मड़ावरा ग्राम में पदार्पण हुआ था। मुनि श्री को विराजमान हुए यह चौथा TE दिन था। पूरा गांव इस कौतूहल में था कि आज मुनि शान्तिसागर जी के आहार ग्रहण करने की कौन सी प्रतिज्ञा है। गाँव की पूरी एक परिक्रमा हो 4 गई. लेकिन आहार विधि का योग, किसी श्रावक के दरवाजे पर प्राप्त नहीं हो पा रहा है। जैन दम्पति/परिवार के अन्य सदस्य "पड़गाहन" के लिए अपने-अपने द्वार पर खड़े होकर अनेक प्रकार से योग मिला रहे हैं। कहीं 3 कन्याएं तो कहीं 5 कन्याएं खड़ी हैं। कहीं दम्पत्ति सफेद वस्त्रों में तो कहीं पीली धोती में। कई कलशों की संख्या बदली जा रही है, तो कहीं
. प्रशममूर्ति आचार्य शान्तिसागर छाणी स्मृति-ग्रन्थ -1
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