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स० २०३०
AMAMARANA RANAMAMAANADANANA ॥ श्री ॥
श्री सिद्ध चक्र विधान
सशोधित सस्करण [ पं० संतलालजी कृत ]
प्रकाशक
वीर पुस्तक भंडार मनिहारो का रास्ता, जयपुर-३
[ मूल्य ७) रुपये
श्री वीर प्रेस, जयपुर। फ
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मिद्ध वि.
卐 दो शब्द) सिद्धचक्र विधान का समाज मे काफी प्रचलन है । गत २०-२५ वर्षों में इसका प्रचार काफी बढा है । फलत विभिन्न प्रकाशको द्वारा अनेक बार यह पूजा छप चुकी है। पर हर सस्करण मे अशुद्धिया रह ही गई हैं। एक बार अशुद्ध छपजाने पर उसका सशोधन नहीं होपाता । हम इस प्रयत्न मे थे कि इसका किसी शुद्ध प्रतिसे मिलान करके छापे तो ठीक हो । नकुड निवासी श्रीमान् सेठ नरेशचन्द्रजी साहब जैन रईस सर्राफ से इस सम्बन्ध मे पत्र व्यवहार हुआ । और हम उनके अत्यन्त आभारी हैं कि उनने कवि सतलालजी की स्व-हस्त लिखित प्रति से मिलान करके एक मुद्रित प्रति हमारे पास भेजी जिसके अनुसार हम इस पुस्तक मे सशोधन कर पाये हैं । हमारे यहा से प्रकाशित पूर्व सस्करण के समाप्त होजाने से पुस्तक पुन छपाने की जल्दी थी, अत नकुड से सशोधित प्रति आने से पूर्व पुस्तक प्रेस मे छपने देदी गई । १२८ पृष्ठ छप जाने के वाद हमे वह प्रति मिली-प्रत शुद्धि पत्र देना पडा है–पाठक उससे शुद्ध करने के बाद ही पूजन पढे-ऐसा विनम्र निवेदन है।
इस भाषा सिद्धचक्र विधान के रचयिता कवि सन्तलालजो हैं जो सहारनपुर के कस्बा नकुड के रहने वाले थे। इनके पिता का नाम श्री सज्जन कुमारजी था। ये सहारनपुर के
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numan
प्रतिष्ठित घराने में लाना शीलचन्दजी के वशज थे । कविवर का जन्म सन् १८३४ मे हुआ। कवि के सस्कार प्रारभ से ही धार्मिक थे जो माता पिता से विरासत मे मिले थे । परिवार
के सब लोग धर्मात्मा थे । आपने रुडकी कालेज मे अध्ययन किया। साहित्य से आपको प्रेम सिद्ध था। सिद्धचक्र की हिन्दी पूजा न होनेसे आपने इसका विचार किया और प्रस्तुत रचना वि०, कर डाली । इस पूजन मे जगह जगह जो जैन सिद्धान्त सम्बन्धी विवरण आया है-उमसे
आपके सैद्धान्तिक ज्ञान का भली प्रकार परिचय मिलता है। आप विद्वान् थे, कवि थे और है भक्त थे। जैन धर्म पर किसी प्रकार का आघात पाप सहन नहीं करते थे। आर्य समाज । के साथ कई बार आपके शास्त्रार्थ हुए-जिसमे आप विजयी रहे । आप स्वतत्र व्यवमायी थे, आपने नौकरी नहीं की। आप सुधारवादी विचारो के थे-समाज में व्याप्त कई रूढियो । और कुरीतियो के निवारण मे आप और आपके परिवार ने काफी योगदान किया है। जैन ! विवाहविधि के अनुसार विवाह कराने की परिपाटी उस प्रान्त मे आपने चलाई। मिथ्यात्व १ वर्धक कई रूढियो को आपने मिटाया । आप अधिक नही जिये अन्यथा और कई कार्य आप १ कर जाते । ५२ वर्ष की आयु मे जून सन् १८८६ मे आपका स्वर्गवास हो गया। आपने सिद्ध
चक्र मडल विधान के अतिरिक्त भी कुछ पूजाये एव अनेक भजन लिखे हैं । भजनो का संग्रह । । नकुड मे श्री नरेशचन्दजी साहब रईस के पास है-जिसे प्रकाशित करना चाहिए।
हमे यह सक्षिप्त परिचय श्री नरेशचन्दजी द्वारा ही प्राप्त हुआ है । हम उनके अत्यन्त ।
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आभारी है । कवि की अन्य रचनामो एवं परिचय के बारे में और सामग्री एकत्र की जाने सिद्ध का प्रयत्न किया जाना चाहिए, ताकि उनका पूरा जीवन परिचय और उनकी साहित्य वि० सेवाओ का मूल्याकन होसके । अन्त मे एक बार पुन श्री नरेशचन्दजी साहब को धन्यवा अर्पण है कि उनने एक सशोधित प्रति और यह परिचय भेजा।
पाठको से भी निवेदन है कि इस प्रकार पूर्ण ध्यान रखते हुए भी अनेक अशुद्धिया इस पुस्तक मे छप गई होगी–कृपया उन्हे सूचित करे। ताकि आगामी सस्करण शुद्ध छप ६ सके। प्रारभिक पृष्ठो मे सशोधन करने मे पूजको को कष्ट होगा-उसके लिए क्षमा प्रार्थी हैं।
दीपावली स० २०३० बी०नि० २५००
प्रकाशक
अष्टम
RAN MANI
पूजा
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दर्व
२०
शुद्धाशुद्धि पत्र पृष्ठ पक्ति अशुद्ध
शुद्ध ४ ११ सरेफ हकार सुरेफ सुविदुहकार १७५ अछेद
अदूज १ ह्रीकार अन्त ह्री
६ चाहूँ, ज्ञेय
चहुँ गुरण गैह १३ इस शुभ इम धरि
२ अविकार विकार ८ ४ दर्प
8 अधिकार्थ अधिकाय , १२ कर्मनशाय युग क्रमावर्तनशाय
१४ (जाप्य यहा के बजाय जयमाला प्रकृति युगपत
के अन्त मे देना चाहिए ) १४ अछेद अदूज
२२ ११ सरेफ विन्दु हकार सुरेफ सुविंदु हकार १ ज्ञेय गेह
२३ १० प्रभु पूजो तुम पूजो १० १ इन्द्रिय नाही इन्द्रिय ताही
(टेर मे ठीक करे ) १० १३ (जाप्य मंत्र यहा न पढकर जयमाला | २६ १२ अछेद अदूज के वाद मे करे)
, १३ चाहूँ, ज्ञेय चहुँ गुरण गेह ५ दुखकरण उपकरण |३३ ७ काम
पाप , वाध व्याध
___E (जयमाला यही से चालू करे) १४ विकारहुत पर का विकार १२ (यहा अर्घ नहीं चढाना तथा जाप्यमत्र ५ सरेफ विदुहकार सुरेफ सुविंदु हकार
जय माला के बाद पढन ) ( हासियापर प्रथम पूजा आदि कई जगह ८ दहन की
दहन दौं गलत छप गई हैं, पूजानुसार ठीक करले) ३५ ५ विदुहकार सुर्विदुहकार १५ १२ को कहा हो कहाँ
५ भूखा
भूखा १३ उधार उधार
३८ ८ (पृष्ठ ५१ मे छपा 'निर्मल सलिल " १७ १ करि वर
आदि अर्घ यहा बोले)
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/७३
मन
पृष्ठ पक्ति अशुद्ध ।
पृष्ठ पक्ति अशुद्ध ४२ ५ जतु जियही ततु जिय ।
ह जिन
निज ४४ १४ सुख धामको सुर बामको
४ भावी
भाषो १४ तन
१३ जिन
बिन ४६ १० करती करत ही
८ विनवै
बिलसै १० (निर्मल सलिल पृष्ठ ३८ मे पढ़ें) १५ भवछेदकाय वध छेदकाय ५२ ३ चाहँ, ज्ञेय चहुँ गुण गेह । ८५ १० (यहा से जयमाला प्रारभ है) ४ (यहा जाप्य न देकर जयमाला के
१ (जाप्यमत्र जयमाला के अन्त मे दे) वाद देवे )
३ शरीर सरीख १० निरसता सरसता
३ बिन्दु हकार सुविन्दु हकार १२ जिन निज
८ तान ८ बिंदु हकार सुर्विदु हकार
१ अभय चाहूँ
अभेय चहुँ गुण १३ समय
सम्यक् ११ नत्र मत्र
१०४
& त्रिजग की तिर्यग की १२ नाशको नाग को
३ निर्मल निर्वले ११ सुमरण सुरगग्ग
१०६ २ नाही
ताही ७ विलास विशाल
१२२ ९ निजवासधात निजवासघात २ करी
१२२ १० प्रकाराथिर प्रकाराऽथिर ५८७ अछेद
अदूज
१२८ ८ चाहूँ, ज्ञेय चहूँ गुण गेह१५१७ विदु हकार सुविन्दु हकार ९-१० हैडिंग से पहले अर्ध चढाने का मत्र पढे १५६ ४ अछेद
अदूज ६२ ४ नित नत निज अनन्त २३१ १३ हो
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ताग
६७
१०५
सुरी
भाग
काज
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श्री सिद्धचक्र विधान का महत्व एवं उसकी विधि
जैनो की आवश्यक क्रियानो मे देव पूजा का प्रमुख स्थान है। प्राचार्य कुन्दकुन्द ने ! दान और पूजा को श्रावक की मुख्य क्रियाओ मे गिनाया है । जैन शास्त्रो मे अनेक पूजा विधान है वर्णित है, उन सबका उद्देश्य मानव की शाति के लिए है । शुद्ध भावो से की गई पूजा-आराधना रे से भावो मे निर्मलता-आती है जो मनुष्य को वीतरागता की ओर ले जाती है तथा इस लोक ! एव परलोक मे सुख शान्ति प्राप्त कराती है । सिद्धचक्र पूजा भी उनमे से एक है। वैसे यह । पूजा पर्व विशेप की न होकर नित्य पूजा ही है। पूजा के पाच भेदो मे से नित्य पूजा मे ही।
इसको समझा जाना चाहिए किन्तु सिद्धचक्र विधान को अष्टाह्निका पर्व मे ही करने का १ समाज मे प्रचलन है। ये दिन पवित्र होते हैं। सती मैना सुन्दरी ने इस विधान को अष्टाह्निका १ पर्व मे किया था और उससे श्रीपाल आदि का कुष्ठ रोग दूर हुआ था। इसीसे लोग इसे ।
अष्टाह्निका पर्व मे करने लग गये हैं । वैसे अष्टाह्निका का सम्बन्ध नन्दीश्वर विधान से है। अस्तु । पूजा किसी भी समय मे की जाय, शुभ फल देने वाली ही है।
यह पूजा सिद्ध भगवान के गुणो की पूजा है । सिद्धचक्र का अर्थ है 'मुक्त आत्मानो का ? चक्र-मण्डल-समूह' । सिद्ध भगवान के आठ गुणो को लेकर प्रथम पूजा है। फिर कर्म - तियो की व्युच्छित्ति की अपेक्षा से द्विगुणित द्विगुणित अर्घ बढते जाते हैं । अर्थात् दूसरे दिन ।
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१६, फिर ३२, ६४, १२८, २५६, ५१२ एवं १०२४ क्रमश बढते जाते हैं। अष्टाह्निका में , अष्टमी से लेकर पूर्णमासी तक यह पूजा की जाती है और नवें दिन जाप्य, शाति विसर्जन होम आदि किया जाता है।
सिद्ध०
वि०
पूर्ण विधान करने वाले सज्जनो को पूजन प्रारम्भ करने के साथ ही जाप्य पहले। प्रारम्भ कर देना चाहिए । उत्कृष्ट जाप्य सवालाख माना गया है । जाप्य एक व्यक्ति अथवा कई व्यक्ति कर सकते हैं । प्रतिदिन निश्चित संख्या मे जाप्य करके नवें दिन पूर्ण करके हवन । करना चाहिए । जाप्य करने वाला शुद्ध वस्त्र पहन कर मनसा वाचा कर्मणा शुद्ध होकर जाप्य करे । इन दिनो मयम व ब्रह्मचर्य पूर्वक रहे, मर्यादित भोजन करे तथा जमीन या तख्त पर। सोवे । जाप्य प्रात एव सायं दोनो बार किये जा सकते हैं । जाप्य प्रारम्भ करने मे जो बैठे उन्हे ही जाप्य पूरे करने चाहिए। यदि सवा लाख न कर सके तो एक लाख अथवा ५१ हजार अथवा कम से कम ८००० तो करे ही । जाप्य मत्र-ॐ ह्री असि आ उ सा अनाहत:विद्यायै नम' अथवा 'ॐ ह्री असि आ उ सा नम' होने चाहिए ।
___ मडल गोलाकार बनाना चाहिए जैसा छपे हुए नक्शे मे दिया गया है । त्रिकोण मंडल पूजा भी होते हैं । मडल के बीच मे सिंहासन मे यत्रराज स्थापित करना चाहिए और चारो कोनो ४ मे चार अक्षत सुपारी हल्दो आदि मागलिक द्रव्यो से युक्त मगल कलश रखने चाहिए। वे
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सिद्ध
लाल कपडे और श्रीफल से ढके हुए होना चाहिए। मडप को अष्ट प्रातिहार्य, छत्र, चवर आदि से सजाया जा सकता है ।
पूजा अभिषेक पूर्वक यदि करना हो तो अभिषेक पाठ पढकर अभिषेक करे, फिर दैनिक पूजा करके यह पूजा प्रारम्भ करे। सामग्री मडल पर न चढा कर थाल रकाबी मे ही चढाना चाहिए । आठ दिन तक मडल पर सामग्री पडी रहने से जीवोत्पत्ति हो जाती है ।
आठ दिन पूजा करने के पश्चात् नवे दिन पूर्णाहति करे। उस दिन कुड बनावे, १ चौकोर (तीयंकर) कु ड एक हाथ (मुट्ठिवाघे) लम्बा चौडा और गहरा होना चाहिए । इसमे । तीन कटनिया हो -पहली ५ अगुल की ऊ ची चौडी, दूसरी ४ अगुल ऊ ची चौडी तथा तीसरी, ३ अगुल की हो । चौकोर कुण्ड बीच मे हो, उसके उत्तर की ओर गोल कुण्ड (गणधर कुण्ड) हो और दक्षिण की ओर त्रिकोण कुण्ड (सामान्य केवली कुण्ड) हो । यदि ऐसा सम्भव न हो ? तो एक कुण्ड मे भी तीनो आकार बनाये जा सकते है। कुण्डो के चारो ओर लकडीकी है खूटियाँ गाडकर अथवा कलश रखकर मौली वाधना चाहिए । “उस समय ॐ ह्री अहं पचवण, । सूत्रेण त्रीन वारान् वेप्टयामि" यह मत्र पढना चाहिए।
जितने जाप्य किये जावे उसके दशमाश जाप्य मत्र की आहूतिया दी जानी चाहिए। । यदि सवालाख जाप्य किये हो तो माढे बारह हजार आहूतिया दी जानी चाहिए। हवन की
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14 वि, सामग्री शुद्ध प्राक, ढाक, पलास आदि की समिध, दशाग धूप, छाड, छवीला, ग्वस आदि मुग१.न्धित द्रव्य, मेवा, वूरा, वृत आदि शक्त्यनुसार लेना चाहिए। यह मक्षेप मे इस विधान की विधि है।
अभिषेक पूर्वक विधान सिद्धचक्र विधान की विधि ऊपर बताई जा चुकी है। जिन्हे अभिपक आदि पूर्वक १ विधान करना हो वे निम्न प्रकार से करे -सर्व प्रथम जल शुद्वि करना चाहिए ।
॥ जल शुद्धि मत्र । हा ह्रीं ह्र. ह्रीं ह्रः नमोऽहते भगवते श्रीमते पद्म-महापद्म-तिगिछ-केसरि-पुण्डरोकमहापुंडरीक-गगा-सिंधु-रोहिद्रोहितास्या-हरिद्धरिकाता-सीता-सोतोदा-नारी-नरकांतासुवर्णरूप्यकूला-रक्ता-रक्तोदा-पयोधि-शुद्ध-जल-सुवर्ण-घट-प्रक्षिप्त-नवरत्न-गधाक्षतपुष्पाचितमामोदक पवित्र कुरु कुरु झ झ झीँ झी व व ह ह स स तं त प पं द्रा द्रा द्री द्रों ह स. स्वाहा ।। । अङ्ग शुद्धि-सौगध्य-सगत-मधुव्रत-झकृतेन संवर्ण्यमानमिव गंधमनिन्द्यमादौ।।
आरोपयामि विबुधेश्वर-वृन्द-वन्य पादारविंदमभिवद्य जिनोत्तमानाम् ॥ ॐ ह्री अमृते अमृतोद्भवे अमृतवपिणि अमृत स्रावय स्रावय स म क्ली क्ली ब्लू ब्लू द्रा द्रा
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मिद्ध० दी द्री द्रावय द्रावय स ह क्ष्वी वी ह स स्वाहा । ॐ ह्रा ह्री ह ह्री ह्र असिग्राउमा अस्य। वि०६ सर्वाङ्गशुद्धिं कुरु कुरु स्वाहा ।। गन्ध आरोपयामि ।। (सारे शरीर पर हाथ फेरे) । १११ वस्त्र शुद्धि-धौतान्तरीयं विधु-कान्ति-सूत्रः सद्ग्रन्थित धौत-नवीन-शुद्धम् ।
नग्नत्व-लब्धिर्न भवेच्च यावत् सघायंते भूषणमूरुभूम्याः ।। सव्यानमचद्दशया विभान्तमखड-धौताभिनव-मृदुत्वम् ।
सधार्यते पीत-सिताशु-वर्णमंशोपरिष्टाद् धृत-भूषणाकम् ।। तिलक-पात्रेऽपितं चदनमौषधोशं शुभ्र सुगंधाहत-चचरीक ।
स्थाने नवाके तिलकाय चर्य न केवलं देह-विकार-हेतोः ।।
ॐ ह्रा ह्री ह. ह्रौ ह्र असिग्राउसा मम सर्वाङ्गशुद्धिं कुरु कुरु स्वाहा । (रक्षा बधन (कटक)-सम्यक्-पिनद्ध-नव-निमल-रत्न-पक्तिरोचिर्व हवलय-जात-बहु-प्रकार)
___ कल्याण निर्मितमह कटक जिनेश-पूजा विधान-ललिते स्वकरे करोमि ।
ॐ ह्री णमो अरहताण रक्ष रक्ष स्वाहा इति ककरण अवधारयामि । (मुद्रिका धारण)-प्रत्युप्त-नील-कुलिशोपल-पद्म-राग-निर्यकर-प्रकरबद्ध-सुरेन्द्रचापम् ।
जनाभिषेक-समयेऽगुलि-पर्व-मूले रत्नागुलीयकमह विनिवेशयामि ।। ॐ ह्री रत्नमुद्रिका अवधारयामि स्वाहा । (अनामिका मे अटी पहरे)
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(यज्ञोपवीतधारण)-पूर्व पवित्रतर-सूत्र-विनिर्मितं यत् प्रीतः प्रजापतिरकल्पयदंगसगि।। सिद्ध० सद्भूषणं जिनमहे निजकन्धरायां यज्ञोपवीतमहमेष तदाऽऽतनोमि ।।
ॐ नम परमशान्ताय शान्तिकराय पवित्रीकृतायाह रत्नत्रयस्वरूप यज्ञोपवीतं दधामि, १२ मम गात्र पवित्र भवतु अहँ नम स्वाहा। (मुकुटधारण)-पुन्नाग-चंपक-पयोरुह-किकरात-जाति-प्रसून-नव-केशर-कुन्दमाद्यम् ।
देव ! त्वदीय-पद-पकज-सत्प्रसादात मूनि प्रणामवति शेखरक दधेऽहम् ॥
ॐ ह्री मुकुट अवधारयामि स्वाहा । कुण्डल धारण-एकत्र भास्वानपरत्र सोमः सेवा विधातुं जिनपस्य भक्त्या ।
___रूप परावृत्य च कुण्डलस्य मिषादवाप्ते इव कुण्डले दे।
ॐ ह्री कु डल अवधारयामि स्वाहा । हार धारण-मुक्तावली-गोस्तन-चन्द्रमाला-विभूषणान्युत्तम-नाक-भाजां।
___ यथार्ह-संसर्गमतानि यज्ञ-लक्ष्मी-समालिंगन-कृद्दघेऽहम् ॥ ॐ ह्री हार अवधारयामि स्वाहा ।
इस प्रकार अलकार आभूपण धारण करके स्नान योग्य भूमि का प्रक्षालन निम्न प्रकार करना चाहिए।
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भूमि शुद्धि विधान
Stray से निम्न प्रकार मंत्र पढकर भूमि का शोधन करे । ॐ ह्री वातकुमाराय सर्व - विघ्नविनाशाय मही पूता कुरु कुरु ह्र फट् स्वाहा । इसके पश्चात् निम्न श्लोक एव मत्र पढकर डाभ के पूले को जल मे भिगोकर भूमि पर छिड़कते समय यह मन्त्र पढे ।
संति केचिदिह दिव्य -कुल- प्रसूता नागा प्रभूत-बल-दर्प- युता विबोधाः । संरक्षरणार्थममृतेन शुमेन तेषां प्रक्षालयामि पुरतः स्नपनस्य भूमिम् ॥ ॐ क्षा श्री क्ष क्षक्ष ॐ ह्री प्रहं मेघकुमाराय वरा प्रक्षालय प्रक्षालय र ग्रह त स्व झ य क्ष पट् स्वाहा ।
इसके बाद मडप रक्षार्थ चार प्रकार के देव तथा दिक्पालो को बुलावे और मडप के चारो ओर पुष्पक्षेपण करे ।
चतुरंगकायामरसंघ एष प्रागत्य यज्ञे विधिना नियोगम् ।
स्वीकृत्य भक्त्या हि यथार्हदेशे सुस्था भवंत्वान्हिक कल्पनायाम् ॥
हमारे इस जिन पूजा विधान मे हे भवनवासी, व्यतर, ज्योतिष्क एव कल्पवासी देवो । पधार कर अपने नियोग को स्वीकार करो और जिन सेवा मे तत्पर हो तिष्ठो ।
( पुष्पक्षेपण करे )
तत्पश्चात् वास्तुकुमार जातिके देवो को कहे और पुष्पक्षेपण करे ।
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पायात वास्तु-विधिष्ट-सन्निवेशा योग्याश-भाग-परिपुष्ट-वपु प्रदेशा । अस्मिन्मखे रुचिर-सुस्थित-भूषणाके सुस्था यथार्ह-विधिना जिन-भक्ति-भाज. ॥
हे वास्तु कुमार जाति के देवो | हमारे इस पूजा विधान मे स्वकीय योग्य अश भाग से परिपुष्ट शरीर युक्त एव सुन्दर प्राभूपणो को धारण करके भगवान की भक्ति मे मलान हो पधारो एव समुचित स्थान पर विराजो।
बाद मे पवनकुमार जाति के देवो को कहे और पुष्पक्षेपण करे। आयात मारुतसुराः पवनोद्भटाशाः, सघट्ट-सलसित-निर्मलतातरीक्षा ।
वात्यादि-दोष-परिभूत-वसुन्धराया, प्रत्यूह-कर्म-निखिल परिमार्जयन्तु ।।
आकाश एव दिशाओ को पवन द्वारा शुद्ध करने वाले हे वायुकुमार देवो | हमारे इस । पूजा विधान यज्ञ मे आकर वायु सम्वन्धी विघ्नो को दूर करो।
फिर मेघकुमार जाति के देवो से कहे और पुष्पक्षेपण करे। आयात निर्मलन भ'कृतसन्निवेशा मेघासुरा प्रमदभारनमच्छिरस्काः ।
अस्मिन्मखे विकृतविक्रियया निताते सुस्था भवन्तु जिनक्तिमुदाहरन्तु ।।
स्वच्छ आकाश से युक्त हे मेघकुमार जाति के देवो । हमारे इस पूजा विधान मे आकर १४ तिष्ठो एव मेघ सम्बन्धी समस्त उपद्रवो को दूर करो।
तत्पश्चात् अग्निकुमार देवो से कहे और पुष्पक्षेपण करे।
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सिद्धन
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आयात पावक-सराः सुर-राजपूज्य-सस्थापना-विधिषु सस्कृत-विक्रियाहाः। स्थाने यथोचितकृते परिबद्ध-कक्षाः संतु श्रिय लभत पुण्य-समाज-भाजा ॥5
हे अग्निकुमार जाति के देवो । इन्द्रो द्वारा पूजनीय भगवान के इस पूजा विधान में आकर तिष्ठो एव अग्नि सम्वन्धी समस्त उपद्रवो को दूर करो।
फिर नागकुमार देवो को कहे और पूष्पक्षेपण करे । नागा:समाविशत भूतल-निवेशाः स्वा भक्तिमुत्रसित-गात्रतया-प्रकाश्य !
प्राशी-विषादि-कृत-विघ्नविनाश-हेतो स्वस्था भवतु निज-योग्य-महासनेषु ।।
भूतल मे निवास करने वाले हे नागकूमार जाति के देवो हमारे इस पूजा वि आशीविप आदि सर्व विघ्नो को दूर करो एव उचित स्थान पर तिष्ठो।
भूमि शोधन के पश्चात् जहा श्री जी लाकर विराजमान करना हो वहा पीठ प्रधान, निम्न प्रलोक बोलकर करे। क्षीरार्णवस्य पयसां शुचिभिः प्रवाहैः प्रक्षालितं सुर-वरैर्यदनेक-वारम् ।
__ अत्युद्यमद्य तदह जिनपाद-पीठ प्रक्षालयामि भव-सभव-ताप-हारि ।।
पीठ स्थापन के पश्चात् उसके आगे दश दिग्पालो की स्थापना निम्न प्रलोक बोन-5 कर करे और दश दिशाओ मे पुष्पक्षेपण करे। इन्द्राग्नि-दडधर-नैऋत-पाशपारिण-वायूत्तरेण-शशिमौलि-फरणीन्द्र-चन्द्रा ।।
प्रागत्य यूयमिह सानुचरा सचिन्हाः स्वं स्वं प्रतीच्छत बलि जिनपाभिषेके ।।
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ॐ इन्द्र आगच्छ इन्द्राय स्वाहा, ॐ अग्ने आगच्छ अग्नेय म्वाहा, ॐ यम । आगच्छ । स यमाय स्वाहा, ॐ नैऋत्य । आगच्छ नैऋत्याय स्वाहा, ॐ वरुण | आगच्छ वरुणाय स्वाहा, वि० ॐ पवन आगच्छ पवनाय स्वाहा, ॐ धनद आगच्छ धनदाय स्वाहा, ॐ ईशान | आगच्छ, १६ ईशानाय स्वाहा, ॐधरणेन्द्र | आगच्छ धरणेन्द्राय स्वाहा, ॐसोम आगच्छ सोमाय स्वाहा ।
तत्पश्चात् जिनेन्द्र भगवान की मूर्ति लाकर पूजा स्थान पर रकाबी या जलोठ मे विराजमान करे और प्राशुक जल से निम्न श्लोक बोलकर हवन करे। तत्पश्चात् वेदी मे ! विराजमान करे। दूरावनम्र-सुरनाथ-किरीट-कोटी-संलग्न-रत्न-किरण-च्छवि-धूसराघ्रिम् ।
प्रस्वेद-ताप-मलमुक्तमपि प्रकृष्टैर्भक्त्या जलैजिनपति बहुधार्भािषचे ॥
ॐ ह्री श्रीमत भगवन्त कृपालुसन्त वृषभादिमहावीरपर्यंतचतुर्विंशतितीर्थंकर-परमदेवाभिषेकसमये अद्याना आद्य जम्बूद्वीपे भरतक्षेत्र आर्यखण्डे • देशे • • • नाम्नि नगरे श्रीशुभसम्वत्सरे" मासानामुत्तमे मासे .. पक्षे । “ पर्वणि" शुभदिने मुनिआर्यिकाश्रावकश्राविकाणा सकलकर्म-क्षयार्थ जलेनाभिषिचे नम (भगवानके शिरपरजलधारा) अष्टम
इसके बाद सिद्धयन्त्र प्रक्षाल निम्न मत्र पढते हुए करना चाहिए।
ॐ भूर्भुव स्वरिह एतद्विघ्नौघवारक यन्त्रमह परिषिंचयामि । इस प्रकार हवन करके यन्त्र को मडल मे सिंहासन पर विराजमान करदे । तत्पश्चात् जपस्थान मे बैठकर जो जाप्य जपना हो उसकी एक माला फेरे । जाप्य मत्र निम्न दो मे से कोई एक हो।
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'ॐ ह्रा ह्री ह. ह्रौ ह्र असिग्राउसा सर्वशान्ति कुरु कुरु स्वाहा' अथवा 'ॐ ह्री ६ अर्ह असिआउसा नम'।
फिर निम्न प्रकार श्लोक बोलकर नित्यनियम पूजा, वेदी मे विराजमान भगवान की पूजा, पचमेरु नदीश्वर आदि पूजाये करके सिद्धचक्रयत्र पूजा प्रारभ करे। ८ दिन तक पूजा । सिद्ध करके नवे दिन होम करे। वि० श्रीमन्मदरमस्तके शुचिजलै|ते सदर्भाक्षते, पीठे मुक्तिवर निधाय रचित त्वत्पादपुष्पस्रज । १७६ इंद्रोहं निजभूषणार्थममलं यज्ञोपवीत दधे, मुद्रा-कंकण-शेखराण्यपि तथा जैनाभिषेकोत्सवे ॥
यन्त्र-पूजा 1. परमेष्ठिन् जगत्त्राण-करणे मङ्गलोत्तम । शरण्येतस्तिष्ठतु मे सन्निहितोऽस्तु पावन ।' ३ ॐह्री अर्हन् असिआउसा मगलोत्तमशरणभूता अत्रावतरतावरतरत सवौपट आह्वाननम् ।
ह्री अर्हन् असिआउसा मगलोत्तमशरणभूता अत्र तिष्ठत तिप्ठत ठ ठ स्थापनम् ।। ॐह्री अर्हन् असिआउसा मगलोत्तमशरणभूता अत्र मम सन्निहिता भवत २ वपट् सन्निधापनम पकेरुहायात-पराग-पूजै सौगन्ध्यमदभि सलिलै. पवित्र ।
अर्हत्पदाभापित-मगलादीन प्रत्यूह-नाशार्थमह बजामि ।। ॐ ह्री मगलोत्तम-शरणभूतेभ्य पचपरमेष्ठिभ्य जल निर्वपामीति स्वाहा । काश्मीर-कर्पूर-कृत-द्रवेण, ससार-तापापहृतौ युतेन ।
अर्हत्पदाभापित-मगलादीन प्रत्यूह-नाशार्थमह यजामि ।। ॐ ह्री मगलोत्तम-शरणभूतेभ्य पचपरमेष्ठिभ्य चदन निर्वपामीति स्वाहा ।
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भिद्धा वि० १८
शाल्यक्षतैरक्षत-मूर्तिमद्भि-रब्जादि-वासेन सुगन्धवद्भि ।
अर्हत्पदाभाषित-मगलादीन् प्रत्यूहनाशार्थमह यजामि ॥ ॐ ह्री मगलोत्तम-शरणभूतेभ्य पचपरमेष्ठिम्य अक्षत निर्वपामीति स्वाहा । कदम्ब-जात्यादिभवै सुरद्र मैतिर्मनोजात-विपाश-दः ।
अर्हत्पदाभाषित-मगलादीन् प्रत्यूहनाशार्थमह यजामि ।। ॐ ह्री मगलोत्तम-शरणभूतेभ्य पचपरमेष्ठिभ्य पुष्प निर्वपामीति स्वाहा। पीयूप-पिण्डैश्च शशाक-काति-स्पर्शद्भिरिप्टर्नयन-प्रियैश्च ।
अर्हत्पदाभाषित-मगलादीन् प्रत्यूहनाशार्थमह यजामि ॥ ॐ ह्री मगलोत्तम-शरणभूतेभ्य पचपरमेष्ठिभ्य नैवेद्य निर्वपामीति स्वाहा । ध्वस्ताधकार-प्रसर प्रदीपकृतोद्भवै-रत्न-विनिर्मितैर्वा ।
अर्हत्पदाभापित-मगलादीन् प्रत्यूहनाशार्थमह यजामि ॥ ॐ ह्री मगलोत्तम-शरणभूतेभ्य पचपरमेष्ठिभ्य दीप निर्वपामीति स्वाहा । स्वकीय-धूमेन नभोवकाश-व्याप्तैश्चहृद्ये श्च सुगन्ध-धूपै ।
अर्हत्पदाभाषित-मगलादीन्, प्रत्यूहनाशार्थमह यजामि ।। ॐ ह्री मगलोत्तम-शरणभूतेभ्य पचपरमेष्ठिभ्य धूप निर्वपामीति स्वाहा । नारग-पूगादि-फलैरनयँहन्मानसादि-प्रियतर्पकैश्च ।।
अर्हत्पदाभाषित-मगलादीन् , प्रत्यूहनाशार्थमह यजामि ॥ ॐ ह्री मगलोत्तम-शरणभूतेभ्य पचपरमेष्ठिम्य फल निर्वपामीति स्वाहा । (शार्दूल वि०)-अभश्चदनतन्दुलाक्षत-तरूद्भूतैनिवेद्य वरै ।
दीपैधूप-फलोत्तमै समुदितैरेभि सुवर्ण-स्थितै ॥
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अर्हत्-सिद्ध-सुसूरि-पाठक-मुनीन्, लोकोत्तमान् मगलान् ।
प्रत्यूहोघ-निवृत्तये शुभकृत , सेवे शरण्यानहम् ॥ ॐ ह्री मगलोत्तमशरणभूतेभ्य पचपरमेष्ठिभ्य अयं निर्वपामीति स्वाहा ।
अथ प्रत्येक पूजनम् कल्याण-पञ्चक-कृतोदयमाप्तमीश,-महंतमच्युत-चतुष्टय-भासुरागम् ।
स्याद्वाद-वागमृत-सिन्धु-शशाक-कोटि,-मर्चे जलादिभिरनत-गुणालय तम् ।। ॐ ह्री अनन्तचतुष्टय-समवसरणादि-लक्ष्मी विभ्रते अर्हत्परमेष्ठिने अयं निर्वपामीति स्वाहा, कर्माष्टकेमचयमुत्पथमाशु हुत्वा, सध्यानवह्निविसरे स्वयमात्मवन्तम् ।
नि श्रेयासामृतसरस्यथ सनिनाय, त सिद्धमुच्चपदद परिपूजयामि ।। ॐ ह्री अष्टकर्म-काष्ठगण-भस्मीकृते सिद्धपरमेष्ठिने अयं निर्वपामीति स्वाहा । स्वाचारपचकमपि स्वयमाचरति, ह्याचारयति भविकान् निज-शुद्धि-भाज ।
तानर्चयामि विविधै सलिलादिभिश्च, प्रत्यूह-नाशन-विधी निपुणान् पवित्र ।। ॐ ह्री पचाचार-परायणाय आचार्यपरमेष्ठिने अध्यं निर्वपामीति स्वाहा। 1 अगाग-वाह्य-परिपाठन-लालसाना,-मष्टाग-ज्ञान-परिशीलन-भावितानाम् ।
___ पादारविन्द-युगल खलु पाठकाना, शुद्ध र्जलादि-वसुभि परिपूजयामि ॥ १६ ॐ ह्री द्वादशाग-पठनपाटनोद्यताय उपाध्यायपरमेष्ठिने अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।
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सिद्ध
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२०
आराधना - सुखविलास - महेश्वराणा, सद्धर्म - लक्षरणमयात्मविकस्वराणां ।
स्तोतु गुणान् गिरिवनादि - निवासिना वै, एपोऽर्धत चररणपीठ-भुवय जामि ।। ॐ ह्री त्रयोदश प्रकार चारित्राराधक- साधुपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा । अर्हन्मङ्गलमर्चामि जगन्मगलदायकम् । प्रारब्ध - कर्म - विघ्नौघ - प्रलय - प्रदमब्मुखै ॥ ॐ ह्री अर्हन्मङ्गलाय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा । चिदानन्द - लसद्वीचिमालिन गुणशालिनम् । सिद्ध- मगलमचंह सलिलादिभिरुज्ज्वलं । ॐ ह्री सिद्धमगलाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
वुद्धि - क्रिया - रस तपोविक्रियौषधि - मुख्यका । ऋद्धयो य न मोहन्ति साधु-मगलमर्चये ॥ ॐ ह्री साधुमङ्गलाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा । लोकालोक-स्वरूपज्ञ - प्रज्ञप्त धर्ममंगलम् । अर्चे वादित्र निर्घोष - पूरिताश वनादिभि ॥ ॐ ही केवलिप्रज्ञप्त-धर्ममङ्गलाय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।
लोकोत्तमोऽर्हन् जगता भव बाधा - विनाशक । अर्च्यतेऽर्येण स मया कुकर्म - गरण-हानये || ॐ ह्री-लोकोत्तमाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
विश्वाग्र-शिखर-स्थायी सिद्धो लोकोत्तमो मया । मह्यते महसामदचिदानन्दथु - मेदुर ।' ॐ ह्री सिद्धलोकोत्तमाय अघ्यं निर्वपामीति स्वाहा । राग-द्वेष-परित्यागी साम्यभावावबोधक । साधु लोकोत्तमोऽर्येण पूज्यते सलिलादिभि ॥ ॐ ह्री साधुलोकोत्तमाय अयं निर्वपामीति स्वाहा ।
उत्तम क्षमया भास्वान् सद्धर्मो विष्टपोत्तम । अनत सुख-सस्थान यज्यतेऽम्भोऽक्षतादिभि ||
ॐ ह्री केवली - प्रज्ञप्त-धर्म- लोकोत्तमाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
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सदान् शरण मन्ये नान्यथा शरण मम । इति भाव-वि यामि जलादिभि ।
ॐ ह्री अर्हच्छरणाय अयं निर्वपामीति स्वाहा। व्रजामि सिद्ध-शरण परावर्तन-पचक । भित्त्वा स्वसुख-सदोह-सपन्नमिति पूजये ।।
ॐ ह्री सिद्वशरणाय अयं निर्वपामीति स्वाहा।। आश्रये साधु-शरण सिद्वात-प्रतिपादन । न्यक्कृताज्ञान-तिमिरमिति शुद्धया यजामि तम् ॥
ॐ ह्री साधुशरणाय अयं निर्वपामीति स्वाहा। धर्म एव सदा बन्धु स एव शरण मम । इह वान्यत्र ससारे इति तं पूजयेऽधुना ।।
ॐही केवलि-प्रजप्त-धर्मशरणाय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। (बसततिलका)-ससार-दुख-हनने निपुण जनाना, नाद्यन्त-चक्रमिति सप्त-दश-प्रमाणम् ।
सपूजये विविध-भक्तिभरावनम्र शातिप्रद भूवन-मुख्य-पदार्थ-साथै ॥ ॐ ह्री अहंदादि-सप्त-दश-मन्त्रेभ्यो महायं निर्वपामीति स्वाहा ।
अथ जयमाला विघ्न-प्रणाशन-विधौ सुरमर्थनाथा, अग्रेसर जिन वदति भवंतमिष्टम् ।
अनाद्यनन्त-युग-वर्तिनमत्र कार्ये, गार्हस्थ्य-धर्म-विहितेऽहमपि स्मरामि ॥ । विनायक सकल-धर्मि-जनेषु धर्म द्वेधा नयत्यविरत दृढ-सप्त-भग्या ।
यद्धयानतो नयन-भाव-समुज्झनेन, बुद्ध स्वय सकल-नायक-इत्यवाप्ते ।। २१ (भूजगप्रयात)नाणाना मुनीनामधीशस्त्वतस्ते, गणेशाख्यया ये भवन्त स्तुवति।
सदा विघ्न-सदोह-शातिर्जनाना, करे सलुठत्यायत-श्रेयसानाम् ।।
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त्वं मंगलाना परम जिनेन्द्र । समादृतं मंगलमस्ति लोके ।
त्वत् पूजकानामपयान्ति विघ्ना क्षिप्र गुरुन्मत्सविधे व सर्पा ॥ तव प्रसादात् जगता सुखानि, स्वय समायान्ति न चात्र चित्रम्।
सूर्योदये नाशमुपैति नून तमो विशाल प्रवल च लोके ।। यतस्त्वमेवामि विनायको मे दृष्टेष्ट-योगानवरुद्ध-भाव. ।
त्वन्नाम-मात्रेण पराभवति विघ्नारयस्तहि किमत्र चित्रम् ॥ पत्ता-जय जय जिनराज त्वद्गुणान्को व्यनक्ति, यदि मुरगुरुरिन्द्रः कोटि-वर्प-प्रमाणम् ।।
बदितुमभिलपेद्वा पारमाप्नोति नो चेत्, कथमिह हि मनुष्य. स्वल्प-बुद्ध्या-समेत ॥
___ ही अहंदादि-सप्तदश-मन्त्रेभ्यो अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। है श्रिय बुद्धिमनाकुल्य धर्म-प्रीति-विवर्द्धन । गृहि-धर्मे स्थितिर्भूयात् श्रेयासि मे दिशत्वरा ।।
___ इत्याशीर्वाद ।
हवन जैसा ऊपर बताया जा चुका है तदनुसार तीन कुण्ड पहले दिन ईट आदि से तैयार करा लिये जावे और उन्हे रगो से सुसज्जित कर दिया जावे । कुण्डो की तीनो कटनियो पर। साथिये बनाये जावे। तथा तीनो कटनियो पर चार चार लकडी की खटिया गाडकर उन मौली लपेटी जावे । मौली लपेटते समय ही अहं पचवर्ण सूत्रेण त्रीन वारान् वेष्टयामि' वोले । कुण्डो के पास ही दक्षिण या पश्चिम मे वेदिका मे सिद्धयत्र विराजमान किया जाना चाहिए । और पास मे चौकी पर अक्षत विछाकर उस पर मगल कलश स्थापित करे। पत्पश्चात् जल शुद्धि करें। जल शुद्धि के लिए निम्न मत्र बोले
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जल शुद्धि मंत्र ओ ह्रा ह्री ह ह्रीं ह्र. नमोऽहते भगवते श्रीमते पद्म-महापम-तिगिंछ-मरि-गुण्डरीक-महा. पुण्डरीक-गगा-सिधु-रोहिद्रोहितास्या-हरिद्वरिकाता-सीता-सीतोदा-नारी-नरकाता-सुवर्णरुप्य२३ कुलारक्ता-रक्तोदा-पयोधि-शुद्व-जल-सुवर्ण-घट-प्रक्षिप्त-नवरत्न-गधाक्षत-पुप्पाचितमामोद पवित्र कुरु कुरु झ झ झौ झी व व ह ह म स त त प प द्रा द्रा द्री द्री ह स स्वाहा ।।
मगल कलश स्थापन करते समय निम्न मत्र बोलेॐ ही अहं म्पस्तये मंगल-कुमं स्थापयामि स्वाहा ।
फिर कुण्डों के कोणो पर चार छोटे कलश स्थापित करें, और निम्न मत्र पढेॐही स्वस्तये चतुः कलशान स्थापयामि स्वाहा । उक्त चारो कलशो पर या अलग चार घृत के दीपक स्थापित करे तव निम्न श्लोक व मत्र बोले
रुचिरदीप्तिकर शुभदीपकं, मकल-लोक-सुखाफरमुज्ज्वलं । तिमिर-ज्याप्तिहर प्रकटं सदा, ननु दधामि सुमंगलकं मुदा ।
ॐ ही अज्ञान-तिमिरहरं दीपकं संस्थापयामि ।
___फिर 'ॐ हीं नीरजसे नमः' यह वोल कर भूमि को पवित्र करे तथा 'ॐ ही दर्प । ६ मथनाय नमः' यह पढ कर डाभ का आसन विछावे। ॐ ही पवित्रतरजलेन द्रव्य-शुद्धिं करोमि स्वाहा । यह पढकर हवन सामग्री को शुद्ध करे।।
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ॐ ह्रीं शीला गंधाय नमः ।
यह पढकर प्रासुक जल से चारों ओर छीटे देवे । फिर यंत्र का प्रक्षाल निम्न मंत्र बोल कर करे और यत्र पूजा करे ।
ॐ भूर्भुव: स्वरिह एतद् विघ्नौघवारकं यंत्र महं परिषिंचयामि स्वाहा ।
चौकोर तीर्थंकर कुण्ड मे साथिया या ॐ लिखे और निम्न मंत्र पढकर समिध रखे । ॐ ह्रां ह्रीं ह्रीं ह्रः अमित्रा उसा स्वाहा ।
तत्पश्चात् निम्न मंत्र पढते हुए कपूर और डाभ के पूले से अग्नि प्रज्वलित करे । ॐॐ ॐ ॐ ॐ रं रं रं रं अग्नि स्थापयामि स्वाहा |
इसी प्रकार क्रमश गोल गणधर कुण्ड एव त्रिकोण सामान्य केवली कुड मे साथिया या ॐ लिखे और उक्त मत्र पढते हुए समिध व अग्नि स्थापित करे । चौकोर कुण्ड से अग्नि लेकर गोल मे और गोल मे से अग्नि लेकर त्रिकोण मे स्थापित करे ।
तीनो कुण्डो मे निम्न पाठ कर एक एक अर्घ्य चढावे और आहूतिया चालू करे । बसन्ततिलका— श्रीतीर्थ-नाथ- परिनिवृति-पूज्य - काले, आगत्य बह्निसुरपा मुकुटोल्लसद्भिः । त्रिजैर्जिनपदेऽहमुदार-मक्त्या, देहुस्तमग्निमहमर्चयितु ं दधामि ॥ ॐ ह्री प्रथमे चतुरस्र तीर्थंकर कुण्डे गार्हपत्याग्नयेऽध्यं निर्वपामीति स्वाहा । उपजाति – गणाधिपानां शिव-याति कालेऽग्नीन्द्रोत्तमाङ्ग - स्फुरदग्निरेषः । संस्थाप्य पूज्यः स मयाडुनीयो, विधानशांत्यै विधिना हुताशः ।
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ॐ ह्री द्वितीये वृत्ते गणधर कुण्डे आह्वनीयाग्नयेऽयं निर्वपामीति स्वाहा । सिद्धार उपजाति-श्रीदक्षिणाग्निः परकल्पितश्च-, किरीटदेशात्प्रणताग्निदेवः। वि० निर्वाण-कल्याणक-पूतकाले, तमर्चये विघ्न-विनाशनाय ।। २५. ॐ ह्री त्रिकोणे सामान्यकेवलिकुण्डे दक्षिणाग्नयेऽयं नि० अब निम्न आहूतिया चालू करे ।
अथ पीठिका मन्त्र ॐ सत्यजाताय नम ॥१॥ ॐअर्हज्जाताय नम ॥२।। ॐपरमजाताय नमः ॥३॥ * अनुपमजाताय नम ॥४॥ ॐ स्वप्रधानाय नम ||५|| ॐ अचलाय नम ॥६॥ ॐ अक्षयाय नम ॥७॥ॐ अव्यावाधाय नम ||८|| ॐ अनन्तज्ञानाय नम |||| ॐ अनन्तदर्शनाय नम ॥१०॥ ॐ अनन्तवीर्याय नम ॥११॥ ॐ अनन्तसुखाय नम ॥१२।। ॐ नीरजसे नम ॥१३॥ ॐ निर्मलाय नम ||१४|| ॐ अच्छेद्याय नम ||१५|| अभेद्याय नम ॥१६।। । ॐ अजराय नम ॥१७॥ ॐ अमराय नम ॥१८।। ॐ अप्रमेयाय नम ॥१६।। ॐ अगर्भवासाय नम ॥२०॥ ॐ अक्षोभाय नम ।।२१।। ॐ अविलीनाय नम ॥२२।। परम-6 धनाय नम ॥२३।। ॐ परमकाष्ठायोगरूपाय नम ॥२४॥ ॐ लोकाग्रवासिने नमो नम : ॥२५॥ ॐ परमसिद्वेभ्यो नम ॥२६।। ॐ अर्हसिद्धेभ्यो नमो नम ॥२७॥ ॐ केवलिसिद्धेभ्यो नम ||२८|| ॐ अतकृतसिद्धेभ्यो नमो नम ॥२६॥ॐ परम्परासिद्वेभ्यो नमो नम ॥३०॥ ॐ अनादिपरम्परासिद्ध भ्यो नमो नम ॥३१।। ॐ अनाद्यनुपमसिद्धेभ्यो नमो नमः ॥३२॥ ॐ सम्यग्दृष्टे आसन्न भव्यनिर्वाणपूजार्ह-अग्नीद्राय स्वाहा ॥३३॥
सेवाफल षट्परमस्थान भवतु, अपमृत्युविनाशन भवतु, समाविमरणं भवतु स्वाहा ।
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जातिमन्त्र ॐ सत्यजन्मन शरण प्रपद्ये ॥१॥ ॐ अर्हज्जन्मन शरणं प्रपद्ये ॥२॥ ॐ, १० अर्हन्मातु शरण प्रपद्य ।।३।। ॐ अर्हत्सुतस्य शरण प्रपद्ये ॥४॥ ॐ अनादिगमनस्य शरण, २६६ प्रपद्य ।।५।। ॐ अनुगमजन्मन शरण प्रपद्ये ॥६।। ॐ रत्नत्रयस्य शरणं प्रपद्य ॥७॥ ॐ । सम्यग्दृष्टे सम्यग्दृप्टें ज्ञानमूर्ते ज्ञानमूर्ते सरस्वति सरस्वति स्वाहा ।।८।। सेव'फल पटपरमस्थान भवतु, अपमृत्युविनाशन भवतु, समाधिमरण भवतु स्वाहा ।।।
निस्तारकमन्त्र ॐ सत्यजाताय स्वाहा ।।१।। ॐ अर्हज्जाताय स्वाहा ॥२॥ ॐ षट्कर्मणे स्वाहा ॥३॥ ॐ ग्रामपतये स्वाहा ॥४॥ ॐ अनादिश्रोत्रियाय स्वाहा ।।५।। ॐ स्नातकाय स्वाहा ॥६॥ॐ श्रावकाय स्वाहा ।।७।। ॐ देवव्राह्मणाय स्वाहा ॥८॥ ॐ सुब्राह्मणाय स्वाहा ॥॥ ॐ अनुपमाय स्वाहा ॥१०॥ ॐसम्यग्दृष्टे सम्यग्दृष्टे निधिपते निधिपते वैश्रवण वैश्रवण स्वाहा । ॥११।। सेवाफल पट्परमस्थान भवतु, अपमृत्युविनाशन भवतु, समाधिमरण भव तुस्वाहा ॥
ऋषिमन्त्र *सत्यजाताय नम ॥१२॥ ॐ अर्हज्जाताय नम.॥२।। ॐ निर्ग्रन्थाय नम ॥३॥ ॐ वीतरागाय नम ॥४।। ॐ महाव्रताय नम ||५|| ॐ त्रिगुप्ताय नम ॥६।। ॐ महायोगाय नम ||७|| ॐ विविधयोगाय नम ॥८॥ ॐ विविधये नम |||| ॐ अद्भधराय नमः ॥१०॥ ॐ पूर्वधराय नमः ।।११।। ॐ गणधराय नम ॥१२॥ ॐ परमर्षिभ्यो नमो नम ||१३|| ॐ अनुपमजाताय नमो नमः॥१४॥ ॐ सम्यग्दृष्टे सम्यग्दृष्टे भूपते भूपते
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नगरपते नगरपते कालश्रमरण कालश्रमरण स्वाहा ||१५||
सेवाफल पट्परमस्थान भवतु, अपमृत्युविनाशन भवतु समाधि मरण भवतु स्वाहा ।
सुरेन्द्रमन्त्र
ॐ सत्यजाताय स्वाहा ॥१॥ ॐ र्हज्जाताय स्वाहा ||२|| ॐ दिव्यजाताय स्वाहा ।।३।। ॐ दिव्याचिजाताय स्वाहा ||४|| ॐ नेमिनाथाय स्वाहा ||५|| ॐ सौधर्माय स्वाहा ।।६।। ॐकल्पाधिपतये स्वाहा ||७|| अनुचराय स्वाहा ||८|| परपरेन्द्राय स्वाहा ॥१॥ ॐ अहमिन्द्राय स्वाहा ।।१०।। ॐ परमार्हताय स्वाहा ।। ११ ।। ॐ प्रनुपमाय स्वाहा ।। १२ ।। ॐसम्यग्दृष्टे सम्यग्दृष्टे कल्पपते कल्पपते दिव्यमूर्ते दिव्यमूर्ते वजूनामन् वज्रनामन् स्वाहा ।। १३ ।। । सेवाफल षट्परमस्थान भवतु, अपमृत्युविनाशन भवतु, समाधिमरण भवतु स्वाहा । परमराजादि मन्त्र
ॐ सत्याजाय नमः ।।१।। ॐ अर्हज्जाताय स्वाहा || २ || अनुपमेन्द्राय स्वाहा || ३ || ॐ विजयार्च्यजाताय स्वाहा ||४|| ॐ नेमिनाथाय स्वाहा ||५|| ॐ परमजाताय स्वाहा ।।६।। ॐ परमार्हताय स्वाहा ||७|| ॐ अनुपमाय स्वाहा ॥ ६ ॥ ॐ सम्यग्दृष्टे सम्यग्दृष्टे उग्रतेज उग्रतेज दिशाजन दिशाजन नेमिविजय नेमिविजय स्वाहा ||६|| सेवाफल षट्परमस्थान भवतु, अपमृत्युविनाशन भवतु, समाधिमरण भवतु स्वाहा । परमेष्ठी मन्त्र
ॐ सत्यजाताय नम* ॥१॥ ॐ अर्हज्जाताय नम ॥ २॥ ॐ परमंजाताय नम ॥३॥ ॐ परमार्हताय नमः ॥४॥ ॐ परमरूपाय नमः ॥ ५॥ ॐ परमतेजसे नमः ॥६॥ ॐ परम
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गुणाय नम ।७।। ॐ परमस्थानाय नमः॥८॥ ॐ परमयोगिनेनम ||| ॐपरमभाग्याय नम ।।१०।। ॐ परमर्द्धये नम ॥११ ॐ परमप्रसादाय नमः ||१२|| ॐ परमकांक्षिताय नम ।।१३।। ॐ परमविजयाय नमः ।।१४।। ॐ परमविज्ञानाय नमः ॥१५।। ॐपरमदर्शनाय । नम ॥१६॥ ॐ परमवीर्याय नम ॥१७॥ ॐ परमसुखाय नमः ॥१८॥ ॐ परमसर्वज्ञाय? नम ॥१६।। ॐ अर्हते नम ॥२०॥ ॐ परमेष्ठिने नमः ॥२१॥ ॐ परमने नमो नम ॥२२॥ ॐसम्यग्दृष्टे २ त्रैलोक्यविजय त्रैलोक्यविजय धर्ममूर्तेधर्ममूर्तेधर्मनेमे २ स्वाहा ॥२३॥
सेवाफल पटपरमम्थान भवतु, अपमृत्युविनाशन भवतु, समाधिमरण भवतु स्वाहा । धूपै सन्धूपितानेक-कर्मभिधू पदायिनः, अर्चयानि जिनाधोश-सदागमगुरून् गुरून् ।।१।। ___ॐ ह्री श्रीमज्जिनश्रुतगुरुभ्यो नम धूपम् । सुरभी-कृत-दिग्वातै पधूमैर्जगत-प्रिय । यजामि जिनसिद्धेश-सूर्युपाध्यायसद्-गुरुन् ।।
ॐ ह्री पचपरमेष्ठिभ्यो नम धूपम् ।। मृद्वग्नि-सगम-समुज्वलनोरुधूमै , कृष्णागुरु-प्रभृति-सुन्दर-वस्तु-धूपै । प्रीत्या नटद्भिरिव ताण्डव-नृत्यमुच्चै , कर्मारि-दारु-दहन जिनमर्चयामि ॥३॥
ॐ ह्री अर्हत्परमेष्ठिने नम धूपम् । गोत्र-क्षय-सभव-सतत-सभव-सद्गुरु-लघुता-रूप-परम् ।
सर्गमसर्गमपीतमनुक्षण-मुज्झित-सर्गासग-भरम् ।। कृष्णागुरुधूपै सुरभितभूपैयूं मै स्पष्टहरिद्रूप
__यायज्म सिद्ध सर्वविशुद्ध बुद्धमरुद्ध गुणरुद्धम् ॥४॥ ॐ ह्री सिद्धपरमेष्ठिने नम धूपम् ।
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हुत्वा स्वमप्यगुरुभि सुरभीकृताशे-रग्नौ समुच्छलित-सभृत-वृन्द-धूपै । सधूपयामि चरण शरण शरण्य, पुण्य भव-भ्रमहरैर्गणिनाम् मुनीनाम् ॥५।।
ॐ ह्री आचार्य परमेष्ठिने नम धूपम् ।। सधूपिताखिल-दिशोघनशङ्कयेह, वहिव्रज स्वनटनादिव नर्तयद्भि । मृद्वग्निसगतिततागुरुधूपघूमै श्री पाठक क्रमयुग वयमाह्वयाम ॥६॥ _ॐ ह्री उपाध्यायपरमेष्ठिने नम. धूपम् ।। स्वमग्नौ विनिक्षिप्य दौगंध्यबधम्, दशाशास्यमुच्चै करोति त्रिसध्यम् । तदुद्दामकृष्णागुरुद्रव्यधूपै , यजे साधुसघ नटव्यक्त-रूपै ।।७।।
ॐ ह्री साधुपरमेष्ठिने नम धूपम् । धूपै सधूपितानेक-कर्मभिधूप-दायिन वृषभादि-जिनाधीशान, वर्द्धमानान्तकान्यजे ॥८॥
ॐ ह्री वृपभादिवीरान्त चतुर्विंशतिजिनेभ्यो नम धूपम् । । इसके पश्चात् जिस मन्त्र की जितनी जाप की है उसके दशमाश उस मन्त्र की आहूति देनी । ६ चाहिये। तत्पश्चात निम्न शान्तिकरण पढे।
शान्तिधारा आचार्य अपने हाथमे कलश लेकर जलकी धारा देता हुआ नीचे लिखा पुण्याहवाचन पढे-" __ॐ पुण्याह पुण्याह लोकोद्योतनकरा अतीत-काल-सजाता निर्वाण-सागर-महासाधु-विमल- २६ प्रभ-शुद्धाभ-श्रीधर-सुदत्त-अमलप्रभ-उद्धर-अग्नि-सन्मति-शिव-कसमाजलि-शिवगण-उत्साहज्ञानेश्वर-परमेश्वर-विमलेश्वर-यशोधर-कृष्णमति-ज्ञानमति-शुद्धमति-श्रीभद्र-शाताश्चेति चतुविशति-भूत-परमदेवाश्च व प्रीयन्ता प्रीयन्ताम् ॥ धारा ॥१॥
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ॐ सप्रति-काल-श्रेयस्कर स्वर्गावतरण - जन्माभिषेक परिनिष्त्र मरण - केवलज्ञान-निर्वारणकल्याण-विभूपित - महाभ्युदया श्रीवृपभ प्रजित शभव - अभिनदन-सुमति-पद्मप्रभ-सुपार्श्व-चंद्रमिद्ध० प्रभ-पुष्पदत-शीतल श्रेयो - वासुपूज्य - विमल - अनत-धर्म-शाति कुथु र मल्लि - मुनिसुव्रत - नमिनेमि- पार्श्व-वर्द्धमानाश्चेति-वर्तमानचतुर्विंशतिपरमदेवाश्च व प्रीयन्ता प्रीयन्ताम् ॥ धारा ॥२ ॐ भविष्यत् कालाभ्युदय - प्रभवा महापद्म-सुरदेव - सुप्रभ-स्वयप्रभ सर्वायुध-जयदेवउदयदेव-प्रभादेव–उदङ्कदेव - प्रश्नकीर्ति- जयकीर्ति-पूर्ण बुद्ध-नि कपाय - विमलप्रभ- बहलगुप्तनिर्मल गुप्त - चित्रगुप्त-समाधिगुप्त-स्वयभू-कदर्प- जयनाथ - विमलनाथ - दिव्यवाक -अनतवीर्याचेति चतुर्विंशति-भविप्यत्परम- देवाश्च व प्रीयता प्रीयन्ताम् ।। धारा ।। ३ ।।
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ॐ त्रिकालवर्ति-परमधर्माभ्युदया सीमधर-युग्मवर - बाहु-पुनाहु-सजातक स्त्रयप्रभ-ऋपभेश्वर-अनतवीर्य-सूरप्रभ-विशालकीर्ति वज्रधर चंद्रानन चद्रबाहु भुजगेश्वर-नेमिप्रभ - वीरसेनमहाभद्र जयदेव -जीत वीर्याश्चेति पच- विदेह - क्षेत्र- विहरमारणा विशति परमदेवाश्च व प्रीयन्ता प्रीयन्ताम् || धारा ॥ ४ ॥
ॐ वृषभ-सेनादि गणधर - देवा व प्रीयन्ता प्रीयन्ताम् || धारा ॥ ५ ॥
ॐ कोष्ठ-बीज-पादानुसारि - बुद्धि-सभिन्न श्रोत्र प्रज्ञा श्रवरणाश्च व प्रीयन्ता प्रीयन्त म् || धारा ॥ ६ ॥
ॐ ग्रामर्ष - वेड जलविडुत्सर्ग- सर्वोपधि ऋद्धयश्च व प्रीयन्ता प्रीयन्ताम् || धारा ||७||
ॐ जल-फल- जघा - तन्तु-पुष्प-श्रेणि-पत्राग्निशिखाकाश- चारणारच व प्रीयन्ता प्रीयन्ताम् || धारा ३०
ॐ आहार- रसवदक्षीण - महानसलयाश्च व प्रीयन्ता प्रीयन्ताम् ||धारा ॥ ६॥
ॐ उग्र- दीप्त- तप्त - महाघोरानुपम तपसश्च व प्रीयन्ताम् प्रीयन्ताम् ॥धारा ॥ १०॥ ॐ मनोवाक्काय- वलिनश्च व प्रीयन्ता प्रीयन्ताम् ॥ धारा ॥ ११॥
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ॐ क्रिया-विक्रिया-धारिणश्च व प्रीयन्ता प्रीयन्ताम् ॥धारा।।१२।। ॐअगाग-वाह्य-ज्ञान-दिवाकरा कुन्दकुन्दाद्यनेक-दिगबर-देवाश्च व प्रीयन्ता प्रीयन्ताम्धारा।१४।।
इह बाऽन्यनगर-ग्रामदेवता-मनुजा सर्वे गुरुभक्ता जिनधर्म-परायणा भवतु ।।धारा।।१५।
दान-तपो-वीर्यानुष्ठान नित्यमेवास्तु ॥धारा।।१६।। ___ मातृ-पितृ-भ्रातृ-पुत्र-पौत्र-कलत्र-सुहृत्स्वजन-सवधि-सहितस्य अमुकस्य' ते धन-धान्यैश्वर्य-, बल-धु ति-यश प्रमोदोत्सवा प्रवर्द्धन्ताम् ।। धारा ॥ १७ ॥ ___तुष्टिरस्तु । पुष्टिरस्तु । वृद्धिरस्तु । कल्याणमस्तु । अविघ्नमस्तु । आयुष्यमस्तु । आरोग्यमस्तु । कर्मसिद्धिरस्तु। इष्टसपत्तिरस्तु । काममागल्योत्सवा सन्तु । पापानि शाम्यन्तु । घोराणि शाम्यत् । पूण्य वर्द्धता । धर्मो वर्द्धता । कूल गोत्र चाभिवर्धता, स्वस्ति भद्र नास्तु । इवी क्ष्वी ह स स्वाहा । श्रीमज्जिनेन्द्र-चरणारविदेष्वानन्द-भक्ति सदास्तु । इसके पश्चात् निम्नलिखित मगलाष्टक बोलना चाहिए।
॥श्री मंगलाष्टक ॥ ___ श्रीमन्नम्र-सुरासुरेन्द्र-मुकुट-प्रद्योत-रत्नप्रभा । भास्वत्पाद-नखेन्दव प्रवचनाम्भोधीदव. १ स्थायिन ॥ ये सर्वे जिन-सिद्ध-सूर्यनुगतास्ते पाठका साधव । स्तुत्या योगिजनश्च पचगुरव कर्वन्तु ते मगल ॥१॥ नाभेयादि-जिनाधिपास्त्रि-भवन-ख्याताश्चतविशति । श्रीमन्तो भरतेJश्वर-प्रभृतयो ये चक्रिणो द्वादश ।। ये विष्णु-प्रतिविष्णु-लागलधरा सप्तत्तोराविशतिस्त्रैलोक्ये-प्रथितास्त्रिपष्ठि-पुरुपा कुर्वन्तु ते मगलम् ॥ २ ॥ ये पञ्चौषधि-ऋद्धय श्रुततपो वृद्धिगता पच ये। ये चाष्टाग-महा-निमित्त-कुशलाश्चाष्टौविधाश्चारिणा ।। पञ्चज्ञान-धराश्च
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येपि विपुला ये बुद्धिऋद्धीश्वरा । सप्तैते सकलाश्च ते मुनिवरा कुर्वन्तु ते मगलम् ।। ३ ।।
ज्योतिय॑न्तर-भावनामर-गृहे मेरौ कुलाद्रौ स्थिता । जम्बू-शाल्मलि-चैत्य-शाखिषु तथा बक्षा
१ररूप्याद्रिषु ॥ इष्वाकार-गिरी च कुण्डलनगे द्वीपे च नन्दीश्वरे । शैले ये मनुजोत्तरे जिनगृहा सिद्ध० कुर्वन्तु ते मगलम् ॥४॥ कैलाशे वृषभस्य निर्वतिरभूत् वीरस्य पावापुरे । चम्पाया वसुपूज्यवि० सज्जिनपते सम्मेदशैलेहता ॥ शेषाणामपि चोजयन्त-शिखरे नेमीश्वरस्याहत । निर्वाणा
वनय प्रसिद्धमहिता कुर्वन्तु ते मगलम् ॥शा यो गर्भावतरोत्सवेऽप्यर्हता जन्माभिषेकोत्सवे । यो जात परिनिष्क्रमस्य विभवे य केवल-ज्ञान-भाक् ॥ य कैवल्य-पुर-प्रवेश-महिमा सभावित स्वर्गिभि । कल्याणानि च तानि पञ्च सतत कुर्वन्तु ते मगलम् ॥ ६ ॥ जायन्ते जिन-8 चक्रवर्ति-बलभृद्धोगीन्द्र-कृष्णादयो। धर्मादेव दिगगनाग-विलसच्छश्वद्यशश्चन्दना ।। तद्धीना नरकादि-योनिषु नरा दुख सहन्ते ध्र वम् । स स्वर्गात्सुखरामणीयक-पद कुर्वन्तु ते मगलम् १॥७॥ सर्पो हारलता भवत्यसिलता सत्पुष्पदामायते ।सपद्य त रसायन विपमपि प्रीति विधत्त । रिपु ॥ देवा यान्ति वश प्रसन्न-मनस किं वा बहु व महे । धर्मादेव नभोऽपि वर्पति नगै । कुर्वन्तु ते मगल ।।८।। इत्थ श्री जिन-मगलाष्टकमिद सौभाग्यसम्पत्करम् । कल्याणेपु महोत्सवेपु सुधियस्तीर्थंकराणा-मुखा ।। ये शृण्वति पठति ते च सुजना.धर्मार्थ-कामान्विता ।। लक्ष्मीराश्रयते व्यपायरहिता कुर्वन्तु ते मगलम् ।। ६ ।।मगलम् भगवान् वीरो, मगलम् गौतमो । गणी । मगलम् कुन्दकुन्दाद्यो, जैनधर्मोस्तु मगलम् ।।
॥ इति मङ्गलाष्टकम् ॥ सिद्धचक्र की आरती एव भजन पुस्तक के अन्त मे है। वहा पाठक देखे।
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ॐनम. सिद्धेश्य ।
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कविवर पं० सन्तलालजी कृत
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सिद्ध चक्र विधान।
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.:. मंगलाचरण : ६ दोहा:-जिनाधीश शिवईश नमि, सहसगुरिणत विस्तार ।
सिद्धचक्र पूजा रचौं, शुद्ध त्रियोग संभार ॥१॥ नीत्याश्रित धनपति सुधी, शीलादिक गुन खान। जिनपद अम्बुज भमर मन, सो प्रशस्त यजमान ॥२॥ देश काल विधि निपुणमति, निर्मल भाव उदार। मधुरबैन नयना सुघर, सो याजक निरधार ॥३॥
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वि०
रत्नत्रयमंडित महा, विषय कषाय न लेश
संशय हरण सुहित करन, करत सुगुरु उपदेश ॥४॥ सिद्ध० छप्पय छंदः-निर्मल मंडप भूमि दरव-मंगल करि सोहत।
सुरभि सरस शुभ पुष्प-जाल मंडित मन मोहत ॥ यथायोग्य सुन्दर मनोज्ञ, चित्रास अनूपा। दीरघ मोल सुडोल, वसन झखझोल सरूपा॥ हो वित्तसार प्रासुक दरब, सरब अंग मनको हरै।
सो महाभाग आनंद सहित, जो जिनेन्द्र अर्चा करै ॥५॥ दोहा:--सुर मुनि मन आनन्द कर, ज्ञान सुधारस धार।
सिद्धचक्र सो थापह, विधि-दव-जल उनहार ॥६॥ अडिल्लः--अह शब्द प्रसिद्ध अर्द्ध मात्रिक कहा,
अकारादि स्वर मंडित अति शोभा लहा। अति पवित्र अष्टांग अर्घ करि लायके, पूरव दिशि पूरे यष्टांग नमायके ॥७॥
प्रथम
पूजा
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___ॐ ह्री प्रा इ ई उ ऊ ऋ ऋ ल ल ए ऐ ओ औ अ अ. अनाहतपराकमाय सिद्धाधिपतये । सिद्ध नम , पूर्व दिशि अयं निर्वपामीति स्वाहा । वि. सोरठाः-वर्ण कवर्ग महान, अष्ट पूर्वविधि अर्घ ले।
भक्ति भाव उर ठान, पूजो हो आग्नेय दिशि ॥८॥ ॐ ह्री अहं क ख ग घ ड अनाहतपराक्रमाय सिद्धाधिपतये अग्निदिशि अध्यं नि० स्वाहा
वर्ण चवर्गप्रसिद्ध, वसुविधि अर्घ उतारिके।
मिलि है वसुविधि रिद्धि, दक्षिण दिशि पूजा करौ॥६॥ ॐ ह्री अहं च छ ज झ ञा अनाहतपराक्रमाय सिद्धाधिपतये दक्षिणदिशि अध्यं नि०।
वर्ण टवर्ग प्रशस्त, जलफलादि शुभ अर्घ ले।
पाऊँ सब विधि स्वस्ति, नैऋत्य दिशि अर्चा करो॥१०॥ । ॐ ह्री प्रहं ट ठ ड ढ ण अनाहतपराक्रमाय सिद्धाधिपतये नैऋत्यदिशि अध्यं नि० ।
वर्ण तवर्ग मनोग, यथायोग्य कर अर्घ धरि ।
मिलि है सब शुभ योग, पूजन करि पश्चिम दिशा ॥११॥ ॐ ह्री महँ त थ द ध न अनाहतपराक्रमाय सिद्धाधिपतये पश्चिमदिशि अध्यं नि० ।
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प्रथम
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वर्ग पवर्ग सुभाग, करूं प्रारती अर्घ ले।
सब विधि प्रारति त्याग, वायव दिशि पूजा करों॥१२॥ ___ ॐ ह्री अहं प फ ब भ म अनाहतपराक्रमाय सिद्धाधिपतये वायव्यदिशि मध्य नि० ।
वर्ण यवर्गी सार, दर्व अर्घ वसु द्रव्य करि।
भाव अर्घ उर धार, उत्तर दिशि पूजा करों॥१३॥ ॐ ह्री ग्रह य र ल व अनाहतपराक्रमाय मिद्धाधिपतये उत्तरदिशि अध्यं नि ।
शेष वर्ण चउ अन्त, उत्तम अर्घ बनाइकें।
नशे कर्म वसु भंत, पूजो हो ईशान दिशि ॥१४॥ ॐ ह्री ग्रह श ष स ह अनाहतपराक्रमाय सिद्धाधिपतये ईशानदिशि अध्यं नि० ।
स्थापना ( छप्पय छन्द ) ऊरध अधो सरेफ बिंदु हंकार विराजे, अकारादि स्वर लिप्त करिणका अन्त सु छाजे। वर्गनि पूरित वसुदल अम्बुज तत्त्व संधि धर, अग्रभागमें मंत्र अनाहत सोहत अतिवर ॥
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पुनि हींकार बेढ्यो परम, सुर ध्यावत अरि नागको।
हवै केहरि सम पूजन निमित, सिद्धचक्र मंगल करो॥१५॥ वि० ॐ ह्री णमोसिद्धारण श्रीसिद्धपरमेष्ठिन् अत्रावतरावतर सवौषट् आह्वानन । प्रत्र तिष्ठ,
तिष्ठ ठ ठ स्थापन । अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्, सन्निधिकरण । है दोहाः-सूक्ष्मादिक गुण सहित हैं, कर्म रहित निःशोग।
सकल सिद्ध पूजों सदा, मिट उपद्रव योग ।
___इति यत्रस्थापनार्थ पुष्पाजलि क्षिपेत् ।
॥ अथाष्टक-(चाल-नन्दीश्वर द्वीप पूजा की)। शीतल शुभ सुरभि सु नीर, कञ्चन कुम्भ भरों। पाऊँ भवसागर तीर, प्रानन्द भेट धरो ॥ अन्तरगत अष्ट स्वरूप, गुरणमई राजत है। नम् सिद्धचक्र शिव-भूप, अचल विराजत हैं ॥१॥ ॐ ह्री णमो सिद्धाण श्रीसिद्धपरमेष्ठिने नमः श्रीसमत्तणाण-दमण-वीरज सुहमत्तहेव" अवग्गाहणं अगुरुल घुमव्वावाह अष्टगुणमयुक्ताय जलं निर्वपामीति स्वाहा ॥१॥
चन्दन तुम वन्दन हेत, उत्तम मान्य गिना।
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सिद्ध वि०
नातर सब काष्ट समेत, ईधन ही थपना ॥
अन्तरगत अष्ट. स्वरूप, गुरगमई राजत है। । नम सिद्धचक्र शिव-भूप, अचल विराजत है। ॐ ह्री णमो सिद्धारण श्री सिद्धपमेष्ठिने नम. श्रीसमत्तणाणदसणवीरज सुहमत्तहेव अव. . गाहण अगुरुल घुमव्वाह अष्टगुण-सयुक्ताय चन्दनम् नि० ॥२॥
। दीरघ शशि किरण समान, अक्षत ल्यावत हूँ। 'शशिमंडल सम बहुमान, पूज रचावत हूँ॥ अन्तरंगत अष्ट स्वरूप, गुरणमई राजत हैं। नमू सिद्धचक्र शिव-भूप, अचल विराजत है।अक्षतं ।३।
तुम चरण चन्द्र के पास, पुष्प धरे सोहैं। ‘मान नक्षत्रन की रास, सोहत मन मोहैं।
अन्तरगत अष्ट स्वरूप, गुरणमई राजत है।
न सिद्धचक्र शिव-भूप, अचल विराजत है ।पुष्पं०॥४॥ पूजा , उत्तम नेवज बहु भांति, सरस सुधा साने।
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अहिमिन्द्रन मन ललचाय, भक्षरण उमगाने । अन्तरगत अष्ट स्वरूप, गुरणमई राजत है। नरसिद्धचक्र शिव-भूप, अचल विराजत है। नैवेद्यं ॥५॥ फैली दीपन की जोति, अति परकाश करै। जिम स्याद्वाद उद्योत संशय तिमिर हरै। अन्तरगत अष्ट स्वरूप, गुरगमई राजत है। नम सिद्धचक्र शिव-भूप, अचल विराजत है। दीपं० ॥६॥ धरि अग्नि धूप के ढेर, गंध उडावत हूँ। कर्मों की धूप बखेर, ठोंक जरावत हूँ ॥ अन्तरगत अष्ट स्वरूप, गुरगमई राजत है। नम् सिद्धचक्र शिव-भूप, अचल विराजत है ॥ धूपं० ॥७॥ प्रथम जिन धर्म वृक्षकी डाल, शिवफल सोहत है। इस शुभ फल कंचन थाल,, भविजन मोहत हैं। अन्तरगत अष्ट स्वरूप, गुणमई राजत हैं।' .
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नमसिद्धचक्र शिक्-भूप, अचल विराजत है ॥८॥
ॐ ह्री णमो सिद्धाण श्रीसिद्धपरमेष्ठिने नमः श्रीसम्मत्तणाणदसंण-वीरज सुहमत्तहेव विप्रवग्गाहण मगुरुलघुमन्वावाह अष्टगुणसयुक्ताय फल निर्वपामीति स्वाहा ॥६॥
करि दर्प अर्घ वसु जात, यात ध्यावत हूँ। अष्टांग सुगुरण विख्यात, तुम ढिंग पावत हूँ। अन्तरगत अष्ट · स्वरूप, गुरणमई राजत हैं।
नमू सिद्धचक्र शिव-भूप अचल विराजत हैं ॥६॥ अयं० गीता छन्द-निर्मल सलिल शुभवास चन्दन, धवल अक्षत युत अनी।
शुभ पुष्प मधुकर नित रमैं, चरु प्रचुरस्वाद सुविधि घनी। करि दीपमाल उजाल धूपायन, रसायन फल भले। करि अर्घ सिद्धसमूह पूजत, कर्म दल सब दलमले ॥१॥ ते कर्म नशाय युगप्रकृति, ज्ञान निर्मलरूप है। दुख जन्म टाल अपार गुरण, सूक्षम सरूप अनूप है ॥ कर्माष्ट बिन त्रैलोक्य पूज्य, अछेव शिव कमलापती।
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मुनि ध्येय सेय प्रमेय चहुँ गुरण, ज्ञेय धो हम शुभमती ।२। ॐ ह्री सिद्धचक्राधिपतये नम' सम्मत्तणाणादि अट्ठगुणाण अनर्घ्य पदप्राप्तये महाय॑म् ।
अथ अष्टगुरण अर्घ (चौपाई १६ मात्रा) मिथ्या त्रय चउ प्रादि कषाया, मोहनाश छायक गुण पाया। निज अनुभव प्रत्यक्ष सरूपा, नमूसिद्ध समकित गुणभूपा ॥१॥
ॐ ह्री सम्यक्त्वाय नमः प्रध्यं ॥१॥ सकल त्रिधा षट् द्रव्य अनन्ता, युगपत जानत है भगवंता। निर प्रावरण विशद स्वाधीना, ज्ञानानन्द परम रस लीना ॥२॥
ॐ ह्री मनन्तज्ञानाय नम अध्यं ॥ २॥ चक्षु अचक्षु अवधि विधि नाशी, केवल दर्श ज्योति परकाशी। सकल ज्ञेय युगपत अवलोका, उत्तम दर्श नम् सिद्धों का ॥३॥
___ॐ ह्री अनन्तदर्शनाय नम अध्यं ॥३॥ अन्तराय विधि प्रकृति अपारा, जीवशक्ति घाते निरधारा।। ते सब घात अतुल बल स्वामी, लसत अखेद सिद्ध प्रणमामी ॥४॥
ॐ ह्री अनन्तवीर्याय नमः प्रध्यं ॥४॥
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सिद्ध
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रूपातीत मन इन्द्रिय नाहीं, मनपर्यय हू जानत नाहीं। अलख अनूप अमित अधिकारी, नमू सिद्ध सूक्षम गुरणधारी ॥५॥
____ॐ ह्री सूक्ष्मत्वाय नम अयं । ५॥ एक क्षेत्र अवगाह स्वरूपा, भिन्न भिन्न राजै चिद्रूपा । निज परघात विभाग विडारा, नमूसुहित अवगाह अपारा ॥६॥
ॐ ह्री अवगाहनत्वाय नम अध्यं ।। ६॥ परकृत ऊँच नीच पद नाहीं, रमत निरंतर निज पद माहीं। उत्तम अगुरुलघु गुरण भोगी, सिद्धचक्र ध्यावै नित योगी ॥७॥
___ॐ ह्री अगुलघुत्वात्मकजिनाय नम अर्घ्यं ॥ ७॥ नित्य निरामय भव भय भंजन, अचल निरंतर शुद्ध निरंजन । अव्याबाध सोई गुण जानो, सिद्धचक्र पूजन मन मानो ॥८॥
___ॐ ह्री अव्याबाधत्वाय नमः अध्यं ॥८॥ ___ यहां १०८ बार 'प्रो ह्री अहं असिग्राउसा नमः' मत्र का जप करे।
अथ जयमाला दोहा--जग भारत भारत महा, गारत करि जय पाय ।
विजय प्रारती तिन कहूँ, पुरुषारथ गुरणगाय ॥१॥
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पदरी छन्द जय करग कृपारण सुप्रथममवार, मिथ्यात सुभट कीनो प्रहार।। दृढ कोट विपर्यय मति उलंधि, पायो समकित थलथिर अभंग ॥१॥ निज पर विवेक ग्रंतर पुनीत, आतम रुचि वरती राजनीत।। जग विभव विभाव असार एह, स्वातम सुखरस विपरीत देह ॥२॥ तिन नाशन लोनो दृढ संभार, शुद्धोपयोग चित चरण सार । । निर्ग्रन्थ कठिन मारग अनूप, हिंसादिक टारण सुलभ रूप ॥३॥ द्वयबीस परीषह सहन वीर, बहिरंतर संयम धरण धीर। द्वादश भावन दशभेद धर्म, विधि नाशन बारह तपसु पर्म ॥४॥ शुभ दयाहेत धरि समिति सार, मन शुद्धकरणत्रय गुप्त धार । एकाकी निर्भय निःसहाय, विचरो प्रमत्त नाशन उपाय ॥५॥ लखि मोहशत्रु परचंड जोर, तिस हनन शुकल दल ध्यान जोर। आनन्द वीररस हिये छाय, क्षायक श्रेणी प्रारम्भ थाय ॥६॥ पूजा बारम गुरण थानक ताहि नाश, तेरम पायो निजपद प्रकाश ।
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नव केवललब्धि विराजमान, दैदीप्यमान सोहे सुभान ॥७॥
तिस मोह दुष्ट आज्ञा एकांत, थी कुमति स्वरूप अनेक भांति । वि० जिनवारणी करि ताको विहंड, करि स्याद्वाद प्राज्ञा प्रचंड ॥६॥
बरतायो जग में सुमति रूप, भविजन पायो प्रानन्द अनूप । थे मोह नृपति दुखकरण शेष, चारों अघातिया विधि विशेष ॥६॥ है नृपति सनातन रीति एह, अरि विमुख न राखे नाम तेह । यो तिन नाशन उद्यम सुठानि, प्रारंभ्यो परम शुकल सु ध्यान ।१०। तिस बलकरि तिनकी थिति विनाश, पायो निर्भय सुखनिधि निवास । यह अक्षय जोति लई अबाधि. पुनि अंश न व्यापो शत्रु बाध ॥११॥ शास्वत स्वाश्रित सुखश्रेय स्वामि, है शांति संत तुम कर प्रणाम । अंतिम पुरुषारथ फल विशाल. तुम विलसौ सुखसौ अमित काल ।१२।
ॐ ह्री सम्मत्तणाणादि-अष्टगुणसयुक्तसिद्ध म्यो महायं निर्वपामीति स्वाहा ॥१॥ घत्ता-परसमय विदूरित पूरित निजसुख समयसार चेतनरूपा।
नानाप्रकार विकार हुतै सब टार लसै सब गुरणभूषा ॥
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ते निरावर्ण निर्देह निरुपम सिद्धचक्र परसिद्ध जजू।।
सुर मुनि नित ध्यावै प्रानन्द पावै, मैं पूजत भवभार तजू॥ सिद्ध
इत्याशीर्वाद ॥ इति प्रथम पूजा सम्पूर्णम् ।।
अथ द्वितीय पूजा । इ छप्पय छन्द-ऊरध अधो सरेफ बिंदु हंकार विराजे,
अकारादि स्वरलिप्त करिणका अन्त सु छाजै । वर्गनिपूरित वसुदल अम्बुज तत्व संधिधर, अग्रभाग में मंत्र अनाहत सोहत अतिवर ॥ पुनि अंत ही बेढ्यो परम. सुर ध्यावत अरि नागको
हदै केहरिसम पूजन निमित. सिद्धचक्र मंगल करो १ ___ॐ ह्री णमोसिद्धाण श्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो नम पोडशगुणसयुक्तसिद्धपरमेष्ठिन् अत्राव३ तरावतर सवौषट् आह्वानन । अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ ठः स्थापन । अत्र अत्र मम मन्निहितो प्रथम है भव भव वषट् सन्निषिकरणं ।।
पूजा दोह-सूक्ष्मादि गुण सहित है, कर्म रहित नीरोग।
सिद्धचक्र सो थापहूं, मिटै उपद्रव जोग ।
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॥ अथाष्टक ।।
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गीता छंद--हिमशैल धवल महान कठिन पाषाण तुम जस रासते,
शरमाय अरु सकुचाय द्रव ह वै बहो गंगा तासतै । सम्बन्ध योग चिलार चित भेटार्थ झारी मे भरू,
षोडश गुणान्वित सिद्धचक्र चितार उर पूजा करू ॥१॥ ॐ ह्री णमोसिद्धपरमेष्ठिने नम श्रीसमत्तणाणदसणवीर्यसुहमत्तहेव अवग्गाहण अगुरुलगुमवावाह पोडशगुणसयुक्ताय जल निर्वामीति स्वाहा । काश्मीर चन्दन आदि अन्तर बाह्य बहुविधि तप हरै, यह कार्य कारण लखि नमित मम भाव हू उद्यम करै। मै हूँ दुखी भवताप से घसि मलय चरणन ढिंग धरू, षोडश गुणान्वित सिद्धचक्र चितार उर पूजा करू ॥२॥ ____ॐ ह्री णमोसिद्धाण श्रीसिद्धपरमेष्ठिने नम श्रीसमत्तणाण दसणवीर्य सुहमत्तहेव अवग्गाहण अगुरुलघुमव्वावाह पोडशगुणसयुक्ताय चन्दन नि०। सौरभि चमक जिस सह न सकि अम्बुज बस सरताल मे, शशि गनन बसि नित होत कृश अहिनिश भ्रमै इस ख्यालमे।
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सो अक्षतौघ अखण्ड अनुपम पुज धरि सन्मुख धरू,
षोडश गुणान्वित सिद्धचक्र चितार उर पूजा करू ॥ अक्षतं ॥३॥ सिद्ध जग प्रकट काम सुभट विकट कर हट करत जिय घट जगा, पर तुम शील कटक सुघट निकट सरचाप पटक सुभट भगा। । इम पुष्पराशि सुवास तुम ढिंग कर सुयश बहु उच्चरू,
षोडश गुरणान्वित सिद्धचक्र चितार उर पूजा करूं ॥पुष्प।। ४ ॥ इ जीवन सतावत नहिं अघावत क्षुधा डाइनसी बनी। । सो तुम हनी तुम ढिग न आवत जान यह विधि हम ठनी।। । नैवेद्यके संकेत करि निज क्षुधानाशन विधि करू, ६ षोडश गुणान्वित सिद्धचक्र चितार उर पूजा करू॥ नैवेद्य ॥५॥ ६ मै मोह अन्ध अशक्त अरु यह विषम भववन है महा, ऐसे रुले को ज्ञानदुति बिन पार निवरण को कहा। सो ज्ञान चक्षु उधार स्वामी दीप ले पायनि परू, षोडश गुणान्वित सिद्धचक्र चितार उर पूजा करू ॥दीपं॥६॥
प्रथम
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प्रासुक सुगंधित द्रव्य सुन्दर दिव्य घारण सुहावनो,
धरि अग्नि दश दिश वास पूरित ललित धूम सुहावनो। सिद्ध तुम भक्ति भाव उमंग करत प्रसंग धूप सु विस्तरू,
षोडश गुरणान्वित सिद्धचक्र चितार उर पूजा करूं ॥धूपं॥७॥ ६चित हरन अचित सुरंग रसपूरित विविध फल सोहने, । रसना लुभावन कल्पतरुके सुर असुर मन मोहने । ६ भरिथाल कंचन ,भेट धरि संसार फल तृष्णा हरू,
षोडश गुणान्वित सिद्धचक्र चितार उर पूजा करू ॥फलं॥८॥ ६ शुभ नीर वर काश्मीर चंदन धवल अक्षत युत अनी, ६ वर पुष्पमाल विशाल चरु सुरमाल दीपक दुति मनी । । वर धूप पक्क मधुर सुफल लै अर्घ अठ विवि संचरू, षोडश गुणान्वित सिद्धचक्र चितार उर पूजा करू॥॥६॥ प्रथम
निर्मल सलिल शुभवास चंदन धवल अक्षत युत अनी, शुभ पुष्प मधुकर नित रमै चरु प्रचुर स्वाद सुविधि घनी।
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करि दीपमाल उजाल धूपायन रसायन फल भले, करि अर्घ सिद्ध समूह पूजत कर्मदल सब दलमले ॥ ते कर्मवर्त नशाय युगपत ज्ञान निर्मलरूप है, दुख जन्म टाल अपार गुरण सूक्षम सरूप अनूप है। कर्माष्ट विन त्रैलोक्य पूज्य अछेद शिव कमलापती, मुनि ध्येय सेय अमेय चाह, ज्ञेय यो हम शुभमती॥ ____ॐ ह्री सिद्धचक्राधिपतये नम सम्मतणाणादि-गुणसयुक्ताय महागें ।
अथ सोलहगुरण सहित अर्घ ( त्रोटक छन्द ) ६ दर्शन आवर्णी प्रकृति हनी, अथिता अवलोक सुभाव बनी।
इक साथ समान लखो सब ही, नमुसिद्ध अनंत हगन अबही ॥१॥ ___ॐ ह्री अनन्तदर्शनाय नमः अध्यं । विधि ज्ञानावर्ण विनाश कियो, निज ज्ञान स्वभाव विकास लियो। पूजा समयांतर सर्व विशेष जनों. नमु ज्ञान अनंत सु सिद्ध तनो ॥२॥ १७ ___ॐ ह्री अनन्तज्ञानाय नम अयं ।
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सुख अमृत पीवत स्वेद न हो, निज भाव विराजत खेद न हो। सिद्ध० असमान महाबल धारत है, हम पूजत पाप बिडारत है ॥३॥
. . ॐ ह्री अतुलवीर्याय नम. अध्यं । विपरीत सभीत पराश्रितता, अतिरिक्त धरै न करै थिरता। परकी अभिलाष न सेवत है, निज भाविक आनन्द बेवत है ॥४॥ ____ॐ ह्री अनन्तसुखाय नम अयं । निज आत्म विकाशक बोध लह्यो, भ्रम को परवेश न लेश कह्यो। निजरूप सुधारस मग्न भये, हम सिद्धन शुद्ध प्रतीति नये ॥५॥
ॐ ह्री अनन्तसम्यक्त्वाय नमा अर्घ्य । निज भाव विडार विभाव न हो, गमनादिक भेद विकार न हो। निजथान निरूपम नित्य बसे, नमसिद्ध अनाचल रूप लसै ॥६॥ ____ॐ ह्री अचलाय नम अध्यं । चौपई--गुरणपर्यय परणतिके भेद, अति सूक्षम असमान अखेद।
ज्ञान गहे, न कहै जड़ बैन, नमो सिद्ध सूक्षम गुरग ऐन ॥७॥ ॐ ह्री अनन्तसूक्ष्मत्वाय नम. अयं ।
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पूजा
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जन्म मरण युत धरे न काय, रोगादिक संक्लेश न पाय। सिद्ध नित्य निरंजन निर अविकार, अव्याबाध नमो सुखकार ।।
ॐ ह्री अव्याबाधाय नम अध्यं । एक पुरुष अवगाह प्रजंत, राजत सिद्ध समूह अनंत । एकमेक बाधा नहिं लहै, भिन्न भिन्न निजगुण में रहै ॥६॥
ॐ ह्री अवगाहनगुणाय नम अध्यं ।। काययोग पर्यापति प्रान, अनवधि छिन छिन होवे हान । जरा कष्ट जग प्रानी लहै, नमों सिद्ध यह दोष न सहै ॥१०॥
ॐ ह्री अजराय नमः अध्यं । काल अकाल प्राणको नाश, पावै जीव मरणको त्रास । तासौ रहित अमर अविकार, सिद्ध समूह नमसुखकार ॥११॥
ॐ ह्री अमराय नम. अध्यं । गुण गुण प्रति है भेद अनन्त, यो अथाह गुणयुत भगवंत । है है परमाण अगोचर तेह, अप्रमेय गुण बंदू एह ॥१२॥ ड ॐ ह्रो अप्रमेयाय नमः अध्यं ।
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प्रथम
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सिद्धार
भुजगप्रयात छन्द । अनूकर्मतै फर्स वर्णादि जानो, किसी एक वीशेषको किं प्रमानो।। वि० पराधीन आवर्ण अज्ञान त्यागी,नम् सिद्ध विगतेन्द्रिय ज्ञान भागी।१३॥
। ॐ ह्री अतीन्द्रियज्ञानधारकाय नम अध्यं । ६ त्रिधा भेद भावित महा कष्टकारे, रमण भावसो आकुलित जीव सारे।। । निजानंद रमणीय शिवनारस्वामी,नमो पुरुष आकृति सबै सिद्ध नामी।
ॐ ह्री अवेदाय नम अर्घ्य । ई विशेष सकल चेतना धार मांही, भये लै भली विधि रहौ भेद नाहीं।। । तथाहीन अधिकार्थको भाव टारी,नमो सिद्ध पूरणकला ज्ञानधारी॥१५॥
ॐ ह्री अभेदाय नम अयं । निजानन्दरस स्वादमे लीन अंता, मगन हो रहे रागजित निरंता। प्रथम कहांलो कहूँ आपको पार नाहीं, धरो आपको आपही आपमाहीं ।१७। पूजा ह्री निजाधीनजिनाय नम: अध्यं ।
यहा १०८ बार जाप देना चाहिये।
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श्रथ जयमाला
सिद्ध दोहा -- पंच परम परमात्मा, रहित कर्मके फंद | जगत प्रपंच रहित सदा, नमो सिद्ध सुखकंद ॥ त्रोटक छन्द ।
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दुखकारन द्वेष विडारन हो, वश डारन राग निवारन हो । भवितारन पूररणकारण हो, सब सिद्ध नमों सुखकाररण हो ॥१॥ समयामृत पूरित देव सही, पर प्राकृत मूरति लेश नहीं । विपरीत विभाव निवारन हो, सब सिद्ध नमो सुखकारण हो ॥२॥ श्रखिना अभिना अधिना सुपरा, अभिदा अखिदा अविनाशवरा । यम-जाम जरा दुखजारन हो, सब सिद्ध नमो सुखकारण हो ॥३॥ निराश्रित स्वाश्रित वासित हो, परकाश्रित खेद विनाशित हो । विधि धारन हारन पारन हो, सब सिद्ध नमो सुखकारण हो || ४ || अधा अछुधा श्रद्विधा अविधं कुधा सुसुधा सुबुधा सुसिधं । विधि कानन दहन हुताशन हो, सब सिद्ध नमो सुखकाररणहो ॥५॥
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प्रथम
पूजा
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शरणं चरणं वरणं करणं, धरणं चरणं मरणं हरणं ।
तरनं भव वारिधि तारन हो, सब सिद्ध नमों सुखकारण हो ॥६॥ - भववास-त्रास विनाशन हो, दुखरास विनास हुताशन हो।
निज दासन त्रास निवारन हो सब सिद्ध नमों सुखकारन हो ॥७॥ तुम ध्यावत शाश्वत व्याधि दहै, तुम पूजत ही पद पूजि लहै। शरणागत संत उभारन हो, सब सिद्ध नमो सुखकारण हो ॥८॥ दोहा-सिद्धवर्ग गुरण अगम है, शेष न पावै पार।
हम किंह विधि वरणन करै, भक्ति भाव उर धार ॥६॥ ह्री अनन्तदर्शनज्ञानादिषोडश-गुण युक्त-सिद्धेभ्यो महाय नि० । इति द्वितीय पूजा सम्पूर्णम् ।
अथ तृतीय पूजा बत्तीस गुणासहित छप्पय छन्द--ऊरध अधो सरेफ बिन्दु हंकार बिराजै,
अकारादि स्वर लिप्तकरिणका अंत सु छाजै । वर्गनिपूरित वसुदल अम्जुजतत्व संधिधर, अग्रभाग में मंत्र अनाहत सोहत अतिवर ॥
प्रथम
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सिद्ध
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पुनि अंत ही बेढयो परम, सुर ध्यावत अरि नागको। ह्व केहरि सम पूजन निमित, सिद्धचक्र मंगल करो ॥१॥
ॐ ह्री शमो सिद्धाण श्री सिद्धपरमेष्ठिन् बत्तीस गुण सहित विराजमान अश्रावतरा२५१ वतर सवौषट् प्राह्वानन । अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठ स्थापन । अत्र मम सन्निहितो भव भव । । वषट् सन्निधिकरणं। दोहा-सूक्ष्मादि गुण सहित है, कर्म रहित नीरोग । सकल सिद्ध सो थापहूं, मिटै उपद्रव योग ।
इति यत्रस्थापन।
अथाष्टक प्रभु पूजोरे भाई, सिद्धचक्र बत्तीसगुण, प्रभु पूजोरे भाई । भवत्रासित प्राकुलित रहै, भवि कठिन मिटन दुखताई॥ विमल चरण तुम सलिल धार दे, पायो सहज उपाई ॥प्रभु पूजोरे० पूजा
ह्री नमोसिद्धाणं श्री सिद्धपरमेष्ठिने श्री समत्तणाणदसणवीर्य मुहमत्तहेव अवग्गागा प्रगलघमव्वावाहं बत्तीसगुणमयुक्ताय जन्मजरारोगविनाशनाय जल ॥१॥
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है जगवंदन परसत पद चन्दन, महाभाग उपजाई । सिद्ध हरिहर आदि लोकवर उत्तम, कर धर शीश चढाई ॥प्रभु पूजोरे० विह्री नमो सिद्धाण श्री सिद्ध परमेष्ठिने श्री समत्तणाणदसणवीर्य सुहमत्तहेव अवग्गा२४ । हण अगुरुल घुमवावा बत्तीसगुग्णसयुक्ताय समारतापविनाशनाय चन्दनं० ॥ २ ॥
शिवनायक पूजन लायक है, यह महिमा अधिकाई। अक्षयपद दायक अक्षत यह, सांचो नाम धराई ॥प्रभु पूजोरे० ___ॐ ह्री नमो मिद्धाण श्रीसिद्धपरमेष्ठिने श्री समत्तणाणदसणवीयं सुहमत्तहेव अवग्गाहण अगुरुलघुमवावाह बत्तीमगुणसयुक्ताय प्रक्षयपदप्राप्तये अक्षत ॥ ३॥ *कामदाह अति ही दुखदायक, मम उरसे न टराई। ताहि निवारण पुष्प भेट धरि, मांगू वर शिवराई ॥प्रभु पूजोरे० ____ॐ ह्री नमो सिद्धारण श्री गिद्धपरमेष्ठिने श्री समतणाणदसणवीय सुहमत्तहेव नवग्गाहण अगुरुल घुमव्वावाहं वत्तीमगुणसयुक्ताय कामवाणविनाशनाय पुष्प ।। ४ ॥ चरुवर प्रचुर क्षुधा नहीं मेटत पूर परौ इन ताई। है। भाप श्राप कर पुष्पचाप घर मम उर शरण उपाई।
यह निश्चय करि पुष्प भेट घरि मांगू वर शिवराई। ऐसा पाठ भी है।
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भेंट करत तुम इनहन भेट, रह चिरकाल अघाई ॥प्रभु पूजोरे० । १ ४ ही नमो सिद्धाण श्री सिद्धपरमेष्ठिने श्री समत्तणाणदसणवीर्य सुहमत्तहेव अवग्गाहण सिद्ध अगुरुनघुमव्वावाह बत्तीसगुणसयुक्ताय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्य ।। ५ ॥
दिव्य रत्न इस देश कालमे, कहै कौन है नाई।
तुम पद भेटे दीप प्रकट यह चिंतामणि पद पाई ॥प्रभु पूजोरे० ३ ॐ ह्रो नमो सिद्धाण श्री सिद्धपरमेष्ठिने श्री समत्तणाणदसणवीर्य सुहमत्तहेव अवग्गाहण अगुरुल घुमवावाह बत्तीसगुण सयुक्ताय मोहाधकार विनाशनाय दीप ॥ ६ ॥ धूप हुताशन वासनमे धर, दसदिश वास वसाई । तुम पद पूजत या विधि वसु विधि, ईधन जर हो छाई ॥प्रभु पूजोरे० ___ह्री नमो सिद्धाण श्री सिद्धपरमेष्ठिने श्री समत्तणाणदसणवीयं सुहमत्तहेव अवगाहण
अगुरुल घुमवावाह बत्तीसगुणसयुक्ताय अष्टकर्मदहनाय धूप ।। ७ ।। १ सर्वोत्तम फल द्रव्य ठान मन, पूजू हूँ तुम पाई।
जासौ जजै मुक्तिपद पइये, सर्वोत्तम फलदाई ॥प्रभु पूजोरे० पूजा । ॐ ह्री नमो सिद्धाण श्री सिद्धपरमेष्ठिने श्री समत्तणाणदसणवीर्य सुहमत्तहेव अवग्गाहण! २५ अगुरुलघुमवावाह बत्तीसगुणसयुक्ताय मोक्षफलप्राप्ताय फल ।। ८ ।।
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वसुविधि अर्घ देऊ तुम मम द्यौ, वसुविधि गुण सुखदाई।
जासु पाय वसु त्रास न पाऊं, "सन्त" कहे हर्षाई ॥प्रभु पूजोरे० सिद्ध
ॐ ह्री नमो सिद्धाण श्रीसिद्धपरमेष्ठिने श्री समत्तणाणदसणवीर्य सुहमत्तहेव अवग्गाहण __ अगुरुलघुमव्वावाह बत्तीसगुणसयुक्ताय सर्वसुख प्राप्तये अध्यं ।। ६ ॥
गीता छन्द । निर्मल सलिल शुभ वास चन्दन धवल अक्षत युत अनी, शुभ पुष्प मधुकर नित रमे चरु प्रचुर स्वाद सुविधि घनी। वर दीपमाल उजाल धूपायन रसायन फल भले, करि अर्घ सिद्ध समूह पूजत, कर्मदल सब दलमले ॥ ते कर्म प्रकृति नसाय युगपत, ज्ञान निर्मल रूप है, दुख जन्म टाल अपार गुण, सूक्षम स्वरूप अनूप है। कर्माष्ट विन त्रैलोक्य पूज्य, अछेद शिव कमलापती, मुनि ध्येय सेय अमेय चाहूं, ज्ञेय द्यो हम शुभमती ।
ॐ ह्री महं सिद्धच क्राधिपतये नमः सम्मत्तणाणादि अष्टगुणाय महायं ।
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अथ भिन्न २ बत्तीस गुणों के अर्ध । पद्धड़ी छन्द चेतन विभाव पुद्गल विकार, है शुद्ध बुद्ध तिस निमित टार। २७६ दृगबोध सुरूप सुभाव एह, नमू शुद्ध चेतना सिद्ध देह ॥१॥
___ॐ ह्री शुद्ध चेतनाय नम अध्यं । मिति आदि भेद विच्छेद कीन, छायक विशुद्ध निज भाव लीन।। निरपेक्ष निरन्तर निविकार, नम शुद्ध ज्ञानमय सिद्ध सार ॥२॥
ॐ ह्री शुद्धज्ञानाय नमः अध्यं । सर्वाग चेतना व्याप्तरूप, तुम हो चेतन व्यापक सरूप । परलेश न निज परदेश मांहि, नम सिद्ध शुद्ध चिद्रूप ताहि ॥३॥
ॐ ह्री शुद्धचिद्रूपाय नम अयं । अन्तरविधि उदय विपाक टार, तुम जातिभेद बाहिज विडार । निज परिणतिमे नहीं लेश शेष, नमूशुद्धरूप गुरणगरण विशेष ॥५॥
___ॐ ह्री शुद्धस्वरूपाय नमः अध्यं । ६ रागादिक परिणतिको विध्वंश, पाकुलित भाव राखो न अंश। १२७
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पायो निज शुद्ध स्वरूप भाव, नम सिद्धवर्ग धर हिये चाव ॥५॥ सिद्ध
ॐ ह्री परम शुटुम्ब रूपभावाय नमः अयं । वि० दोहा--तिह काल मे ना डिगे, रहे निजानन्द थान ।
नमूं शुद्ध दृढ़ गुरण सहित, सिद्धराज भगवान ॥६॥ ___ॐ ह्री शुद्वढाय नम अध्यं । निज आवर्तकमे बसे, नित ज्यो जलधि कलोल । नमू शुद्ध आवर्तकी, करि निज हिये अडोल ॥७॥ ___ॐ ह्री शुद्वप्रावर्तकाय नम अध्यं । परकृत कर उपज्यो नहीं, ज्ञानादिक निज भाव । नमो सिद्ध निज अमलपद, पायो सहज सुभाव ॥८॥
__ॐ ह्री शुद्धस्वयभवे नम अध्यं । पद्धरी छन्द-निजसिद्ध अनन्त चतुष्ट पाय, निजशुद्ध चेतना पुजकाय ।
निजशुद्ध सबै पायो संयोग, तुम सिद्धराज सुशुद्ध जोग ॥६॥
ॐ ह्री शुद्धयोगाय नम अध्यं ।
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एकेन्द्रिय आदिक जातभेद, हीनाधिक नामा प्रकृति छेद। सिद्ध संपूरण लब्धि विशुद्ध जात, हम पूजै है पद जोर हाथ ॥१०॥
____ ॐ ह्री शुद्धजाताय नम अयं । २९दोहा--महातेज आनन्दघन, महातेज परताप । ___ नमो सिद्ध निजगुरण सहित, दोपै अनुपम आप ॥११॥
ॐ ह्री शुद्धतपसे नम अध्यं । ६ पद्धढी छन्द-वर्णादिकको अधिकार नाहि, संथान आदि आकार नाहिं।।
___ अति तेपिड चेतन अखंड, नमूशुद्ध मूर्तिक कर्म खंड ॥१२॥ ___ॐ ह्री शुद्धमूर्तये नम अध्यं ।। बाहिज पदार्थ को इष्ट मान, नहिं रमत ममत तासो जुठान निज अनुभवरसमें सदालीन,तुम शुद्धसुखी हम नमन कीन।१३॥
__ॐ ह्री शुद्धसुखाय नम. अर्घ्य । दोहा--धर्म अर्थ अरु काम बिन, अन्तिम पौरुष साध ।
भये शुद्ध पुरुषारथी, नमू सिद्ध निरबाध ॥१४॥ ____ॐ ह्री शुद्धपौरुषाय नम अध्यं ।
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पद्धडी छन्द-पुद्गल निरमापित वर्ण युक्त, विधि नाम रचित तासो विमुक्त सिद्ध पुरुषांकित चेतनमय प्रदेश, ते शुद्ध शरीर नमूहमेश ॥१५॥ वि० ___ॐ ह्री शुद्धशरीराय नमः अध्यं । ३० दोहा--पूरण केवल ज्ञान-गम, तुम स्वरूप निर्बाध ।
और ज्ञान जाने नहीं, नमो सिद्ध तज आध ॥१६॥
ॐ ह्री शुद्धप्रमेयाय नम अध्यं । दरशन ज्ञान सुभेद है, चेतन लक्षण योग। पूरण भई विशुद्धता, नमों शुद्ध उपयोग ॥१७॥
__ॐ ह्री शुद्धोपयोगाय नम. अध्यं । पद्धडी छन्द-परद्रव्य जनित भोगोपभोग, ते खेदरूप प्रत्यक्ष योग ।
निजरस स्वादन है भोगसार, सोभोगो तुम हम नमस्कार ॥
ॐ ह्री शुद्ध भोगाय नम. अध्यं । दोहा-निर्ममत्व युगपद लखो, तुम सब लोकालोक ।
शुद्ध ज्ञान तुमकों लखो, नमों शुद्ध अवलोक ॥१६॥ ॐ ह्री शुद्धावलोकाय नमः अध्यं ।
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पद्धडी छन्द-निरइच्छक मन वेदी महान, प्रज्वलित अग्नि है शुक्लध्यान।
निर्भेद अर्घ दे मुनि महान, तुम ही पूजत अहंत जान ॥२०॥
___ॐ ह्री अहं प्रज्वलितशुक्लध्यानाग्निजिनाय नमः अध्यं । दोहा--आदि अन्त वजित महा, शुद्ध द्रव्य की जात ।
स्वयं सिद्ध परमात्मा, प्रणम शुद्ध निपात ॥२१॥
ॐ ह्री शुद्धनिपाताय नम अध्यं । लोकालोक अनन्तवे, भाग बसो तुम आन । ये तुमसो अति भिन्न है, शुद्ध गर्भ यह जान ॥२२॥ _ॐ ह्री शुद्धगर्भाय नम अध्यं । लोकशिखर शुभ थान है, तथा निजातम वास । शुद्ध वास परमात्मा, नमों सुगुरण की रास ॥२३॥ "ॐ ह्री शुद्धवासाय नम अध्यं । अति विशुद्ध निज धर्म मे, वसत नशत सब खेद । परम वास नमि सिद्धको, वासी वास अभेद ॥२४॥
ॐ ह्री विशुद्धपरमवासाय नमः मध्य ।
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बहिरंतर कै विधि रहित , परमातम पद पाय । निरविकार परमात्मा, नमूनम सुखदाय ॥२५॥ ___ॐ ह्री शुद्धपरमात्मने नम. अध्यं । हीन अधिक इक देशको, विकल विभाव उछेद । शुद्ध अनन्त दशा लई, नमूसिद्ध निरभेद ॥२६॥
ॐ ह्री शुद्धअनन्ताय नमः अध्यं । श्रोटक छन्द-तुमरागविरोध विनाश कियो, निजज्ञान सुधारस स्वाद लियो।
तुमपूरण शांतिविशुद्ध धरो, हमको इकदेश विशुद्ध करो॥२७॥
ॐ ह्री शुद्धशाताय नम अध्यं । विद पंडित नाम कहावत है, विद अन्त जु अन्तहि पावत है। निजज्ञान प्रकाश सु अन्त लहो, कुछ अंश न जानन माहिं रहो।
___ॐ ह्री शुद्धविदताय नमः अध्यं ।। वरणादिक भेद विडारन हो, परिणाम कषाय निवारन हो। मन इन्द्रिय ज्ञान न पावत हो, अति शुद्ध निरूपम ज्योति मही ।२६॥ ३२
ॐ ह्री शुद्धज्योतिजिनाय नम. अयं ।
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जन्मादिक व्याधि न फेरि धरो, मरणादिक प्रापद नाहिं वरो। निर्वाण महान विशुद्ध अहो, जिन शासन में परसिद्ध कहो ॥३०॥
ॐ ह्री शुद्धनिर्वाणाय नम. अध्यं । करि अन्त न गर्भ लियो फिरके, जनमे शिववास जनम धरके। जिनको फिर गर्भ न हो कबहू, शिवराय कहाय नमूअब हूँ।३१।
ॐ ह्री शुद्धसंदर्भगर्भाय नम. अध्यं । जगजीवन काम नशायक हो, तुम पाप महा सुखनायक हो। तुम मंगल मूरति शांति सही, सब पाप नशै तुम पूजत ही ॥३२॥
ॐ ह्री शुद्धशाताय नम अध्यं । दोहा-पंच परमपद ईश है, पंचमगति जगदीश ।
जगत प्रपंच रहित बसे, नमू सिद्ध जग ईश ॥ ३३ ॥ ॐ ह्री सिद्धचक्राधिपतये नम महायं निर्वपामीति स्वाहा ।यहा १०८ बार जाप देना चाहिये ।
प्रथम अथ जयमाला इ. दोहा-परम ब्रह्म परमातमा, परम ज्योति शिवथान ।
परमातम पद पाइयो, नमो सिद्ध भगवान ॥१॥
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छन्द कामिनी मोहन मात्रा २० जन्ममरणकष्टको टारि अमरा भये,जरादिरोगव्याधिपरिहार अजराभय? सिद्ध जयद्विविधि कर्ममल जार अमला भये, जयविधिटार संसार अचला भयो
जय जगतवासतज जगतस्वामी भये,जय विनाशनाम थिरपरम नामी भये जयकुबुद्धिरूपतजि सुबुधिरूपा भये,जय निषधदोष तज सुगुरण भूपा भये कर्मरिपु नाशकर परम जय पाइए, लोकत्रयपूरि तुम सुजस घन छाइये। इन्द्रनागेन्द्र धर शीश तुम पद जजै, महा रागरसपाग मुनिगरण भज॥ विघनवन दहनकौं अघनघन पौन हो,सघन गुणरासके,बासको भौनहो। शिवतिय वशकरन मोहिनी मंत्र हो, काल च्यकार वैताल के यंत्र हो।' कोटिथित क्लेशको मेटि शिवकर रहो,उपलकोनकलहोअचलइकथल रहो स्वप्नमे हू न निजअर्थको पावही, जे महा खलन तुमध्यानधरि ध्यावही . आपके जाप बिन पापं सब भेंट ही, पापको तापको पाप कब मेंटही। ! "संत" निज दासको पास पूरी करो, जगतसे काढ निजचरणमें ले धरो। घता-जय अमल अनूपं शुद्ध, स्वरूपं, निखिल निरूपं धर्म धरा।
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जय विघन नशायक मंगलदायक, तिहूँ जगनायक परमपरा ॥ ॐ ह्री सिद्धचक्राधिपतये नम. द्वात्रिंशत्गुणयुक्तसिद्ध भ्यो नम पूण घ्य नि।। अथ चतुर्थ पूजा चौसठ गुर सहित
अथ चतुःषष्ठि दलोपरि चतुर्थ पूजा उच्यते । छप्पय छन्द-ऊरध अधो सुरेफ . बिंदु हंकार विराजे,
अकारादि स्वर लिप्त करिणका अन्त सु छाजे । वर्गन पूरित ' वसुदल अम्बुज तत्व संधिधर,
अग्रभागमें मंत्र अनाहत सोहत अतिवर ॥ फुनि अंत ही बेढ्यो परम, सुर ध्यावत अरि नागको।
हवै केहरि सम पूजन निमित, सिद्धचक्र मंगल करो। ____ह्री णमो सिद्धाण श्री सिद्धपरमेष्ठिन् प्रत्रावतरावतर सवौषट् आह्वानन। अत्र तिष्ठ । तिष्ठ ठ ठ स्थापन । अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधिकरण । परिपुष्पाजलिं क्षिपेत् । दोहा-सूक्ष्मादिक गुण सहित है, कर्मरहित नीरोग। सिद्धचक्र (सकल सिद्ध) सो थापहूं, मिट उपद्रव योग ।
इति यंत्र स्थापन।
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अथाष्टकं । चाल लावनी सिद्धगरण पूजो हरषाई, चौंसठि गुरणनामा विधिमाला' सुमरों सुखदाई, सिद्धगरण पूजोरे भाई ॥ आंचली ॥ त्रिभुवन उपमा वास लखै, तुम पद अम्बुज के माई। निर्मल जलकी धार देह, अवशेष करण ताई ॥ सिद्ध०॥
ॐ ह्री णमो सिद्धाण श्री सिद्धपरमेष्ठिने चतु षष्ठिगुणसहित श्री समत्तणाणदसणवीर्य । सुहमत्तहेव अवग्गाहण अगुरुलघुमव्वावाह जन्मजरारोगविनाशनाय जल ।।१।।
तुम पद अम्बुज वास लेन मनु, चन्दन मन माई। निजसो गुरगाधिक्य संगतिको, लहिय न हर्षाई ॥सिद्ध०॥
ॐ ह्री श्री सिद्धपरमेष्ठिने चतु षष्ठिगुणसहित श्री समत्तणाणदसणवीर्य सुहमत्तहेव प्रवग्गाहण अगुरुलघुमव्वावाह ससारतापविनाशनाय चदन नि० ॥२॥ क्षीरज धान सुवासित नीरज, करसों छरलाई।
प्रथम अंगुलसे तंदुलसो पूजत, अक्षय पद पाई ॥ सिद्ध०॥ पूजा
ॐ ह्री श्री सिद्धपरमेष्ठिने चतुःषष्ठिगुणसहित श्री समत्तणाणदसण वीर्य सुहमत्तहेव १ ३६ अवग्गाहण अगुल्लघुमन्वावाह अक्षयपदप्राप्तये अक्षत नि.||३||
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धूलि सार छवि हरण विवजित, फूलमाल लाई।। सिद्ध०५ काम शूल निरमूल करणकों, पूजहू तुम पाई ॥ सिद्ध०॥ वि० ॐ ह्री श्री सिद्धपरमेष्ठिने चतुपष्ठि गुणसहित श्री समत्तरमाणदसणवीर्य सुहमत्तहेव । ३७ वग्गाहण अगुरुलघुमब्बाबाह कामवाणविनाशनाय पुष्प नि•॥ ४॥
भूखा गार अक्षीण रसी हू, पूरति है नाई।। चारुमाल तुम पद पूजत हों पूरन शिवराई ॥ सिद्ध०॥
ॐ ह्री श्री सिद्धपरमेष्ठिने चतुषष्ठि-गुणसहित श्री समत्तणाणदसणवीर्य सुहमत्तहेव अवग्गाहरण अगुरुलघुमबाबाह सुधारोगविनाशनाय नैवेद्य नि०॥ ५॥
दीपनि प्रति तुम पद नित पूजत, शिव मारग दरशाई। घोर अंध संसार हरण की, भली सूझ पाई ॥सिद्ध०॥
ॐ ह्री श्री सिद्धपरमेष्ठिने चतुषष्ठि गुणसहित श्री समतणाणदसणवीयं सुहमत्तहेवा प्रवग्गाहण भगुरुलघुमब्बाबाहं मोहाधकारविनाशनाय दीप नि० ॥६॥ कृष्णागरु कर्पूर पूर घट, अगनीसे प्रजलाई।
पूजा उडै धूम यह, उडे किधों जर करमनकी छाई ॥सिद्ध०॥ ३७
ॐ ह्री श्री सिद्धपरमेष्ठिने चतुषष्ठि गुणसहित श्री समत्तणाणदसणवीर्य सुहमत्तहेव १ अवग्गाहणं अगुरुलघुमब्बाबाह अष्टकर्मदहनाय धूप नि० ।। ७ ।।
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मधुर मनोग सुप्रासुक फलसो, पूजो शिवराई। यथायोग विधि फलको दे गुरण, फलकी अधिकाई ॥सिद्ध०॥
ॐ ह्री श्री सिद्धपरमेष्ठिने चतुष्ठि गुणसहित श्री समत्तणाणदसणवीर्य सुहमत्तहेव बग्गाहण अगुरुलघुमन्बाबाह मोक्षफलप्राप्तये फल ॥ ८ ॥ निरघ उपावन पावन वसुविधि, अर्घ हर्ष ठाई। भेट धरत तुम पद पाऊं पद,-निर आकुलताई ॥ सिद्ध०॥
ॐ ह्री सिद्धपरमष्ठिने चतुपष्ठि गुणसहित श्री ममत्तणाणदसणवीर्य सुहमत्तहेव अवगाहण प्रगुरुनघुमवापाह सबमुखप्राप्ताय अयं निर्वपामोति स्वाहा । १॥
अथ चौसठि गुण सहित अर्घ ।
चाल छन्द । चउ घाती कर्म नशायो, अरहंत परम पद पायो। द्व धर्म कहो सुखकारा, नमू सिद्ध भए अविकारा ॥१॥ * ही अरहन-जिनमिद्धेभ्यो नम अध्यं ।
प्रथम संक्लेश भाव परिहारी, भए अमल अवधि बलधारी।
पूजा सो अतिशय केवलज्ञाना, उपजाय लियो शिवथाना ॥२॥
ॐ ह्री अवधिजिनसिद्धग्थो नम अर्घ्य ।
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निर्मल चारित्र समारा, परमावधि पटल उधारा । केवल पायो तिस कारण, नमूसिद्ध भये जग तारण ॥३॥
____ॐ ह्री णमो परमावधिजिनसिद्ध भ्यो नम' अध्यं ।। वर्द्धमान विशद परिणामी, सर्वावधिके हो स्वामी । अन्तिम वसुकर्म नसाया, नमू सिद्ध भये सुखदाया ॥४॥
ॐ ह्री सर्वावधिजिनसिद्धेभ्यो नम अध्यं ।। जिस अन्त अवधिको नाहीं, तुम उपजायो पद ताहीं। निर्मल अवधी गुणधारी, सब सिद्ध नमू सुखकारी ॥५॥
ह्री अनन्तावधिजिन सिद्धेभ्यो नम अध्यं । तप बल महिमा अधिकाई, बुद्धि कोष्ठ रिद्धि उपजाई। श्रुत ज्ञान कोष्ठ भंडारी, नम सिद्ध भये अविकारी ॥६॥
ॐ ह्री कोष्ठबुद्धि ऋद्धिसिद्ध भ्यो नमः मध्यं ।। ज्यो बीज फले बहुरासी, त्यों छिनही बहु अभ्यासी। यह पावत ही योगीशा, भये सिद्ध नमू शिव ईशा ॥७॥
ॐ ह्री बीजबुद्धिऋद्धि सिद्धेभ्यो नम अयं ।
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सिद्ध वि०
पदमात्र समस्त चितारे, है रिधि यह पद अनुसारे। यह पाय यतीश्वर ज्ञानी, भये सिद्ध नमू शिवथानी ॥८॥
____ॐ ह्री पादानुसारिणीऋद्धिसिद्ध भ्यो नम अध्य। जो भिन्न भिन्न इक लारै, शब्दन सुन अर्थ विचारै । यह ऋद्धि पाय सुखदाता, नसू सिद्ध भये जगत्राता ॥६॥
____ॐ ह्री सभिन्नश्रोतृऋद्धिसिद्ध'भ्यो नम अध्यं । मति श्रुत अर अवधि अनूपा, विन गुरुके सहज सरूपा। भयो स्वयंबुद्ध निज ज्ञानी, नम सिद्ध भये सुखदानी ॥१०॥
ॐ ह्री स्वयवुद्ध भ्यो नम अध्यं ।। जो पाय न पर उपदेशा, जाने तप ज्ञान विशेषा। प्रत्येक बुद्ध गुरण धारी, भये सिद्ध नमू हितकारी ॥११॥
ह्री प्रत्येकवुद्धऋद्धिसिद्धेभ्यो नम अयं ।। गरणधरसे समकित धारी, तुग दिव्यध्वनि अन्सारी। ज्ञानिनि सिरताज कहाये, भये सिद्ध सुजस हम गाये ॥१२॥
ॐ ह्रो भहं वोधबुद्ध भ्यो नमः अध्यं ।
॥१२॥
पूजा
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सिद्ध
मन योग सरलता धारै, तिस अन्तर भेद उधार। यो होय ऋजुमति ज्ञानी, नमू सिद्ध भये सुखदानी ॥१३॥
ॐ ह्री ऋजुमतिऋद्धि सिद्ध भ्यो नम. प्रध्य ।। बांके मनकी सब बातॉ, जाने सो विपुल कहाता। तुम पाय भये शिवधामी, नमू सिद्धराज अभिरामी ॥१४॥
__ॐ ह्री विपुलमतिऋद्धि सिद्धेभ्यो नम अध्यं । सुर विद्याको नहीं चाहै, निज चारित विरद निवाहै । दस पूर्व ऋद्धि यह पायो, भये सिद्ध मुनिन गुरण गायो॥१५॥
ॐ ह्री दशपूर्वऋद्धि सिद्वेभ्यो नम अयं । चौदह पूरव श्रुतज्ञानी, जाने परोक्ष परमानी। प्रत्यक्ष लखो तिस सारू, भये सिद्ध हरो अघ म्हारू ॥१६॥ ___ॐ ह्री चौदहपूर्वऋद्वि सिद्ध भ्यो नम अध्यं ।
सुन्दरी छन्द । । ज्योतिषादिक लक्षरण जानक, शुभ अशुभ फल कहत बखानिक। इनिमित ऋद्धि प्रभाव न अन्यथा, होय सिद्ध भये प्ररणम यथा ॥१७॥
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ॐ ह्री प्रष्टागनिमित्त ऋद्धि सिद्ध ेभ्यो नम अध्यं ।
सिद्ध० बहु विधि अणिमादिक ऋद्धि जू, तप प्रभाव भई तिन सिद्धिजू ।
वि०
निष्प्रयोजन निजपद लीन है, नमूं सिद्ध भये स्वाधीन है ॥ १८ ॥ ॐ ह्री विवऋद्धिसिद्धेभ्यो नम अध्यं ।
४२
भूमि जल जंतु जिय ही ना हरै, नमूं ते मुनि शिव, कामिनि वरं ।
नेक नहीं बाधा परिहार हो, नमूं सिद्ध सभी सुखकार हो ॥१६॥
ॐ ह्री विज्जाहरणऋद्धि सिद्धेभ्यो नमः अयं ।
जंघपर दो हाथ लगावहीं, अन्तरीक्ष पवनवत जावहीं।
पाय ऋद्धि महामुनि चारणी, यथायोग्य विशुद्ध विहारी ॥२०॥
ॐ ह्री चारणऋद्धि सिद्ध ेभ्यो नम श्रध्यं । ।
खग समान चलै आकाश में, लीन नित निज धर्म प्रकाश मे । शुद्ध चारण करि निज सिद्धता, पाइयो हम नमन करे यथा ॥२१॥
ॐ ह्री आकाशगामिनीऋद्धिसिद्धेभ्यो नम अध्यं ।
वादविद्या फुरत प्रमानही, वज्रसम परमतगिरि हानही । सब कुपक्षी दोष प्रगट करें, स्यादवाद महादुतिको धरे ॥ २२॥
प्रथम
पूजा
४२
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ॐ ह्री परामर्शऋद्धिसिद्ध म्यो नम मध्यं । विषम जहर मिला भोजन कर, लेत ग्रासहि तिस शक्ती हरै। ते महामुनि जग सुखदाय जू, हम नमें तिन शिवपद पाय जू ॥२३॥
ॐ ह्री पाशोविषऋद्धिसिद्धेभ्यो नम अध्यं । जो महाविष प्रति परचण्ड हो, दृष्टि करि तिन कीने खण्ड हो। सो यतीश्वर कर्म विडारकै, भये सिद्ध नमू उर धारकै ॥२४॥
___ॐ ह्री दृष्टिविषविषऋद्धिसिद्ध भ्यो नम अध्यं ।। अनशनादिक नित प्रति साधना, मरणकाल तई न विराधना। उग्र तप करि वसुविधि नासतै, हम नमें शिवलोक प्रकाशते ॥२॥
ॐ ह्री उग्रनपऋद्धिसिद्ध भ्यो नम अध्यं । बढति नित प्रति सहज प्रभावना, उग्र तप करि क्लेश न पावना। । दीप्ति तप करि कर्म जरायक, भये सिद्ध नमू सिर नायकै ॥२६॥ प्रथम
ॐ ह्री दीप्ततपऋद्धिसिद्ध भ्यो नम अध्यं ।' १ अन्तराय भये उत्सव बढे, बाल चन्द्र समान कला चढे। । वृद्ध तपकी ऋद्धि लहै यती, भये सिद्ध नमत सुख हो अती ॥२७॥
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ॐ ह्री तपोवृद्धि ऋद्धिसिद्वेभ्यो नम अध्यं । सिद्ध सिंहक्रीडित आदि विधानतें, नित बढावत तप विधि मानते । वि०४ महामुनीश्वर तप परकाशते, नमू मुक्ति भये जगवासते ॥२८॥ .
ॐ ह्री महातपोऋद्धिसिद्ध म्यो नमः अध्यं । ३ शिखरि-गिरि ग्रीषम, हिम सर-तटै, तरु निकट पावस निजपद रटै। घोर परिषह करि नाहीं हट, भये सिद्ध नमत हम दुख कट ॥२६॥
ॐ ह्री घोरतपोऋद्धिसिद्धम्यो नम अर्घ्य । महाभयंकर निमित मिलै जहां, निरविकार यती तिष्ठ तहां । महापराक्रम गुरणकी खान है, नमो सिद्ध जगत सुखदान है॥३०॥
ॐ ह्री घोरगुणऋद्धिसिद्धभ्यो नम अध्यं । १ सघन गुरणकी रास महायती, रत्नराशि समान दिपै अती। . ३ शेष जिन वर्णन करि थकि रहै, नमू सिद्ध महापदको लहै ॥३१॥
ॐ ह्री घोर गुणपरिक्रमाण ऋद्धि सिद्धेभ्यो नम' अध्यं । अतुल वीर्य धनी हन कामको, चलत मन न लखत सुख धामको। बालब्रह्मचारी योगीश्वरा, नमू सिद्ध भये वसुविधि हरा ॥३२॥
प्रयम
पूजा
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___ॐ ह्री ब्रह्मचर्य ऋद्धिसिद्ध भ्यो नम. अध्यं ।। सिद्ध
सकल रोग मिट संस्पर्शते, महायतीश्वर के प्रामर्शते । विनऔषधी यह ऋद्धि प्रभावना, भये सिद्ध नमत सुख पावना ॥३३॥ ४५
ॐ ह्री पामर्षऋद्धि सिद्धेभ्यो नम अध्यं । मूत्रमे अमृत अतिशय बसे, जा परसतै सब व्याधी नसै। औषधी यह ऋद्धि प्रभावना, भये सिद्ध नमत सुख पावना ॥३४॥
ॐ ह्री आमोसिय औषधिऋद्धि सिद्ध भ्यो नमः अयं । इतन पसीजत जल-कण लगतही,रोग व्याधि सर्वं जन भगत ही। औषधी यह ऋद्धि प्रभावना, भये सिद्ध नमत सुख पावना ॥३॥
ॐ ह्री जलोसियऋद्धि सिद्धेभ्यो नमः अध्यं । हस्त पादादिक नखकेश मे, सर्व औषधि है सब देशमे । औषधी यह ऋद्धि प्रभावना, भये सिद्ध नमत सुख पावना ॥३६॥
ॐ ह्री सर्वोसियऋद्धि सिद्ध भ्यो नम अध्यं । अडिल्लः-तन सम्बन्धी वीर्य बढ़े अतिशय महा,
एक महूरत अन्तर श्रुत चितवन लहा।
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मनोबली यह ऋद्धि भई सुखदाइ जू
___ भये सिद्ध सुखदाय जजू नित पाय ज ॥३७॥ सिद्ध
ॐ ह्री मनोबली ऋद्धि सिद्धेभ्यो नम अयं । वि• भिन्न भिन्न अति शुद्ध उच्चस्वर उच्चरै,एक महूरत अन्तर श्रुत वर्णनकर। ४६ बचनवलीयह ऋद्धि भई सुखदायजू भयो सिद्ध सुखदाय जजू तिन पायजू ॥
ॐ ह्री बचनबली ऋद्धि सिद्ध भ्यो नम अघ्र्य । खड्गासन इक अंगमासद्वैमासलौं अचलरूप थिररहै छिनक खेदित न हो। कायबली यह ऋद्धिभई सुखदाय ज, भयेसिद्ध सुखदाय जजो तिन पायजू
*ह्री कायबली ऋद्धि सिद्ध भ्यो नम अध्यं । अतिपरस चरु क्षीरहोय करधरतही,बचनखिरत पर-श्रवरणतुष्टताकरती क्षीरश्रावि यह ऋद्धिभई सुखदाय जू, भयेसिद्धसुखदाय जतिन पायजू
ॐ ह्री क्षीर श्रावी ऋद्धि सिद्ध भ्यो नमः अयं । रूखेभोजनसे करमें घृतरस श्रवै, वचनसुनत परको घृतसम स्वादित हवै अपर सर्पिश्रावि यहऋद्धिभई सुखदाय जू, भये सिद्धसुखदाय जजू तिन पायजू
ॐ ह्री सर्पिश्रावीऋद्धि सिद्ध भ्यो नम अध्यं ।
प्रथम
पूजा
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हस्तकमलमें अन्न मधुर रसदेत है, मधुकर सम जिय वचन गंधको लेत है। सिक मधुश्रावी यहऋद्धिभई सुखदायजू, भये सिद्ध सुखदाय जजू तिन पायजू वि०
ॐ ह्री मधुनावी ऋद्धि ऋद्ध भ्यो नम अध्यं । ४७ अमृतसमाहार होय कर आयके, वचनामृत दै सुक्ख श्रवणमे जायक आमियरसयहऋद्धिभई सुखदायजू, भयेसिद्ध सुखदाय जजू तिन पायजू
ॐ स्री मामियरसऋद्धि सिद्धेभ्यो नम अयं ।। जिस बासन जिस थान आहारकरै यती, चक्री सेना खाय अखै होवे अती अक्षीणरसी यहऋद्धि भई सुखदायजू,भयेसिध्द सुखदाय जजू तिनपाय,
ॐ ह्री अक्षीणरसऋद्धि सिद्ध भ्यो नम अध्यं ।। सोरठा-सिद्धरास सुखदाय, वर्धमान नितप्रति लसे।
नम्ताहि सिर नाय, वृद्ध रूप गुरण अगम है ॥४५॥
ॐ ह्री बड्ढमाण सिद्ध भ्यो नमः अध्यं । रागादिक परिणाम, अन्तरके अरि नाशके। लहि अरहंत सु नाम, नमों सिद्ध पद पाइया ॥४६॥
ॐ ह्री अरहन्त सिद्ध भ्यो नमः अध्यं ।
प्रथम
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सिद्ध वि.
दो अन्तिम गुरणथान, भाव सिद्ध इस लोक मे। तथा द्रव्य शिव थान, सर्व सिद्ध प्रणम् सदा ॥४७॥
ॐ ह्री णभो लोए सबसिद्धभ्यो नम अयं । शत्रु व्याधि भय नाहि, महावीर धीरज धनी। नम् सिद्ध जिननाह, संतनिके भवभय हरै ॥४८॥
ॐ ह्री भगवते महावीरवड्ढमाणाय नम अध्यं । क्षपकश्रेरिण प्रारूढ़, निजभावी योगी यथा। निश्चय दर्श अमूढ़, सिद्ध योग सब ही जजो ॥४६॥
ॐ ह्री णमो योगसिद्धाय नम अयं । वीतराग परधान, ध्यान करे तिनको सदा। सोई ध्येय महान, णमो सिद्ध हम अघ हरो ॥५०॥
ह्री णमो ध्येयसिद्धाण नम अयं । लोक शिखर शिव थान, अचल विराजत सिद्ध जन। लोकवास सर्वान, भये सिद्ध प्ररणमू सदा ॥५१॥
ॐ ह्री णमो सव्वसिद्धारण नम अध्यं ।
प्रथम पूजा
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औरन करत कल्याण, आप सर्व कल्याणमय । सोई सिद्ध महान, मंगलहेतु नमू सदा ॥५२॥
• ॐ ह्री णमो स्वस्तिसिद्धाण नमः अध्यं । तीन लोकके पूज, सर्वोत्तम सुखदाय है। जिन सम और न दूज, तिनपद पूजों भावयुत ॥५३॥
ॐ ह्री अहं सिद्धारण नमः मध्य । - लोकोत्तम परधान, तिन पद पूजत हैं सदा । तातै सिद्ध महान, सर्व पूज्य के पूज्य हो ॥५४॥
ह्री प्रहं सिद्ध सिद्धाण नमः अयं । परम धरम निज साध, परमातम पद पाइयो । सोई धर्म अबाध, पूजत हमको दीजिये ॥५॥
__ॐ ह्री परमात्मसिद्धाण नम मध्यं ।। सन ऋद्धि नव निद्ध, सिद्ध भये नहि सिद्ध हो। निजपद साधत सिद्ध होत सही तिनको गमो ॥५६॥
ॐ ह्री परमसिद्धारण नमः अध्यं ।
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सिद्ध
वि.
परमागमकी शाख, परम अगम गुरणगरण सहित । सोई मनमें राख, श्रद्धायुत पूजा करो ॥५७॥
, ॐ ह्री परमागमसिद्धाण नम. अध्यं । गुरण अनंत परकाश, महा विभवमय लसत है। प्रावरिणत पद नाश, ते पूजू प्रणमू सदा ॥५॥
ॐ ह्री प्रकाशमानसिद्धाण नमा अध्यं ।। स्वयं सिद्ध भगवान, ज्ञानभूत परकाश मय । लसत नमूमन आन, मम उर चिता दुख हरो ॥५६॥
____ॐ ह्री णमो स्वयभूसिद्धाय नम प्रय॑ ।। मन इन्द्रियसों भिन्न, मनइन्द्री परकाश कर । सोई ब्रह्म अखिन्न, साधित सिद्ध भये नमू॥६०॥
ॐ ह्री णमो ब्रह्मसिद्धाय नम. अध्यं । द्रव्य अनन्त गुणात्म, परणामी परसिद्ध के। सोई पद निज प्रात्म, साधत सिद्ध अनंत गुरण ॥६१॥
ॐ ह्री णमो अनन्तगुणसिद्धाय नमः अध्यं ।
प्रथम पूजा
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सर्व तत्त्वमय पर्म, गुरण अनंत परमातमा । सो पायो निजधर्म, परम सिद्ध तिनको नमू॥६२॥
ॐ ह्री णमो परमानन्तसिद्धाय नमःमध्ये । लोक शिखर के वास, पायो अविचल थान निज । सन लोक परकाश, ज्ञानज्योति तिनको नमों ॥६३॥
___ॐ ह्री लोकवाससिद्धाय नमः अध्यं । काल विभाग अनादि, शास्वत रूप विराजते । यातें नहिं सो आदि, नमि अनादि सिद्धान को ॥६४॥
___ॐ ह्री णमो अनादिसिद्धाय नमः अध्यं । । गीता छन्द-निर्मल सलिल शुभ वास चन्दन, धवल अक्षत युत अनी,
शुभ पुष्प मधुकर नित रमै चरु, प्रचुर स्वाद सुविधि धनी। वर दीप माल उजाल धूपायन, रसायन फल भलै, करि अर्घ सिद्ध समूह पूजत, कर्मदल सब दलमलै ॥१॥ ते कर्मप्रकृति नसाय युगपत, ज्ञान निर्मल रूप है,
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सिद्ध वि. ५२
दुख जन्म टाल अपार गुरण, सूक्षम स्वरूप अनूप है। कर्माष्ट विन त्रैलोक्य पूज्य, अदूज शिव कमलापती,
मुनि ध्येय सेय अमेय चाहूँ, ज्ञेय धो हम शुभमती ॥२॥ ॐ ह्री महंतजिनादिसिद्ध भ्यो नम पूर्णाध्य । (यहा १०८ बार जाप देनी चाहिये)
अथ जयमाला। दोहा--तीर्थंकर त्रिभुवन धनी, जापद करत प्रणाम । हम किह मुख वर्णन करै, तिन महिमा अभिराम ॥१॥
- चौपाई। जय भवि कुमुदन मोदन चंदा, जय दिनन्द त्रिभुवन अरविंदा । भव तप हरण शरण रस कूपा, मद ज्वर जरन हरण घन रूपा॥२॥ अकथित महिमा अमित अथाई, निर उपमेय निरसता नाई।
पिचम भालिंग बिन कर्म खिपाई, द्रव्य लिंग बिन शिव पद पाई ॥३॥ नय विभाग बिन वस्तु प्रमारणा, दया भाव बिन जिन कल्याणा। पंगु सुमेरु चूलिका परसै, गुंग गान प्रारम्भे स्वरसै ॥४॥
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ईयों अजोग कारज नहीं होई, तुम गुण कथन कठिन है सोई। या सर्व जैन शासन जिनमाहीं, भाग अनन्त धरै तुम नाहीं ॥५॥
गोखुर मे नहिं सिंधु समावे, वायस लोक अन्त नहीं पावै।
ताते केवल भक्ति भाव तुम, पावन करो अपावन उर हम ॥६॥ १ जे तुम यश निज मुख उच्चार, ते तिहुँ लोक सुजस विस्तारै। ६ तुम गुण गान मात्र कर प्रानी, पावै सुगुरण महा सुखदानी ॥७॥ जिन चित ध्यान सलिल तुम धारा, ते मुनि तीरथ है निरधारा । तुम गुण हंस तुम्ही सरवासी, वचन जाल में लेत न फांसी ॥८॥ | जगत बंधु गुणसिंधु दयानिधि, बीजभूत कल्यारण सर्वसिधि। अक्षय शिव स्वरूप श्रिय स्वामी, पूरण निजानन्द विश्रामी ॥६॥
शरणागत सर्वस्व सुहितकर, जन्म मरण दुख प्राधि व्याधि हर। पचम ई संत भक्ति तुम हो अनुरागी, निश्चै अजर अमर पद भागी॥१०॥
ॐ ह्री चतु षष्टिदलोपरिस्थितसिद्ध भ्यो नमः महायं निर्वपामीति स्वाहा ।
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घत्तानन्द छन्द। जय जय सुखसागर, सुजस उजागर, गुरणगरण आगर, तारण हो। सद्ध जय संत उधारण, विपति विडारण, सुख विस्तारण, कारण हो । वि० तुम गरण गान परम फलदान, सो मंत्र प्रमान विधान करूं ॥ ५४ जहरी कर्मनि वैरी की कहरी, असहरी भवकी व्याधि हरू॥
___ इत्याशीर्वाद । इति चतुर्थपूजा सम्पूर्ण।
अथ पंचम पूजा छप्पय छन्द-ऊरध अधो सरेफ विद हंकार विराज,
अकारादि स्वर लिप्त करिणका अन्त सु छाजै । वर्गनि पूरित वसुदल अम्बुज तत्त्व संधिधर;
अग्रभागमें मंत्र अनाहत सोहत अतिवर ॥ फुनि अन्त ही बेढयो परम, सुर ध्यावत अरि नाशको। हलै केहरि सम पूजन निमित, सिद्धचक्र मंगल करो ॥१॥
पूजा ॐ ह्री णमो सिद्धाण श्री सिद्धपरमेष्ठिन् अष्टविंशत्यधिकशत १२८ गुण सहित ५४ - माननरावतर सवौषट पाह्वानन, प्रत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ ठः स्थापन । पत्र मम
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दोहा--सूक्ष्मादि गुरण सहित है, कर्म रहित नीरोग। सिद्धचक्र सो थापहूँ, मिट उपद्रव योग।
इति यत्र स्थापन । (अथाष्टकं, चाल बारहमासा छन्द) चन्द्रवर्ण लखि चन्द्रकांतमरिण, मनतें श्रनै हुलसधारा हो। कंज सुवासित प्रासुक जलसो, पूजू अंतर अनुसारा हो। लोकाधीश शीश चूड़ामणि, सिद्धचरण उरधारा हो। चौसठि दुगुरण सुगुरण मरिण सुवरण सुमिरत ही भवपारा हो॥१॥
ॐ ह्री णमो सिद्धाण श्रीसिद्धपरमेष्ठिने एकसो अट्ठाईस गुणसयुक्ताय श्री समत्तणाणदसणवीर्य सुहमत्तहेव अवग्गाहणं अगुरुलघुमन्वावाह जन्मजरारोग विनाशनाय जल ॥१॥ ६ सुमरण मणिधर जास वास लहि, मद तजि गंध लुभावत है। इ सो चंदन नंदनवन भूषण, तुमपद कमल चढ़ावत है ।लोकाधीश पंचर
ॐ ह्री णमो सिद्धाण श्रीसिद्ध परमेष्ठिने एकसौ पठाईसगुणसयुक्ताय श्री समत्तणाण पूज ईदसणवीर्य सुहमत्तहेव अवग्गाहणं मगुरुलघुव्यावाह ससारतापविनाशनाय चन्दन नि० ॥
चंपक ही के भूम भमरावलि, भूमत चकित चकराज भए,
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शशि मण्डल जानो सो अक्षत, पुंजधार पद कंज नये ॥ लोकाधीश शीश चूड़ामणि, सिद्धचक्र उरधारा हो । मरिण सुवरन, सुमरत ही भवपारा हो ॥
चौसठ
दुगुरण सुगुरण
ॐ ह्री सिद्धपरमेष्ठिने १२८ गुरणसहित श्रोसमत्तरगाण दसरण वीर्यं सुहमत्तहेव अवग्गाहरण अगुरुलघुमव्वावाह अक्षयपदप्राप्तये प्रक्षत निर्वपामीति स्वाहा || ३ || मदन वदन दुतिहरन वरन रति लोचन अलिगरण छाय रहे । पुष्पमाल वासित विलास सो, भेंट धरत उर काम दहे ॥ लोकाधीश०
ॐ ह्री श्री सिद्धपरमेष्ठिने १२८ गुण सयुक्ताय श्री समत्तवारणदसरणवीर्य सुहमत्तहेव श्रवग्गाहरण अगुरुलघुमव्वावाह कामवाणविनाशनाय पुष्प निर्वपामीति स्वाहा ||४|| चितवत मन वररणत रसना रस, स्वाद लेत ही तृप्त थये । जन्मांतरहू छुधानिवारै, सो नेवज तुम भेट धरै ॥ लोकाधीश०
ॐ ह्री श्री सिद्धपरमेष्ठिने १२८ गुरणसहित श्री समत्तरणारणदसरणवीर्य सुहमत्तहेव प्रवरगाण अगुरुल घुमव्वावाह क्षुधारोग विनाशनाय नैवेद्य नि० ॥५॥
लवमणिप्रभा अनूपम सुर निज शीश धररणकी रास करें । या विन तुच्छ विभव निजजाने, सो दीपक तुम भेटधरै ॥ लोकाधीश० ॐ ह्री श्री सिद्धपरमेष्ठिने १२८ गुणसयुक्ताय श्री समत्तणाणदसरणवीर्यं सुहमत्तहेव
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अवग्गाहण अगुरुल घुमवावाहं मोहाधकारविनाशनाय दीप० ॥६॥
नीलंजसा करी नभमें ज्यो, ऋषभ भक्तिकर नृत्य कियो। ____ सो तुम सन्मुख धूप उड़ावत, तिस छविको नहीं भाव लियो।
लोकाधीश शीश चूड़ामरिण, सिद्धचक्र उरधारा हो। चौसठ दुगुण सुगुरण सुवरन सुमिरत ही भवपारा हो।
ॐ ह्री श्री सिद्धपरमेष्ठिने १२८ गुणसयुक्ताय श्री समत्तणाणदमण वो हमत्तहेव अवग्गाहण अगुरुलघुमव्वावाह अष्टकर्मदहनाय धूप० ।।७।। । सेव रंगीले अनार रसीले, केलाकी लै डाल फली। डाली हू नृपमाली हूँ, नातर प्रासुकताका रीति भली लोकाधीश,
ॐ ह्री श्री सिद्धपरमेष्ठिने १२८ गुणसयुक्ताय श्री समत्तणाणादसणवीर्य सुहमत्तहेव । अवग्गाहण अगुरुल घुमव्वावाह मोक्षफलप्राप्तये फलम् || एकसे एक अधिक सोहत वसु, जाति अर्घ करि चरण नमू। आनंद प्रारति भारत तजिकै, परमारथ हित कुमति ब लोका०
ॐ ह्री श्री सिद्धपरमेष्टिने १२८ गुणसयुक्ताय श्री समत्तणाणदसणवीर्य सुहमत्तहेव प्रवग्गाहण अगुरुलधुमव्वावाह अनर्घ्यपदप्राप्तये अध्य० ॥६॥
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गीता छन्द-निर्मल सलिल शुभ वास चन्दन, घवल अक्षत युत अनी,
शुभ पुष्प मधुकर नित रमें, चरु प्रचुर स्वाद सुघि घनी। वर दीपमालं उजाल धूपाइन रसायन फल भले, करि अर्घ सिद्ध समूह पूजत, कर्मदल सब दलमले ॥ ते कर्मप्रकृति नसाय 'युगपत, ज्ञान निर्मल रूप है, दुख जन्म टाल अपार गुण, सूक्षम स्वरूप अनूप है। कर्माष्ट बिन त्रैलोक्य पूज्य, अछेद शिव कमलापती,
मुनि ध्येय सेय अमेय चाहूँ, ज्ञेय धो हम शुभमती॥ अथ एक सौ अठाईस गुणा सहित अर्ध। ॐ ह्री अष्टाविंशति अधिकशतगुणयुक्त सिद्धेभ्यो नमः पूर्णाऱ्या ।
श्रोटक छन्द। निरबाध सु तत्व सरूप लखो, इक लेश विशेष न शेष रखो। अति शुद्ध सुभाविक छायक है, नमूदर्श महासुखदायक है ॥
ॐ ह्री सम्यग्दर्शनाय नम अयं ।
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निरमोह अकोह अबाधित हो, परभाव थकी न बिराधित हो। सिद्ध निरशंस चराचर जानत है, हम सिद्ध सु ज्ञान प्रमानत हैं ॥२॥
ॐ ह्री सम्यग्ज्ञानाय नम. अय॑ । ५६, सब राग विरोध निवारन है, निज भाव थकी निज धारन है। परमें न कभू निज भाव वहै, अति सम्यक्चारित्र नाम यहै ॥३॥
ह्री सम्यकचारित्राय नमःअध्यं । उतपाद विनाश न बाध धरै, परनाम सुभाव नहीं निसरै। ६ तुम धारत हो यह धर्म महा, हम पूजत है पद शीश यहां ॥४॥
ॐ ह्री अस्तित्वधर्माय नम अयं निज भावनतै व्यतिरिक्त न हो, प्रनमों गुणरूप गुणात्मन हो। । यह वस्तु सुभाव सदा विलसो, हम पूजत है सब पाप नसो ॥५॥
ॐ ह्री वस्तुत्वधर्माय नम अध्यं । । परमारण न जानत है तिनको, छिन रोग न पावत है जिनकों। अप्रमेय महागुरण धारत है, हम पूजत पाप विडारत है ॥६॥
ही अप्रमेयधर्माय नम. अर्ध्य ।
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• गुणपर्य प्रमाण दसा-नित ही, निजरूप न छांडत है कित हो। सिद्ध० जिन वैन प्रमाण सु धारत है, हम पूजत पाप विडारत है ॥७॥ वि.
ॐ ह्री अगरुलघुधर्माय नम अध्यं । ६० जितने कछु है परिणाम विषै, सब चित्त स्वरूप सुजान तिसै । मुख चेतनता गुरण धारत है, हम पूजत पाप विडारत है ॥८॥
ॐ ह्री चेतनत्वधर्माय नम अर्घ्य । जिन अंग उपंग शरीर नहीं, जिन रंग प्रसंग सु तीर नहीं। नभसार अमूरति धारत है, हम पूजत पाप विडारत है ॥६॥
ॐ ह्री अमूर्तित्वधर्माय नम अर्घ्य । परको न कदाचित धर्म गहै, निजधर्म स्वरूप न छांडत हैं। अति उत्तम धर्म सुधारत है, हम पूजत पाप विडारत है ॥१०॥
ह्री समकितधर्माय नम अयं । जितने कछु हैं परिणाम विौं, सब ज्ञान स्वरूप सु जान तिसै।। सुख ज्ञानमई गुण धारत है, हम पूजत पाप विडारत है ॥११॥
ॐ ह्री ज्ञानधर्माय नम अध्यं ।
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चिन्मय चिन्मूरति जीव सही, अति पूरणता बिन भेद कही। सिद्ध निज जीव सुभाव सुधारत है, हम पूजत पाप विडारत है ॥१२॥ वि.
ॐ ह्री जीवधर्माय नमः अध्यं । ६१, मनको नहिं बेग लखावत है, जिस बैन नहीं बतलावत है। अति सूक्षम भाव सुधारत है, हम पूजत पाप विडारत है ॥१३॥
—- ॐ ह्री सूक्ष्मधर्माय नम. अंध्यं । परघात न आप न घात करें, इक खेत समूह अनन्त वरै। अवगाह सरूप सुधारत है, हम पूजत पाप विडारत हैं ॥१४॥
_____ॐ ह्री अवगाहधर्माय नमः अध्यं ।। अविनाश सुभाव विराजत है, बिन बाध स्वरूप सु छाजत है। यह धर्म महागुण धारत हैं, हम पूजत पाप विडारत है ॥१५॥
ॐ ह्री अव्याबाधधर्माय नमः अर्घ्य । निजसों निजकी अनभूति करें, अपनो परसिद्ध सुभाव वरै। निज ज्ञान प्रतीति सुधारत है, हम पूजत पाप विडारत हैं ॥१६॥ पूजा
ॐ ह्री स्वसवेदनशानाय नम. अध्यं ।
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निज ज्योति स्वरूप उद्योतमई, तिसमें परदीप्त रहै नित ही। यह ताप स्वरूप उधारत है, हम पूजत पाप विडारत हैं ॥१७॥
ॐ ह्री स्वरूपतापतपसे नम. अयं । नित नंत चतुष्टय राजत है, हग ज्ञान बला सुख छाजत है। यह आप महागुरण धारत हैं, हम पूजत पाप विडारत हैं ॥१८॥
*ह्री अनन्तचतुष्टयाय नमः अर्घ्य । सुख समकित प्रादि महागुण को, तुम साधित सिद्ध भये अबहो । यह उत्तम भाव सुधारत हैं, हम पूजत पाप विडारत है ॥१६॥
___ॐ ह्री सम्यक्त्वादिगुणात्मकसिद्ध भ्यो नम अयं । दोहा--निश्चय पंचाचार सब, भेद रहित तुम साध ।
चेतनकी अति शक्तिमें, सूचत सब निरबाध ॥२०॥
. ॐ ह्री पंचाचाराचार्येभ्यो नमः अर्घ्य । चौपाई-सब विकलप तजि भेद स्वरूपी, निज अनभूतिमग्न चिद्रू पी। निश्चय रत्नत्रय परकासो, पूजू भाव भेद हम नासो ॥२१॥
ॐ ह्री रत्नत्रयप्रकाशाय नमः अध्यं ।
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करण भेद रत्नत्रय धारी, कर्म भेद निज भाव संवारी । करता भेद आप पररणामी, भेदाभेद रूप प्ररणमामी ॥२२॥ ॐ ह्री स्वस्वरूपसाधक सर्वसाधुभ्यो नम. मध्यं । मनोयोग कृत जिय संसारी, क्रोधारम्भ करत दुखकारी । तासों रहित सिद्ध भगवाना, अंतर शुद्ध करू तिन ध्याना ॥२३॥ ॐ ह्री प्रकृतमनः कोष सरम्भमनोगुप्तये नमः श्रर्घ्यं । परके मन कोधी संरम्भा, करत मूढ नाना प्रारम्भा । सिद्धराज प्ररणम् तिस त्यागी, निर्विकल्प निज गुरणके भागी ॥ २४ ॥ ॐ ह्री प्रकारितमनः क्रोधसंरम्भनिर्विकल्पधर्माय नम अध्यं । छन्द भुजगप्रान
मनोयोग रंभा प्रशंसीक रोधा, निजानंद को मान ठाने अबोधा । महानिंदनी भावको त्याग दीना, निजानंदको स्वाद ही आप लीना । ॐ ह्री नानुमोदितमनः क्रोधसरम्भसानन्दधर्माय नमः श्रर्घ्यं । मनोयोग क्रोधी समारंभ धारी, सदा जीव भोगे महाखेद भारी । महानंद श्राख्यातको भाव पायो, नमों सिद्ध सो दोष नाहीं उपायो ।
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ॐ ह्री अकृतमनक्रोधसमारम्भपरमानन्दाय नम अध्यं । दोहा--समारम्भ क्रोधित सुमन, परकारित दुख नाहि ।
परमातम पद पाइयो, नमूसिद्ध गुरण ताहि ॥२७॥ ॐ ह्री अकारितमन क्रोधसमारम्भपरमानन्दाय नम. अर्घ्य ।
भुजगप्रयात छन्द । समारम्भ क्रोधी मनोयोग माहीं, धरे मोदना भाव को जीव ताहीं। भये आप संतुष्ट येत्याग भावा, नमसिद्ध सो दोष नाहीं उपावा॥२८॥ ___ॐ ह्री नानुमोदितमन क्रोधसमारम्भपरमानन्दसतुष्टाय नमः अध्यं ।
पद्धडी छन्द। निज क्रोधित मन प्रारम्भ ठान, जग जिय दुखमे सुख रहै मान । सो आप त्याग संक्लेश भाव, भये सिद्ध नमूधर हिये चाव ॥२६॥
ही अकृतमनः क्रोधारम्भस्वसस्थानाय नम अर्घ्य । क्रोधित मनसों प्रारम्भ हेत, पर प्रेरित निज अपराध लेत। जग जीवनकी विपरीत रीति, तुम त्याग भये शिव वर पुनीत ॥३०॥ पूजा ॐ ह्री प्रकारितमना क्रोधारम्भबन्धसस्थानाय नमः मय।
६४ क्रोधित मनसों प्रारंभ देख, जिय मानत है आनन्द विशेष ।
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तुम सत्य सुखी इह भाव क्षार, भये सिद्ध नसू उर हर्ष धार ॥३१॥
ॐ ह्रीं नानुमोदितमन क्रोधारम्भसस्थानाय नम अयं । दोहा--मान योग मन रंभमे, वरतत है जगजीव ।
भये सिद्ध संक्लेश तजि, तिन पद नमसदीव ॥३२॥
ॐ ह्री अकृतमनोमानारम्भसाधर्माय नमः अध्यं ।। मान उदय मन योगते, परको रम्भ करान । त्याग भये परमातमा, नमसरन पर हान ॥३३॥ ___ॐ ह्रीं अकारितमनो मानसरम्भअनन्यशरणाय नम अध्यं । मान सहित मन रंभमे, जगजिय राखै चाव । नमो सिद्ध परमातमा, जिन त्यागो इह भाव ॥३४॥ __ॐ ह्री नानुमोदितमनोमानमरम्भसुगतभावाय नम अध्यं ।
अडिल्ल छन्द । समारंभ परिवर्तमान युत मन धरे, विकल्पमई उपकरण विधि इकठे करै।। पूजा महा कष्टको हेत भाव यह ना गहो, प्रणमसिद्ध अनंत सुखातम गुण लहौ, ६५
ॐ ह्री अकृतमनोमानसमारम्भ सुखात्मगुणाय नमः अयं ।
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मान सहित मनयोग द्वार चितवन करै,समारंभपर कृत्य करावन विधिवर मिद्ध० तहां कष्टको हेत भाव यह ना गहो, प्रणमसिद्ध अनन्तगुरणातम पद लहौ वि०
ॐ ह्री प्रकारितमनो मानसमारम्भ-अनन्यगताय नम. अध्यं ॥३६॥ ६६ जोड़े चितन समाजविविध जिस काजमे,समारंभतिसनाम सोम जिनराजमें माने मानी मन आनंद सु निमित्तसे,नम सिद्ध है अतुल वीर्य त्यागत तिसे।
___ ॐ ह्री नानुमोदितमनो मानसमारम्भअनन्तवीर्याय नम अयं ॥३७॥ अशुभकाज परिवर्तनाम प्रारंभको, मान सहित मन द्वार तास उद्यम गहो जगवासीजिय नितप्रतिपापउपाय है, गमो सिद्ध या रहित अतुलसुखरायहै
ॐ ह्री प्रकृतमनोयोगमानारम्भ-अनन्तसुखाय नम: अध्यं ॥३८॥ दोहा-मनो मान प्रारम्भके, भये अकारित आप । अतुल ज्ञान धारी भये, नमत नसै सब पाप ॥३६॥
ॐ ह्री प्रकारितमनो मानारम्भमनन्तज्ञानाय नम अयं ।। मनो मान प्रारम्भमे, नानुमोदि भगवंत । गुरण अनंत युत सिद्ध पद, पूजत है नित संत ॥४०॥ ___ॐ ह्री नानुमोदितमनो मान-आरम्भ-अनतगुणाय नमा अध्यं ।
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ताछन्द जो अशुभ काज विकल्प हो, संरम्भ मनयुत कुटिलता।
कर कर अनादित रंक जिय, बहु भांति पाप उपावता ॥ सो त्याग सकल विभाव यह तुम, सिद्ध ब्रह्मस्वरूप हो। हम पूजि है नित भक्ति युत, तुम भक्ति वत्सलरूप हो॥४१॥
___ॐ ह्री प्रकृतमनो मायासरम्भब्रह्मस्वरूपाय नम अयं । दोहा-मायावी मनतें नहीं, कबहुँ प्रारम्भ कराय।
सिद्ध चेतना गुरण सहित, नमू सदा मन लाय ॥४२॥ ____ॐ ह्री अकारितमनोमायासरम्भचेतनाय नम अध्यं । मायावी मनतें कभी, रंभानन्द न होय । सिद्ध अनन्य सुभाव युत, नमसदा मद खोय ॥४३॥ ॐ ह्री नानुमोदितमनोमायासरम्भ अनन्यस्वभावाय नमः अध्यं ।
पद्धडी छन्द । मायावी मनतें समारंभ, नहिं करत सदा हो अचल खंभ । तुम स्वानुभूति रमणीय संग, नित नमन करो धरि मन उमंग ॥४४॥ई
ॐ ह्री अकृतमनोमाया समारम्भस्वानुभूतिरताय नमः अध्यं ।
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मन वक्र द्वार उपकर्ण ठान, विधि समारंभ को नहिं करान। सिद्ध० निज साम्य धर्ममे रहो लिप्त, तुम सिद्ध नमों पद धार चित्त ॥४५॥ वि.
ॐ ह्री प्रकारितमनो-माया-समारभसाम्यधर्माय नम अयं । ६८ दोहा-मायावी मनमे नहीं, समारंभ प्रानन्द ।।
नमो सिद्ध पद परम गुरु, पाऊ पद सुख वृन्द ॥४६॥ - ॐ ह्री नानुमोदितमनो माया समारंभगुरवे नम अयं ।
पद्धडी छन्द। बहु विधिकार जोडै अशुभ काज, आरम्भ नाम हिंसा समाज । मायावी मन द्वारै करेय, तुम सिद्ध नमू यह विधि हरेय ॥४७॥
ॐ ह्री अकृत मनो मायारम्भपरमशाताय नमः अध्यं । पूर्वोक्त अकारित विधि सरूप, पायो निर प्राकुल सुख अनूप । सर्वोत्तम पद पायो महान, हम पूजत हैं उर भक्ति ठान ॥४८॥
___ॐ ह्री अकारित-मनोमायारभनिराकुलाय नम अध्यं । दोहा-मायावी प्रारम्भ करि, मनमे आनन्द मान ।
सो तुम त्यागो भाव यह, भये परम सुख खान ॥४६॥
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ह्री नानुमोदितमनोमायारंभ ग्रनन्तसुखाय नम अयं । लोभी मन द्वारे नहीं, करें सदा समरंभ | हम अनन्त हग सिद्धपद, पूजत है मनथंभ ॥५०॥ ॐ ह्रीं कृतमनो लोभसरम्भअनन्तदृगाय नम थध्यं । लोभी मन समरंभ को, परसों नाहि कराय । हगानन्द भावातमा, सिद्ध नमू मन लाय ॥५१॥
ॐ ह्री प्रकारितमन लोभसरम्भहगानन्दभावाय नम. ग्रध्यं । लोभी मन समरंभमे, माने नहीं आनन्द | नमूं न परमातमा, भये सिद्ध जगवंद ॥५२॥
ॐ ह्री नानुमोदितमनोलोभसरम्भसिद्धभावाय नमः श्रर्घ्यं । समारम्भ नह करत हैं, लोभी मनके द्वार । चिदानंद चिद्देव तुम, नमूं लहू पद सार ॥५३॥ ॐ ह्री प्रकुनमनोलोभसमारम्भचिद्देवाय नमः प्रयं । पर सो भी पूर्वोक्त विधि, कबहूँ नहीं कराय । निराकार परमात्मा, नमूं सिद्ध हर्षाय ॥ ५४ ॥
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ॐ ह्री प्रकारितमनो-लोभसमारभ-अनाकाराय नमः अध्यं । ऐसे ही पूर्वोक्त विधि, हर्षित होवे नाहि । चित्सरूप साकारपद, धारत हूँ उरमाहिं ॥५॥ ___ॐ ह्री नानुमोदितमनो लोभसमारम्भसाकाराय नम. अयं । रचना हिंसा काजकी, लोभी मनके द्वार।। नहीं करै है ते नमू, चिदानंद पद सार ॥५६॥
ॐ ह्री अकृतमनोलोभारभचिदानन्दाय नमः अध्यं । लोभी मन प्रेरित नहीं, परको प्रारंभ हेत। चिन्मय रूपी पद धरै, नम लहूँ निज खेत ॥५७॥ ___ ह्री अकारितमनोलोभारम्भचिन्मयस्वरूपाय नमः अध्यं । मन लोभी आरंभमें, प्रानन्द लहे न लेश । निजपदमें नित रमत है, ध्याऊं भक्ति विशेष ॥५॥ ॐ ह्री नानुमोदितमनोलोभारंभस्वरूपाय नमः अयं ।
अडिल्ल छन्द । क्रोधित जिय वचयोग द्वार उपयोगको,रचनाविधिसंकल्पनाम समरंभ सौ
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सितामे धरै प्रवृत्ति पाप उपजावते, नमू सिद्ध या विन वचगुप्ति उपावते ॥ई
ॐ ह्री प्रकृतवचनक्रोधसरम्भवाग्गुप्तये नमः अयं ॥५६॥ क्रोध अग्नि करिनिज उपयोग जरावही,वचनयोगकरिविधिसंरंभ करावही सो तुम त्याग विभाव सुभाव सरूप हो, नम उरानंदधार चिदानंदरूपहोई
ॐ ह्री भकारितवचनक्रोधसंरम्भस्वरूपाय नमः अध्यं । । सोरठा-क्रोधित निज वच द्वार, मोदित हो संरंभमें।
सो तुम भाव विडार, नम स्वानुभव लब्धियुत ॥६॥
ॐ ह्रो नानुमोदित वचन क्रोधसरम्भस्वानुभवलब्धये नमः अध्यं । ॥ दोहा-क्रोध सहित वाणी नहीं, समारंभ परवृत्त ।
स्वानुभूति रमरणी रमरण, नमूसिद्ध कृतकृत्य ॥६२॥ ____ॐ ह्री प्रकृतवचनकोघसमारम्भस्वानुभूतिरमणाय नमः अध्यं । समारंभ क्रोधित जिये, प्रेरित पर वच द्वार । नमसिद्ध इस कर्म बिन, धर्मधरा साधार ॥६३॥
-ॐ ह्री अकारित वचनक्रोधसमारभसाधारणधर्माय नमः अध्यं । समारंभ मय वचन करि, हर्षित हो युत क्रोध ।
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न सिद्ध या विन लहो, परम शांति सुख बोध ॥६४॥ " ॐ ह्री नानुमोदितवचनक्रोधसमारभपरमशाताय नम. अयं ।
छन्द मोतियादाम। वैर वचयोग धरै जियरोष, करै विधि भेद अरम्भ सदोष । तजो यह सिद्ध भये सुखकार, नमूपरमामृत तुष्ट अवार ॥६५॥
ॐ ह्री अकृतवचनक्रोधारम्भपरमामृततुष्टाय नम अध्यं । ' श्रकारित बैन सदा युत क्रोध, महा दुखकार अरम्भ अबोध । भये समरूप महारस धार, नमै हम सिद्ध लहै भवपार ॥६६॥
ॐ ह्री अकारितवचनक्रोधारम्भसमरसाय नम. अध्यं । दोहा-नानुमोद प्रारम्भमे, क्रोध सहित वच द्वार।
परम प्रीति निज आत्मरति, नमसिद्ध सुखकार ॥६७॥ ॐ ह्री नानुमोदिनवचनकोधारभपरमप्रीतये नमः अध्यं ।।
पचम अडिल्ल।
पूजा इवचन द्वार संरम्भ मानयुत जे करै, जोड़ करन उपकरण मानसो ऊचरै ७२ नानाविधिदुखभोग निजातमको हरै, नमूसिद्ध या विन अविनश्वर पदधरै
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___ॐ ह्री प्रकृतवचनमानमरम्भ-प्रविनश्वरधर्माय नमः अध्यं ॥६॥ सिद्धमान प्रकृति करि उदै करावै ना कदा, वचनन करि संरंभ भेद वरण्यदाई वि०मन इन्द्रिय अव्यक्तस्वरूप अनुप हो, नम सिद्धगुणसागर स्वातम रूपहोई ७३ ३ ॐ ह्री प्रकारित वचनमानसरम्भ अव्यक्तस्वरूपाय नम अध्यं ।।६।। । सोरठा--नानुमोद वच योग, मान सहित संरम्भ मय ।
दुर्लभ इन्द्री भोग, परम सिद्ध प्ररणम् सदा ॥७०॥ ॐ ह्री नानुमोदितवचनमानसरम्भदुर्लभाय नमः अध्यं ।
चौपई। समारम्भ जिन वैन न द्वार, करत नहीं है मान संभार । ज्ञान सहित चिन्मूरति सार, परम गम्य है निर आकार ॥७१॥
ॐ ह्री अकृतवचनमानसमारभपरमगम्यनिराकाराय नमः मध्य । वचन प्रवृत्ति मानयुत ठान, समारम्भ विधि नाहिं करान । शुद्ध स्वभाव परम सुखकार, नम सिद्ध उर प्रानन्द धार ॥७२॥
ॐ ह्री अकारितवचनमानसमारभपरमस्वभावाय नमः अध्यं । वचन प्रवृत्ति मानयुत होय, समारम्भ मय हर्षित सोय ।
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त्यागत एक रूप ठहराय, नमू एकत्व गती सुखदाय ॥७३॥
ॐ ह्री नानुमोदितवचनसमारभएकत्वगताय नम अयं । मानी जिय निज वचन उचार, वरतत है प्रारम्भ मझार । परमातम हो तजि यह भाव, नमू धर्मपति धर्म स्वभाव ॥७४॥ ___ॐ ह्री प्रकृतवचनमानारभ परमात्मधर्मराजधर्मस्वभावाय नम अयं । सोरठा-मानी बोले बैन, परप्रेरण प्रारम्भमें।
सो त्यागो तुम ऐन, शाश्वत सुख प्रातम नमू॥७॥ ॐ ह्री अकारितवचनमानारम्भशाश्वतानन्दाय नम. अध्यं । हर्षित वचन उचार, मान सहित प्रारम्भमय । सो तुम भाव विडार, निजानन्द रस घन नम्॥७६॥ ॐ ह्री नानुमोदितवचनमानारम्भ-अमृतपूरणाय नम अध्यं ।
पद्धडी छन्द । धरि कुटिल भाव जो कहत वैन, संरम्भ रूप पापिष्ट एन । तुम धन्य धन्य यही रीति त्याग, हो बेहद धर्मस्वरूप भाग ॥७७॥- ७४
ॐ ह्री प्रकृतवचनमायासरम्भमनन्तधर्मकरूपाय नम अयं ।
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मायायुत वचननको प्रयोग, संरम्भ करावत अशुभ भोग । तुम यह कलंक नहीं धरो लेश, हो अमृत शशि पूजू हमेश ॥७॥
ॐ ह्री प्रकारितवचनमायासरम्भ अमृतचन्द्राय नमः अध्यं । वच मायायुत संरम्भ कीन, सो पापरूप भावी मलीन । तिस त्याग अनेक गुरणात्म रूप, राजत अनेक मूरत अनूप ॥७॥
ॐ ह्री नानुमोदितवचनमायासरम्भमनेकमूर्तये नम अर्घ्य । तुम समारम्भकी विधि विधान, नहिं करत कुटिलता भेद ठान । हो नित्य निरंजन भाव युक्त, मै नम् सदा संशय विमुक्त ॥८॥
___ ॐ ह्री अकृतवचनमायासमारभनित्यनिरजनस्वभावाय नम. अर्घ्य । दोहा-मायायुत निज बैनतै, समारंभके हेत।
नहिं प्रेरित परको नमू, निजगुण धर्म समेत ॥१॥ ___ॐ ह्री अकारित वचनमायासमारभप्रात्मकधर्माय नम. अर्घ्य । मायाकरि बोलत नहीं, समारंभ हर्षाय । सूक्ष्म अतीन्द्रिय वृष नमू, नमसिद्ध मन लाय ॥२॥ ॐ ह्री नानुमोदितवचन मायासमारमात्मैकधर्माय नम' अर्घ्य ।
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मायायुत प्रारंभ की, वचन प्रवृत्ति नशाय । नअनन्त अवकाश गुरण, ज्ञान द्वार सुखदाय ॥३॥
ह्री प्रकृतवचनमायारभअनन्तावकाशाय नमः अर्घ्य । मायायुत प्रारंभ मय, मेट वचन उपदेश। भये अमल गुण ते नमू, रागद्वेष नहीं लेश ॥४॥
ॐ ह्री प्रकारितवचनमायारभअमलगुणाय नमः अर्घ्य । मायायुत प्रारम्भ मय, मेट वचन आनन्द । भये अनन्त सुखी नमू, सिद्ध सदा सुखवृन्द ॥८॥ ॐ ह्री नानुमोदितबचनमायारभनिरवधिसुखाय नम अध्यं ।
अहिल्ल छन्द । जो परिग्रहको चाह लोभ सों मानिये, विधि विधान ठानत संरंभ बखानिये वचन द्वार नहीं करे नमू परमातमा, सब प्रत्यक्षलखें व्यापक धर्मातमा।
पंचम ॐ ह्री अकृतवचनलोभसरम्भव्यापकधर्माय नम अध्यं । वर्तावन संरम्भ हेत परके तई,
लोभ उदै करि वचन कहै हिंसामई।
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नमू सिद्ध पद यह विपरीति सु जिन हरो, सिद्ध
सकल चराचर ज्ञानी व्यापक गुण वरो॥७॥
ॐ ह्री अकारितवचनलोभसरम्भव्यापकगुणाय नम अयं । ७७ लोभी वच संरम्भ हर्ष परकाशनं, नाना विधि संचरे पाप दुख नाशनं सोतुमनाशतशाश्वतधु वपदपाइयो,नमूअचलगुणसहितसिद्धमन भाइयो
____ॐ ह्री नानुमोदितवचनलोभसरम्भ-अचलाय नम अर्घ्य । सोरठा-समारम् के बेन, लोभ सहित पर आसरै।
तज निरलम्बी ऐन, नम सिद्ध उर धारिके ॥६॥ ___ ह्री प्रकृतवचनलोभसमारम्भनिरालयाय नमः अध्यं । समारंभ उपदेश, लोभ उदै थिति मेटिकें।' पायो अचल स्वदेश, नमनिराश्रय सिद्ध गुरण ॥६॥
ॐ ह्री प्रकारितवचनलोभसमारम्भनिराश्रयाय नम. अयं । नानुमोद वच लोभ, समारंभ परवृत्त में। नम् तिन्है तजि क्षोभ, नित्य अखण्ड विराजते ॥१॥ ॐ ह्री नानुमोदितवचनलोभसमारम्भ-अखण्डाय नम. जय॑ ।
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दोहान
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दोहा-लोभ सहित प्रारम्भ को, करत नहीं व्याख्यान ।
नूतन पंचम गति लहो, न सिद्ध भगवान ॥६२॥ ____ॐ ह्री प्रकृतवचनलोभारभपरीतावस्थाय नम अर्घ्य । लोभ वचन प्रारम्भ को, कहत न पर के हेत। समयसार परमातमा, नमत सदा सुख देत ॥६॥
ॐ ह्री अकारितवचनलोभारभसमयसाराय नम अर्घ्य । सोरठा-नानुमोद वच द्वार, लोभ सहित प्रारम्भमय ।
अजर अमर सुखदाय, नम निरन्तर सिद्धपद ॥६४॥
__ ह्री नानुमोदितवचनलोभारम्भनिरतराय नम अध्यं । अडिल्ल-क्रोधित रूप भयंकर हस्तादिक तनी,
करत समस्या सो संरम्भ प्रकाशनी। सो तुम नाशो काय गुप्ति करि यह तदा।
दृष्टि अगोचर काय गुप्ति प्रणम् सदा ॥६॥
ॐ ह्री प्रकृतकायकोषसरम्भकायगुप्तये नम अयं । सोरठा-पर प्रेरण निज काय, क्रोध सहित संरम्भ तज ।
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चेतन मूरति पाय, शुध काय प्रणम् सदा ॥६६॥ ____ॐ ह्री अकारितकायक्रोघसरम्भ शुद्धकायाय नम अध्यं । हर्षित शीश हिलाय, क्रोध उदय संरम्भ मे। त्यागत भये प्रकाय, नमू सिद्ध पद भावयुत ॥६७॥ _____ॐ ह्री नानुमोदितकायक्रोधसरम्भ-प्रकायाय नम अयं । समारम्भ विधि मेटि, कायिक चेष्टा क्रोध की। स्वै गुरणपर्य समेट, भक्ति सहित प्रणम् सदा ॥६॥
ॐ ह्री प्रकृतकायक्रोधसमारम्भस्वान्वयगुणाय नमः अर्घ्य । ६ दोहा-समारम्भ विधि क्रोध युत, तनसो नहीं कराय।
नित प्रति रति निजभाव मे, बंदू तिनके पाय ॥६६॥ ____ॐ ह्री मकारितकायक्रोधसमारम्भभावरतये नमः अर्घ्य । समारम्भ सो कायसो, क्रोध सहित परसंस। स्व अभिन्न पद पाइयो, नमूत्याग सरवंस ॥१०॥
ॐ ह्री नानुमोदितकायक्रोधसमारम्भस्वान्वयधर्माय नम अध्यं । क्रोधित कायारम्भ तजि, परसो रहित स्वभाव ।
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शुद्ध द्रव्य मे रत नमू, निज सुख सहज उपाव ॥१०१॥
ॐ ह्रीं प्रकृतकायक्रोधारम्भशुद्धद्रव्यरताय नमः प्रध्यं । क्रोधित कायारम्भ नहि, रंच प्रपंच कराय । पंचरूप संसार हनि, नमू, पंचमगति राय ॥१०२॥ ____ॐ ह्रो अकारितकायक्रोधारम्भससार-छेदकाय नमः अध्यं । क्रोधित कायारम्भ मे हर्ष विषाद विडार । अनेकांत वस्तुत्व गुण, धरै नमों पद सार ॥१०३॥
ॐ ह्रीं नानुमोदितकायक्रोघारम्भजैनधर्माय नमः मध्य । मान सहित संरंभकी, तनसों रचना त्याग। पर प्रवेश विन रूप,जिन, लियो नम्ब ढ़भाग ॥१०४॥
___ॐ ह्री प्रकृतमानकायसरम्भस्वरूपायगुप्तये नम अयं । मान उदय संरम्भ विधि, तनसो नहीं कराय ।
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ध्यान योग निज ध्येय पद, भावित नमूअशेष ॥१०६॥
ह्री नानुमोदितमानकामसरम्भ-ध्येयभावाय नमः अध्यं । मदयुत तनसों रंच भी, समारंभ विधि नाहिं । परमाराधन योगपद, पायो प्रणम् ताहि ॥१०७॥
ॐ ह्री प्रकृतमानकाय-समारम्भ-परमाराधनाय नमः अयं । समारम्भ निज कायसों, मदयुत नहीं कराय। ज्ञानानन्द सुभाव युत, प्ररणम शीश नवाय ॥१०८॥
___ॐ ह्रो प्रकारितमानकायसमारम्भानदगुणाय नमः मध्यं । समारम्भ मय विधि सहित, तनसों हर्ष न होय । निजानन्द नन्दित तिन्है, नमसदा मद खोय ॥१०॥ ॐ ह्री नानुमोदितमनकायसमारम्भस्वानदनन्दिताय नमः अध्यं ।।
अद्धं चौपई। अकृत मानारंभ शरीर, पर अनिंद्य बन्दू धर धीर ॥११०॥
ॐ ह्री अकृतमानकायारम्भसतोपाय नमःमध्यं । कायारंभ अकारित मान, स्व सरूप-रत बन्दूतान ॥१११॥
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ह्री अकारितमानकायारम्भस्वरूपरताय नमः अध्यं । सिद्ध० , मानारंभ अनन्दित काय, प्रणमूविमल शुद्ध पर्याय ॥ वि० .
___ॐ ह्री नानुमोदितकायारम्भशुद्धपर्यायाय नमः अध्यं । ५२ दोहा-मायायुत संरंभ विधि, तनसों करत न आप।
गुप्त निजामृत रस लहै, नमू तिन्है तज पाप ॥११२॥
ॐ ह्री अकृतकायमायासरम्भ-अमृतगर्भाय नमः अध्यं । मायायुत संरम्भ विधि, तनसों नहीं कराय। मुख्य धर्म चैतन्यता, बिनवै प्रणम् पाय ॥११३॥
___ॐ ह्री प्रकारितकायमायासंरम्भचैतन्याय नमः अयं । मायायुत संरम्भ मय, नानुमोदयुत काय । वीतराग आनन्द पद, समरस भावन भाय ॥११४॥
___ॐ ह्री नानुमोदितकायसरम्भ-समरसीमावाय नम. मध्यं । समारम्भ माया सहित, प्रकृत तन विच्छेद । बन्ध दशा निज पर द्विविध, नमत नसभव खेद ॥११॥
ॐ ह्री प्रकृतकायमायासमारम्भभवछेदकाय नम. अयं ।
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समारम्भ तन कुटिलसों, भये अकारित स्वामि । निज परिणति परिणमन विन, गुरण स्वातंत्र नमामि॥११६॥
ॐ ह्री प्रकारितकायमायासमारम्भस्वातत्र्यधर्माय नम. मध्य । नानुमोदित तन कुटिलता, समारम्भ विधि देव । गुण अनन्त युत परिणमू, धर्म समूही एव ॥११७॥ - ॐ ह्री नानुमोदितकायमायासमारम्भधर्मसमूहाय नमः अध्यं । मायायुत निज देहसों, नहीं प्रारम्भ करेह । परमातम सुख प्रक्ष विन, पायो बन्दू तेह ॥११॥
ॐ ह्री प्रकृतकायमायारम्भपरमात्मसुखाय नम अध्यं । मायारम्भ शरीर करि, परसों नहीं करान । निष्ठातम स्वस्थित नमू, सिद्धराज गुरगखान ॥११॥
ॐ ह्री प्रकारितकायमायारम्भनिष्ठात्मने नमः अध्यं । मायारम्भ शरीरसों, नानुमोद भगवन्त । दर्शज्ञानमय चेतना, सहित नमें नित सन्त ॥१२०॥
ॐ ह्री नानुमोदितकायमायारम्भचेतनाय नमः अध्यं ।
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अर्द्ध पद्धडी। संरम्भ चाह नहिं काययोग, चित परिणति नमि शुद्धोपयोग ॥१२१॥
ॐ ह्री अकृतकायलोभसरम्भपरमचित्परिणताय नम अध्यं । ८४ संरम्भ अकारित लोभदेह । निज प्रातम रत स्वसमेय तेह ॥१२२॥
___०ह्री अकारितकायलोभसरम्भ-स्वसमयरताय नमः अध्यं । संरम्भ लोभ तन हर्ष नाश।नमि व्यक्त धर्म केवल प्रकाश ॥१२३॥
ॐ ह्री नानुमोदितकायलोभसरम्भ-व्यक्तधर्माय नम अध्यं । सोरठा-लोभी योग शरीर, समारम्भ विधि नाशके ।
धू व प्रानन्द अतीव, पायो पूजू सिद्धपद ॥१२४॥
* ह्री प्रकृतकायलोभसमारम्भ-नित्यसुखाय नमः मध्य । लोभ प्रकारित काय, समारम्भ निज कर्म हनि । पायो पद अकषाय, सिद्ध वर्ग पूजू सदा ॥१२॥
ॐ ह्री अकारितकायलोभसमारम्भ-प्रकषायाय नम. मध्यं । पूर्ववर्तनानन्द, परिग्रह इच्छा मेटिकें। पायो शौच स्वछन्द, नमू सिद्ध पद भक्ति युत ॥१२६॥
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ॐ ह्री नानुमोदितकायलोभसमारम्भ-शौचगुणाय नमः अध्य । दोहा काय द्वार प्रारम्भकी, लोभ उदय विधि नाश । नमो चिदातम पद लियो, शुद्ध ज्ञान परकाश ॥१२७॥
ॐ ह्री प्रकृतलोभारम्भचिदात्मने नम अध्यं । काय द्वार प्रारम्भ विधि, लोभ उदय न कराय। निज अवलम्बित पद लियो, नमसदा तिन पाय ॥१२८॥
ॐ ह्री प्रकारितकायलोभनिरालबाय नम अध्यं । लोभी तन प्रारम्भ में, आनन्द रीती भेंट। नमसिद्ध पद पाइयो, निज प्रातम गुरण श्रेष्ठ ॥१२॥ ॐ ह्री नानुमोदितकायलोभारम्भात्मने नमः अध्यं ।
सवैवा इकतोसा जेते कछ पुदगल परमाणु शब्दरूप, भये हैं अतीत काल आगे होनहार हैं। तिनको अनंत गुण करत अनंतवार, ऐसे महाराशि रूपधरै विसतार हैं। सब हो एकत्र होय सिद्ध परमातमके, मानो गुण गण उचरन अर्थधार है। तौभी इक समयके अनंत भागअनंदको, कहत न कहैं हम कौन परकार हैं।
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ॐ ह्री अष्टाविंशत्यधिकशतगुणयुक्तसिद्धेभ्यो नमः अध्यं ।
१०८ वार जाप देना चाहिये। .
अथ जयमाला। ८६ दोहा-शिवगुण सरधा धार उर, भक्ति भाव है सार। केवल निज आनन्द करि, करूं सुजस उच्चार ॥
पद्धडी छन्द। जय मदन कदन मन करण नाश, जय शांतिरूप निज सुख विलास । जय कपट सुभट पट करन सूर, जय लोभ क्षोभ मद दम्भचूर ॥१॥ पर परणति सो अत्यन्त भिन्न, निज परिणति सो अति ही अभिन्न । अत्यन्त विमल सब ही विशेष, मल लेश शोध राखो न शेष ॥२॥ मरिण दीप सार निर्विघन ज्योत, स्वाभाविक नित्य उद्योत होत । त्रैलोक्य शिखर राजत अखण्ड, सम्पूरण धुति प्रगटी प्रचण्ड ॥३॥ मुनि मन मन्दिर को अन्धकार, तिस ही प्रकाशसौं नशत सार। सो सुलभ रूप पावै निजार्थ, जिस कारण भव भव भूमे व्यर्थ ॥४॥
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जो कल्प काल में होत सिद्ध, तुम छिन ध्यावत लहिये प्रसिद्ध । । सिद्धः भवि पतितन को उद्धार हेत, हस्तावलम्ब तुम नाम देत ॥५॥
तुम गुण सुमिरण सागर अथाह, गणधर शरीर नहीं पार पाह । जो भवदधि पार अभव्य रास, पावे 'न वृथा उद्यम प्रयास ॥६॥ जिन मुख द्रहसो निकसी अभंग, अति वेग रूप सिद्धान्त गंग। । नय सप्त भंग कल्लोल मान, तिहुँ लोक बही धारा प्रमान ॥७॥
सो द्वादशांग वाणी विशाल, ता सुनत पढ़त आनन्द विशाल । इयाते जग मे तीरथ सुधाम, कहिलायो है सत्यार्थ नाम ॥८॥
सो तुम ही सो है शोभनीक, नातर जल. सम जु वहै सु ठीक । निजपर प्रातम हित आत्म-भूत, जबसे है जब उतपत्ति सूत ॥६॥
ज्यो महाशीत ही हिम प्रवाह, है मेटन समरथ अगिन दाह । इत्यों आप महामंगल स्वरूप, पर विधन विनाशन सहज रूप ॥१०॥
है सन्त दीन तुम भक्ति लीन, सो निश्चय पावै पद प्रवीण। । तातै मन वच तन भाव धार, तुम सिद्धनकूमम नमस्कार ॥११॥
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ॐ ह्री अहं' अष्टाविंशत्यधिकशतदलोपरिस्थितसिद्ध भ्यो नमः अर्घ्य । मिद्धः दोहा--जो तुम ध्यावें भावसों, ते पावें निज भाव।। वि. अगनि पाक संयोग करि, शुद्ध सुवर्ण उपाय ॥१२॥
इत्याशीर्वादः।
इति पञ्चमी पूजा सम्पूर्ण । * अथ श्री षन्तमी पूजा २५६ गुण पहित *
छप्पय छन्द ! ऊरध अधो सरेफ बिन्दु हंकार विराजै, अकारादि स्वर लिप्त कणिका अन्तसु छाजै । वर्गनि परित वसुदल अम्बुज तत्त्व संधि धर,
अग्रभागमें मंत्र अनाहत सोहत अतिवर ॥ पुनि अन्त ही बेढयो परम, सुर ध्यावत अरि नागको। हवै केहरि सम पूजन निमित, सिद्धचक्र मंगल करो ॥१॥ ॐ ह्री श्री सिद्धपरमेष्ठिन् २५६ गुण सहित विराजमान पत्रावतरावतर सवौषट् प्राह्वानन, अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठ. स्थापनं । पत्र मम सन्निहितो भव २ वषट् सन्निधिकरणं ।
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दोहा--सूक्ष्मादिक गुण सहित है, कर्म रहित निररोग । सकल सिद्ध सो थापहूँ, मिटे उपद्रव योग ॥२॥
इति यंत्रस्थापन। अथाष्टक ।
गीता छन्द। अति नमूता तिहुँ योगमें निज भक्ति निर्मल भावहीं। यह गुप्त जल प्रत्यक्ष निर्मल सलिल तीरथ लावहीं॥ यह उभय द्रव्य संयोग त्रिभुवन पूज्य पूज रचावहीं। द्व अर्द्धशत षट अधिक नाम उचार विरद सु गावहीं॥ ॐ ह्री सिद्धपरमेष्ठिने २:६ गुण सहित श्री समत्तणाण दमण वीयं मुहमतहेव अवग्गाहणं प्रगुरुल घुमवावाह जन्मजरारोगविनाशनाय जल नि ॥१॥ अति वास विषय न वासनायुत मलय शील सुभावहीं। अरु चंदनादि सुगन्ध द्रव्य मनोग्य प्राशुक लावहीं।
यह उभय० ॥ अर्द्धशत षट०॥ ॐ ह्रीं सिद्धपरमेष्ठिने २५६ गुण सहित श्री समत्तणाणदसण वीयं मुहमत्तहेव
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ग्रेवग्गाहण अगुरुलघुमव्वावाहं संसारतापविनाशनाय चन्दन ।।२।। परिणाम धवल सुवर्ण अक्षत मलिन मन न लगावहीं, तिस सार अक्षय अखय स्वच्छ सुवास पुंज बनावहीं। यह उभय द्रव्य संयोग त्रिभुवन पूज्य पूज रचावहीं॥ हूँ अर्ध शत षट अधिक नाम उचार विरद सु गावहीं॥ ॐ ह्री श्रीसिद्ध परमेष्ठिने दो सौ छप्पन गुण सहित विराजमान श्री समत्तणाणदसण वीर्य सुहमत्तहेव अवग्गाहण अगुरुलघुमव्वावाह प्रक्षयपद प्राप्तये प्रक्षत निर्वपामोति स्वाहा। __ मन पाग भक्त्यनुराग प्रानन्द तान माल पुरावही । तिस भाग कुसुम सुहाग अर सुर नागबास सु लावही ॥
यह उभय० । अर्द्ध शत षट०॥ ॐ ह्री श्रीसिद्धपरमेष्ठिने दो सौ छप्पन गुंण सहित श्री समत्तणाणदसण वीर्य सुहमत्तहेव अवग्गाहण मगुरुलघुमब्वावाह कामवाग्ग विनाशनाय पुष्प निवपामीति स्वाहा। जिन भक्ति रसमें तृप्तता मन पान स्वाद न चावही।
षष्ठम अंतर चरू बाहिज मनोहर रसिक नेवज लावही ॥
यह उभय० । अर्द्ध शत षट०॥
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ॐ ह्री श्री सिद्धपरमेष्ठिने २५६ गुरण सहित श्री समत्तणाणदसण वीर्य सुहमत्तहेव अवग्गाहरण अगुरुल घुमब्वावाह क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्य नि०॥५॥
सरधान दीप प्रदीप्त अंतर मोह तिमिर नशावही। मरिणदीप जगमग ज्योति तेज सुभास भेंट धरावही ॥
यह उभय० । अर्द्ध शत षट०॥ ॐ ह्री श्री सिद्धपरमेष्ठिने २५६ गुण सहित श्री समत्तणाणदसण वीर्य सुहमत्तहेव अवग्गाहरण अगुरुलघुमवावाह मोहांधकार विनाशनाय दीपं नि०६||
आनन्द धर्म प्रभावना मन घटा धूम् सु छावहीं। गंधित दरव शुभ घारण प्रिय प्रति अग्नि संग जरावहीं॥ यह उभय द्रव्य संयोग त्रिभुवन पूज्य पूज रचावही अर्द्ध
ॐ ह्री श्रासिद्ध रमेष्ठिने २५६ गुण सहित श्री समत्तणाणदसण वीर्य सुहमत्तहेव अवग्गाहरण प्रगुरुलघुमवावाह प्रष्ट कर्मवहनाय धूप निर्वपामोति स्वाहा ।।७।।
शुभ चितवन फल विविध रस युत भक्ति तरु उपजावही। करसना लुभावन कल्पतरुके सुर असुर मन भावही॥ यह उभय द्रव्य संयोग त्रिभुवन पूज्य पूज रचावही । अर्द्ध
"केला नरगी विल्व आम्र सु चारु कमरख लावही" ऐसा पाठ भी है।
ही प्रसिद्ध रमेष्ठिनष्ट कर्मवहनाय धूप ति
तरु उपजावह
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ॐ ह्री श्रीसिद्धपरमेष्ठिने २५६ गुणसहित श्री समत्तणाणदसण वीर्य सुहमत्तहेव' भवग्गाहण अगु लघुमव्वावाह मोक्षफलप्राप्तये फल निवपामीति स्वाहा ॥८॥
समकित विमल वसु अंग युत करि अर्घ अन्तर भावही। वसु दरव अर्घ बनाय उत्तम देहु हर्ष उपावही॥ यह उभय द्रव्य संयोग त्रिभुवन पूज्य पूज रचावही । द्वे अर्द्ध शत षट् अधिक नाम उचार विरद सुगावही ॥
ॐ ह्री श्री सिद्धपरमेष्ठिने २५६ गुणसहित श्री समत्तणाणदसण वीय सुहमत्तहेव' अवग्गाहण अगुरुलघुमव्वावाह अन_पदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ॥६॥ गीताछंद-निर्मल सलिल शुभ वास चंदन, धवल अक्षय युत अनी।
शुभ पुष्प मधुकर नित रमें, चरु प्रचुर स्वादसुविधि घनी॥ वर दीपमाल उजाल, धूपायन रसायन फल भलै । करि अर्घ सिद्ध समूह पूजत, कर्मदल सब दलमलै ॥ ते कर्म प्रकृति नशाय युगपति, ज्ञान निर्मल रूप है। दुख जन्म टाल अपार गुरण, सूक्षम सरूप अनूप है। कर्माष्ट बिन त्रैलोक्य पूज्य, अछेद शिव कमलापती।
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मुनि ध्येय सेय अभय चाहूं, गेह धो हम शुभमती ॥१॥ ॐ ह्री णमो सिद्धाण सिद्धचक्राधिपतये समत्तणाणादि अट्ठगुणमहिताय पूर्णाय ।।
अथ २५६ गुण सहित नामावली अर्ध । । चौपाई-मिथ्यातम कारण दुखकारा, नित्य निरंजन विधि संसारा।
तिस हनि समरथ अतिशय रूपा, केवल पाय नम शिव भूपा॥११ ॐ ह्री चिरतर ससारकारण ज्ञाननितोद्भूत केवलज्ञानातिशयसपन्नाय सिद्धाधिपतये नमःप्रध्या, मन इन्द्रियनिमित मति ज्ञाना, योग देश तिष्ठत पद जाना। क्षय उपशम आवर्ण विनाशो, नमो सिद्ध स्वज्ञान प्रकाशो ॥२॥
ॐ ह्री अभिनिबोधवारकविनाशकाय नम अध्यं । द्वादश अंगरूप प्रज्ञाना, श्रुत आवरणी भेद बखाना। क्षय उपशम आवर्ण विनाशो, नमो सिद्ध स्वज्ञान प्रकाशो ॥३॥
ॐ ह्री द्वादणागश्रुतावरणीकर्मविमुक्ताय नम अध्यं । है असंख्य लोकावधि जेते, अवधिज्ञान के भेद सु तेते।
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क्षय उपशम आवर्ण विनाशो, नमो सिद्ध स्वज्ञान प्रकाशो ॥४॥
ॐ ह्री प्रसस्यभेदलोक अवधिज्ञानावरण विमुक्ताय नम अध्यं । सिद्ध० है, असंख्य परमान प्रमाना, मनपर्यय के भेद बखाना।
क्षय उपशम आवर्ण विनाशो, नमो सिद्ध स्वज्ञान प्रकाशो ॥५॥
___ॐ ह्रो असंख्यप्रकारमनपर्ययज्ञानावरणीकविमुक्ताय नमः अध्यं । निखिल रूप गुरणपर्यय ज्ञानं, सत स्वरूप प्रत्यक्ष प्रमानं । केवल पावर्णी विधि नाशों, नमो सिद्ध स्वज्ञान प्रकाशो ॥६॥
ॐ ह्री निखिलरूप-गुणपर्याय-बोधक-केवलज्ञानावरणविमुक्ताय नमः अध्यं । द्वारपती भूपति के ताई, रोक रहै देखन दे नाहीं। सोई दर्शनावरण विनाशो, नमो सिद्ध स्वज्ञान प्रकाशो ॥७॥
ॐ ह्री सकलदशनावरणीकर्मविनाशकाय नमः अध्यं । मूर्तीक पदको प्रतिभासन, नेत्र द्वार होवै परकाशन । चक्षु दर्शनावरण विनाशो, नमो सिद्ध स्वज्ञान प्रकाशो ॥८॥
___ॐ ह्री चक्षुदर्शनावरणकमरहिताय नम. अयं । हगविन अन्य इन्द्री मन द्वारे, वस्तुरूप सामान्य उघारे ।
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अहग दर्शनावरणविनाशो, नमो सिद्ध स्वज्ञान प्रकाशो ॥६॥
ॐ ह्री प्रचक्षुदर्शनावरणरहिताय नमः मयं । । देशकाल द्रव भाव प्रमानं, अवधि दर्श होवे सब ठानं । । अवधि दर्श प्रावरणे विनाशो, नमो सिद्ध स्वज्ञान प्रकाशो ॥१०॥
ॐ ह्री प्रवधिदर्शनावरणरहिताय नम प्रध्यं । विन मर्याद सकल तिहु काल, होय प्रकट घटपट तिहं हाल । केवल दर्शनावरण विनाशो, नमो सिद्ध स्वज्ञान प्रकाशो ॥११॥
ॐ ह्री केवलदर्शनावरणरहिताय नम अध्यं ।। बैठे खडे पडै घुम्मरिया, देखे नहीं निद्राको विरिया। निद्रा दर्शनावरण विनाशो, नमो सिद्ध स्वज्ञान प्रकाशो ॥१२॥
ॐ ह्री निद्राकर्मरहिताय नम अध्यं ।। सावधानि कितनी की जावे, रंच नेत्र उघड़न नहीं पावे । निद्रा निद्रा कर्म विनाशो, नमो सिद्ध स्वज्ञान प्रकाशो ॥१३॥
ॐ ह्री निद्रानिद्राकर्मरहिताय नमः अध्यं । मंदरूप निद्रा का आना, अवलोकै जाग्रतहि समाना।
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प्रचला दर्शनावरण विनाशो, नमो सिद्ध स्वज्ञान प्रकाशो ॥१४॥
ॐ ह्री प्रचलाकर्मरहिताय नमः अध्यं । पर मुखसों लार बहै अति भारी, हस्त पाद कंपत दुखकारी। प्रचला प्रचला वर्ण विकाशो, नमो सिद्ध स्वज्ञान प्रकाशो ॥१५॥
ॐ ह्री प्रचलाप्रचलाकर्मरहिताय नम अयं । सोता हुआ करै सब काजा, प्रगटावै प्राकर्म समाजा। यह स्त्यानगृद्धि विधि नाशो, नमो सिद्ध स्वज्ञान प्रकाशो ॥१६॥
ॐ ह्री स्त्यानगृद्धिकर्मरहिताय नमः अध्यं । जे पदार्थ हैं इन्द्रिय योग, ते सब वेदे जिय निज जोग । सोई नाम वेदनी होई, नम सिद्ध तुम नासो सोई ॥१७॥
ॐ ह्री वेदनीकर्मरहिताय नम. अध्यं । रतिके उदय भोग सुखकार, भोग जिय शुभ विविध प्रकार । साता भेद वेदनी होय, नमूसिद्ध तुम नाशो सोय ॥१८॥
ॐ ह्री सातावेदनीकर्मरहिताय नमः अध्यं । अरति उदय जिय इन्द्री द्वार, विषयभोग वेदे दुखकार ।
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एही भेद असाता होय, नम सिद्ध तुम नाशो सोय ॥१६॥
ॐ ह्री असातावेदनीकर्मरहिताय नम अयं । वि. ज्यों असावधानी मदपान, करत मोह विधिते सो जान । ९७१ ता विधि करि निज लाभ न होय, नमू सिद्ध तुम नाशो सोय ॥२०॥
_ . ॐ ह्री मोहकमरहिताय नम अयं । जाके उदय तत्त्व परतीत, सत्य रूप नहीं हो विपरीत । 5 पंच भेद मिथ्यात निवार, भये सिद्ध प्रणम् सुखकार ॥२१॥
ॐ ह्री मिथ्यात्वकर्मविनाशनाय नम अर्घ्य । प्रथमोपशम समकित-जब गले, मिथ्या समकित दोनों मिले। मिश्र भेद मिथ्यात निवार, भये सिद्ध प्रणम् सुखकार ॥२२॥
ॐ ह्री सम्यक्मिथ्यात्वकर्मरहिताय नम अर्घ्य ।। ६ दर्शनमे कुछ मल उपजाय, करै समल नहिं मूल नसाय । समय प्रकृति मिथ्यात निवार, भये सिद्ध प्रणम् सुखकार ॥२३॥
- ॐ ह्री सम्यक्त्वप्रकृतिमिथ्यात्वरहिताय नम अध्य । धर्म मार्ग मे उपजे रोष, उदय भये मिथ्यात सदोष ।
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यह अनन्त अनुबंध निवार, भये सिद्ध प्रणम् सुखकार ॥२४॥ सिद्ध
. ॐ ह्री अनन्तानुबन्धीक्रोधकर्मरहिताय नम अयं । वि० देव धर्म गुरुसों अभिमान, उदय भये मिथ्या सरधान । यह अनन्त अनुबंध निवार, भये सिद्ध प्रणम् सुखकार ॥२५॥
ॐ ह्री अनन्तानुबन्धीमानकर्मरहिताय नम. अर्घ्य । छलसो धर्म रीति दलमलै, उदय होय मिथ्या जब चलै । यह अनन्त अनुबंध निवार, प्रणम् सिद्ध महासुखकार ॥२६॥
___ॐ ह्री अनन्तानुबन्धीमायाकर्मरहिताय नम. अध्यं । लोभ उदय निर्मालय दर्ब, भक्षे महानिद मति सर्व । यह अनन्त अनुबंध निवार, भये सिद्ध प्रणमू सुखकार ॥२७॥ ॐ ह्री अनन्तानुबन्धीलोभकर्मरहिताय नम अर्घ्य ।
सुन्दरी छन्द। क्रोध करि अणुव्रत नहिं लीजिये, चारित मोह प्रकृति सु भनीजिए। पूजा है अप्रत्याख्यानी कर्म सो, भये सिद्ध नम् तिन नासियो ॥२८॥
ॐ ह्री अप्रत्याख्यानावरणकोषकर्मरहिताय नम. प्रध्यं ।
सुन्दरी छन्द।।
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मान करि अणुव्रत न हो कदा, रहै अवत युत दर्शन सदा। सिद्ध है अप्रत्याख्यानी कर्म सो, भये सिद्ध नमूतिन नासियो ॥२६॥
ॐ ह्री अप्रत्याख्यानावरणमानकर्मरहिताय नमः अध्यं । ६ देशवृती श्रावक नहीं होत है, वक्रताको जहं उद्योत है। है अप्रत्याख्यानी कर्म सो, भये सिद्ध नमू तिन नासियो ॥३०॥
। ॐ ह्री अप्रत्याख्यानावरणमायाविमुक्ताय नम अयं । है मोह लोभ चरित जे जिय बसे, देशवत श्रावक नहीं ते लसै। है है अप्रत्याख्यानी कर्म सो, भये सिद्ध नम तिन नासियो ॥३१॥ 5
ॐ ह्री अप्रत्याख्यानावरणलोभविमुक्ताय नम अध्यं ।
पडिल्ल छन्द। प्रत्याख्नानी क्रोध सहित जे पाचरे, देशवती सो सकल वृत्त नाहीं धरे।। चारितमोहसुप्रकृति रूप तिह नाम है, नाश कियोमै नम सिद्ध शिवधाम है। पचम
ॐ ह्री प्रत्याख्यानावरण क्रोधविमुक्ताय नम अयं ॥३२॥ प्रत्याख्यानभिमान महान न शक्ति है, जास उदय पूरणसंयम अव्यक्त है। चारित मोह सुप्रकृति रूप तिह नाम है, नाश कियोमैन सिद्ध शिवधामहै।
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ॐ ह्री प्रत्याख्यानावरणमानरहिताय नमः अर्घ्य ।।३३॥ प्रत्याख्यानी माया मुनि पदको हतै, श्रावकवत पूरण नहीं खंड़े जासतै । . वि० चारितमोहसुप्रकृतिरूपतिह नामहै, नाशकियो मै नमूसिद्ध शिवधामहै।
ॐ ह्री प्रत्याख्यानावरणमायारहिताय नम अध्यं । ॥३॥ श्रावक पदमे जास लोभको वास है, प्रत्याख्यानी श्रुतमें संज्ञा तास है। चारितमोह सुप्रकृतिरूप तिह नाम है,नाशकियो मैं नमूसिद्ध शिवधामहै । ॐ ह्री प्रत्याख्यानावरणलोभरहिताय नम अर्घ्य ।। ३५ ।।।
भुजगप्रयात छन्द । यथाख्यात चारित्रको नाश कारा, महावृत्त को जासमे हो उजारा।। यही संज्वलन क्रोध सिद्धांत गाया, नम सिद्धके चरण ताको नसाया॥३६
ॐ ह्री सज्वलनावरणक्रोघरहिताय नम अर्घ्य । रहे संज्वलन रूप उद्योत जेते, न हो सर्वथा शुद्धता भाव तेते। यही संज्वलन मान सिद्धांत गाया, नसिद्धके चरण ताको नसाया ॥३७
ॐ ह्री सज्वलनावरणमानरहिताय नम अर्घ्य । वहै संज्लनकी जहां मंद धारा, लही है तहां शुक्लध्यानी उभारा।
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सिद्ध यह संज्वलनमाया सिद्धांत गाया,नमू सिद्धके चरण ताको नसाया।३८॥
___ॐ ह्री सज्वलनावरणमायारहिताय नम अध्य । १०१ जहां संज्वलन लोभ है रंच नाही, निजानन्दको वास होवे तहांही। यही संज्वलन लोभ सिद्धांतगाया, नमू सिद्ध के चरण ताको नसाया॥३६ ___ॐ ह्री सज्वलनावरणलोभरहिताय नम अध्यं ।
. मोदक छन्द । जा करि हास्य भाव जुत होहि, हास्य किये परकी यह पाहि ।। सो तुम नाश कियो जगनाहि, शीश नम तुमको धरि हाहिं ॥४०॥
ॐ ह्रीं हास्यकर्मरहिताय नम अर्घ्य । प्रीत करै पर सो रति मानहिं, सो रति भेद विधी तिस जाहिं। सो तुम नाश कियो जगनाहि, शीश नमूतुमको धरि हाहिं ॥४१॥ ॐ ह्री रतिकर्मरहिताय नम अर्घ्य ॥
पचम जो परसों परसन्न न हो मन, प्रारति रूप रहे निज प्रानन । सो तुम नाश कियो जगनाहि, शीस नमूतुमको धरि हाहि ॥४२६
ॐ ह्री प्ररतिकर्मरहिताय नमः अर्घ्य ।
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वि.
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जो करि पावत इष्ट वियोगह, खेदमई परिणाम सु शोकहिं । सिद्ध० सो तुम नाश कियो जगनाहि, शीस नम तुमको धरि हाहि ॥४३॥
___ॐ ह्रो शोककर्मरहिताय नम अध्य। हो उद्वेग उच्चाटन रूपहि, मन तन कंपित होत अरूपहि। सो तुम नाश कियो जगनाथहिं, शीस नमूतुमको धरि हाथहिं ॥४४
ॐ ही भयकमरहिताय नम. अध्यं । सवैया-जो परको अपराध उघारत, जो अपनो कछु दोष न जाने,
जो परके गुण औगुरण जानत, जो अपने गुण को प्रगटाने। सो जिनराज बखान जगप्सित, है जियनो विधिके वश ऐसो, हे भगवंत! नमूतुमको तुम, जीति लियो छिन में अरि तैसो।
___ॐ ह्री जुगुप्साकमरहिताय नम अयं । जो नर नारि रमावन की, निजसों अभिलाष धरै मनमाहीं।
पूजा सो अति ही परकाश हिये नित, काम की दाह मिटै छिन माहीं। १२ सो जिनराज बखान नपुंसक, वेद हनो विधिके वश ऐसो,
षष्ठम
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हे भगवंत! नम तुमको तुम जीति लियो छिन मे अरि तैसो।।
ॐ ह्री नपुसकवेदरहिताय नमः अर्घ्य ॥४६।। जो तिय संग रमें विधि यो मन, औरन से कछु आनन्द माने। किंचित् काम नगै उरमें नित, शांति सुभावन की शुधि ठाने॥ सो जिनराज बखानत है नर, वेद हनो विधिके वश ऐसो।। हे भगवन्त! नमूतुमको तुम, जीत लियो छिन में अरि तैसो॥
ॐ ह्री पुरुषवेदहिताय नमः अध्यं ॥४७॥ जो नर संग रमें सुख मानत, अन्तर गूढ न जानत कोई।। हाव विलास हि लाज धरै मन,आतुरता करि तृप्त न होई॥ सो जिनराज बखानत है तिय, वेद हनो विधिके वश ऐसो। हेभगवन्त नमूतुमको तुम,जीतलियो छिनमेअरितैसो॥४८॥ परम ॐ ह्री स्त्रीवेदरहिताय नम. मध्यं । ४८).
बसन्ततिलका छन्द । आयु प्रमाण दृढ़ बंधन और नाही, गत्यानुसार थिति पूरण कर्णनाहीं।।
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पूजा
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सोई विनाश कोनो तुम देवनाथा, नंदू तुम्हे तरणकारण जोर हाथा॥
ॐ ह्री प्रायूकमरहिताय नमः अध्यं ॥४६॥ जो हैं कलेश अवधिसब होत जासो, तेतीससागर रहे थिति नर्कतासों। सोई विनाश कीनो तुम देव नाथा, वंदू तुम्हें तरण कारण जोर हाथा॥
ॐ ह्री नरकायुरहिताय नम अर्ध्य ॥५०॥ याही प्रकार जितने दिन देव देही, नासै अकाल नहिं जे सुर प्रायुसेही। सोई विनाश कीनो तुम देव नाथा, नंदूतुम्हे तरण कारण जोर हाथा॥
ॐ ह्री देवायुरहिताय नम अर्घ्य ॥५१॥' जासो कर त्रिजगकी थितिप्राउ पूरी, सोई कहो त्रिजगायुमहालघूरी। सोई विनाशकीनोतुमदेव नाथा, वंदू तुम्हें तरणकारण जोरहाथा॥५२॥
ॐ ह्री तिर्य चायुरहिताय नम अयं ॥५२॥ जेते नरायु विधि दे रस प्राप जाको, तेते प्रजाय नर रूप भुगाय ताको। षष्ठम सोई विनाश कीनों तुम देव नाथा, वंदू तुम्हें तरण कारण जोरहाथा। पूजा
ही मनुष्यायुरहिताय नम अध्यं ।।५।। पद्धड़ी छंद-जो करे जीवको बहु प्रकार, ज्यो चित्रकार चित्राम सार।
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३०
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सो नाम कर्म तुम नाश कीन, मै नमसदा उर भक्ति लीन।५४।।
ॐ ह्री नामकर्मरहिताय नमः प्रध्य ।। जासो उपजे तिर्यंच जीव, रहै ज्ञान हीन निर्मल सदीव । सो तिर्यग्गति तुम नाश कीन, मै नमू सदा उर भक्तिलीन ॥५॥
ॐ ह्री तियंचगतिरहिताय नम अयं ।। जो उदय नारकी देह पाय, नाना दुख भोगे नर्क जाय । सो नरकगती तुम नाश कीन, मै नमसदा उर भक्तिलीन ॥५६॥
ह्री नरकगतिरहिताय नम अयं । चउ विधि सुरपद जासो लहाय, विषयातुर नित भोगे उपाय। सो देवगती तुम नाश कीन, मै नमू सदा उर भक्तिलीन ॥५७॥
ॐ ह्री देवगतिकमरहिताय नम अयं । जा उदय भये मानुष्य होत, लह नीच ऊंच ताको उद्योत । सो मानुष गति तुम नाश कीन, मै नमूसदा उर भक्ति लीन ॥५॥
ॐ ह्री मनुष्यगतिरहिताय नम. अयं ।
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कामीनीमोहन छन्द । मिद्ध एक ही भाव सामान्यका पावना, जीवको जातिका भेद सोगावना । वि० होत जो थावरा एक इन्द्री कहो, पूज हूँ सिद्धके चरण ताको दहो॥ १०६
*ह्री एक-इन्द्रिय जातिरहिताय नम अध्यं ॥५६॥ फर्सके साथमे जीभ जो आमिलें, पायसो आपने आप भूपर चलें। गामिनी कर्म सो दोय इन्द्री कहो, पूजहूँ सिद्धके चरण ताको दहो।
ॐ ह्री द्वि-इन्द्रिय-जातिरहिताय नम अध्यं ॥६॥ नाक हो और दो प्रादिके जोड़ मे, हो उदय चालना योगसों दोल में। गामिनी कर्म सो तीन इन्द्री कहों, पूजह सिद्धके चरण ताको दहो।
ह्री श्रीन्द्रिय-जातिरहिताय नम अध्यं ॥६१॥ प्रांख हो नाक हो जीभ हो फर्श हो, कानके शब्दका ज्ञान जामे न हो। गामिनी कर्मसो चार इन्द्री कहो, पूजहूँ सिद्धके चरण ताको दहो ॥६२॥ षष्ठम * ही चतुरिन्द्रियजातिरहिताय नम अयं ।
पूजा कान भी प्रामिलै जीवजा जाति में, हो असंज्ञी सुसंज्ञी दो भांति में। १०६ । गामीनी कर्मको पंच इन्द्री कहों, पूजहुँ सिद्धकेचरण ताको दहो ॥६३॥
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ॐ ह्री पचेन्द्रिय जातिरहिताय नम अध्यं । सिद्ध० छंदलावनी-हो उदार जो प्रगट उदारिक, नाम कर्मकी प्रकृति भनी,
लहै औदारिक देह जीव तिस, कर्म प्रकृतिके उदय तनी। भये अकाय अमूरति आनंद,-पुंज चिदातम ज्योति बनी, नमूतुम्हे कर जोरयुगलतुम सकल रोगथल काय हनी॥६४।
ॐ ह्री औदारिकशरीरविमुक्ताय नम अध्यं । निज शरीरको अरिणमादिक करि, बहु प्रकार प्रणमाय वरे, वैक्रिय तन कहलावे है यह, देव नारकी मूल धरे। भए अकाय अमूरति आनन्द,-पुंज चिदातम ज्योति धनी, नमूतुम्है करजोरयुगलतुम, सकल रोगथलकायहनी॥६५॥
___ ही वैक्रियिकशरीरविमुक्ताय नम अयं । धवल वर्ण शुभ योगी संशय-हरण आहारकका पुतला, षष्ठम मो-प्रमत्त गुरणथानक मुनिके, देह औदारिकसो निकला। पूजा
भए अकाय० ॥नमूतुम्है० ॥६६॥
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सिद्ध विक
____ॐ ह्री पाहारकशरीररहिताय नम. अध्यं । पुद्गलीक तन कर्म वर्गरणा, कारमाण परदीप्त करण, तेजस नाम शरीर शास्त्रमे, गावत है नहिं तेज वरण।
भए अकाय० ॥नमू तुम्है० ॥६७॥ ॐ ह्रो तेजमशरीररहिताय नम अयं ।। पुद्गलीक वरगणा जीवसों, एक क्षेत्र अवगाही है, नूतन कारण करण मूल तन, कारमाण तिस नाम कहै।
__ भए अकाय० ॥नम तुम्है० ॥६॥ ॐ ह्री कार्माणशरीररहिताय नम अयं ।
- इन्द्रवज्रा छन्द। जेते प्रदेशा तन बीच पावै, सारे मिलै जोड़ न छिद्र पावे। संघात नामा जिय देह जानो, पूजू तुम्हे सिद्ध यह कर्म भानो॥६६॥ षष्ठम ॐ ह्रो औदारिकसघातरहिताय नम अध्यं ।
.. । पूजा ऐसे प्रकारा तनमें अहारा, संधी मिलाया कर वेतसारा। संघात नामा जिये देह जानो, पूजू तुम्हे सिद्ध यह कर्म भानो॥७०॥
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ॐ ही प्रहारकसघातरहिताय नमः अयं ।
वैक्रिय के जोड़ जो होत नाहीं, संघातनामा जिन बैन माहीं ।
सिद्ध०
वि० संघात नामा जिय देह जानो, पूजूं तुम्हे सिद्ध यह कर्म भानो ॥७१॥ ॐ ह्रीं वैयिकसघातरहिताय नमः अध्यं । तेजस्सके अंग उपंग सारे, संधी मिलाया तिस मांहि धारे ।
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संघात नामा जिय देह जानो, पूजूं तुम्हे सिद्ध यह कर्म भानो ॥७२॥ ॐ ह्री तेजसमघातरहिताय नमः अयं । ज्ञानादि वर्ण वो कर्म काया, ताको मिलाया श्रुत मांहि गाया । संघात नामा जिय देह जानो, पूजूं तुम्हे सिद्ध यह कर्म भानो ॥७३॥ ॐ ह्री कार्मारणसघातरहिताय नमः श्रयं
चौबोलाछन्द- पुद्गलीक वर्गरगा जोग है जब जिय करत अहारा । प्रणवावे तिनको एकत्र करि, बंध उदय अनुसारा ॥ यही श्रदारिक बन्धन तुमने, छेद किये निरधारा । भए अबंध का अनूपम, जजू भक्ति उर धारा ॥७४॥ ॐ ह्री प्रौदारिकनबन्धनरहिताय नम अध्यं ।
षष्ठम पूजा
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सिद्ध वि.
वैक्रियक तनु परमाणु मिल, परस्परा अनिवारा। हो स्कन्ध रूप पर्याई, यह बन्धन परकारा॥ वैक्रियिक तनु बन्धन तुमने, छेद कियो निरधारा। भये प्रबंध अकाय अनुपम जजू भक्ति उर धारा भए०७५ *ह्री वैक्रियिकबन्धनछेदकाय नम. अयं ।। मुनि शरीरसो बाहिज निसरे, संशय नाशनहारा । ताको मिले प्रदेश परस्पर, हो सम्बन्ध अवारा ॥ यही अहारक बन्धन तुमने, छेद कियो निरधारा भए०७६। * ह्री आहारकबन्धनछेदकाय नम. अध्यं । दीप्त जोति जो कारमारणकी, रहै निरन्तर लारा। जहां तहां नहिं बिखरै कन ज्यो, बहै एक ही धारा ॥ तैजस नामाबंधक तुमने छेद कियो निरधारा॥भए॥७७॥ ॐ ह्री तेजसबम्धनरहिताय नम अयं । द्रव्य कर्म ज्ञानावरणादिक, पुद्गल जाति पसारा। एक क्षेत्र अवगाही जियको, दुविधि भाव करतारा ॥ ११०
षष्टम
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सिद्ध
कारमारण यह बंधन तुमने, छेव कियो निरधारा भए०७४
ॐ ह्री कार्माणबन्धनरहिताय नम. अध्यं । वि० छन्द रोला-तन प्राकृत संस्थान प्रादि, समचतुरस बखानो,
ऊपर तले समान यथाविधि सुन्दर जानो। यह विपरीत स्वरूप त्याग, पायो निजात्म पद, बीजभूत कल्याण नमू, भव्यनि प्रति सुखप्रद ॥७६॥
ॐ ह्री समचतुरस्रसस्थानविमुक्ताय नमः अध्यं । । ऊपर से हो थूल तले हो न्यून देह जिस, परिमण्डलनिग्रोध नाम वरणो सिद्धांत तिस । यह विपरीत० ॥बीजभूत कल्यारण० ॥८॥
ॐ ह्री न्यग्रोधपरिमण्डलसस्थानरहिताय नम अध्यं । नीचेसे हो थूल न्यून होवे उपराही, बमई सम वामीक देह जिन आज्ञा माही । यह विपरीत०॥बीजभूत कल्यारण० ॥८१॥ पष्ठम
*ह्री वामीकसस्थानरहिताय नम अध्यं ।। जो कूबड़ आकार रूप पावे तन प्राणी, कुब्ज नाम संस्थान ताहि बरण जिन वानी । यह विपरीत० ॥बीजभूत कल्याण ॥२॥
पूजा
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ॐ ह्री कुब्जकनामसस्थानरहिताय नम. अध्यं । लघुसों लघु ठिगना रूप एम तन होवे जाको, वामन है परसिद्ध सिद्ध० लोकमें कहिये ताको। यह विपरीत स्वरूप त्याग,पायो निजात्मपद ।
बीजभूत कल्याण नमूभव्यनि प्रति सुखप्रद ॥३॥ ११२
ॐ ह्री वामनसंस्थानरहिताय नम. अयं । जिततित बहु आकार कहीं नहिं हो यकसारू, हुँडक अति असुहावन पाप फल प्रगट उघारू ।
यह विपरीत०, बीजभूत कल्याण ॥४॥ ॐ ह्री हुँडकसम्धानरहिताय नम अध्यं ।
लक्ष्मोधरा छन्द । जीवापभावसो जुकर्मकी क्रियाकरत,अगवाउपंग सो शरीरकेउदयसमेत सो औदारिकीशरीरअंगवाउपंगनाश, सिद्धरूपहोनमोसुपाइयोअबाधवास
___ॐ ह्री प्रौदारिकपागोपागरहिताय नम अयं ॥५॥ देवनारकीशरीर मांसरक्तसेनहोत,तासको अनेकभांतिभाप देसकैउद्योत पूजा वैक्रियिक सो शरीरअंगवाउपंगनाश,सिद्धरूपहो नमो सुपाइयोअबाधवास ११२
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ॐ ह्री वैक्रियिकागोपागरहिताय नम अर्घ्य । साधुके शरीर मूलते कढ़े प्रशंसयोग,संशयकोविध्वंसकार केवलीसुलेतभोगई साहारक सो शरीर अंगवा उपंगनाश,सिद्धरूपहो नमोसुपाइयोप्रवाधवासई
ॐ ह्री पाहारकागोपागरहिताय नम अध्यं ।'८७ । है गीता छंद-संहनन बन्धन हाड होय अभेद वज सो नाम है,
नाराच कीली वृषभ डोरी बांधने की ठाम है। है आदिको संहनन जो जिम वज सब परकार हो । यह त्याग बंध प्रबंध निवसो परमानन्द धार हो॥८॥
ॐ ह्री वज्रर्षभनाराचसहननरहिताय नम अयं ।। ज्यो वजूकी कोली ठुकी हो हाड संधी मे जहां, सामान वृषभ जु जेवरी ताकरि बंधाई हो तहां। है दूसरा संहनन यह नाराज वजू प्रकार हो, यह त्याग बंध प्रबंध निवसो परम आनंद धार हो॥८६॥ पूजा
ॐ ह्री वज्रनाराचसहननरहिताय नम. अध्यं । नहिं वजूकी हो वृषभ अरु नाराच भी नहीं वजू हो,
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सामान कीली करि ठुकी सब हाड वज़ समान हो। है तीसरा संहनन जो नाराच ही परकार हो, यह त्याग बंध प्रबंध निवसो परम आनंद धार हो ॥६०॥
ह्री नाराचसहननरहिताय नम अध्यं । हो जडित छोटी कीलिका, सो संधि हाडो की जबै, कछु ना विशेषण वज़ के, सामान्य ही होवे सबै । है चौथवां संहनन जो, नाराच अर्द्ध प्रकार हो, यह त्याग बंध प्रबंध निवसो, परमानंद धार हो ॥६१॥
ॐ ह्री अर्द्ध नाराचसहननरहिताय नम अध्यं । जो परस्पर जडित होवे, संधि हाडनकी जहां, नहि कोलिका सो ठुकी होवे, साल संधी के तहां । है पांचवां संहनन जो, कीलक नाम कहाय हो, यह त्यागबंध प्रबंध निवसो, परमानंद धार हो॥६२॥
__ ह्री कीलिकसहननरहिताय नम अध्यं । कछु छिद्र कछुक मिलाप होवे, संधि हाडोमय सही,
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केवल नसासों होय बेढी, मॉससों लतपत रही।
अंतिम स्फाटिक संहनन यह, हीन शक्ति प्रसार हो, सिद्ध०२
यह त्याग बंध प्रबंध निवसो परम आनंद धार हो॥६३॥
* ही स्फटिकसहननरहिताय नम' अर्घ्य । दोहा-वर्ण विशेष न स्वेत है, नामकर्म तन धार । स्वच्छ स्वरूपी हो नमू, ताहि कर्मरज टार ॥६४॥
___ॐ ह्री स्वेतनामकर्मरहिताय नम' अध्यं । वर्ण विशेष न पीत है, नामकर्म तन धार ॥स्वच्छ०॥६॥
ॐ ह्री पीतनामकर्मरहिताय नम अध्यं । वर्ण विशेष न रक्त है, नामकर्म तन धार ॥स्वच्छ०॥६६॥
ॐ ह्री रक्तनामकर्मरहिताय नम अयं । वर्ण विशेष न हरित है, नामकर्म तन धार ॥स्वच्छ०॥६७॥
ॐ ह्री हरितनामकर्मरहिताय नम अयं । गंध विशेष न कृष्ण है, नामकर्म तन धार ॥स्वच्छ०॥६॥
ॐ ह्री कृष्णनामकर्मरहिताय नमः मयं । गंध विशेष न शुभ कहो, नामकर्म तन धार ॥स्वच्छ०॥६॥
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ॐ ह्री सुगन्धनामकर्म र हिताय नय अध्यं ।
गंध विशेष अशुभ है, नामकर्म तन धार ॥स्वच्छ०॥१००॥ ॐ ह्री दुर्गन्धनामकर्म रहिताय नमः श्रध्यं ।
स्वाद विशेष न तिक्त है, नामकर्म तन धार ॥ स्वच्छ०॥१०१॥ ॐ ह्री तिक्तरसरहिताय नम अध्यं ।
स्वाद विशेष न कटुक है, नामकर्म तन धार || स्वच्छ०॥१०२॥ ॐ ह्री कटुकरसरहिताय नमः अध्यं ।
स्वाद विशेष न श्राम्ल है, नामकर्म तन धार ॥स्वच्छ०॥१०३॥ ॐ ह्री आम्लरसरहिताय नम अध्यं ।
स्वाद विशेष न मधुर है, नामकर्म तन धर ॥स्वच्छ०॥१०४॥ ॐ ह्री मधुरसरहिनाय नम अध्यं ।
स्वाद विशेष न कषाय है, नामकर्म तन धार ॥स्वच्छ०॥१०५॥ ॐ ह्री कषायरस रहिताय नम अर्घ्यं ।
फर्स विशेष न नर्म है, नामकर्म तन धार || स्वच्छ०॥१०६ ॥ ॐ ह्री मृदुत्वस्परहिताय नम अध्यं ।
फर्स विशेष न कठिन है, नामकर्म तन धार ॥स्वच्छ ॥ १०७ ॥
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ॐ ह्री कठिनस्पर्शरहिताय नम अध्यं । फर्स विशेष न भार है, नामकर्म तन, धार ॥स्वच्छ०॥१०॥
____ॐ ह्री गुरुस्पर्शरहिताय नमः अध्यं । फर्स विशेष न अगुरु है, नामकर्म तन धार ॥स्वच्छ०॥१०६॥
____ॐ ह्री लघुस्पर्शरहिताय नम अध्यं । फर्स विशेष न शीत है, नामकर्म तन धार ॥स्वच्छ०॥११०॥
'ॐ ह्री शीतस्पर्शरहिताय नम अयं । फर्स विशेष न उष्ण है, नामकर्म तन धार ॥स्वच्छ०॥१११॥
___ॐ ह्री उष्णस्पर्शरहिताय नम अध्यं । फर्स विशेष न चिकरण है, नामकर्म तन धार ॥स्वच्छ॥११२॥
ॐ ह्री स्निग्धस्पर्शरहिताय नम अध्यं । फर्स विशेष न रूक्ष है, नामकर्म तन धार ॥स्वच्छ०॥११३॥
ॐ ह्री रूक्षस्पर्शरहिताय नम अध्यं ।। छंद मरहठा--हो जो प्रजाप्त वर परणइन्द्रीधर जाय नर्क निरधार,
विग्रहसु चाल मे अंतराल मे धरै पूर्व आकार । सो नर्क मानकरि गावत गणधर आनुपूर्वी सार।
पचम
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पूजा ११७
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सिद्ध वि. ११८
तुम ताहि नशायो शिवगति पायो नमित लहू भवपार ॥११४॥
ॐ ह्रीं नरकगत्यानुपूर्वीछेदकाय नम. अध्यं । निजकाय छांडकरि अंत समय मरि होय पशू अवतार, विग्रहसु चाल में अन्तराल मे धरै पूर्व प्राकार । सो तिर्यंच नाम करि गावत गणधर प्रानुपूर्वी सार । तुम ताहि नशायो शिवगति पायो नमित लहूँ भवपार ॥११५
ॐ ह्री तियंचगत्यानुपूर्वीविमुक्ताय नमः अध्यं । समकितसों मर वा कलेश करि धरहि देवगति चार, विहग्रसु चाल मे अन्तराल मे धरै पूर्व प्राकार ॥ सो देव नामकरि गावत० ॥तुम ताहि नशायो० ॥११६॥
ॐ ह्री देवगत्यानुपूर्वीविमुक्ताय नम अयं । । हो मिश्र प्रणामी वा शिवगामी वरै मनुष्यगति सार, विग्रहसु चाल मे अन्तराल में धरै पूर्व प्राकार । सो मनुष्य नाम करि गावत गणधर अनुपूर्वी सार ।
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सिद्ध०
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तुम ताहि नशायो शिवगति पायो नमित लहू भवपार ॥११७॥ ॐ ह्री मनुष्यगत्यानुपूर्वीविमुक्ताय नम अयं ।
छन्द त्रोटक ।
तनभार भए निज घात ठने, तिसकी कछु विधि ऐसी जु बने । पात सुकर्म सिद्धांत भनो, जग पूज्य भए तसु मूल हनो ॥११८॥
ॐ ह्री अपघात कर्मरहिताय नम अध्यं ।
विषादि अनेक उपाधि धरै, पर प्रारणनिको निर्मूल करै । परघाति सुकर्म सिद्धांत भनो, जग पूज्य भए तसु मूल हनो ॥११६ ॥
ॐ ह्री परघातनामकर्मरहिताय नम अध्यं ।
प्रति तेजमई, परदीप्त महा, रवि बिंब विषै जिय भूमि लहा । यह श्राप कर्म सिद्धांत भनो, जग पूज्य भये तिस मूल हनो ॥१२०॥ ॐ ह्री प्रतितेजमयी प्रताप - नामकर्मरहिताय नमः म्रध्यं । परकासमई जिम बिंब शशी, पृथिवी जिय पावत देह इसी । ति नाम सुकर्म सिद्धांत भनो, जग पूज्य भये तिस मूल हनो ॥१२१
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------ -- ह्रो उद्योतनामकर्मरहिताय नम. अयं । तनकी थिति कारण स्वास गहै, स्वर अन्तर बाहर भेद वहै । यह स्वास सुकर्म सिद्धांत भनो, जग पूज्य भये तसु मूल हनो॥१२२॥
ॐ ह्री स्वासकर्मरहिताय नमः अध्यं । शुभ चाल चलै अपनी जिसमे, शशिज्यो नभ सोहत है तिसमें। नभमे गति कर्म सिद्धांत भनो, जग पूज्य भये तिस मूल हनो॥१२३॥
ॐ ह्री विहायोगतिकर्मविमुक्ताय नम अयं । इक इन्द्रिय जात विरोध मई, चतुरांति सुभावक प्राप्त भई । त्रस नाम सुकर्म सिद्धांत भनो, जग पूज्य भये तिस मूल हनो ॥१२४॥
ॐ ह्री त्रसनामकर्मविमुक्ताय नम अध्यं । इक इन्द्रिय जातहि पावत है, अरु शेष न ताहि धरावत है। यह थावर कर्म सिद्धांत भनो, जग पूज्य भये तिस मूल हनो॥१२॥
ॐ ह्री थावरनामकर्मरहिताय नम अध्यं । परमे परवेश न आप करै, परको निजमे नहिं थाप धरै। यह बादर कर्म सिद्धांत भनो, जग पूज्य भये तिस मूल हनो ॥१२६॥
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ॐ ह्री वादरनामकर्मरहिताय नम अध्यं । 3 जलसो दवसो नहीं आप मरै, सब ठौर रहै परको न हरै। वि। यह सूक्षम कर्म सिद्धांत भनो, जग पूज्य भये तिस मूल हनो॥१२७॥
ॐ ह्री सूक्ष्मनामकर्मरहिताय नम अध्यं । " जिसते परिप्रणता करि है, निज शक्ति समान उदय धरि है। पर्याप्त सुकर्म सिद्धांत भनो, जग पूज्य भये तिस मूल हनो ॥१२८॥
____ॐ ह्री पर्याप्तकर्मरहिताय नम अध्यं ।' । परिपूरणता नहिं धार सके, यह होत सभी साधारण के। । अपरयापति कर्म सिद्धांत भनो, जग पूज्य भये तसु मूल हनो॥१२६॥
___ ॐ ह्री अपर्याप्तकर्मरहिताय नम अयं । ' जिम लोह न भार धरै तनमे, जिम आकन फूल उड़े बनमे। है अगुरुलघु यह भेद भनो, जग पूज्य भये तसु मूल हनो ॥१३०॥ ॐ ह्री प्रगुरुलघुकर्मरहिनाय नमः अध्यं ।
षष्ठम इक देह विर्ष इक जीव रहै, इकलो तिसको सब भोग लहै। परतेक सुकर्म सिद्धांत भनो, जग पूज्य भये तसु मूल हनो ॥१३१॥ ३१२१
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___ॐ ह्री प्रत्येकर्मरहिताय नम अयं । सिद्धः इक देह विष बहु जीव रहै, इक साथ सभी तिस भोग लहै। वि० यह भेद निगोद सिद्धांत भनो, जग पूज्य भये तसु मूल हनो॥१३२॥
ॐ ह्री साधारणनामकर्मरहिताय नम अध्यं ।
उपेन्द्रबज्रा छन्द । चले न जो धातु तजै न वासा, यथाविधि आप धरै निवासा । यही प्रकारा थिर नाम भासो, नमामि देवं तिस देह नासो॥१३३॥
___ॐ ह्री स्थिरनामकर्मरहिनाय नम. अध्यं । अनेक थानं मुख गोण धातं, चलंति धारं निजवास धातं । यही प्रकारा थिर नाम भासो, नमामि देवं तिस देह नासो॥१३४॥
ॐ ह्री अस्थिरनामकर्मरहिताय नम अध्यं । यथाविधी देह विशाल सोहै, मुखारविंदादिक सर्व मोहै।
षष्ठम यही प्रकारा शुभ नाम भासो, नमामि देवं तिस देह नासो ॥१३॥
ॐ ह्री शुभनामकर्मरहिताय नम अध्यं । असुन्दराकार शरीर मांहीं, लखो जहाँसो विडरूप ताहीं।
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यह प्रकारा अशुभ नाम भासो, नमामि देवं तिस देह नासो॥१३६॥ सिद्ध
ॐ ह्री प्रशुभनामकर्मरहिताय नम अयं । चि अनेक लोकोत्तम भावधारी, करै सभी तापर प्रीति भारी। १२३ । सुभगताको यह भेद भासो, नमामि देवं तिस देह नासो ॥१३७॥
ह्री सुभगनामकर्मरहिताय नमः अध्यं । धरै अनेका गुण तो न जासो, करै कभी प्रीति न कोई तासों। दुर्भाग ताको यह भेद भासो, नमामि देवं तिस देह नासो ॥१३॥
ॐ ह्री दुभंगकर्मरहिताय नमः अध्यं ।।
पद्धडी छन्द। ध्वनि वीन भाति ज्यो मधुर बैन, निसरै पिक आदिक सुरस दैन । यह सुस्वर नामे प्रकृति कहाय, तुम हनो नमूनिज शीसलाय ॥१३॥
-- ॐ ह्री सुस्वरनामकर्मरहिताय नम. अयं ।। * गर्दभस्वर जैसो कहो भास, तैसो रव अशुभ कहो सु भास । एषष्ठम है यह दुस्वर नाम प्रकृत कहाय, तुम हनो नमूनिज शीस लाय ॥१४०॥४
१२३ प्रस्ट भूतवानी समान, असुहावन भयकर शब्द जान । ऐसा भी पाठ है।
पुजा
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ॐ ह्री दुस्वरनामकर्मरहिताय नमः अध्यं । अडिल्ल छन्द-होत प्रभा मई कांति महारमणीक जू ।
जग जनमन भावन माने यह ठीक जू । यह आदेय सुप्रकृति नाश निजपद लहो । ध्यावत है जगनाथ तुम्है हम अघ दहो ॥१४१॥
___ ॐ ह्री आदेयनामकर्मरहिताय नमः अध्यं । रूखो मुखको वरण लेश नहिं कांतिको। रूखे केश नखाकृति तन बढ़ भॉतिको । अनादेय यह प्रकृति नाश निजपद लहो। ध्यावत है जगनाथ तुम्है हम अघ दहो ॥१४२॥
ॐ ह्री अनादेयनामकर्मरहिताय नम अयं । होत गुप्त गुरण तो भी जगमे विस्तरै । जगजन सुजस उचारत ताकी थुति करै ।। यह जस प्रकृति विनाश सुभावी यश लहो।
षष्ठम
पूजा
१२४
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ध्यावत है जगनाथ तुम्है हम अघ दहो ॥१४३॥
ॐ ह्री यश प्रकृतिछेदकाय नम अध्यं । जासु गुरगनको औगुरण कर सब ही ग्रहै। करत काज परशंसित पण निंदित कहै ॥ अपयश प्रकृति विनाश मुभावी यश लहो । ध्यावत है जगनाथ तुम्है हम अघ दहो ॥१४४॥
* ह्री अपयशानामकमरहिताय नम अध्यं ।। योग थान नेत्रादिक ज्योके त्यों बनों। रचित चतुर कारीगर करते है तनो। यह निर्माण विनाश सुभावी पद लहो, ध्यावत है जगनाथ तुम्है हम अघ दहो ॥१४॥ ॐ ह्री निर्माणनामकर्मरहिताय नय अध्यं । पंचकल्याणक चोतिस अतिशय राज ही, प्रातिहार्य अठ समोसरण युति छाज ही।
षष्ठम पूजा
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१२६
तीर्थकर विधि विभव नाश निज पद लहो,
ध्यावत है जगनाथ तुम्है हम अघ दहो ॥१४६॥ सिद्ध
ॐ ह्री तीर्थंकरप्रकृतिरहिताय नम अध्यं। वि. चाल छंद- जो कुम्भकार की नाई, छिन घट छिन करत सराई।
सो गोत कर्म परजारा, हम पूज रचो सुखकारा ॥१४७॥
ॐ ह्री गोत्रकर्मरहिताय नम अध्यं । लोकनिमें पूज्य प्रधाना, सब करत विनय सनमाना। यह ऊंच गोत्र परजारा, हम पूज रचो सुखकारा॥१४८॥ ___ॐ ह्री ऊ चगोत्रकर्मरहिताय नमः अध्यं । । जिसको सब कहत कमीना, आचरण धरे अति हीना। यह नीच गोत्र परजारा, हम पूज रचो सुखकारा॥१४॥
ॐ ह्री नीचगोत्रकर्मरहिताय नम अध्यं ।। ज्यो दे न सके भण्डारी, परधनको हो रखवारी। यह अन्तराय परजारा, हम पूज रचो सुखकारा॥१५०॥
ॐ ह्री अन्तरायकमरहिताय नम मध्यं ।
षष्ठम
पूजा १२६
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सिद्ध
वि०
१२७
हो दान देनको भावा, दे सके न कोटि उपावा। दानांतराय परजारा, हम पूज रचो सुखकारा॥१५१॥
ॐही दानातरायकर्मरहिताय नम अध्यं । मन दानलेन को भावे, दातार प्रसंग न पावै । लाभांतराय परजारा, हम पूज रचो सुखकारा ॥१५२॥
ॐ ह्री लाभातरायकर्मरहिताय नम अध्यं । पुष्पादिक चाहै भोगा, पर पाय न अवसर योगा। भोगांतराय परजारा, हम पूज रचो सुखकारा ॥१५३॥
ॐ ह्री भोगातरायकर्मरहिताय नम अयं । तिय आदिक बारम्बारा, नहिं भोग सके हितकारा। उपभोगांतराय परजारा, हम पूज रचो सुखकारा॥१५४॥ ____ॐ ह्री उपभोगातरायकर्मरहिताय नम अध्यं ..
षष्ठम चेतन निज बल प्रकटावे, यह योग कभू नहिं पाते। वीर्यान्तराय परजारा, हम पूज रचो सुखकारा ॥१५॥ ॐ ह्री वीर्यान्तरायकर्मरहिताय नम' अध्यं ।
१२७
पूजा
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ज्ञानावरणादिक नामी, निज भाग उदय परिणामी। अठ भेद कर्म परजारा, हम पूज रचो सुखकारा ॥१५६॥ .
___ॐ ह्री अष्टकर्मरहिताय नम अयं । इकसो अड़ताल प्रकारी, उत्तर विधि सत्ता धारी। सब प्रकृति कर्म परजारा, हम पूज रचो सुखकारा ।१५७।। ॐ ह्री एकशताष्टचत्वारिंशत् कर्मप्रकृतिरहिताय नम अध्यं । पररणाम भेद संख्याता, जो वचन योग में आता। संख्यात कर्म परजारा, हम पूज रचो सुखकारा ॥१५८॥
___ॐ ह्री सख्यातकर्मरहिताय नम अध्यं । है वचननसो अधिकाई, परिणाम भेद दुखदाई। विधि असंख्यात परजारा, हम पूज रचो सुखकारा।१५६।।
ॐ ह्री असख्यातकर्मरहिताय नम अध्यं । अविभाग प्रछेद अनन्ता, जो केवलज्ञान लहन्ता। षष्ठम यह कर्म अनन्त परजारा, हम पूज रचो सुखकारा ॥१६०॥
ॐ ह्री अनन्तकमरहिताय नम अयं ।
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पूजा
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सिद्ध० वि०
१२६
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सब भाग अनन्तानन्ता, यह सूक्ष्मभाव धारंता । विधि नन्तानन्त परजारा, हम पूज रचो सुखकारा ॥१६१॥ ॐ ह्री अनन्तानन्तकर्मरहिताय नमः अयं । मोतीयादाम छन्द |
न हो परिणाम विषै कछु खेद, सदा इकसा प्रणवै बिन भेद | निजाश्रित भाव र सुखधाम, करू तिस श्रानन्दको परिणाम' |
ॐ ह्री आनन्दस्वभावाय नम अर्घ्यं । । १६३ ॥ धरै जितने परिणामन भेद, विशेषनि तै सब ही बिन खेद । पराश्रितता बिन आनन्द धर्म, नमू तिन पाय लहू पद शर्म ॥ ॐ ह्री आनन्दधर्माय नमः अर्घ्यं ।। १६३ ।।
न हो परयोग निमित्त विभाव, सदा निवसे निज श्रानन्द भाव । यही वरणो परमानन्द धर्म, नमू तिन पाय लहू पद पर्म ॥
ॐ ह्री परमानन्दघर्माय नमः अयं ।। १६४ ।।
कभू परसो कछु द्वेष न होत, कभू फुनि हर्ष विशेष न होत । रहे नित ही निज भावन लीन, नमू पद साम सुभाव सु लीन ॥
ॐ ही साम्यस्वभावाय नमः अर्घ्यं ।। १६५ ॥
[१ परिणाम = प्रणाम =नमस्कार ]
षष्ठम्
पूजा
१२६
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सिद्ध वि. १३०
निजाकृति में नहिं लेश कषाय, अमूरति शांतिमई सुखदाय । आकुलता बिन साम्य स्वरूप, नम तिनको नित आनंद रूप॥
ॐ ह्री साम्यस्वरूपाय नमः अध्यं ॥१६६।। अनन्त गुरणातम द्रव्य पर्याय, यही. विधि पाप धरै बहु भाय । सभी कुमति करि हो अलखाय, नम् जिनवैन भली विधि गाय ॥
ॐ ह्री अनन्तगुणाय नमः मंध्यं ॥१६७।। अनन्त गुरणातम रूप कहाय, मुरणी गुरण भेद सदा प्ररणमाय । महागुरण स्वच्छमयी तुम रूप, नमू तिनको पद पाइ अनूप ॥
ॐ ह्री मनन्तगुणस्वरूपाय नम. अध्यं ।।१६८। अभेद सुभेद अनेक सु एक, धरो इन आदिक धर्म अनेक । विरोधित भावनसों अविरुद्ध, नमू जिन पागम की विधि शुद्ध ॥ ॐ ह्री अनन्तधर्माय नमः अध्यं ।।१६६॥ .
षष्ठम रहै धर्मी नित धर्म सरूप, न हो परदेशनसों अन्यरूप। , पूजा चिदातम धर्म सभी निजरूप, धरो प्रणम् मन भक्ति स्वरूप ॥ १३०
ॐ ह्री अनन्तधर्मस्वरूपाय नमः प्रध्यं ।। १७०।।
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सिद्ध
वि. १३१
चौपई-हीनाधिक नहीं भाव विशेष, प्रातमीक आनन्द हमेश। सम स्वभाव सोई सुखराज, प्रणमसिद्ध मिट भववास ॥१७१६
ॐ ह्री समस्वभावाय नमः मध्य ।।१७१।। इष्टानिष्ट मिटो भम जाल, पायो निज आनन्द विशाल । साम्य सुधारसको नित भोग, नमूसिद्ध सन्तुष्ट मनोग।
ॐ ह्री सतुष्टाय नम अध्यं ॥१७२।। पर पदार्थ को इच्छुक नाहि, सदा सुखी स्वातम पद माहि । मेटो सकल राग अरु दोष, प्रणम् राजत सम सन्तोष ॥
ॐ ह्री समसंतोषाय नम अध्यं ॥१७॥ मोह उदय सब भाव नसाय, मेटो पुद्गलीक पर्याय । शुद्ध निरंजन समगुण लहो, नमू सिद्ध परकृत दुख दहो॥
ॐ ह्री साम्यगुणाय नमः मध्य ।।१७४। निजपदसों थिरता नहिं तजे, स्वानुभूत अनुभव नित भजै। निराबाध तिष्ठ अविकार, साम्यस्थाई गुरण भण्डार ॥
ॐ ह्री साम्यस्थाय नमः अयं ॥१७॥
षष्ठम् पूजा
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सिद्ध वि.
१३२
भव सम्बन्धी काज निवार, अचल रूप तिष्ठ समधार । कृत्याकृत्य साम्य गुण पाइयो, भक्ति सहित हम शीश नाइयो। ॐ ह्री साम्यकृत्याकृतगुणाय नम अयं ।।१७६॥
छन्द झूलना। भूल नहीं भय करै छोभ नाहीं धरै, गैरकी प्रासको त्रास नाहीं धरै । शरण काकी चहै सबनको शरण है, अन्यकी शरण बिन नमूताही वरें।
_____ॐ ह्री अनन्यशरणाय नमः अध्यं ॥१७॥ द्रव्य षट्में नहीं आप गुरण आप ही, आपमें राजते सहज नीको सही। स्वगुण अस्तित्वता वस्तुकी वस्तुता, धरत हो मै नमू आपही को स्वता ॥
__ॐ ह्री अनन्यगुणाय नम. अध्यं ॥१७८।। गैरसे गैर हो आपमे रमाइयो, स्वचतुर खेतमे वास तिन पाइयो । धर्म समुदाय हो परमपद पाइयो, मै तुम्है भक्तियुत शीश निज नाइयो । ॐ ह्री अनन्यधर्माय नमः अयं ।।१७६।।
षष्ठम साधना जबतई होत है तबतई, दोउ परिमाणको काज जामे नहीं। पूजा आप निजपद लियो तिन जलांजलि दियो
१३२ ।
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अन्य नहीं चहत निज शुद्धता मे लियो॥
ॐ ह्री परिमाणविमुक्ताय नमः अयं ॥१०॥ वि. तोमर छन्द-दृग ज्ञान पूरणचन्द्र, अकलंक ज्योति अमन्द ।
निरद्वन्द ब्रह्मस्वरूप, नित पूजहूँ चिद्रूप ॥१८१॥ ॐ ह्री ब्रह्मस्वरूपाय नमः अध्यं । सब ज्ञानमयी परिणाम, वर्णादिकोनहिं काम । निरद्वन्द ब्रह्मस्वरूप, नित पूजहूँ चिद्रूप ॥१२॥ ॐ ह्री ब्रह्मगुणाय नमः अध्यं । निज चेतनागुण धार, बिन-रूपहो अविकार । निरद्वन्द ब्रह्मस्वरूप, नित पूजहूँ चिद्रूप ॥१८३॥ ॐ ह्री ब्रह्मचेतनाय नम अध्यं ।
__ सुन्दरी छन्द । अन्य रूप सु अन्य रहै सदा, पर निमित्त विभाव न हो कदा।। कहत हैं मुनि शुद्ध सुभावजी, नमू सिद्ध सदा तिन पायजी ॥१८४॥ १३॥
ॐ ह्री शुद्धस्वभावाय नम. अयं ।
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षष्ठम् पूजा
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वि.
पर परिणामनसो नहिं मिलत है, निज परिणामनसो नहिं चलत है। . परिणामी शुद्ध स्वरूप एह, नमूसिद्ध सदा नित पांय तेह ॥१८॥
ॐ ह्री शुद्धपारिणामिकाय नम अयं ।। वस्तुता व्यवहार नहीं ग्रहै, उपस्वरूप असत्यारथ कहै। शुद्ध स्वरूप न ताकरि साध्य है, निर्विकल्प समाधि अराध्य है ॥१८६॥
. ॐ ह्री-अशुद्धरहिताय नम. अयं । द्रव्य पर्यायाथिक नय दोऊ, स्वानुभव में विकलप नहिं कोऊ।। सिद्ध शुद्धाशुद्ध प्रतीत हो, नमत तुम तिनपद परतीत हो ॥१८७॥
ॐ ह्री शुद्धाशुद्धरहिताय नमः अयं ।, चौपाई-क्षय उपशम अवलोकन टारो, निज गुरण क्षाइक रूप उघारो। युगपत सकल चराचर देखा, ध्यावत हूँ मन हर्ष विशेषा॥१८॥ ॐ ह्री अनन्तदृगस्वरूपाय नम अयं ।
षष्ठम् जब पूरण अवलोकन पायो, तब पूरण प्रानन्द उपायो। अविनाभाव स्वयं पद देखा, ध्यावत हूँ मन हर्ष विशेषा ॥१८६॥ १३४
पूजा
ॐ ह्री अनन्तहगानन्दस्वभावाय नमः अयं ।
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१३५३
नाश सु पूर्वक हो उतपादा, सत लक्षण परिणति मरजादा। सिद्ध क्षय उपशम तन क्षायक पेखा, ध्यावत हूँ मन हर्ष विशेषा 17801
TEET | नित्य रूप निज नित पद माहीं, अन्य स्प पलटन हो नाहीं। द्रव्य-दृष्टिमें यह गुण देवा, ध्यावत हैं मन हर्ष विशेषा 11६118
मापनमनमा । कर्म नाश नो स्व-पद पाव, रज्च मात्र फिर अन्त न पाये। यह अव्यय गुण तुममें देखा, ध्यावत हूँ मन हर्ष विशेपा ॥१६
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पर नहीं व्याप तुमपद माही, परमें रमण भाव तुम नाहीं । निज करि निजमें निन लय देवा, ध्यावत हैं मन हर्ष विशेषा ॥१६३ पनिमारमा पर।
नारी अनंताभिधानो, गुणाकार जानो। घरो पाप सोईनमानखोई।१३ १३
लोगनगागराय नमः ।
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वि०
अनंता स्वभावा, विशेषन उपावा। धरोआपसोई, नमूमान खोई ॥१६॥
अनन्तस्वभावाय नम अयं । पून विनाकाररूपा यहचिन्मयस्वरूपा। धरोप्रापसोई,नमूमानखोई ॥१६॥
___ॐ ह्री चिन्मयस्वरूपाय नमः अध्यं ।। सदा चेतनामे, न हो अन्यतामें । धरो आप सोई,नमूमानखोई ॥१६७।
ॐ ही चिद्र पाय नमः अध्यं । दोहा--जो कुछ भाव विशेष हैं, सब चिद्र पी धर्म ।
असाधारण पूरण भये, नमत नशे सब कर्म ॥१६॥
___ॐ ह्री चिद्रूपधर्माय नम अध्यं । परकृति व्याधिविनाशके, निज अनुभव को प्राप्त । भई, नमू तिनको, लहूँ, यह जगवास समाप्त ॥१६॥
ॐ ह्री स्वानुभवोपलब्धिरमाय नम अयं । निरावरण निज ज्ञान करि, निज अनुभव की डोर । गहो लहो थिरता रहो, रमण ठोर नहीं और ॥२०॥
ॐ ह्री स्वानुभूतरताय नम. अध्यं ।
षष्ठम्
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________________
सिद्ध
सरवोत्तम लौकीक रस, सुधा कुरस सब त्याग । निज पद परमामृत रसिक, नमू चरण बड़भाग ॥२०१॥
__ॐ ह्री परमामृतरताय नमः अध्यं ।। विषयामृत विषसम अरुचि, अरस अशुभ असुहान । जान निजानन्द परमरस, तुष्ट सिद्ध भगवान ॥२०२॥
___ ह्री परमामृततुष्टाय नमः अयं । शंकातीत अतीतसो, धरे प्रीति निज मांहि । अमल हिये संतनि प्रिये, परम प्रीति नमूताहि ॥२०३॥
ॐ ह्री परमप्रीताय नम अध्यं । अक्षय आनन्द भाव युत, नित हितकार मनोग । सज्जन चित वल्लभ परम, दुर्जन दुर्लभ योग ॥२०४॥
ॐ ह्री परमवल्लभयोगाय नम अध्यं । शब्द गन्धरसफरश नहिं, नहीं वरण आकार । ' बुद्धि गहै नहिं पार तुम, गुप्त भाव निरधार ॥२०॥
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पष्ठम पूजा
ॐली अव्यक्तभावाय नमः अध्य। -
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सिद्ध वि.
११८
सर्व दर्वसो भिन्न है, नहिं अभिन्न तिहुँ काल । नमू सदा परकाश धर, एकहि रूप विशाल ॥२०६॥
___ॐ ह्री एकत्वस्वरूपाय नमः अध्यं ।। सर्व दर्वते भिन्नता, निज गुरण निजमें वास । नमू अखंड परमातमा, सदा सुगुरण की राश ॥२०७॥
ॐ ह्री एकत्वगुणाय नम अयं । सर्व दर्व परिणामसों, मिले न निज परिणाम । नमं निजानंद ज्योति घन, नित्य उदय अभिराम ॥२०८॥
ॐ ह्री एकत्वभावाय नम अयं । चौपई-पर संयोग तथा समवाय, यह संवाद न हो _ भाय । नित्य अभेद एकता धरो, प्रणमूद्वैत भाव हम हरो ॥२०६॥
___ॐ ह्री द्वैतभावविनाशकाय नम अयं ।। पूर्व पर्याय नासियो सोई, जाको फिर उतपादन होई । षष्ठ अव्यय अविनाशी अभिराम,शाश्वत रूप नमू सुखधाम ॥२१०॥
ॐ ह्री शाश्वताय नमः अध्यं ।
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सिद्ध वि०
१३
.
निर्विकार निर्मल निजभाष, नित्य प्रकाश अमन्द प्रभाव । अव्यय अविनाशी अभिराम, शाश्वत रूप नम् सुखधाम ॥२११॥
ॐ ह्री शाश्वतप्रकाशाय नमः अध्यं ।। निरावरण रवि बिम्ब समान, नित्य उद्योत धरोनिज ज्ञान । अब्यय अविनाशी अभिराम, शाश्वत रूप नमसुखधाम ॥२१२।।
ॐ ह्री शाश्वतोद्योताय नम. अध्यं । ज्ञानानन्द सुधाकर चन्द्र, सोहत पूरण ज्योति अमन्द । अव्यय अविनाशी अभिराम, शाश्वत रूप नम सुखधाम ॥२१३॥
ॐ ह्री शाश्वतामृतचन्द्राय नम. अयं । ज्ञानानन्द सुधारस धार, निरविच्छेद अभेद अपार । अव्यय अविनाशी अभिराम, शाश्वत रूप नमू सुखधाम ॥२१४॥ __ॐ ह्री शाश्वतप्रमूर्तये नम अयं ।
पण्डम पद्धड़ी छंद-मन इन्द्रिय ज्ञान न पाय जेह, है सूक्षम नाम सरूप तेह । "
मनपर्यय जाकूनाहिं पाय,सो सूक्षम परम सुगुण नमाय ॥२१५॥ १३६ - ॐ ह्री परमसूक्ष्माय नम. अर्घ्य ।
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बहु राशि नभोदरमें समाय, प्रत्यक्ष स्थूल ताकों न पाय । इकसों इककों बाधा न होहि, सूक्षम अविकाशी नमों सोहि ॥२१६॥
ॐ ह्री सूक्ष्मावकाशाय नम अयं । नभ गुण ध्वनि हो यह जोग नाहि,हो जिसो गुणी गुण तिसो ताहिं। . सो राजत हो सूक्षम स्वरूप, नमहूँ तुम सूक्षम गुण अनूप ॥२१७॥
ॐ ह्री पूक्ष्मगुणाय नमः अध्यं । तुम त्याग द्वतताको प्रसंग, पायौ एकाकी छबि अभंग। जाको कबहूँ अनुभव न होय, नमू परम रूप है गुप्त सोय ॥२१॥
* ॐ ह्री परमरूपगुप्ताय नम. अध्यं ।। छंदत्रोटक-सर्वार्थविमानिक देव तथा, मन इन्द्रिय भोगन शक्ति यथा इनके सुखको इक सीम सही, तुम आनंदको पर अन्त नहीं ॥२१॥
ॐ ह्री निरवधिसुखाय नमः अयं । ' जग जीवनिको नहिं भाग्य यहै, निज शक्ति उदय करि व्यक्ति लहै। तुम पूरण क्षायक भाव लहो, इम अन्त विना गुरगरास गहो ॥२२०॥
षष्ठम
पूजा १४०
ॐही निरवधिगुणाय नम. अध्य।
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सिद्ध
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। भवि-जीव सदा यह रीति धरे, नित नूतन पये विभाव ध.. तिस कारणको सब व्याधि दहो, तुम पाइ सुरूप जु अन्त न हो ॥२२१॥
ॐ ह्री निरवधिस्वरूपाय नम. अयं । अवधि मनःपर्यय सु ज्ञान महा, द्रव्यादि विषै मरजाद लहा। तुम ताहि उलंघ सुभावमई, निजबोध लहो जिस अन्त नहीं ॥२२२॥
ॐ ह्री अतुलज्ञानाय नमः अध्यं ।। । तिहुँ काल तिहूँ जगके सुखको, कर वार अनंत गुणा इनको। । तुम एक समय सुखको समता, नहीं पाय नमूमन आनंदता ॥२२३॥
__ॐ ह्री अतुलसुखाय नमः अयं । । नाराच छन्द--सर्व जीव राशके सुभाव आप जान हो,
आपके सुभाव अंश औरको न ज्ञान हो। सो विशुद्ध भाव पाय जासको न अन्त हो,
राज हो सदीव देव चरण दास 'संत' हो ॥२२४॥ पष्ठम ॐ ह्री अतुलभावाय नम अध्यं । आपकी गुणौघ वेलि फैलि है अलोकलों,
पूजा
.
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सिद्ध० वि० १४२
शेषसे भमाय पत्रकी न पाय नोकलों। सो विशुद्ध भाव पाय जासको न अन्त हो, राज हो सदीव देव चरण दास "सन्त" हो ॥२२॥ ___ ह्री अतुलगुणाय नम. अयं । सूर्यको प्रकाश एक देश वस्तु भास ही, आपको सुज्ञान भान सर्वथा प्रकाश ही। सो विशुद्ध भाव पाय जासको न अन्त हो, राज हो सदीव देव चरण दास "सन्त" हो ॥२२६॥ ___ॐ ह्री अतुलप्रकाशाय नमः अर्घ्य । तास रूपको गहो न फेरि जास नाश हो, स्वात्मवासमें विलास पास त्रास नाश हो । सो विशुद्ध भाव पाय जासकौ न अन्त हो, राज हो सदीव देव चरण दास "सन्त" हो ॥२२७॥
ॐ ह्री अचलाय नमः अध्य।
षष्ठम
पूजा १४२
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सिद्ध
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सौरठा-मोहादिक रिपु जीति, निजगुण निधि सहजे लहो । विलसो सदा पुनीति, अचल रूप बन्दो सदा ॥२२८॥
ॐ ह्री प्रचलगुरणाय नम अयं । उत्तम क्षाइक भाव, क्षय उपशम सब गये विनशि । पायो सहज सुभाव, अचल रूप बन्दो सदा ॥२२६॥
ॐ ह्री अचलगुणाय नमः अर्घ्य । अथिर रूप संसार, त्याग सुथिर निज रूप गहि । रहो सदा अविकार, अचल रूप बन्दों सदा ॥२३०॥ ____ह्री प्रचलस्वरूपाय नमः अर्घ्य ।
मोतीयादाम छन्द । निराश्रित स्वाश्रित पानंद धाम, परै परसो न परै कछु काम । प्रबिन्दु प्रबंधु अबंध अमंद, करू पद बंद रहूँ सुखवृन्द ॥२३१॥
____ॐ ह्री निरालम्बाय नम अध्यं ।। अराग प्रदोष अशोक अभोग, अनिष्ट संयोग न इष्ट वियोग । अबिन्दु प्रबंधु अबंध अमंद, कर्पद बंद रहूं सुखवृन्द ॥२३२॥
____ॐ ह्री पालम्बरहिताय नमः अर्घ्य ।
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पष्ठम
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सिद्ध
वि०
अजीव न जीव न धर्म अधर्म, न काल प्रकाश लहै तिस धर्म । अबिन्दु प्रबंधु प्रबंध अमंद, करपद-वंद रहू सुखवृन्द ॥२३३॥
____ॐ ह्री निर्लेपाय नमः अर्घ्य । अवर्ण अकर्ण अरूप अकाय, प्रयोग असंयमता अकषाय । प्रबिन्दु अबंधु अबंध अमंद, करपद-वंद रहूं सुखवृन्द ॥२३४॥
ॐ ह्री निष्कषाय नम अर्घ्य । न हो परसों रुष राग विभाव, निजातममे अवलीन स्वभाव । अबिन्दु प्रबंधु अबंध अमन्द, कर पदवन्द रहू सुखवृन्द ॥२३॥
ॐ ह्री प्रात्मरतये नमः अयं । दोहा-निज स्वरूपमे लीनता, ज्यों जल पुतली खार । गुप्त स्वरूप नमू सदा, लहूँ भवार्णव पार ॥२३६॥
ॐ ह्री स्वरूपगुप्ताय नम. अर्ध्य । जोहै सोहै और नहिं, कछु निश्चय व्यवहार । शुद्ध द्रव्य परमातमा, नम शुद्धता धार ॥२३७॥
षष्ठम
पूजा १४४
ॐही शुद्धद्रव्याय नम अध्यं ।
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वि०
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पूर्वोत्तर सन्तति तनी, भव भव छेद कराय । असंसार पदको नमू, यह भव वास नशाय ॥२३॥ ॐ ह्री प्रससाराय नम अध्यं ।
नागरूपिणी तथा अर्धनाराच छन्द । हरो सहाय कर्णको, सुभोगता विवर्णको। निजातमीक एक ही, लहो अनन्द तास ही ॥२३॥
ॐ ह्री स्वानन्दाय नमः अर्घ्य । न हो विभावता कदा, स्वभाव मे सुखी सदा। निजातमीक एक ही, लहो अनन्द तास ही ॥२४०॥
ॐ ह्री स्वानन्दभावाय नम अर्घ्य । अछेद रूप सर्वथा, उपाधिकी नहीं व्यथा। निजातमीक एक ही, लहो अनन्द तास ही॥२४१॥
ॐ ह्री स्वानन्दस्वरूपाय नमः अर्घ्य । दुभेदता न वेद हो, सचेतना अभेद हो । निजातमीक एक ही, लहो अनन्द तास ही ॥२४२॥
ॐ ह्री स्वानन्दगुणाय नम. अर्घ्य ।
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षष्ठम्
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न की प्रवाह है, अचाह है न चाह है । निजातमीक एक ही, लहो अनन्द तास ही || २४३॥
ॐ ह्री स्वानन्दसतोषाय नम अर्घ्यं । सोरठा - रागादिक परिणाम, है कारण संसार के ।
नाश, लियो सुखधाम, नमत सदा भव भय हरू ॥ २४४ ॥ ॐ ह्री शुद्धभाव पर्यायाय नम. अर्घ्यं ।
उदइक भाव विनाश, प्रगट कियो निज धर्मको ।
स्वातम गुरण परकाश, नमत सदा भव भय हरू ॥२४५॥ ॐ ह्री स्वतत्रधर्माय नमः अयं । निजगुरण पर्ययरूप, स्वयं - सिद्ध परमातमा ।
राजत हैं शिव भूप, नमत सदा भव भय हरू ॥ २४६ ॥ ॐ ह्री आत्मस्वभावाय नमः अर्घ्य ।
विमल विशद निज ज्ञान, है स्वभाव परिणतिमई । राजे हैं सुखखानि, नमत सदा भव भय हरू ॥ २४७॥ ॐ ह्री परमचित्परिणामाय नम अर्घ्यं ।
षष्ठम
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दर्श-ज्ञानमय धर्म, चेतन धर्म प्रगट कहो। भेदाभेद सुपर्म, नमत सदा भव भय हर॥२४८॥
ॐ ह्री चिद्रूपधर्माय नम अय॑ । दर्शज्ञान गुणसार, जीवभूत परमातमा । राजत सब परकार, नमत सदा भव भय हर॥२४६॥
ॐ ह्री चिद्रूपगुणाय नम अर्घ्य । अष्ट कर्म मल जार, दीप्तरूप निज पद लहो। स्वच्छ हेम उनहार, नमत सदा भव भय हरू ॥२५०॥
ॐ ह्री परमस्नातकाय नमः अध्यं । . रागादिक मल सोध, दोऊ विविध विधान विन । लहो शुद्ध प्रतिबोध, नमत सदा भव भय हर॥२५१॥.
ॐ ह्री स्नातकधर्माय नम अयं । विधि आवरण विनाश, दर्श ज्ञान परिपूर्ण हो। लोकालोक प्रकाश, नमत सदा भव भय हर॥२५२॥
ॐ ह्री सर्वावलोकाय नमः अयं ।
षष्ठम्
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निजकर निजमे वास, सर्व लोकसो भिन्नता ।
पायो शिव सुख रास, नमत, सदा भव भय हरू ॥२५३॥ ॐ ह्री लोकाग्रस्थिताय नमः अध्यं ।
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ज्ञान - भानकी जोति, व्यापक लोकालोकमे ।
दर्शन विन उद्योग, नमत सदा भव भय हरू ॥२५४॥ ॐ ह्री लोकालोक व्यापकाय नम अर्घ्यं ।
जो कुछ धरत विशेष, सब ही सब प्रानन्दमय ।
लेश न भाव कलेश, नमूं सदा भव भय हरू ॥२५५॥
ॐ ह्री आनन्द विधानाय नमः श्रध्यं ।
जिस श्रानन्दको पार, पावत नहिं यह जगतजन ।
सो पायो हितकार, नमत सदा भव भय हरू ॥२५६॥
दोहा -- इत्यादिक श्रानन्द गुरण, धारत सिद्ध अनन्त । तिन पद आठो दरवसों, पूजत हो निज सन्त ॥ ॐ ह्री आनन्द पूर्णाय नमः अयं ।
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अथ जयमाला
दोहा -- थावर शब्द विषय धरै त्रस थावर पर्याय ।
यो न होय तो तुम सुगुरण, हम किहविधि वरर्णाय ॥१॥ तिसपर जो कछु कहत हैं, केवल भक्ति प्रमान । बालक जल शशिबिबको, चहत ग्रहरण निज पान ॥२॥
पद्धडी छन्द ।
जय पर निमित्त व्यवहार त्याग, पायो निज शुद्ध स्वरूप भाग । जय जग पालन विन जगत देव, जय दयाभाव विन शांतिभेव ॥१॥ परसुख दुखकररण कुरीति टार, परसुख दुख कारण शक्ति धार । फुनिफुनि नव नव नित जन्मरीत, बिन सर्वलोक व्यापी पुनीत ॥२॥ जय लीला रास विलास नाश, स्वाभाविक निजपद रमरण वास । शयनासन आदि क्रिया कलाप, तज सुखी सदा शिवरूप आप ॥३॥ विन कामदाह नहिं नार भोग, निरद्वंद निजानंद मगन योग । वरमाल श्रादि श्रृंगार रूप, विन शुद्ध निरंजन पद अनूप ॥४॥
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वि.
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जय धर्म भर्म वन हन कुठार, परकाश पुंज चिद्रूपसार । उपकरण हरण दव सलिलधार, निज शक्ति प्रभाव उदय अपार ॥ नभ सीम नहीं अरु होत होउ, नहीं काल अन्त लहो अन्त सोउ। पर तुम गुरण रास अनंत भाग, अक्षय विधि राजत अवधि त्याग॥६॥ प्रानन्द जलधि धारा प्रवाह, विज्ञानसुरी मुखद्रह अथाह । निज शांति सुधारस परम खान, समभाव बीज उत्पत्ति थान ॥७॥ निज प्रात्मलीन विकलप विनाश, शुद्धोपयोग परिणति प्रकाश । हग ज्ञान असाधारण स्वभाव, स्पर्श आदि परगुरण अभाव ॥८॥ निज गुरणपर्यय समुदाय स्वामि, पायो अखण्ड पद परम धाम । अव्यय अबाध पद स्वयं सिद्ध, उपलब्धि रूप धर्मी प्रसिद्ध ॥६॥ एकाग्ररूप चिन्ता निरोध, जे ध्यावै पावै स्वयं बोध । गुण मात्र 'संत' अनुराग रूप, यह भाव देहु तुम पद अनूप ॥१०॥ दोहा--सिद्ध सुगुण सुमरण महा, मंत्रराज है सार।
सर्व सिद्ध दातार है, सर्व विघन हर्तार ॥११॥
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षष्ठम् पूजा
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ॐ ह्री प्रहं षट्पचाशदधिकद्विशतदलोपरिस्थितसिद्ध भ्यो नमः अध्यं नि० । तीन लोक चूडामणी, सदा रहो जयवन्त ।। विघन हरण मंगल करण, तुम्हें नमैं नित 'संत' ॥१२॥
___ इत्याशीर्वाद । इति षष्ठी पूजा सम्पूर्ण। यहाँ "ॐ ह्री असिमाउसा नम" का १०८ बार जाप करे ]
अथ सप्तमी पूजा प्रारम्भ । १ छप्पय छद-ऊरध अधो सुरेफ बिंदु हंकार विराजे,
अकारादि स्वर लिप्त कणिका अन्त सु छाजे। वर्गन पूरित वसुदल अम्बुज तत्त्व संधि धर,
अग्रभागमे मन्त्र अनाहत सोहत प्रतिवर । पुनि अंत ही बेढयो परम, सुर ध्यावत अरि नागको।
हवै कहरि सम पूजन निमित्त, सिद्धचक्र मंगल करो ॥१॥ ॐहीणमो सिद्धाण श्रीसिद्धपरमेष्ठिन् । द्वादशाधिकपचशत ५१२ गुणसयुक्त विराजमान अत्रावतरावतर सवौषट् (आह्वानन) अत्र तिष्ठ तिष्ठ 8.8: (स्थापन) अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् (सन्निधिकरण).
सप्तमी
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सिद्ध
दोहा--सूक्ष्मादि गुण सहित है, कर्म रहित नीरोग । सिद्धचक्र सो थाप हूँ, मिटै उपद्रव योग।
अथाष्टक । चाल बाराहमासा छन्द । सुरमरिण कुम्भ क्षीरभर धारत, मुनि मन शुद्ध प्रवाह बहावहिं । हम दोऊ विधि लाइक नाही, कृपा करहु लहि भवतट भावहिं॥ शक्ति सारु सामान्य नीरसो, पूज हैं शिवतियके स्वामी। द्वादश अधिक पंचशत संख्यक, नाम उचारत हूँ सुखधामी ॥१॥
ॐ ही श्रीसिद्धपरमेष्ठिने ५१२ गुण सहित श्री समत्तणाणदसण वीर्य सुहमत्तहेत्र अवग्गहरणं अगरुल घुमवावाह जन्म जरारोग विमाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा। । नतु कोऊ चन्दन नतु कोऊ केसरि, भेट किये भवपार भयो है। केवल आप कृपा दृग ही सों, यह अथाह दधि पार लयो है।
रीति सनातन भक्तन की लख, चन्दनकी यह भेट धरामी। । द्वादश अधिक पंचशत संख्यक, नाम उचारत हूँ सुखधामी ॥२॥
ॐ ह्री श्रीसिद्धपरमेष्ठिने ५१२ गुण सयुक्ताय श्रीसमत्तणाणदसण वीर्य सुहमत्तहेव अवगहण गुरुलघुमवावाह ससारतापविनाशनाय चन्दन नि० ।
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इन्द्रादिक पद हूँ अनवस्थित, दीखत अन्तर रुचि न करै है। मि केवल एकहि स्वच्छ अखण्डित, अक्षयपदकी चाह धरै है। वि० ताते अक्षतसों अनुरागी, हूँ सो तुम पद पूज करामी। द्वादश अधिक पंचशत संख्यक, नाम उचारत हूँ सुखधामी ॥३॥
ॐ ह्री श्रीसिद्धपरमेष्ठिने ५१२ गुण सयुक्ताय धी समत्तणाणदसण वीर्य सुहमत्तहेव अवगहण अगुरुलघुमव्वावाह अक्षयपदप्राप्तये प्रक्षत नि० । पुष्प वारण ही सो मन्मथ जग, विजई जगमें नाम धरावै। देखहु अद्भुत रीति भक्तकी, तिस ही भेट धर काम हनावे ॥ शरणागतकी चूक न देखी, तातै पूज्य भये शिरनामी।। द्वादश अधिक पचशत संख्यक, नाम उचारत हूँ सुखधामी ॥४॥
ॐ ह्री श्रीसिद्धपरमेष्ठिने ५१२ गुण सयुक्ताय श्री समत्तणाणदसण वीर्य सुहमत्तहेव अवग्गहरण अगुरुल घुमव्वावाह कामवाणविनाशनाय पुष्प नि०। हनन असाता पीर नहीं यह, भीर परै चरु भेटन लायो। । भक्त अभिमान मेट हो स्वामी, यह भव कारण भाव सतायो॥ ई मम उद्यम करि कहा आप ही, सो एकाकी अर्थ लहामी।
सप्तमी पूजा
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द्वादश अधिक पंचशत संख्यक, नाम उचारत हूँ सुखधामी ॥५॥
ॐ ह्री श्रीसिद्धपरमेष्ठिने ५१२ गुण सयुक्ताय श्री समत्तणादसण वीर्य सुहमत्तहेव सिद० अवग्गहण अगुरुलघुमव्वावाह क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्य नि० ।
पूरण ज्ञानानन्द ज्योति घन, विमल गुरणातम शुद्ध स्वरूपी। १५४
हो तुम पूज्य भये हम पूजक, पाय विवेक प्रकाश अनूपी॥ मोह अन्ध विनसो तिह कारण, दीपनसों अ— अभिरामी। द्वादश अधिक पंचशत संख्यक, नाम उचारत हूँ सुखधामी॥६॥
ॐ ह्री श्रीसिद्धपरमेष्ठिने ५१२ गुण सयुक्ताय श्री समत्तणादसण वीर्य सुहमत्तहेव अवग्गहण अगुरुलघुमव्यावाह मोहान्धकारविनाशनाय दीप नि । धूप भरै उघरे प्रजरें मरिण, हेम घरें तुम पदपर वारू। बार बार पावर्त जोरि करि, धार धार निज शीश न हारू॥ धूम धार समतन रोमांचित, हर्ष सहित अष्टांग नमामी। द्वादश अधिक पंचशत संख्यक, नाम उचारत हूँ सुखधामी ॥७॥
ॐ ह्री श्रोसिद्धपरमेष्ठिने ५१२ गुण सयुक्ताय श्री समत्तणाणदसण वीर्य सुहमत्तहेव प्रवग्गहण अगुरुल घुमव्वावाह अष्टकर्मदहनाय धूप नि० ।
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तुम हो वीतराग निज पूजन, बन्दन थुति परवाह नहीं है। सिद्ध अरु अपने समभाव वह कछु, पूजा फलकी चाह नहीं है। वि० तौभी यह फल पूजि फलद, अनिवार निजानन्द कर इच्छामी। १५५ द्वादश अधिक पंचशत संख्यक, नाम उचारत हूँ सुखधामी॥८॥
ॐ ह्री श्रीसिद्धपरमेष्ठिने ५१२ गुण सयुक्ताय श्री समत्तणाणदसण वीर्य सुहमत्तहेव अवग्गहण अगल घुमवावाह मोक्षफलप्राप्तये फल नि०। तुमसे स्वामीके पद सेवत, यह विधि दुष्ट रंक कहा कर है। ज्यो मयूरध्वनि सुनि अहि निज बिल, विलय जाय छिन बिलम न धर है।। तातै तुम पद अर्घ उतारण, विरद उचारण करहुँ मुदामी। द्वादश अधिक पंचशत संख्यक, नाम उचारत हूँ सुखधामी॥६॥
ॐ ह्रीं श्रीसिद्धपरमेष्ठिने ५१२ गुण सयुक्ताय श्री समत्तणाणदसण वीर्य सुहमत्तहेव सप्तमी अवग्गहण अगुरुलघुमन्वावाह सर्वसुखप्राप्तये अध्यं नि।
पूजा गीता छन्द-निर्मल सलिल शुभ वास चन्दन, धवल अक्षत युत अनी।
शुभ पुष्प मधुकर नित रमें, चरु प्रचुर स्वादसुविधि घनी॥ १५५ वर दीपमाल उजाल धूपायन, रसायन फल भलै।
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करि अर्घ सिद्ध समूह पूजत, कर्मदल सब दलमलै ॥ ते कर्म प्रकृति नशाय युगपति, ज्ञान निर्मल रूप है। दुख जन्म टाल अपार गुण, सूक्षम सरूप अनूप है। कर्माष्ट विन त्रैलोक्य पूज्य, अछेद शिव कमलापती ।
मुनि ध्येय सेय अमेय चहुगुरण, गेह धो हम शुभ मती॥ ॐ अहत्सिद्धचक्राधिपतये नमः समत्तणाणादि अट्ठगुणाणं पूर्णपदप्राप्तये महायं ।
पाँचसै बाहर गुण सहित नाम अर्ध ।
___अर्द्ध छन्द जोगीरासा । लोकत्रय करि पूज्य प्रधाना, केवल ज्योति प्रकाशी। भव्यन मन तम मोह विनाशक, बन्दू शिव थल वासी ॥१॥
ॐ ह्री अरहताय नम अध्यं । सुरनर मुनिमन कुमुदन मोदन, पूरण चन्द्र समाना। हो अहंत जात जन्मोत्सव, बन्दू श्री भगवाना ॥२॥
ॐ ह्री अर्हज्जाताय नम. अध्यं ।
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केवल दर्श ज्ञान किरणावलि, मंडित तिहुँ जग चन्दा । मिथ्यातप हर जल आदिक करि, बन्दू पद अरविन्दा ॥३॥
ॐ ह्री अर्हच्चिद्रू पाय नमः अध्यं । घाति कर्म रिपु जारि छारकर, स्व चतुष्टय पद पायो । निज स्वरूप चिद्रूप गुणातम, हम तिन पद शिर नायो ॥४॥
ॐ ह्री अर्हच्चिद्रपगुणाय नमः अयं । । ज्ञानावरणी पटल उघारत, केवल भान उगायो । भव्यन को प्रतिबोध उधारे, बहुरि मुक्ति पद पायो ॥५॥
ॐ ह्री अर्हज्ज्ञानाय नम अर्घ्य । धर्म अधर्म तास फल दोनों, देखो जिम कर-रेखा । बतलायो परतीत विषय करि, यह गुण जिनमे देखा ॥६॥
___ॐ ह्री अर्हद्दर्शनाय नमः अध्यं । मोह महा दृढ बंध उघारो, कर विषतन्तु समाना। अतुल बली प्ररहंत कहायो, पाय नमूशिवथाना ॥७॥
ॐ ह्री अहंद्वीर्याय नमः अयं ।
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करि अर्घ सिद्ध समूह पूजत, कर्मदल सब दलमलै॥ ते कर्म प्रकृति नशाय युगपति, ज्ञान निर्मल रूप है। दुख जन्म टाल अपार गुण, सूक्षम सरूप अनूप है। कर्माष्ट विन त्रैलोक्य पूज्य, अछेद शिव कमलापती ।
नुनि ध्येय सेय अमेय चहुगुण, गेह धो हम शुभ मती॥ ॐ ग्रहत्सिद्धचक्राधिपतये नमः समत्तणाणादि अट्ठगुणाण पूर्णपदप्राप्तये महायं ।
पाँचसै बाहर गुण सहित नाम अर्घ ।
अर्द्ध छन्द जोगीरासा। लोकत्रय करि पूज्य प्रधाना, केवल ज्योति प्रकाशी। भव्यन मन तम मोह विनाशक, बन्दू शिव थल वासी ॥१॥
___ॐ ह्री अरहताय नम अध्यं । सुरनर मुनिमन कुमुदन मोदन, पूरण चन्द्र समाना। हो अहंत जात जन्मोत्सव, बन्दूश्री भगवाना ॥२॥
ॐ ह्री अहज्जाताय नमः अध्यं ।
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केवल दर्श ज्ञान किरणावलि, मंडित तिहुँ जग चन्दा।। मिथ्यातप हर जल प्रादिक करि, बन्दू पद अरविन्दा ॥३॥
ह्री अहच्चिद्रू पाय नमः अध्यं । घाति कर्म रिपु जारि छारकर, स्व चतुष्टय पद पायो। निज स्वरूप चिद्रूप गुणातम, हम तिन पद शिर नायो ॥४॥
ॐ ह्री अहच्चिद्रपगुणाय नमः अध्यं । ज्ञानावरणी पटल उघारत, केवल भान उगायो। भव्यन को प्रतिबोध उधारे, बहुरि मुक्ति पद पायो ॥५॥
ॐ ह्री अहज्ज्ञानाय नमः अध्यं । धर्म अधर्म तास फल दोनों, देखो जिम कर-रेखा। बतलायो परतीत विषय करि, यह गुण जिनमे देखा ॥६॥
ॐ ह्री अर्हद्दर्शनाय नम. अध्यं । मोह महा दृढ बंध उघारो, कर विषतन्तु समाना। अतुल बली अरहंत कहायो, पाय नम शिवथाना ॥७॥
ॐ ह्री महद्वीर्याय नम अध्यं ।
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युगपति लोकालोक विलोकन, है अनन्त हगधारी । गुप्तरूप शिवमग दरसायो, तिनपद धोक हमारी ॥८॥ ॐ ह्री अर्हद्दर्शन गुणाय नम अर्घ्यं । घटपटादि सब परकाशत जद, हो रवि किररण पसारा । तैसो ज्ञान भान रहतको, ज्ञेय अनन्त उधारा ॥६॥ ॐ ह्री अर्हज्ज्ञानगुणाय नमः श्रर्घ्यं । श्रासन शयन पान भोजन बिन, दीप्त देह अरहंता ।
ध्यान वान कर तान हान विधि, भए सिद्ध भगवंता ॥१०॥ ॐ ह्री द्वीगुणाय नमः श्रयं । सप्तसत्त्व षट् द्रव्य भेद सब जानत संशय खोई । ताकरि भव्य जीव संबोध, नमूं भये सिद्ध सोई ॥११॥ ॐ ह्रीत्सम्यक्त्वगुणाय नम अध्यं । ध्यान सलिलसों धोय लोभमल, शुद्ध निजातम कीनो । परम शौच अरहंत स्वरूपी, पाय नमू शिव लीनो ॥१२॥ ॐ ह्री अरहतशौचगुणाय नम अयं ।
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नय प्रमाण श्रुतज्ञान प्रकारा, द्वादशांग जिनवानी। प्रगटायो परतक्ष ज्ञानमे, नमूभये शिव थानी ॥१३॥
ॐ ह्री अर्हद्वादशागाय नम. अयं ।। मन इन्द्रिय बिन सकल चराचर, जगपद करि प्रकटायो। यह अरहंत मती कहलायो, बन्दू तिन शिव पायो ॥१४॥
ॐ ह्री अर्हदभिन्नबोधकाय नम अयं । अनुभव सम नहीं होत दिव्यध्वनि, ताको भाग अनन्ता। जानो गणधर यह श्रुत अवधी, पाइ नमूअरहंता ॥१५॥
___ॐ ह्री अर्हत्श्रुतावधिगुणाय नम अध्यं । सर्वावधि निधि वृद्धि प्रवाही, केवल सागर मांही । एक भयो अरहंत अवधि यह, मुक्त भए नमि ताही ॥१६॥
ॐ ह्री अहंदवधिगुणाय नमः अध्यं ।। अति विशुद्ध मय विपुलमती लहि, हो पूर्वोक्त प्रकारा। यह अरहंत पाय मन-पर्यय, न भए भवपारा ॥१७॥
ॐ ह्री प्रर्वच्छद्धमनःपर्ययभावाय नमः अध्यं ।
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मोहमलिनता जग जिय नाश, केवलता गुण पावै । सर्व शुद्धता पाइ नमत हैं, हम अरहंत कहावै ॥१८॥
ॐ ह्री अर्हत्केवलगुणाय नम अयं ।। मोह जनित सो रूप विरूपी, तिस विन केवलरूपा। श्री अरहन्त रूप सर्वोत्तम, बन्दू हो शिवभूपा ॥१६॥
ॐ ह्री अहंदकेवलस्वरूपाय नम अy तास विरोधी कर्म जीति करि, केवल दरशन पायो । इस गुरण सहित नमत तुम पद प्रति, भावसहित शिरनायो।२०॥
ॐ ह्री अर्हत्केवलदर्शनाय नम अयं ।। निर आवरण करण विन जाको, शरण हरण नहीं कोई। केवल ज्ञान पाय शिव पायो, पूजत है हम सोई ॥२१॥
ॐ ह्री अर्हत्केवलज्ञानाय नम अयं । अगम अतीर भवोदधि उतरे, सहज ही गोखुर मानो। केवल बल परहन्त नमें हम, शिव थल बास करानो ॥२२॥
ॐ ह्री अर्हत्केवलवीर्याय नम अयं ।
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सब विधि अपने विघ्न निवारण, औरन विघ्न विडारी। मंगलमय अर्हत सर्वदा, नम मुक्ति पदधारी ॥२३॥
ह्री अहंन्मगलाय नमः अध्यं ।। चक्षु आदि सब विधन विदूरित, छाइक मंगलकारी । यह अर्हत दर्श पायो मै, नमू भये शिव कारी ॥२४॥
ॐ ह्री अर्हन्मगदर्शनाय नमः अध्यं । निजपर संशय आदि पाय विन, निरावरण विकसानो। मंगलयय परहंत ज्ञान है, बन्दू शिव सुख थानो ॥२५॥
ॐ ह्री अर्हन्मगलज्ञानाय नमः अध्यं । परकृत जरा आदि संकट विन, अतुल बली अहंता। नमू सदा शिवनारी के संग, सुखसों केलि करंता ॥२६॥
___ह्री अर्हन्मगलवीर्याय नमः मध्यं । पापरूप एकान्त पक्ष विन, सर्व तत्त्व परकाशी । द्वादशाग अरहन्त कहो मै, नमूभये शिववासी ॥२७॥
ॐ ह्री अर्हन्मगलद्वादशागाय नमः अध्यं ।
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विन प्रतक्ष अनुमान सुबाधित, सुमतिरूप परिणामा । मंगलमय अहंतमती मै, नमूदेउ शिवधामा ॥२८॥
ॐ ह्री अहंन्मगल अभिनिवोधकाय नमः अयं । नय विकलप श्रुत अंग पक्षके, त्यागी है. भगवन्ता । ज्ञाता दृष्टा वीतराग, विख्यात नमूअरहंता ॥२६॥
ॐ ह्री अर्हन्मगलश्रुतात्मकजिनाय नम' अध्यं । मंगलमय सर्वावधि जाकरि, पावै पद परहन्ता । बन्दू ज्ञान प्रकाश नाश भव, शिव थल वास करता ॥३०॥
ॐ ह्री अर्हन्मगलावधिज्ञानाय नम अयं । वर्धमान मनपर्यय ज्ञान करि, केवल भानु उगायो। भव्यनि प्रति शुभ मार्ग बतायो, नमसिद्ध पद पायो ॥३१॥
ॐ ह्री अहन्मगलमन.पर्ययज्ञानाय नम अध्यं । ता विन और अज्ञान सकल, जग कारण बंध प्रधाना । नमूपाइ अरहन्त मुक्ति पद, मंगल केवलज्ञाना ॥३२॥
ॐ ह्री प्रहंन्मगलकेवलज्ञ नाय नमः अध्यं ।
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निरावरण निरखेद निरन्तर, निराबाधमई राजै। केवलरूप नमूसब अघहर, श्री अरहन्त विराजै ॥३३॥
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दर्शन पाया।
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चक्ष आदि सब भेद विधन हर, क्षायक दर्शन पाया। श्री अरहन्त नमूशिववासी, इह जग पाप नशाया ॥३४॥
ॐ ह्री ग्रहन्मगलकेवलदर्शनाय नम' अध्यं । जग मंगल सब विघन रूप है, इक केवल अरहन्ता। मंगलमय सब मंगलदायक, नमूकियो जग अन्ता ॥३५॥
ॐ ह्री अहंन्मगलकेवलाय नमः अध्यं । केवलरूप महामंगलमय, परम शत्रु च्यकारा। सो अरहन्त सिद्ध पद पायो, नमूपाय भवपारा ॥३६॥
ॐ ह्री अर्हन्मंगलकेवलरूपाय नमः प्रय॑ । शुद्धातम निजधर्म प्रकाशी, परमानन्द विराजै । सो अरहन्त परम मंगलमय, नम शिवालय राजै ॥३७॥
ॐ ह्री अहंन्मगलधर्माय नमा मध्यं ।
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सब विभावमय विधन नाशकर, मंगल धर्म स्वरूपा। सो अरहन्त भये परमातम, नम त्रियोग निरूपा ॥३८,
ॐ ह्री अर्हन्मगलधर्मस्वरूपाय नम अयं । सर्व जगत सम्बन्ध विघन नहीं, उत्तम मंगल सोई। सो अरहन्त भये शिववासी, पूजत शिवसुख होई ॥३६॥
ॐ ह्री अहन्मगलउत्तमाय नमः प्रध्यं । लोकातीत त्रिलोक पूज्य जिन, लोकोत्तम गुणधारी। लोकशिखर सुखरूप विराजै, तिनपद धोक हमारी ॥४०॥
ॐ ह्री अहल्लोकोतमाय नमः अध्यं । लोकाश्रित गुरण सब विभाव है, श्रीजिनपदसो न्यारे । तिनको त्याग भये शिव बन्द, काटो बन्ध हमारे ॥४१
ॐ ह्री अर्हल्लोकोत्तमगुणाय नम अध्यं । मिथ्या मतिकर सहित ज्ञान, अज्ञान जगतमे सारो। ता विनाशि अरहन्त कहो, लोकोत्तम पूज हमारो ॥४२॥
ॐ ह्री अहल्लोकोत्तमज्ञानाय नम अयं ।
षष्ठम पूजा
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सिद्ध०६
वि● १६५
क्षायक दरशन है अरहन्ता, और लोकमे नाहीं ।
सो अरहन्त भये शिववासी, लोकोत्तम सुखदाई ॥४३॥ ॐ ह्री अल्लोकोत्तमदर्शनाय नमः मध्ये । कर्मबली ने सब जग बांध्यो, ताहि हनो अरहन्ता ।
यह अरहन्त वीर्य लोकोत्तम, पायो सिद्ध अनंता ॥४४॥ ॐ ह्री लोकोत्तमवीर्याय नमः अर्घ्यं । अक्षप्रतीत ज्ञान लोकोत्तम, परमातम पद मूला । यह अरहन्त नमूं शिबनाइक, पाऊँ भवदधि कूला ॥४५॥ ॐ ह्री अल्लोकोत्तमाभिनिबोधकाय नमः ग्रयं । परमावधि ज्ञान सुखखानी, केवलज्ञान प्रकाशी ।
यह अवधि अरहन्त नमूं मै, संशय तुमको नाशी ॥४६॥ ॐ ह्री अहल्लोकोत्तमप्रवधिज्ञानाय नमः अयं । जो अरहन्त धरै मनपर्यय, सो केवल के मांहीं । साक्षात् शिवरूप नमो मैं, अन्य लोकमे नाहीं ॥४७॥ ॐ ह्री अल्लोकोत्तमन पर्ययज्ञानाय नमः अर्घ्यं ।
मतमो
पूजा
१६५
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सिद्ध
तीन लोकमें सार सु श्री-अरहन्त स्वयंभू ज्ञानी। नमू सदा शिवरूप आप हो, भविजन प्रति सुखदानी ॥४८॥
ॐ ह्री अहल्लोकोत्तमकेवलज्ञानस्वरूपाय नमः अध्यं । सर्वोत्तम तिहुँ लोक प्रकाशित, केवलज्ञान स्वरूपी। सो अरहन्त नम शिवनायक, सुखप्रद सार अनूपी ॥४६॥
___ॐ ह्री अर्हल्लोकोत्तमकेवलज्ञानाय नमः अध्यं । ज्ञान तरंग अभंग वहै, लोकोत्तम धार अरूपी। सो अरहन्त नमू शिवनायक, सुखप्रद सार अनूपी ॥५०॥
ॐ ह्री अहल्लोकोत्तमकेवलपर्यायाय नम अयं । सहित असाधारण गुण पर्यय, केवलज्ञान सरूपी। सो अरहन्त नम शिवनायक, सुखप्रद सार अनूपी ॥५१॥
ॐ ह्री अर्ह लोकोत्तकेवलद्रव्याय नमः अध्यं । जगजिय सर्व अशुद्ध कहो, इक केवल शुद्ध सरूपी। सो अरहन्त नमू शिवनायक, सुखप्रद सार अनूपी ॥५२॥
ॐ ह्री प्रहल्लोकोत्तमकेवलाय नम अध्यं ।
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षष्ठम्
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सिद्ध०
वि०
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विविध कुरूप सर्व जगवासी, केवल स्वयं सरूपी । सो त नमू शिवनायक, सुखप्रद सार अनूपी ॥५३॥ ॐ ह्री प्रल्लोकोत्तम केवलस्वरूपाय नमः श्रर्घ्यं । हीनाधिक धिक धिक जग प्रारणी, धन्य एक धू वरूपी । सो अरहंत नमूं शिवनायक, सुखप्रद सार अनूपी ॥ ५४ ॥ ॐ ह्री अल्लोकोत्तम वभावाय नमः अयं । दोहा -- संसारिनके भाव सब, बन्ध हेत वररणाय ।
मुक्तिरूप अरहंतके, भाव नमूं सुखदाय ॥५५॥ ॐ ह्री अल्लोकोत्तमभावाय नमः अर्घ्यं । कबहुँ न होय विभावमय, सो थिर भाव जिनेश । मुक्तिरूप प्ररणमूं सदा, नाशे विधन विशेष ॥५६॥ ॐ ह्री अर्हल्लोकौत्तमस्थिरभावाय नम अर्घ्यं । जा सेवत वेवत स्वसुख, सो सर्वोत्तम देव । शिववासी नाशी त्रिजग -- फांसी नमहूँ एव ॥ ५७॥ ॐ ह्री मच्छरणाय नमः श्रध्यं ।
सप्तमी
पूजा
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सद्धार
वि.5
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जिन ध्यायो तिन पाइयो, निस्सय सो सुखरास । शरण स्वरूपी जिन नम, करै सदा शिववास ॥५८॥ ____ॐ ह्रीं अर्हच्छरणाय नम. अध्यं ।
__ पद्धडी छन्द। स्वाभाविक गुरण अरहंत गाय, जासों पूरण शिवसुख लहाय । हम शरण गही मन वचन काय, नित नमैं 'संत' आनंद पाय।५६॥
ॐ ह्री अर्हद्गुणशरणाय नमः अय।। विन केवलज्ञान न मुक्ति होय, पायो है श्री अरहन्त जोय । हम शरण गही मन वचन काय, नित नमै 'संत' आनंद पाय ।६०॥
ॐ ह्री अर्हन ज्ञानशरणाय नम अध्यं ।। प्रत्यक्ष देख सर्वज्ञ देव, भाख्यो है शिव मारग असेव । । हम शरण गही मन वचन काय, नित नमै 'संत' आनंद पाय ।६१।
ॐ ह्री अर्हद्दर्शनशरणाय नमः अध्यं । संसार विषम बन्धन उछेद, अरहन्त वीर्य पायो अखेद । हम शरण गही मन वचन काय, नित नमै 'संत' प्रानन्द पाय ।६२।
ॐ ह्री अहंदीयशरणाय नम. अध्यं ।
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षष्ठम् पूजा
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सब कुमति विगत मत जिन प्रतीत हो जिसते शिवसुख दे श्रभीत । सिद्ध हम शरण गही मन वचन काय, नित नमै 'संत' श्रानन्द पाय । ६३ । ॐ ह्री श्रद्वादशागायश्रुतगणशरणाय नम अर्घ्यं । श्रनुमानादिक साधित विज्ञान, श्ररहन्त मती प्रत्यक्ष जान ।
वि०
१६६
हम शरण गही मन वचन काय, नित नमै 'संत' आनन्द पाय । ६४ । ॐ ह्री अभिनिबोध काय शरणाय नमः अयं । जिन भाषित श्रुत सुनि भव्य जीव, पायो शिव अविनाशी सदीव | हम शरण गही मन वचन काय, नित नमै 'संत' आनन्द पाय । ६५ । ॐ ह्रीतश्रुतशरणाय नम अध्यं ।
प्रतिपक्षी सब जीते कषाय, पायो अवधी शिवसुख कराय ।
,
हम शरण गही मन वचन काय, नित नमै 'संत' आनन्द पाय । ६६ । ॐ ह्री अदवषिबोधशरणाय नमः अयं ।
मुनि लहै है परिणाम श्वेत, जिन मन मनपर्यय शिव वास देत । हम शरण गही मन वचन काय, नित नमै 'संत' आनन्द पाय | ६७
सप्तमी
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१७.
आवरण रहित प्रत्यक्ष ज्ञान, शिवरूप केवली जिन सुजान । हम शररण गही मन वचन काय, नित नमैं 'संत' आनन्द पाय।६८।
ॐ ह्री अर्हत्केवलशरगाय नमः अध्यं । मनि केवलज्ञानी जिन अराध, पावै शिव-सुख निश्चय अबाध । हम शरण गही मन वचन काय, नित नमै 'संत' प्रानन्द पाय ॥६६॥
ॐ ह्री अर्हत्केवलशरणस्वरूपाय नम. अध्यं । शिव-सुखदायक निज प्रात्म-ज्ञान, सो केवल पावै जिन महान । हम शरण गही मन वचन काय, नित नमै 'संत' आनन्द पाय ७०॥
ॐ ह्री महत्केवलधर्मशरणाय नम प्रय॑ । यह केवल गुण प्रातम स्वभाव, अरहन्तन प्रति शिव-सुख उपाय। हम शरण गही मन वचन काय, नित नमै 'संत' प्रानन्द पाय ७१।
___ह्री अर्हत्केवलगुणशरणाय नम अध्यं । संसार रूप सब विघन टार, मंगल गुण श्री जिन मुक्तिकार । सप्तमी हम शरण गही मन वचन काय, नित नमै 'संत' आनन्द पाय ७२।।
ॐ ह्री अहन्मंगलगुणशरणाय नम अध्यं ।
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पूजा
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छ्य उपशम ज्ञानी विघन रूप, ता विन जिन ज्ञानी शिव सरूप । सिद्ध, हम शरण गही मन वचन काय, नित नमै 'संत' आनन्द पाय ७३॥
ॐ ह्री अहन्मगलज्ञानशरणाय नम अध्यं । १७१३ अरहंत दर्श मंगल स्वरूप, तासो दरशै शिव-सुख अनूप । हम शरण गही मन वचन काय, नित नमै 'संत' आनन्द पाय ७४।
ॐ ह्री अर्हन्मगलदर्शनशरणाय नमः अध्यं । अरहन्त बोध है मंगलीक, शिव मारग प्रति वरते अलीक । हम शरण गही मन वचन काय, नित नमै 'संत' प्रानन्द पाय ७५॥
ॐ ह्री अर्हन्मगलबोधशरणाय नम. अयं । निज ज्ञानानन्द प्रवाह धार, वरते प्रखण्ड अव्यय अपार । हम शरण गही मन वचन काय, नित नमै 'संत' प्रानन्द पाय ७६। ॐ ह्री अर्हन्मगलकेवलशरणाय नम अध्यं ।
सप्तमी जा विन तिहुँ लोक न और मान, भव सिंधु तरण तारण महान। पूजा हम शरण गही मन वचन काय, नित नमैं 'संत' आनंद पाय ७७। ११७१
ही लोकोनमशरगाय नम प्रय॑ ।
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स्वाभाविक भव्यन प्रति दयाल, विच्छेद करण संसार जाल । हम शरण गही मन वचन काय, नित नमै 'संत' आनंद पाय ७८।।
ॐ ह्री अहल्लोकोत्तमशरणाय नम अध्य। तुम विन समरथ तिहुँ लोकमांहि, भवसिंधु उतारण और नाहिं। हम शरण गही पन वचन काय, नित नमै 'संत' आनन्द पाय ७६
ॐ ह्री अहल्लोकोत्तमवीर्यशरणाय नमः अध्यं । बिन परिश्रम तारण तरण होय, लोकोत्तम अद्भुत शक्ति सोय । हम शरण गही मन वचन काय, नित नमै 'संत' आनंद पाय 1८०॥
ॐ ह्री अहल्लोकोत्तमवीर्यगुणशरणाय नम अध्यं । अप्रसिद्ध कुनय अल्पज्ञ भास, ताको विनाश शिवमग प्रकाश । हम शरण गही मन वचन काय, नित नमै 'संत' आनन्द पाय।१।
___ ॐ ह्री अहल्लोकोत्तमद्वादशागशरणाय नमः अध्यं । सब कुनय कुपक्षं कुसाध्य नाश, सत्यारथ-मत कारण प्रकाश। हम शरण गही मन वचन काय, नित नमैं संत प्रानन्द पाय ८२।।
१७२ ही अहल्लोकोत्तमाभिनियोधकाय नम. अयं ।
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मिथ्यारत प्रकृति अवधि विनाश, लोकोत्तम अवधीको प्रकाश। । सिद्ध०
हम शरण गही मन वचन काय, नित नमै 'संत' आनन्द पाय ।।३।। वि०
ॐ ह्री अहल्लोकोत्तमावधिशरणाय नम अध्यं । १७३ , मनपर्यय शिव मंगल लहाय, लोकोत्तम श्रीगुरु सो कहाय । हम शरण गही मन वचन काय, नित नमै 'संत' मानन्द पाय ८४॥
. ॐ ह्री अर्हल्लोकोत्तममन पर्ययशरणाय नम अध्यं ।। आवरणतीत प्रत्यक्ष ज्ञान, है सेवनीक जगमे प्रधान । हम शरण गही मन वचन काय, नित नमै 'सन्त' आनंद पाय ।८।।
ॐ ह्री ग्रहल्लोकोत्तमकेवल ज्ञानशरणाय नमः अध्यं । हो वाहय विभवसुरकृत अनूप, अन्तर लोकोत्तम ज्ञानरूप । हम शरण गही मन वचन काय, नित नमै 'संत' मानन्द पाय ।६।
ॐ ही अर्हल्लोकोत्तमविभूतिप्रधानशरणाय नम अर्घ्य । रतनत्रय निमित सिलो अबाध, पायो निज आनन्द धर्म साध।
इसप्तमी हम शरण गही मन वचन काय, नित नमै 'संत' आनन्द पाय ८७।
ॐही अहल्लोकोत्तमविभूतिधर्मशरणाय नमः अध्यं ।
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१७३
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१७४
सुख ज्ञान वीर्य दर्शन सुभाव, पायो सब कर प्रकृती अभाव। सिद्ध० हम शरण गही मन वचन काय, नित नमै 'संत' आनन्द पाय ।। वि०
ॐ ह्री अर्हल्लोकोत्तमअनन्तचतुष्टयशरणाय नम अध्यं ।
अडिल्ल छन्द । दर्श ज्ञान सुख बल निजगुणये चार है, आतमीक परधान विशेष अपार है इनहींसो है पूज्य सिद्ध परमेश्वरा, हम हूँ यह गुणपाय नमन या करा॥
ॐ ह्री अहंदनन्तगुणचतुष्टाय नमः अर्घ्य ॥८६॥ क्षयोपशम सम्बाधित ज्ञान कलाहरी, पररण ज्ञायक स्वयं बुद्धि श्रीजिनवरी इनहींसो हैं पूज्य सिद्ध परमेश्वरा, हम है यह गुरणपाय नमनयात करा॥
ॐ ह्री अहंनिजज्ञानस्वयभुवे नम अयं ॥६॥ जनमतही दश अतिशय शासनमें कही,स्वयंशक्तिभगवानापतिनकोलही इनहींसों है पूज्य सिद्ध परमेश्वरा, हम हूँ यह गुरणपाय नमनयात कराई
- ॐ ह्री अर्हद्दशातिशयस्वयभुवे नमः अध्यं ॥ ११ ॥ ये दश अतिशय घातिकर्म छयको करै, महा विभवको पायमोक्ष नारीवरै पूजा इनहींसो हैं पूज्य सिद्ध परमेश्वरा, हमहूँ यह गुरणपाय नमनयात कर।। ६१७४
ॐ ह्री अहंदशप्रतिशयाय नमः अयं ।। ६२ ।।
सप्तमी
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वि.
केवलविभवउपाय प्रभूजिनपदलहो, चौदह अतिशयदेवनकरिसेवनकियो । सिद्ध इनहींसो है पूज्य सिद्धपरमेश्वरा, हमहूँ यह गुरणपाय नमन यातै कारा।"
" ॐ ह्री अहंदुचतुर्दशप्रतिशाय नमः अध्य ॥३॥ १७५ चौतिस अतिशयजेपुराणबरणे महा, मुक्ति समाज अनूपम श्रीगुरुने कहा। इनहींसो है पूज्य सिद्ध परमेश्वरा, हमह यह गुणपाय नमन यातकरा॥ । ॐ ह्री अर्हच्चतुस्त्रिशतअतिशयविराजमा राय नमः अध्य।६४ ।
डालर छन्द। लोकालोक अणु सम जानो, ज्ञानानंत सुगुरण पहिचानो। सो अरहंत सिद्ध पद पायो, भाव सहित हम शीश नवायो॥६॥
ॐ ह्री अहंज्ज्ञानानन्दगुणाय नमः अर्घ्य । समरस सुस्थिर भाव उघारा, युगपति लोकालोक निहारा । सो अरहंत सिद्धपद पायो, भाव सहित हम शीश नवायो ॥६६॥
ॐ ह्री अहंध्यानानन्तध्येयाय नम प्रय॑ । इक इक गुरणका भाव अनन्ता, पर्पयरूप सो है अरहन्ता ।
सप्तमी सो अरहंत सिद्धपद पायो, भाव सहित हम शीश नवायो॥६७॥ ॐ ह्री अहंदनतगुणाय नम. अर्ध्य ।
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पूजा
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१७६
उत्तर गुरण सब लख चौरासी, पूरण चारित भेद प्रकाशी । सो रहंत सिद्धपद पायो, भाव सहित हम शीश नवायो ॥ ६८ ॥ ॐ ह्री पन्तगुणाय नमः अर्घ्यं ।
प्रतम शक्ति जास करि छीनी, तास नाश प्रभुताई लीनी । सो अरहंत सिद्धपद पायो, भाव सहित हम शीश नवायो ॥ ६६ ॥ ॐ ह्री महत्परमात्मने नमः अयं ।
निज गुरग निज ही मांहि समाया, गणधरादि बरनन न कराया । सो अरहंत सिद्धपद पायो, भाव सहित हम शीश नवायो ॥१००॥ ॐ ह्री अर्हस्वरूपगुप्ताय नमः श्रव्यं । दोधक छन्द ।
जो निज प्रातम साधु सुखाई, सो जगलेश्वर सिद्ध कहाई ।
लोक शिरोमरिण है शिवस्वामी, भाव सहित तुमको प्रणमामी ।१०१ ॐ ह्री सिद्ध ेभ्यो नम अर्घ्यं । सर्व विशुद्ध विरूप सरूपी, स्वातम रूप विशुद्ध अनूपी । लोक शिरोमरिण है शिवस्वामी, भाव सहित तुमको प्रणमामी ॥१०२॥ ॐ ह्री सिद्धस्वरूपेभ्यो नम अर्घ्यं ।
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सप्तमी
पूजा
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सिद्ध०
वि०
१७७
पराश्रित सर्व विभाव निवारा, स्वाश्रित सर्व अबाध अपारा । लोक शिरोमरिण है शिवस्वामी, भावसहित तुमको प्रणमामी |१०३ ॥ ॐ ह्री सिद्धगुणेभ्यो नम अर्घ्यं ।
प्राकुलता सब ही विधि नाशी, ज्ञायक लोकालोक प्रकाशी । लोक शिरोमरिण है शिवस्वामी, भावसहित तुमको प्रणमामी |१०४ ॥ ॐ ह्री सिद्धज्ञानेभ्यो नमः प्रव्यं
जीव जीव लखे विचारा, हो नहीं अन्तर एक प्रकारा । लोक शिरोमरिण है शिवस्वामी, भावसहित तुमको प्रणमामी |१०५ | ॐ ह्री सिद्धदर्शनेभ्यो नम अध्यं ।
अन्तर बाहिर भेद उधारी, दर्श विशुद्ध सदा सुखकारी । लोक शिरोमरिण है शिवस्वामी, भावसहित तुमको प्रणमामी |१०६॥ ॐ ह्री सिद्धशुद्धसम्यक्त्वेभ्यो नम अध्यं । एक अणू मल कर्म लजावै, सोय निरंजनता नहि पावै । लोक शिरोमणि है शिवस्वामी, भावसहित तुमको प्रणमामी ॥१०७॥ ॐ ह्री सिद्धनिरजनेभ्यो नम श्रध्यं ।
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सिद्ध० वि.
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अर्धरोला छन्द--चारों गति को भमरण नाशकर थिरता पाई।
निज स्वरूपमें लीन, अन्य सो मोह नशाई ॥१०॥
____ *ह्री मिद्धाचलपदप्राप्ताय नम अयं । रत्नत्रय पाराधि साधि, निज शिवपद पायो। संख्या भेद उलंघि, शिवालय वास करायो ॥१०॥
___ॐ ह्री सख्यातीतसिद्ध भ्यो नम अध्यं । असंख्यात मरजाद, एक ताह सो बीते। विजयी लक्ष्मीनाथ, महाबल सब विधि जीते ॥११०॥
ॐ ह्री असख्यातसिद्धेभ्यो नम अर्घ्य । काल आदि मर्याद अनादि, सो इह विधि जारी। भए अनन्त दिगम्बर साधु जु, शिवपद धारी ॥१११॥
ॐ ह्री अनन्तसिद्ध भ्यो नम अर्घ्य । पुष्करार्द्ध सागर लों, जे जल थान बखानो। देव सहाइ उपाइ, ऊर्ध्व गति गमन करानो ॥११२॥
___ॐ ह्री जलसिद्धभ्यो नम अयं ।
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वन गिरि नगर गुफादि, सर्व थलसो शिव पाई। सिद्धक्षेत्र सब ठौर बखानत, श्री जिनराई ॥११३॥
ॐ ह्री स्थलसिद्ध भ्यो नम अध्यं । नभही मे जिन शुक्लध्यान, बल कर्म नाश किये। प्राउ पूर्ण वश ततछिन, ही शिववास जाय लिये ।११४॥
'ॐ ह्री गगनसिद्ध भ्यो नमः अध्यं ।। आयु स्थिति सम अन्य कर्म-कारण परदेशा। परसै पूरण लोक, प्रात्म, केवली जिनेशा ॥११॥
ॐ ह्री समुद्घात-सिद्धेभ्यो नमः अध्यं । केवलि जिन विन समुद्घात, शिववास लिया है। स्वते स्वभाव समान, अघाती कर्म किया है ॥११६॥
ही असमुद्धातसिद्ध भ्यो नम अध्यं ।
उल्लाला छन्द । तिन विशेष अतिशय रहित, सामान्य केवली नाम है। सिद्ध भये तिहँ योगते, तिनके पद परिणाम है ॥११७॥
ॐ ह्री साधारणसिद्ध भ्यो नमः अध्यं ।
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पूजा
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त्रिभुवन में नहीं पावतो, जो जिन गुरण अभिराम है। सिद्ध भये. तिहुँ योगतै, तिनके पद परिणाम है ॥११॥
ॐ ह्री असाधारणसिद्ध भ्यो नम अयं । गर्भ कल्याण आदि युत, तीर्थंकर सुखधाम है। सिद्ध भये तिहुँ योगतै, तिनके पद परिणाम है ॥११॥
ॐ ह्री तीर्थकरसिद्ध भ्यो नम अर्घ्य । तीर्थंकर के समय मे, केवली जिन अभिराम है ! सिद्ध भये तिहुँ योगतै, तिनके पद परिणाम है ।।१२०॥
____ॐ ह्री तीर्थंकरअन्तरसिद्ध भ्यो नमः अयं । पंच शतक पच्चीस फुनि, धनुषकाय अभिराम है। सिद्ध भये तिहुँ योगतै, तिनके पद परिणाम है ॥१२१॥
ॐ ह्री उत्कृष्ट अवगाहनसिद्ध भ्यो नम अध्यं । आदि अन्त अन्तर विषे, मध्यवगाहन नाम है। सिद्ध भये तिहुँ योगतै, तिनके पद परिणाम है ॥१२२॥
ॐ ह्री.मध्यमअवगाहनसिद्धेभ्यो नम अयं । ।
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षष्ठम
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तीन अर्ध तन केवली, हस्त प्रमाण कहाय है। सिद्ध भये तिहुँ योगतै, तिनके पद परिणाम है ॥१२३॥ ___ॐ ह्री जघन्यअवगाहनसिद्ध भ्यो नमः अध्यं । देव निमित्त मिलो जहां, त्रिजग केवली धाम है। सिद्ध भये तिहुँ योगतै, तिनके पद परिणाम है ॥१२४॥
ह्री त्रिजगलोकसिद्धेभ्यो नम अयं । विध परिणति कालकी, तिन अपेक्ष यह नाम है। सिद्ध भये तिहुँ योगतै, तिनके पद परिणाम है ॥१२॥
ॐ ह्री षधिकालसिद्धेभ्यो नम अध्यं । अन्त समय उपसर्गतै, शुकल ध्यान अभिराम है। . सिद्ध भये तिहुँ योगतै, तिनके पद परिणाम है ॥१२६॥
ॐ ह्री उपसर्गसिद्ध भ्यो नम. अध्यं । पर उपसर्ग मिलै नहीं, स्वतः शुक्ल सुख धाम है।। सिद्ध भये तिहुँ योगतै, तिनके पद परिणाम है ॥१२७॥ ११८१
ॐ ह्री निरुपसर्गसिद्ध भ्यो नम. अध्यं ।
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अन्तर द्वीप मही जहां, देवन के अभिराम है। सिद्ध भये तिहुँ योगतै, तिनके पद परिणाम है ॥१२८॥ ___ॐ ह्री द्वीपसिद्ध भ्यो नमः मध्यं ।। देव गये ले सिंधु जब, कर्म छयो तिह ठाम है। सिद्ध भये तिहुँ योगतै, तिनके पद परिणाम है ॥१२६॥ ___ॐ ह्री उदधिसिद्ध भ्यो नमः अध्यं ।
. भुजगप्रयात छन्द। धरे जोग आसन गहै शुद्धताई, न हो खेद ध्यानाग्नि सों कर्म छाई। भये सिद्ध राजा निजानंद साजा, यही मोक्ष नाजा'नमः सिद्धकाजा॥
ही स्वस्थित्यासनसिद्धेभ्यो नम अध्यं ॥१३०॥ महा शांति मुद्रा पलौथी लगाये, कियो कर्म को नाश ज्ञानी कहाये। भये सिद्ध राजा निजानंद साजा, यही मोक्ष नाजा नमःसिद्ध काजा॥
ॐ ह्री पर्यकासनसिद्धेभ्यो नम. अयं ।।१३१॥ लहै आदिको संहनन पुरुष देही, लखायो परारंभ मे भाव ते ही। पूजा भये सिद्ध राजा निजानंद साजा, यही मोक्ष नाजा नमःसिद्ध काजा॥ १८२ ॐ ह्री पुरुषवेदसिद्धेभ्यो नम. मध्यं ॥१३२।।
। १, नाजा-स्त्री.
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खपायो प्रथम सात प्रकृति विमोहा, गहो शुद्ध श्रेणी क्षयोकर्मलोहा।। भये सिद्ध राजा निजानंद साजा, यही मोक्ष नाजा नमःसिद्ध काजा॥
ॐ ह्री क्षपकश्रेणीसिद्ध भ्य नम. अध्यं ।।१३३॥ समय एक मे एक वासौ भनंता, धरो पाठ तापं यही भेद अन्ता। भये सिद्ध राजा निजानंद साजा यही मोक्ष नाजा नमःसिद्ध काजा ॥
ॐ ह्री एकसमयसिद्धेभ्यो नमः अध्यं ॥ १३४ ॥ किसी देशमे वा किसी काल माहीं, गिने दो समयमें तथा अंतराई। भये सिद्ध राजा निजानंद साजा, यही मोक्ष नाजा नमः सिद्ध काजा॥
ॐ ह्री द्विसमसिद्ध'भ्यो नम अयं ॥ १३५॥ समय एक दो तीन धाराप्रवाही, कियो कर्म छय अन्तराय होय नाहीं। भये सिद्ध राजा निजानंद साजा, यही मोक्ष नाजा नमःसिद्ध काजा॥
ह्री त्रिसमयसिद्ध भ्यो नमः अध्यं ॥१३६॥ हुवे हो सु होगे सु हो है अबारी, त्रिकालं सदा मोक्ष पंथा विहारी। भये सिद्ध राजा निजानंद साजा यही मोक्ष नाजा नमः सिद्ध काजा॥
ॐ ह्री त्रिकालसिद्ध भ्यो नमा अध्यं ॥१३॥
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तिहू लोक के शुद्ध सम्यक्त्व धारी, महा भार संजम धरै है अबारी। सिद्ध० भये सिद्ध राजा निजानंद साजा, यही मोक्ष नाजा नमः सिद्ध काजा॥
ॐ ह्री त्रिलोकसिद्धेभ्यो नम अयं ।। १३८ ॥ (मरहठा छंद)-तिहुँ लोक निहारा, सब दुखकारा पापरूप संसार ।
ताको परिहारा सुलभ सुखारा, भये सिद्ध अविकार ॥ हे जगत्रय-नायक मंगलदायक, मंगलमय सुखकार । मै नम त्रिकाला हो अघ टाला, तप हर शशि उनहार ।१३६॥
ॐ ह्री सिद्धमगलेभ्यो नमः अध्यं । तिहुँ कर्म कालिमा लगी जालिमा, करै रूप दुखदाय । तुम ताको नाशो स्वयं प्रकाशो, स्वातम रूप सुभाय ॥ हे जगत्रय-नायक मंगलदायक, मंगलमय सुखकार । मै नमूत्रिकाला हो अघ टाला, तपहर शशि उनहार ॥१४०॥ षष्ठम्
ॐ ह्री सिद्धमगलस्वरूपेभ्यो नमः अर्घ्य ।। तिहुँ जगके प्राणी सब अज्ञानी, फंसे मोह जंजाल ।
१८४ - हो तिहुँ जगत्राता पूरण ज्ञाता, तुम ही एक खुशहाल ॥
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पूजा
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हे जगत्रय-नायक मंगलदायक, मंगलमय सुखकार । मै नम् त्रिकाला हो अघ टाला, तपहर शशि उनहार ।१४१॥
ॐ ह्री सिद्धमगलज्ञानेभ्यो नम अध्यं । यह मोह अन्धेरी छई घनेरी, प्रबल पटल रहो छाय। तुम ताहि उधारो सकल निहारो, युगपत् प्रानन्ददाय ॥ हे जगत्रय-नायक मंगलदायक, मंगलमय सुखकार । मै नमत्रिकाला हो अघ टाला, तपहर शशि उनहार ॥१४२॥
___ॐ ह्री सिद्धमगलदर्शनेभ्यो नम. अयं । निजबंधन डोरी छिन मे तोरी, स्वयं शक्ति परकाश । निरभय निरमोही, परम अछोही, अन्तरायविधि नाश ॥ हे जगत्रय-नायक मंगलदायक, मंगलमय सुखकार । मै नमूत्रिकाला हो अघ टाला, तपहर शशि उनहार ॥१४३॥
ॐ ह्री सिद्धमगलवीर्येभ्यो. नमः अध्यं । जाके प्रसादकर सकल चराचर, निजसों भिन्न लखाय । रुष राग निवारा सुख विस्तारा, पाकुलता विनशाय ॥
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हे जगत्रय-नायक मंगलदायक, मंगलमय सुखकार । मै नमूत्रिकाला हो अघ टाला, तपहर शशि उनहार ॥१४४॥
ॐ ह्री सिद्धमगल सम्यक्त्वेभ्यो नम. अध्यं । अस्पर्श अमूरति चिनमय मूरति, अरस अलिंग अनूप । मन अक्ष अलक्षं ज्ञान प्रत्यक्षं शुभ अवगाह स्वरूप ॥ ले जगत्रय नायक मंगलदायक, मंगलमय सुखकार । मै नमूत्रिकाला हो अघ टाला, तपहर शशि उनहार ॥१४॥
- ॐ ह्री सिद्धमंगलावगाहनेभ्यो नम. अध्यं । अव्यक्त स्वरूपं अमल अनूपं, अलख अगम असमान । अवगाह उदर धर वास परस्पर भिन्न भिन्न-परनाम ॥ हे जगत्रय नायक मंगलदायक, मंगलमय सुखकार । मै नमूत्रिकाला हो अघ टाला, तपहर शशि उनहार॥१४६॥
ॐ ह्री सिद्धमंगलसूक्ष्मत्वेभ्यो नम अध्यं । अनुभूति विलासी समरस रासी, हीनाधिक विधि नाश । विधि गोत्र नाशकर पूरण पदधर, असंवाध परकाश ॥
सप्तमी
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हे जगत्रय-नायक मंगलदायक, मंगलमय सुखकार । सिद्ध मै नमूत्रिकाला हो अघ टाला, तपहर शशि उनहार ॥१४७॥
ॐ ह्री सिद्धमगल अगगुरुलघुभ्यो नम. अर्घ्यं । पुद्गल कृत सारी विविधि प्रकारी, द्वैतभाव अधिकार । सब भांति निवारी निज सुखकारी, पायो पद अविकार ॥ हे जगत्रय नायक मंगलदायक, मंगलमय सुखकार । मै नमूत्रिकाला हो अघ टाला, तपहर शशि उनहार ॥१४॥
ॐ ह्री सिद्धमगलप्रव्याबाधितेभ्यो नम अर्घ्य । अवगाह प्रणामी ज्ञानीरामी, दर्शन वीर्य अपार । सूक्षम अवकाशं अज अविनाशं, अगुरुलघू सुखकार ॥ हे जगत्रय नायक मंगलदायक, मंगलमय सुखकार। मै नमूत्रिकाला हो अघ टाला, तपहर शशि उनहार ॥१४॥
ॐ ह्री सिद्धमगलाष्टगुणेभ्यो नम अध्यं ।। शुद्धातम सारं अष्ट प्रकारं, शिव स्वरूप अनिवार। है।' निज गुरणपरधानं सम्यकज्ञानं, प्रादि अन्त अविकार ॥
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सप्तमी पूजा
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हे जगत्रय नायक मंगलदायक, मंगलमय सुखकार । मै नमूत्रिकाला हो अघ टाला, तपहर शशि उनहार ॥१५०॥
ॐ ह्री सिद्धमगल-अष्टरूपेभ्यो नम अध्यं । मंगल अरहन्तं अष्टम भन्तं, 'सिद्ध अष्ट गुरण भास । ये ही बिलसावै, अन्य न पावै, असाधारण परकाश ॥ हे जगत्रय नायक मंगलदायक, मंगलमय सुखकार। मैं नम त्रिकाला हो अघ टाला, तपहर शशि उनहार ॥१५१॥
ॐ ह्री मिद्धमगल अष्टप्रकाशकेभ्यो नम. अर्घ्य । निर आकुलताई सुख अधिकाई, परम शुद्ध परिणाम । संसार निवारण बन्ध विडारन, यही धर्म सुखधाम ॥ हे जगत्रय नायक मंगलदायक, मंगलमय सुखकार । मैं नम त्रिकाला हो अघ टाला, तपहर शशि उनहार ॥१५२॥
ॐ ह्री सिद्धमगलधर्मभ्यो नम अर्घ्य । . (चूलिका छंद)-तीनकाल तिहुँलोकमे तुमगुण और न माहि लखाने। लोकोत्तम परसिद्ध हो, सिद्धराज सुख साज बखाने ॥१५३॥
ही सिद्धलोकोत्तमगुणणेभ्यो नमः अध्य।
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लोकत्रय शिरं छत्र मरिण लोकत्रय वर पूज्य प्रधाने । लोकोत्तम परसिद्ध हो परसिद्धराज, सुखसाज बखाने ॥१५४॥
ॐ ह्री सिद्धलोकोत्तमेभ्यो नम अयं । अमल अनूप तेजघन, निरावरण निजरूप प्रमाने । लोकोत्तम परसिद्ध हो, सिद्धराज सुख साज बखाने ॥१५॥
___ ॐ ह्री सिद्धलोकोत्तमस्वरूपाय नम' पय॑ । लोकालोक प्रकाश कर, लोकातीत प्रत्यक्ष प्रमाने । 'लोकोत्तम परसिद्ध हो, सिद्धराज सुख साज बखाने॥१५६॥
__ॐ ह्री सिद्धलोकोत्तमज्ञानाय नम अध्यं । सकल दर्शनावरण विन, पुरन-दरसन जोत उगाने । लोकोत्तम परसिद्ध हो, सिद्धराज सुख साज बखाने ॥१५७॥
____ॐ ह्री सिद्धलोकोत्तमदर्शनाय नम अयं । अतुल अतीन्द्रिय वीरजकर, भोग तिन शिवनारि अघाने । लोकोत्तम परसिद्ध हो, सिद्धराज सुख साज बखाने ॥१५॥
ॐ ह्री सिद्धलोकोत्तमवीर्याय नमः अध्यं । लोकत्रय शिर छत्रमणि, लोकत्रय वर पूज्य बखाने-यह पाठ भी मिलता है ।
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१६.
त्रोटक छन्द। विनकारण ही सबके मितु हो, सर्वोत्तम लोकवि हितु हो। इनहीं गुरगमें मन पागत हैं, शिववास करो शरणागत है ॥१५॥
ॐ ह्री लोकोत्तमशरणाय नम अयं । तुम रूप अनुपम ध्यान किये, निज रूप दिखावत स्वच्छ हिये। इनहीं गुरणमै मन पागत है, शिववास करो शरणागत है॥१६०॥
ॐ ह्री सिद्धस्वरूपशरणाय नमः अयं । निरभेद अछेद विकासित है, सब लोक अलोक विभासित है। इनहीं गुरणमें मन पागत है, शिववास करो शरणागत है ॥१६१॥
ह्री सिद्धदर्शनशरणाय नम अयं । निरबाध अगाध प्रकाशमई, निरद्वन्द अबंध अभय अजई । इनहीं गुणमें मन पागत है, शिववास करो शरणागत है ॥१६२॥
ॐ ह्री सिद्धज्ञानशरणाय नमः प्रध्यं । हित कारण तारण तरण कहै, अप्रमाद प्रमाद प्रकाशन है। इनहीं गुरणमे मन पागत है, शिववास करो शरणागत है ॥१६३॥
ॐ ह्री सिद्धवीर्यशरणाय नम मध्य ।
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पप्तमी पूजा
१६०
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१६१
अविरुद्ध विशुद्ध प्रसिद्ध महा, निज प्रातम-तत्त्व प्रबोध लहा। सिद्ध इनहीं गुरणमे मन पागत है, शिववास करो शरणागत है ॥१६४॥
ॐ ह्री सिद्धसम्यक्त्वशरणाय नम अयं । जिनको पूर्वापर अन्त नहीं, नित धार-प्रवाह बहै अति ही। । इनहीं गुणमे मन पागत है, शिववास करो शरणागत है ॥१६॥
ॐ ह्री सिद्धअनन्तशरणाय नम अयं । कबहूँ नहीं अन्त समावत है, सु अनन्त-अनन्त कहावत है। १ इनही गुरणमे मन पागत है, शिववास करो शरणागत है ॥१६६॥
ॐ ह्री सिद्धअनन्तानन्तशरणाय नमः अध्यं । , तिहुँ काल सु सिद्ध महा सुखदा निजरूप विर्षे थिर भाव सदा । । इनहीं गुणमें मन पागत है, शिववास करो शरणागत हैं ॥१६७॥
ॐ ह्री सिद्धत्रिकालशरणाय नमः अध्यं । तिहुँ लोक शिरोमरिण पूजि महा, तिहुँ लोक प्रकाशक तेज कहा। सप्तमी इनहीं गुरणमे मन पागत है, शिववास करो शरणागत है ॥१६॥
ॐ ह्री सिद्धत्रिलोकशरणाय नमः अध्यं ।
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गिनती परमाण जु लोक धरे, परदेश समूह प्रकाश करे। सिद्ध० इनहीं गुणमें मन पागत है, शिववास करो शरणागत है ॥१६६॥ वि०
____ॐ ह्री सिद्धासख्यातशरणाय नमः अध्यं । १९२
पूर्वापर एकहि रूप लसे, नित लोक सिंहासन वास बसे । इनहीं गुरणमे मन पागत है, शिववास करो शरणागत है ॥१७०॥
___ॐ ह्री सिद्धध्रौव्यगुणशरणाय नम अध्यं । जगवास पर्याय विनाश कियो, अब निश्चय रूप विशुद्ध भयो। इनहीं गुणमे मन पागत है, शिववास करो शरणागत है ॥१७१॥
ॐ ह्री सिद्धोत्पादगुणशरणाय नमः अध्यं । परद्रव्यथको रुष राग नहीं, निज भाव बिना कहुँ लाग नहीं। इनहीं गुरणमे मन पागत है, शिववास करो शरणागत है ।।१७२॥
ह्री सिद्धसाम्यगुणशरणाय नम: अर्घ्य । विन कर्म कलंक विराजत हैं, अति स्वच्छ महागुरण राजत है। इनहीं गुणमे मन पागत है, शिववास करो शरणागत है ॥१७३॥ १२
ॐ ह्री सिद्धस्वच्छगुणशरणाय नमः अयं ।
सप्तमी
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मन इन्द्रिय आदि न व्याधि तहाँ, रुष राग कलेश प्रवेश न ह्वां । इन्हीं गुणमें मन पागत है, शिववास करो शरणागत है ॥१७४॥ ॐ ह्री सिद्धस्व स्थित गुणशरणाय नमः अयं । निज रूप विषै नित मगन रहे, परयोग वियोग न दाह लहै । इन्हीं गुणमें मन पागत है, शिववास करो शरणागत है ॥ १७५ ॥ ॐ ह्री सिद्धसमाधिगुरणशररणाय नम अष्यं ।
श्रुतज्ञान तथा मतिज्ञान वऊ, परकाशत है यह व्यक्त सऊ । नहीं गुण मन पागत है, शिववास करो शरणागत हैं ॥१७६॥ ॐ ह्री सिद्धव्यक्तगुणशरणाय नमः अर्घ्यं । परतक्ष श्रतीन्द्रिय भाव महा, मन इन्द्रिय बोध न गुहय कहा । नहीं गुरण में मन पागत है, शिववास करो शरणागत है ॥१७७॥ ॐ ह्री सिद्धभव्यक्तगुणशरणाय नमः अध्यं । निजगुरणवर स्वामी शुद्धसंबोधनामी, परगुरणनहिलेशा एक ही भावशेषा । मनवचतनलाई पूजहों भक्तिभाई, भविभवभयचूरं शाश्वतं सुक्खपूरं ॥ ॐ ह्री सिद्धगुणस्वरूपाय नमः अर्घ्यं ।। १७६८।।
स्पष्ठम् पूजा १६३
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सबविधिमलजाराबन्धसंसारटारा, जगजियहितकारीउच्चतापायसारी सिद्ध० मनवचतन लाई पूजहोभक्तिभाई, भविभवभयचूरं शाश्वतंसुक्खपूरं ॥ वि.
___ ह्री सिद्धपरमात्मस्वरूपाय नम अयं ॥ ७॥ १९४ पर-परणतिखण्डंभेदबाधाविहण्डं, शिवसदननिवासी नित्यस्वानंदरासी
मनवचतन लाई पूजहोंभक्तिभाई, भविभवभयचूरं शाश्वतंसुक्खपूरं ॥ . .. 'ॐ ह्रीं मिद्धाखण्डस्वरूपाय निम अयं ॥ १८ ॥' चितसुखविलसानंाकलंभावहानं, निज अनुभवसारं द्वैतसंकल्पटारं । मनवचतन लाई पूजहोभक्तिभाई, भविभवभयचूरं शाश्वतंसुक्खपूरं ॥
ॐ ह्री सिद्धचिदानन्द स्वरूपपाय नम. प्रध्य ॥ ११ ॥ परकरण निवारं भाव संभावधारं, निजअनुपमज्ञानं सुक्खरूपंनिधानं । मनवचतन लाई पूजहोभक्तिभाई, भविभवभयचूरं शाश्वतंसुक्खपूरं ॥ ॐ ह्री सिद्धसहजानदाय नमः प्रध्यं ।। १८२॥
षष्ठम विधिवशसबप्रानीहीनाधिक्यठानी, तिसकरणनिर्म लापायरूपाधरूला जा मनवचतन लाई पूजहोभक्तिभाई, भविभवभय वूरं शाश्वतं सुक्खपूरं॥ १६४
ॐ ह्री मिद्धप्रच्छेदरूपाय नम अयं । १८३॥
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जबलगपरजाया भेदनानाधराया, इकशिवपदमांही भेदाभासनाहीं। मनवचतन लाई पूजहोंभक्तिभाई, भविभवभयचूरं शाश्वतंसुक्खपूर ॥
ॐ ह्री सिद्धअभेदगुणाय नम अध्यं ।। १८४ ।। अनुपमगुरगधारीलोकसंभावटारी, सुरनरमुनि ध्यावसोनहींपारपावै।। मनवचतन लाई पूजहोंभक्तिभाई, भविभवभयचूरं शाश्वतंसुक्खपूरं॥
ॐ ह्री सिद्धअनुपमगुणाय नम अध्य ॥१८॥ जिस अनुभवसरसधारमानदंवरसै अनुपमरससोई स्वाद जासो न कोई।। मनवचतन लाई पूजहोंभक्तिभाई, भविभवभयचूरं शाश्वतंसुक्खपूरं ।।
ॐ ह्री सिद्ध-अमृततत्त्वाय नम अध्यं ॥ १६॥ सबश्रुतविस्तारा जास माहींउजारा, यहनिजपदजानोग्रात्मसंभावमानो।। मनवचतनलाई पूजहोभक्तिभाई, भविभवभयचूरं शाश्वतंसुक्खपूरं ॥
ॐ ह्री सिद्धश्र तप्राप्ताय नमा प्रय॑ ।। १७ ।। दोघक छन्द।
(पष्ठम् जीव अजीव सबै प्रतिभासी, केवत जोति लहो तम नाशी। सिद्ध समूह नमूशिरनाई, पाप कलाप सबै खिर जाई ॥१८॥
ॐ ह्री सिद्धकेवलप्राप्ताय नमः प्रध्य ।
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चेतन रूप सदेश बिराजै, प्राकृतिरूप अलिंग सु छाजै । सिद्ध समूह नमूशिरनाई, पाप कलाप सबै खिर जाई ॥१८॥
ॐ ह्री सिद्धसाकारनिराकाराय नम अध्यं । नाहि गहै पर आश्रित जानो, जो अवलम्ब बिना पद मानो। सिद्ध समूह जजो मन लाई, पाप कलाप सबै खिर जाई ॥१६॥
- ॐ ह्री निरालम्बाय नमः अध्यं । राग विषाद बसै नहिं जामे, जोग वियोग भोग नहिं तामै । सिद्ध समूह जजो मन लाई, पाप कलाप सबै खिर जाई ॥१६॥
___ॐ ह्री सिद्धनिष्कलकाय नमः अध्यं । ज्ञान प्रभाव प्रकाश भयो है, कर्म समूह विनाश भयो है। सिद्ध समूह जजो मन लाई, पाप कलाप सबै खिर जाई ॥१६२॥
__ॐ ह्री सिद्धतेजःसपन्नाय नम. अर्ध्य । पातम लाभ निजाश्रित पाया, द्वैत विभाव समूह नसाया। सिद्ध समूह जजो मन लाई, पाप कलाप सबै खिर जाई ॥१६३॥
ॐ ह्री सिद्धात्मसपन्नाय नमः प्रध्यं ।
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मोतीयादाम छन्द। चहूँ गति काय स्वरूप प्रत्यक्ष, शिवालय वास अनूप अलक्ष । भजो मन प्रानन्दसों शिवनाथ, धरो चरणांबुजको निज माथ।१६४।।
ॐ ह्री सिद्धगर्भवासाय नम' अध्यं । निजानन्द श्रीयुत ज्ञान अथाह, सुशोभित तृप्त भयो सुख पाय । भजो मन आनन्दसों शिवनाथ, धरो चरणांबुजको निज माथ।१६॥
ॐ ह्री सिद्धलक्ष्मीसतर्पकाय नम. अध्यं । सुभाव निजातम अन्तर लीन, विभाव परातम प्रापद कीन । भजो मन आनन्दसो शिवनाथ, धरो चरणांबुजको निज माथ ।१६६।
ॐ ह्री सिद्धान्तराकाराय नमः अय॑ । जहां लग द्वेष प्रवेश न होय, तहाँ लग सार रसायन होय। भजो मन प्रानन्दसो शिवनाथ, धरो चरणांबुजको निज माथ।१६७।३
ॐ ह्री सिद्धसाररसाय नमः अर्घ्य । ६ जिसो निरलेप हुए विषतु ब्य, तिसो जग अग्र निराश्रय लुब्य। . भजो मन आनंदसो शिवनाथ, धरो चरणांबुजको निज माथ।१६।।
ॐ ह्री सिद्धशिखरमण्डनाय नमा अध्यं ।
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तिहूँ जग शीश बिराजित नित्य, शिरोमरिण सर्व समाज अनित्य । सिद्ध भजो मन आनंदसो शिवनाथ, धरो चरगांबुजको निज माथ ।१६। वि०
ॐ ह्री सिद्धत्रिलोकाग्रनिवासिने नम अध्यं । १८ अकाय अरूप अलक्ष अवेद, निजातम लीन सदा अविछेद । भजो मन आनंदसो शिवनाथ, धरो चरणांजुजको निज माथ।२००।
ॐ ह्री सिद्धस्वरूपगुप्तेभ्यो नमः अध्यं ।
अडिल्ल छन्द। ऋषभन्नादिचितधारिप्रथमदीक्षाधरी, केवलज्ञानउपायधर्मविधिउच्चरी। निजस्वरूपथितिकरणहरणविधिचारहै, परमारथाचार्यसिद्धसुखकारहै।
ॐ ह्री सूरिभ्यो नम अध्यं ॥२०१॥ । निजहीनिजउरधारहेतसामर्थहै, आत्मशक्तिकरव्यक्तिकरणविधिव्यर्थ है निज स्वरूपथितिकरणहरणविधिचारहै,परमारथप्राचार्यसिद्धसुखकार है ॐ ह्री सूरिगुरणेभ्यो नम अध्यं ॥२०२।।
ਠ ईसाधन साधक साध्य भाव सबहीगयो, भेदअगोचररूपमहासुखसंचयो पूजा निजस्वरूपथितिकरणहरणविधिचारहै,परमारथप्राचार्यसिद्धसुखकारहै १६८
ॐ ह्री सूरिस्वरूपगुणेभ्यो नम अध्यं ।। २०३।।
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तत्त्वप्रतीत निजातमरूप अनुभवकला, पायोसत्यानंदकुमारग दलमलाई सिद्ध निजस्वरूपथितिकरणहरणविधिचारहै, परमारथप्राचार्यसिद्धसुखकारहै। वि.
ॐ ह्री सूरिसम्यक्त्वगुणेभ्यो नम अध्यं ।। २०४ ।। १९६ वस्तु अनंत धर्म प्रकाशक ज्ञान है, एकपक्ष हट गृहित निपटअसुहान है । निजस्वरूपथितिकरणहरणविधिचारहै, परमारथप्राचार्यसिद्धसुखकारहै।
ॐ ह्री सूरिज्ञानगुणेभ्यो नम अर्घ्य ।। २०५ ।। वस्तुधर्मसमान ताहि अवलोकना, शुद्ध निजातमधर्मताहि नहीं लोपना निजस्वरूपथितिकरणहरणविधिचारहै, परमारथाचार्यसिद्धसुखकारहै।
ॐ ह्री सूरिदर्शनगुणेभ्यो नम अध्य ॥ २०६ ।। अतुलअकम्पअखेदशुद्धपरिणतिधरै, जगतरूपव्यापार न इक छिन पादर, निजस्वरूपथितिकरणहरणविधिचारहै, परमारथाचार्यसिद्धसुखकारहै।
ॐ ह्री सूरिवीर्यगुणेभ्यो नम अर्घ्य ॥२०७॥ षट्त्रिंशतिगुणसूरि मोक्षफल पाइयो,तातें हम इन गुणकरहीजशगाइयो पूजा निजस्वरूपथितिकरणहरणविधिचारहै,परमारथप्राचार्य सिद्धसुखकारहै १६६
ॐ ह्री सूरिपत्रिंशतगुणेभ्यो नम अध्यं ॥ २०८ ।।
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पंचाचार श्राचारसाधशिवपदलियो, वास्तव में ये गुणनिजमें परगटकियो सिद्ध० निजस्वरूपथितिकरण हररणविधिचार है, परमारथश्राचार्यसिद्धसुखकार है ॐ ह्री सूरिपचाचारगुणेभ्यो नमः श्रध्यं ॥ २०६ ॥
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२०० गुरणसमुदाय सरूपद्रव्य प्रातममहा, परसोंभिन्न प्रभेद निजातमपदलहा । निजस्वरूपथितिकरणहरणविधिचार है, परमारथश्राचार्य सिद्धसुखकार है ॐ ह्री सूरिद्रव्यगुणेभ्यो नमः अर्घ्यं ।। २१० ।।
वीतरागपरणतिरच ही सुखकारजू, परमशुद्धस्वयंसिद्ध भयो अनिवारजू निजस्वरूपथितिकरणहरणविधिचार है, परमारथप्राचार्यसिद्धसुखकार है ॐ ह्री सूरपर्यायगुणेभ्यो नमः श्रध्यं ॥ २११ ॥ (छन्द चचला, एक हस्व एक दीर्घ )
आप सुक्खरूप हो सु, और सौख्यकार होत ।
ज्यू घटादिको प्रकाश कार है सुदीप जोत ॥
सूरि धर्मको प्रकाश सिद्ध धर्म रूप जान ।
मैं नमू त्रिकाल एकही प्रभेद पक्षमान ॥ २१२॥ ॐ ह्री सूरिमगलेभ्यो नम अध्यं ।
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सिख०६ वि० २०१
संस अंश भान वस्तु भावको प्रकाशमान। .
ज्ञान इन्द्रियानिन्द्रिया कहै उभै प्रमाण ॥ सूरि धर्मको प्रकाश सिद्ध धर्म रूप जान ।।
__ मै नम त्रिकाल एक ही अभेद पक्षमान ॥२१३॥
ॐ ह्री सूरिज्ञानमगलेभ्यो नम अयं । लोक उत्तमा सु वसु कर्मको प्रसंग टार।
शुद्ध बुद्ध रिद्ध पाय लोक वेदना निवार । सूरि धर्मको प्रकाश सिद्ध धर्म रूप जान ।
मै नमत्रिकाल एक ही अभेद पक्षमान ॥२१४॥
___ॐ ह्री सूरिलोकोत्तमेभ्यो नम. अध्यं । लोकभीत सो अतीत आदि अन्त एक रूप ।
लोकमें प्रसिद्ध सर्व भावको अनूप भूप । सरि धर्मको प्रकाश सिद्ध धर्म रूप जान ।
मै नमूत्रिकाल एक ही अभेद पक्षमान ॥२१॥ . . ॐ'ह्री सूरिज्ञानलोकोत्तमेभ्यो नम. अध्यं ।
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बीच में न अन्तराय, आप ही सुखाय धाय ।
या अबाध धर्मको प्रकाशमें करै सहाय ॥ सरि धर्मको प्रकाश, सिद्ध धर्म रूपं जान।
मै नमूत्रिकाल एक ही अभेद पक्षमान ॥२१६॥
ॐ ह्री सूरिदर्शनलोकोत्तमेभ्यो नम. अध्यं । मोह भारको निवार, शुद्ध चेतना सुधार ।
यह वीर्यता अपार लोकमे प्रशंसकार ॥ सरि धर्मको प्रकाश, सिद्ध धर्म रूप जान ।
मैं नमूत्रिकाल एक ही अभेद पक्षमान ॥२१७॥
ॐ ह्री सूरिवीर्यलोकोत्तमेभ्यो नमः अर्घ्य । धर्म केवली महान, मोह अन्ध तेज भान ।
सप्त तत्त्वको बखानि, मोक्ष-मार्ग को निधान । सूरि धर्मको प्रकाश, सिद्ध धर्म रूप जान ।
मै नमूत्रिकाल एक ही प्रभेद पक्षमान ॥२१॥ ॐ ह्री केवलधर्माय नम अध्यं ।
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शील आदि पूर भेद कर्मके कलाप छेद ।
प्रात्म-शक्तिको प्रकाश शुद्ध चेतना विलास ॥ सरि धर्मको प्रकाश, शुद्ध धर्म रूप जान ।
मै नमूत्रिकाल एक ही अभेद पक्षमान ॥२१॥
__ॐ ह्री सूरितपेभ्यो नमः अध्यं । लोक चाहकी न दाह, द्वष को प्रवेश नाह ।
शुद्ध चेतना प्रवाह, वृद्धता धरै अथाह ॥ सूरि धर्मको प्रकाश, सिद्ध धर्म रूपं जान ।
मै नमू त्रिकाल एक ही अभेद पक्षमान ॥२२०॥
ॐ ह्री सूरिपरमतपेभ्यो नम अयं । मोह को न जोर जाय, घोर आपदा नसाय ।
घोरतें तपो सु लोक-शीश जाय मुक्ति पाय ॥ सूरि धर्मको प्रकाश, सिद्ध धर्म रूप जान ।
मै नमूत्रिकाल एक ही अभेद पक्षमान ॥२२१॥ ॐ ह्री सूरितपोधोरगुणेभ्यो नम. अर्घ्य ।
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कामिनी मोहन छन्द,मात्रा २० । वृद्धपरवृद्धगुणगहननितहोजहाँ, शाश्वतं पूर्णता सातिशयगुण तहां। 6. सूरि सिद्धांत के पारगामी भय, मै नजोरकर मोक्षधामी भय। २०४
ॐ ह्री सूरिधोरगुणपराक्रमेभ्यो नम अय॑ ।।२२२।। एक सम-भाव सम और नहीं ऋद्धि है, सर्वही ऋद्धिजाके भये सिद्ध है। सूरि सिद्धांत के पारगामी भये, मै नम जोरकर मोक्षधामी भये ॥
___ॐ ह्री सूरिऋद्धिऋषिभ्यो नम अयं ।। २२३ ।। जोगके रोकसे कर्मका रोक हो, गुप्तसाधनकिये साध्य शिवलोक हो॥ सूरि सिद्धांतके पारगामी भये, मै नमू जोरकर मोक्षधामी भये ॥
ॐ ह्रो सूरिसुयोगिनेभ्यो नम. अध्यं ।। २२४ ।। ध्यान बल कर्मके नाशके हेतु है, कर्मको नाश शिववास ही देत है। सूरि सिद्धांत के पारगामी भये, मैं नमू जोरकर मोक्षधामी भये ॥
ॐ ह्री सूरिध्यानेभ्यो नम अर्ध्य ॥ २२५ ।। पंचधाचारमे प्रात्म अधिकार है, बाहय आधार आधेय सुविकार है। पूजा सूरि सिद्धांत के पारगामी भये, मै नमजोरकर मोक्षधामी भये॥ २०४
ही सूरिघात्रिभ्यो नम-अध्यं ।। २२६ ।।
सप्तमी
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वि०
सूर सम आप परतेज करतार है, सूरही मोक्षनिधि पात्र सुखकार है। सिद्ध० सूरि सिद्धांत के पारगामी भये, मै नम्जोरकर मोक्षधामी भये ॥
ॐ ह्री सूरिपात्रेभ्यो नमः अर्घ्य ॥ २२७ ।। - २०५, बाहय छत्तीस अन्तर अभेदात्मा, आप थिर रूप है सूर परमात्मा।। सूरि सिद्धांत केपारगामी भये, मैं नम जोरकर मोक्षधामी भये ॥
ॐ ह्री सूरिगुणशरणाय नम अयं ।। २२८ ।। है ज्ञान उपयोग में स्वस्थिता शुद्धता,पूर्ण चारित्रता पूर्ण ही बुद्धता।। सूरि सिद्धांतके पारगामी भयो, मै नमजोरकर मोक्षधामी भये ।
ॐ ह्री सूरिधर्मगुणशरणाय नमा अध्यं ।। २२६ ।। शरण दुख हरण पर आपही शर्णहैं, आपने कार्य मे प्रापही कर्ण है। सूरि सिद्धांतके पारगामी भये, मैं नम जोरकर मोक्षधामी भये ॥
___ॐ ह्री सूरिशरणाय नमः अयं ॥ २३०॥ दोहा--ज्यों कन्चन विन कालिमा, उज्ज्वल रूप सुहाय ।
त्योंही कर्म-कलंक बिन, निज स्वरूप दरसाय ॥२३१॥ ___ॐ ह्री सूरिस्वरूपशरणाय नम. अध्यं ।
मप्तमी
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मिद्ध वि० २०६
भेदाभेद स नय थकी, एक ही धर्म विचार। पायो.सरि सबोध करि, भवदधि करि उद्धार ॥२३२॥ ___ॐ ह्री सूरिधर्मस्वरूपशरणाय नमः अयं । अन्य समस्त विकल्प तजि, केवल निजपद लीन । पूरण ज्ञान स्वरूप यह, पायोरि सुधीन ॥२३३॥
ॐ ह्री सूरिज्ञानस्वरूपाय नम अयं । सुखाभास इन्द्रीजनित, त्यागी 'सूरि महन्त । पूरण सुख स्वाधीन निज, साध्य भये सुखवन्त ॥२३४॥
___ॐ ह्री सूरिसुखस्वरूपाय नम अयं । अनेकात तत्त्वार्थ के, ज्ञाता सूरि महान । निरावर्ण निजरूप लखि, पायो पद निरवारण ॥२३॥
___ ॐ ह्री सूरिदर्शनस्वरूपाय नम अयं ।। मोहादिक रिपु नाशिके, सूर्य महा सामर्थ । शिव भामिन भरतार नित, रमै साध निज अर्थ ॥२३६॥
ॐ ह्री सूरिवीर्यस्वरूपाय नम अध्यं ।
मप्तमी
२०६
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सिद्ध वि०
२००
पद्धडी छन्द। जिन निज आतम निष्पाप कीन, ते सन्त कर पर पाप छोन।। शिवमग प्रगटन आदित्य सूर, हम शरण गही प्रानंद पूर॥२३७॥
ॐ ही सूरिमगलशरणाय नम अन्य। रत्नत्रय जीव सुभावभाय, भवि पतित उधारण हो सहाय । शिवमग प्रगटन आदित्य सूर, हम शरण गही पानंद पूर ॥२३॥
___ॐ ह्री सूरिधर्मशरणाय नमः अगं । तपकर ज्यो कंचन अग्नि जोग, व शुद्ध निजातम पद मनोग। शिवमग प्रगटन आदित्य सूर, हम शरण गही आनंद पूर ॥२३६॥
ॐ ह्री मूरितपशरणाय नमः प्रध्य । एकाग्र-चित्त चिन्ता निरोध, पावै अवाध शिव आत्म बोध । शिवमग प्रगटन आदित्य सूर, हम शरण गही आनंद पूर ॥२४०॥
ॐ ह्री सूरिध्यानशरणाय नमः अध्य। केवलज्ञानादि विभूति पाइ, हवं शुद्ध निरंजन पद सुखाइ। शिवमग प्रगटन प्रादित्य सूर, हम शरण गही पानंद पूर ॥२४१॥
___ॐ ह्री सूरिसिद्धशरणाय नमः प्रध्यं ।
मतमा
२००
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सिद्ध
वि०
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तिहुँ लोकनाथ तिहुँ लोक मांहिं, या सम दूजो सुखदाय नाहि । शिवमग प्रगटन आदित्य सूर, हम शरण गही आनंद पूर ॥२४२॥
____ॐ ह्री सूरित्रिलोकशरणाय नम अयं । आगत अतीत अरु वर्तमान, ति: काल भव्य पावै निर्वाण । शिवमग प्रगटन आदित्य सूर, हम शरण गही आनंद पूर ॥२४३॥
ॐ ह्री सूरित्रिकालशरणाय नम अयं । मधि अधो उर्द्ध तिहुँ जगत मांहि, सब जीवन सुखकर और नाहिं। शिवमग प्रगटन आदित्य सूर, हम शरण गही आनंद पूर ॥२४४॥
... ह्री सूरित्रिजगन्मगलाय नम. अयं । तिहुँ लोकमांहिं सुखकार आप, सत्यारथ मंगल हरण पाप । शिवमग प्रगटन आदित्य सूर, हम शरण गही आनंद पूर ॥२४॥
ॐ ह्री सूरित्रिलोकमगलशरणाय नम अयं । उत्तम मंगल परमार्थ रूप, जग दुख नासे शिवसुख स्वरूप । शिवमग प्रगटन आदित्य सूर, हम शरण गही आनंद पूर ॥२४६॥
ॐ ह्री सूरित्रिजगन्मगलोत्तमशरणाय नम अयं ।
मतमी
पूजा
२०८
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सिद्ध
शरणागत दुखनाशन महान, तिहुँ जगहित कारण सुख निधान ।। शिवमग प्रगटन आदित्य सूर, हम शरण गही पानंद पूर ॥२४७॥
ह्री सूरिश्रिजगन्मंगलशरणाय नम अध्य। तिहुँ लोकनाथ तिहुँ लोक पूज्य, शरणागत प्रतिपालन प्रदूज्य । शिवमग प्रगटन आदित्य सूर, हम शरण गही आनंद पूर ॥२४८॥
ॐ ह्री सूरित्रिलोकमण्डनशरणाय नमः अध्यं । अव्यय अपूर्व सामर्थ युक्त, संसारातीत विमोहमुक्त । शिवमग प्रगटन प्रादित्य सूर, हम शरण गही आनंद पूर ॥२४६॥
ॐ ह्री सूरिऋद्धिमण्डल शरणाय नम अध्यं ।
योटक छन्द। जिन रूप अनूप लखें सुख हो, जगमे यह मंत्र महान कहो। धरि भक्ति हिये गरगराज सदा, प्रणम् शिववास करै सुखदा ।२५० पष्ठम् ___ॐ ह्री सूरिमंत्रस्वरूपाय नमः अध्यं ।
पूजा जिम नागदेव वश मंत्र विधि, भव वास हरण तुम नाम निधि । धरि०४ २०६
ॐ ह्री सूरिमंत्रगुणाय नमः अध्यं ।।३५१॥
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जगमोहित जीव न पावत है, यह मंत्र सु धर्म कहावत हैं। सिद्ध० धरि भक्ति हिये गणराज सदा, प्रणम् शिवास करे सुखदा । वि.
___ॐ ह्री सूरिधर्माय नम अध्यं ।।२५२।। २१० चिदरूप चिदातम भाव धरे, गुरण सार यही अविरुद्ध करें । धरि०
___ॐ ह्री सूरिचैतन्य स्वरूपाय नम अध्यं ॥२५३।। अविकार चिदाम आनन्द हो, परमातम हो परमानंद हो । धरि०
ॐ ह्री सूरिचिदानदाय नम अध्यं ॥२५४।। । निज ज्ञान प्रमारण प्रकाश करै, सुख रूप निराकुलता सु धरै । धरि०
___ॐ ह्री सूरिज्ञानानन्दाय नम अध्यं ।।२५।। धरि योग महा शम भाव गहैं, सुख राशि महा शिववास लहै । धरि०
___ ॐ ह्री सूरिशमभावाय नम अध्यं ।।२५६।।। सम भाव महा गुण धारत है, निज आनंद भाव निहारत है।धरि० ॐ ह्री सूरितपोगुणानन्दाय नमः प्रध्यं ॥२५७॥
पूजा शिवसाधनको विधिनाश कहा, विधिनाशनको तप कर्ण महा।धरि० २१०
ॐ ह्री सूरितपोगुणस्वरूपाय नम मध्यं ।।२५८।।
षष्ठम्
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सिद्ध०
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२११
निज प्रात्म विषै नित मगन रहें, जगके सुखमूल न भूलि चहैं । धरि० ॐ ह्री सूरिहासाय नम अयं ॥ २५६ ॥
बनवास उदास सदा जगतै, पर ग्रास न खास विलास रतै । धरि० ॐ ह्री सूरिहसगुणाय नम अध्य ।। २६० ।।
निज नाम महागुरण मंत्र धरै छिन मात्र जपे भवि प्राश वरं । धरि० ॐ ह्री सूरिमत्रगुणानन्दाय नमः अयं ॥ २६१ ।।
परमोत्तम सिध परियाय कही, अति शुद्ध प्रसिद्ध सुखात्म मही । धरि० ॐ ह्री सूरिमिदानन्दाय नम प्रयं ।। २६२ ||
( माला छन्द) - शशि सन्ताप कलाप निवारण ज्ञान कला सरसं, मिथ्यातम हरि भवि आनंद करि अनुभव भाव दरसं । सूरि निजभेद कियो परसै,
भये मुक्ति में नमू शीश नित जोर युगल करसें ॥ २६३ ॥ ॐ ह्री सूरिश्रमृतचन्द्राय नम अयं ॥ २६३ ॥
पूररण चन्द्र सरूप कलाधर ज्ञान सुधा बरसै ।
भवि चकोर चित चाहत नित मनु चररण जोति परसं । सूरि० ॐ ह्रीं सूरिघाचन्द्रस्वरूपाय नमः श्रयं ॥ २६४ ॥
स्पष्ठम्
पूजा
२११
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सिद
वि.
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जगजिय ताप निवारण कारण विलसे अन्तरसै। देव सुधा सम गुण निवाहकर, सकल चराचरसै । सूरि०।२६५॥
ॐ ह्री सूरिसुधागुणाय नम अयं । जा धुनि सुनि संशय विनस जिम ताप मेघ वरसै। मनहुँ कमल मकरंद बृन्द अली पाय सुधारससै । सूरि०।२६६।
* ह्रीं सूरिसुधाध्वनये नम अर्घ्य । अजर अमर सुखदाय भाय मन ज्यो मयर हरसै,
. गाजत घन बाजत ध्वनि सुनि मनु भाजत भय उरसै । सूरि०।२६७।
ॐ ह्री सूरिअमृतध्वनिसुरूपाय नमः अध्य" । (चकोर छंद)-जो अपने गुण वा पर्याय, वरै निज धर्म न होत विनास।
द्रव्य कहावत है सु अनंत स्वभाव धरे निज प्रात्म विलास ॥ सूरि कहाय सु कम खिपाइ, निजातम पायगय शिवधाम । सु प्रातमराम सदाअभिराम भये सुख काम नमूवसु जाम ॥
___ॐ ही मूरिद्रव्याय नम अध्यं ।। २६८।।
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षष्ठम पूजा २१२
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ज्यों शशि जोति रहैं सियरा नित, ज्यों रवि जोति रहे नित ताप। ई A ज्यो निज ज्ञानकला परपूरण, राजत हो निज करण सु प्रापासूरि।
ॐ ह्री सूरिगुणद्रव्णय नमः अर्घ्य ।। २६६ ।। हो अविनाश अनुपम रूपसु, ज्ञान मई नित केलि करान। पैन तजे मरजाद रहै, जिम सिन्धु कलोल सदा परिमारण ॥सरि०॥
ह्री सूरिपर्यायाय नमः अध्यं ॥१७॥ ६ जे कछु द्रव्य तनो गुण है, सु समस्त मिल गुण प्रातम माहीं।। ताकरि द्रव्य सरूप कहावत, है अविनाश नमै हम ताई ॥सूरि०।२७१।।
ह्रीं सूरिगुणम्वरूपाय नम प्रय। जा गुण मे गुण और न हो, निज द्रव्य रहै नित और न ठौर । सो गुण रूप सदा निवस, हम पूजत है करके कर जोर सूरि०।२७२ ॥ ॐ ह्री सूरिगुणस्वरूपाय नमः अयं ।
सतमो जो परिणाम धरै तिनसों, तिनमेकरहे वरत तिस रूप ।। सो पर्याय उपाय विना नित, आप विराजत हैं सु अनूप ॥सूरि०।२७३।१२१३
ॐ ह्री सूरिपर्यायस्वरूपाय नम अर्घ्य ।
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पूजा
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हो नित ही परणाम समय प्रति, सो उत्पाद कहो भगवान । सिज सोतुमभावप्रकाशकियो, निज यह गुरणका उत्पाद महान।।सूरि०२७४। वि.
ॐ ह्री सूरिगुणोत्पादाय नम अर्घ्य । . २१४ । ज्योमृतिका निज रूप न छांडत, है घटमांहि अनेक प्रकार । । सो तुम जीव स्वभाव धरो नित, मुक्तभए जगवास निवार सूरि०।२७५
ॐ ह्री सूग्ध्रि वगुणोत्पादाय नम अर्घ्य । थे जगमे सब भाव विभाव, पराश्रित रूप अनेक प्रकार । ते.सब त्याग भए शिवरूप, अबध अमन्द महासुखकार सूरि०।२७६। __ ॐ ह्री सूरिव्ययगुणोत्पादाय नम अध्यं । जे जगमे-षद् द्रव्य कहै, तिनमें इक जीव सु ज्ञान स्वरूप । और सभी विनज्ञान कहै, तुम राजत हो नित ज्ञान अनूप सूरि०।२७७ '
ॐ ह्री सूरिजीवतत्त्वाय नम अध्यं । 5 ज्ञान सुभाव धरो नित ही, नहीं छोड़त हो कबहूँ, निज वान । पूजा ६ येही विशेष भयो सबसो नहीं, औरनमें गुण ये परधान सूरि०।२७८। २१४
ॐ ह्री सूरिजीवतत्त्वगुणाय नम। अयं ।
षष्ठम
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हो कर्तादि अनेक सुभाव, निजातम में परमै अनिवार। सिद्धा सो परको न लगाव रहो, निजही निजकर्मरहोसुखकार सूरि०।२७६॥ वि.
ॐ ह्री सूरिनिजस्वभावधारकाय नम अध्यं । २१५ । द्रव्य तथापि, विभाव दोऊ, विधि कर्म प्रवाह बहै विन आदि। १ ते सब एक भये थिररूप, निजातम शुद्ध सुभाव प्रसादासूरि०।२८०।।
___ॐ ह्री सूरिभाश्रवविनाशाय नमः अर्घ्य । . (मोदकछंद) बंध दऊ विधिके दुख कारण, नाशकियो भवपार उतारण सरि भये निज ज्ञान कलाकार, सिद्ध भये प्रण मै मनधर ॥
ॐ ह्री सूरिबधतत्त्वविनाशाय नम अध्यं ।।२८१॥ ३ सम्वरतत्त्व महा सुख देत है, पाश्रव रोकनको यह हेत है । सिरि० ।
ॐ ह्री सूरिसवरतत्त्वसहिताय नमः अयं ॥२२॥ ज्यूमरिण दीप अडोल अनूपही, संवर तत्व निराकुलरूप ही। सूरज सामो
ॐ ह्री सूरिसवरतत्त्वस्वरूपाय नम, अध्यं ॥२८५४ संवरके गुण ते मुनि पावत, जो मुनि शुद्ध सुभाव सध्यावत सरि ६२१५
____ॐ ह्री सूरिसवरगुणाय नमः अध्यं ॥२८॥
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पूजा
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२१६
संवर धर्मतनी शिव पावहि, संवर धरम तहाँ दरशावहि ॥सूरि०॥
ॐ ह्री सूरिसवरधर्माय नम अयं ॥२८॥ दोहा-- एक देश वा सर्व विधि, दोनों मुक्ति स्वरूप । नमनिरजरा तत्त्वसो, पायो सिद्ध अनूप ॥२८६॥
ॐ ह्री सूरिनिर्जरातत्त्वाय नम. अयं । शुद्ध सुभाव जहाँ तहाँ, कहो कर्मको नाश । एम निरजरा तत्त्वका, रूप कियो परकाश ॥२८७॥
__ॐ ह्री सूरिनिर्जरातत्त्वस्वरूपाय नम अर्घ्य । कोटि जन्मके विघन सब, सूखे तुरण सम जान । दहे निर्जरा अग्निसो, इह गुण है परधान ॥२८॥
ॐ ह्री सूरिनिजरागुणस्वरूपाय नम अध्यं । निज बल कर्म खपाइये, कहो निर्जरा धर्म । धर्मी सोई प्रात्मा, एक हि रूप सुपर्म ॥२६॥
ॐ ह्री सूरिनिर्जराषमस्वरूपाय नमः अध्यं ।
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षष्ठम्
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समय समय गुणश्रेणिका, खिरै कर्म बल ध्यान । ये सम्बन्ध निवार करि, करै मुक्ति सुख पान ॥२६०॥
__ॐ ह्री सूरिनिर्जरानुबधाय नम अयं । अतुल शक्ति थिर भावकी, सो प्रगटी तुम माहि । यही निर्जरा रूप है, नमूभक्ति कर ताहि ॥२६२॥
ॐ ह्री सूरिनिजरास्वरूपाय नम अध्यं । सर्व कर्म के नाश विन, लहै न शिव-सुखरास । निश्चय तुम ही निर्जरा, कियो प्रतीत प्रकाश ॥२६२॥
ॐही सूरिनिजराप्रतीताय नम अयं । सकल कर्ममल नाशर्ते, शुद्ध निरंजन रूप । ज्यो कचन विन कालिमा, राजै मोक्ष अनूप ॥२६३॥
ॐ ह्री सूरिमोक्षाय नम. अयं । द्रव्य भाव दोनो सुविधि, करै जगतमे वास । द्वै विध बन्ध उखारके, भये मुक्त सुखरास ॥२६४॥
ॐ ह्री सूरिबन्धमोशाय नम. अर्ध्य ।
सप्तमी
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पर विकलप सुख दुख नहीं, अनुभव निज आनन्द । जन्म मरण विधि नाशकर, राजत शिवसुख कंद।२६५॥
ॐ ह्री सूरिमोक्षम्वरूपाय नम अध्यं ।। जहां न दुखको लेश है, उदय कर्म अनुसार। जो शिवपद पायो महा, नमू भक्ति उर धार ॥२६६॥
ॐ ह्री सूरिमोक्षगुणाय नम अध्यं । जो शिव सुगुरण प्रसिद्ध है, तिनसों नित्त प्रबन्ध । जे जगवास विलास दुख, तिन नम्ब न्ध ॥२६॥
ॐ ह्री सूरिमोक्षानुबधाय नम अयं । जैसी निज तन प्राकृती, तज कोनो शिवास । ते तैसै नित अचल है, ज्ञानानन्द प्रकाश ॥२६॥
ॐ ह्रो सूरिमोक्षानुप्रकाशाय नम अध्यं । क्षयोपशम परिणाम कर, साधे न जिनका रूप । वा निजपदमें लीनता, ये ही गुप्त स्वरूप ॥२६६॥
ॐ ह्री सूरिस्वरूपगुप्तये नम अध्यं ।
सप्तमी
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सिद्ध वि०
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१
इन्द्रियजनित न दुख जहां, सदा निजानन्द रूप। निर-आकुल स्वाधीनता, वरतै शुद्ध स्वरूप ॥३०॥
ॐ ह्री सूरिपरमात्म-स्वरूपाय नम अध्यं । (रोला छन्द)-संपूरण श्रुत सार निजातम बोध लहानो,
निज अनुभव शिव मूल मानु उपदेश करानो। शिष्यनके अज्ञान हरै ज्यू रवि अंधियारा, पाठक गुण संभवै सिद्ध प्रति नमन हमारा ॥३०१॥
ॐ ह्री पाठकेभ्यो नम अध्यं । मुक्ति मूल है आत्मज्ञान सोई श्रुत ज्ञानी,
तत्त्व ज्ञान सो लहै निजातम पद सुखदानी। शिष्यनके०
___ ॐ ह्री पाठकमोक्षमण्डनाय नमः अध्यं । भवसागर ते भव्य जीव तारण' अनिवारा,
तुममें यह गुण अधिक आप पायो तिस पारा। शिष्यनके०
ॐ ह्री पाठकगुणेभ्यो नमः अध्यं ।
सप्तमी
पूजा
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दर्शन ज्ञान स्वभाव धरो तद्रूप अनूपी, हीनाधिक बिन अचल विराजत शुद्ध सरूपी। शिष्यनके०
ॐ ह्री पाठकगुणस्वरूपेभ्यो नमः अध्यं ।। निज गुरण वा परयाय अस्खण्डित नित्य धरै है। तिहुँ काल प्रति अन्य भाव नहीं ग्रहण करै है। शिष्यनके०
____ॐ ह्री पाठकद्रव्याय नमः अध्यं ॥३०५।। सहभावी गुरण सार जहां परभाव न लेसा, अगुरुलघू परणाम वस्तु सद्भाव विशेषा। शिष्यनके०
ॐ ह्री पाठकगुणपर्यायेभ्यो नम अध्यं ॥३०६।। गुरण समुदायी द्रव्य याहितें निरगुरण नाहीं । सो अनन्त गुरण सदा विराजत तुम पद माहीं। शिष्यनके०
ॐही पाठकगणद्रव्याय नमः अध्यं ॥३०७।। सत सरूप सब द्रव्य सधै नीके अबाधकर। सो तुम सत्य सरूप विराजो द्रव्य भाव धर । शिष्यनके०
ॐ ह्री पाठकद्रव्यस्वरूपाय नम अध्यं ।। ३०८।।
ससमी
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२२०
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सिद्ध
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जे जे है परनाम विना परनामी नाहीं। परनामी परनाम एक ही हैं तुम माहीं। शिष्यनके०
ॐ ह्री पाठकद्रव्यपर्यायाय नम अध्यं ।।०६। अगुरुलघू पर्याय शुद्ध परनाम बखानी, निज सरूपमें अन्तरगत श्रुतज्ञान प्रमानी। शिष्यनके०
"* ह्री पाठकपर्यायस्वरूपाय नम' अध्यं ।३१०॥ जगतवास सब पापमूल जियको दुखदाई, ताको नाशन हेतु कहो शिव मूल उपाई । शिष्यनके०
ॐ ह्री पाठकमगलाय नम अर्ध्य ॥३११।। जहां न दुखको लेश सर्वथा सुख ही जानो, सोई मंगल गुण तुममें प्रत्यक्ष लखानो । शिष्यनके०
___ॐ ह्री पाठकममगलगुणाय नम अर्घ्य ॥३१२॥ औरन मंगलकरन प्राप मंगलमय राजै, दर्शन कर सुखसार मिलै सब ही अघ भाजै। शिष्यनके०
ॐ ह्री पाठकमगलगणस्वरूपाय नम अयं ॥३१३।।
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सप्तमी
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पूजा २२१
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मिद्ध०
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२२२
आदि अनत अविरुद्ध मंगलमय मूरति । निज सरूपमे बसै सदा परभाव विदूरित । शिष्यनके०
- ॐ ह्री पाठकद्रव्य मगलाय नम प्रय॑ ।।३१४॥ जितनी परणति धरो सबहि मंगलमय रूपी, अन्य अवस्थित टार धार तद्रूप अनूपी। शिष्यनके०
ॐ ह्री पाठकमगलपर्यायाय नम प्रध्यं ।।३१५।। निश्चय वा विवहार सर्वथा मंगलकारी, जग जीवनके विघन विनाशन सर्व प्रकारी। शिष्यनके०
ॐ ह्री पाठकद्रव्यपर्यायमगलाय नम अध्यं ।।३१६ । भेदाभेद प्रमारण वस्तु सर्वस्व बखानो, वचन अगोचर कहो तथा निर्दोष कहानो। शिष्यनके०
ॐ ह्री पाठकद्रव्यगुणपर्यायमगलाय नम अध्यं ॥३७॥ सब विशेष प्रतिभासमान मंगलमय भासे, निर्विकल्प प्रानन्दरूप अनुभूति प्रकाशे । शिष्यनके०
ॐ ह्री पाठकस्वरूपमगलाय नम अयं ॥३१८।।
सप्तमी पूजा २२२
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सिद्ध०
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२२३
( पायता छंद ) - निर्विघ्न निराश्रय होई, लोकोत्तम मंगल सोई ।
तुम गुरण अनन्त श्रुत गाया, हम सरधत शीश नवाया ॥ ॐ ह्री पाठकमगलोत्तमाय नमः अयं ।। ३१ ।। जगजीवनको हम देखा, तुम ही गुरण सार विशेखा । तुम गुण अनन्त श्रुत गाया, हम सरधत शीश नवाया ॥ ॐ ह्री पाठकगुणलोकोत्तमाय नम ग्रयं ॥ ३२० ॥
षद्रव्य रचित जग सारा, तुम उत्तम रूप निहारा । तुम गुरग० ॐ ह्री पाठकद्रव्यलोकोत्तमाय नम अर्घ्यं । ३२१ ।।
निज ज्ञान शुद्धता पाई, जिस करि यह है प्रभुताई । तुम गुरण०
ॐ ह्री पाठकज्ञानाय नम अध्यं ।। ३२२||
जग जीव अपूरण ज्ञानी, तुम ही लोकोत्तम मानी । तुम गुरग० ॐ ह्री पाठकज्ञानलोकोत्तमाय नम श्रध्यं ॥ ३२३ ॥
युगपत निरभेद निहारा, तुम दर्शन भेद उधारा । तुम गुरण० ॐ ह्री पाठकदर्शनाय नम अध्यं ॥ ३२४ ॥
हम सोवत है नित मोही, निरमोही लखे तुमको ही । तुम गुरण० ॐ ह्री पाठकदर्शनलोकोत्तमाय नम अर्घ्य ।। ३२५ ।।
सप्तमी
पूजा
२२३
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सिद्ध०
वि०
२२४
गवंत महासुखकारा, तुम ज्ञान महा श्रविकारा ।
तुम गुरण श्रनन्त श्रुत गाया, हम सरधत शीश नवाया ॥
ॐ ह्री पाठकदर्शनस्वरूपाय नम अध्यं ।। ३२६ ॥
निरशंस अनन्त प्रबाधा, निज बोधन भाव भराधा । तुम गुरण ० ॐ ह्री पाठकसम्यक्त्वाय नम अर्घ्यं ॥ २२७ ॥
सम्यक्त्व महासुखकारी, निज गुरण स्वरूप अविकारी । तुम गुरण० ॐ ह्री पाठकसम्यक्त्वगुरणस्वरूपाय नम अयं ।। ३२८ । निरखेद छेद प्रभेदा, सुख रूप वीर्य निवेंदा । तुम गुरण०
ॐ ह्री पाठकवीर्याय नम श्रध्यं ।। ३२६ ।।
निज भोग कलेश न लेशा, यह वीर्य अनन्त प्रदेशा । तुम गुरग० ॐ ह्री पाठकवीर्यं गुणाय नमः अर्घ्य ॥ ३३० ।।
परनाम सुथिर निज माहीं, उपजै न कलेस कदाही । तुम गुरग० सप्तमी ही पाठकवीर्यपर्यायाय नमः मध्यं ।। ३३१ ॥
पूजा
द्रव्य भाव लहो तुम जैसो, पावै जगजन नहिं ऐसो । तुम गुरग० ही पाठकवीर्यद्रव्याय नम अध्यं ।। ३३२ ।।
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3 निज ज्ञान सुधारस पीवत, आनंद सुभाव सु जीवत । तुम गुण सिद्ध
ओ ह्री पाठकवीर्यगुणपर्यायाय नम अर्घ्य ।। ३३३ ।। वि० अविशेष अनन्त सुभावा, तुम दर्शन माहि लखावा । तुम गुरग०
पो ह्री पाठकदर्शनपर्यायाय नम अध्यं ।। ३३४ ।। इकबार लखे सबहीको, तद्रूप निजातम ही को। तुम गुरग०
प्रो ह्री पाठकदर्शनपर्यायस्वरूपाय नम अध्यं ॥ ३३५ ॥ सपरस प्रादिक गुण नाहीं, चिद् प निजातम माहीं । तुम गुरग०
*ह्री पाठकज्ञानद्रव्याय नमः अध्यं ।। ३३६ ।। शरणागति दीनदयाला, हम पूजत भाव विशाला । तुम गुण.
ॐ ह्री पाठरशरणाय नम अध्यं ।। ३३७ ।। जिनशरण गही शिव पायो, इम शरण महा गुणगायो । तुम गुरण०
ॐ ह्री पाठकगुणशरणाय नम अयं ।। ३३८ ।। अनुभव निज बोध करावै, यह ज्ञान शरण कहलावै । तुम गुरण.
ॐ ह्री पाठकज्ञानगुणशरणाय नम अध्यं ॥ ३६॥ हग मात्र तथा सरधाना, निश्चय शिववास कराना । तुम गुरण.
ॐ ह्री पाठकदर्शनशरणाय नम. अयं ।। ३४० ।।
पष्ठम् पूजा
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सिद्ध०
वि०
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निरभेद स्वरूप अनूपा, है श तनी शिव भूपा ।
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'तुम गुरण अनन्त श्रुत गाया, हम सरधत शीश नवाया ॥ ॐ ह्री पाठक दर्शनस्वरूपशरणाय नम अर्घ्यं ।। ३४१ ।। निजात्म-स्वरूप लखाया, इह काररण शिवपद पाया । तुम गुरण. ॐ ह्री पाठकसम्यक्त्वशरणाय नम अर्घ्यं ।। ३४२ ।।
प्रांतम-स्वरूप संरधाना, तुम शरण गहौ भगवाना । तुम गुण.
ॐ ह्री पाठकसम्यक्त्वस्वरूपाय नमः अध्यं ॥ २४३ ॥
निज तम साधन माहीं, पुरुषारथ छूटै नाहीं । तुम गुण. ह्री पाठकवीर्यशर रंगाय नमः अयं ॥ ३४४।। श्रातम शकती प्रगटावे, तब निज स्वरूप जिय पावै । तुम गुरण. ओ ह्री पाठकवीर्यस्वरूपशरणाय नम· श्रध्य “।।३४५।।
परमातम वीर्य महा है, पर निमित नं लेश तहां है । तुम गुरण. श्री ह्री पाठकवी परमात्मशरणाय नम अर्घ्यं ॥ ३४६ ॥ श्रुतद्वादशांग जिनवानी, निश्चय शिववास करानी । तुम गुरण. श्री ह्री पाठकद्वादशागशरणाय नमः अर्घ्यं ॥ २४७ ॥
षष्ठम
पूजा २२६
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दश पूर्व महा जिनवारणी, निश्चय अघहर सुखदानी। तुम गुण.
प्रो ह्री पाठकदशपूर्वांगाय नम: अर्घ्य ॥३४८।। दश चार पूर्व जिनवानी, निश्चय शिववास करानी । तुम गुण.
ओ ह्री पाठकचतुर्दशपूर्वांगाय,नम अयं ॥३४६॥ . निज प्रात्म चर्ण प्रकटावै, प्राचारं अंग कहलावै। तुम गुरण. ओ ह्री पाठकाचारागाय नम अध्य ।।४५०॥ .
रेखता छन्व । विविध शंकादि तुम टारी, निरन्तर ज्ञान आचारी। . पूर्ण श्रुतज्ञान फल पाया, नमूसत्यार्थ उवझाया ॥
ॐ ह्री पाठकज्ञानाचाराय नम अयं ॥३५॥ पराश्रित भाव विनशाया, सुथिर निजरूप दर्शाया। पूर्ण.
*ह्री पाठकतपसाचाराय नम' अध्यं ।।३५२॥ मुक्तपद दैन अनिवारी, सर्व बुध चरण पाचारी । पूर्ण.
ॐ ह्री पाठकरत्नत्रयाय नम अध्यं ॥३५॥ . शुद्ध रत्नत्रय धारी, निजातमरूप अविकारी। पूर्ण.
ॐ ह्री पाठकरत्नत्रयसहायाय नमः अयं ॥३५॥
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सिद्ध०
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२२८
धौव्य पंचमगती पाई, जन्म पुनि मररण छुटकाई । पूर्ण श्रुतज्ञान फल पाया, नमूं सत्यार्थ उवझाया ॥
ॐ ह्री पाठक वनसंसाराय नमः अर्घ्यं ।। ३५५ ।।
अनूपम रूप अधिकाई, असाधाररण स्वपद पाई । पूर्ण.
ॐ ह्री पाठक एकत्वस्वरूपाय नमः अर्घ्यं ।। ३५६ ।।
आ तुम सम न गुंग होई, कहो एकत्व गुरण सोई । पूर्ण. ॐ ह्री पाठेकएकत्वगुणाय नम अर्घ्यं ।। ३५७ ।।
निजानन्द पूर्ण पद पाया, सोई परमात्म कहलाया । पूर्ण.
ॐ ह्री पाठकक्त्वपरमात्मने नमः अर्घ्यं ॥३५८।।
उच्चगत मोक्षका दाता, एक निज़धर्म विख्याता । पूर्ण. श्रो ह्री पाठकक्त्वघर्माय नम अर्घ्यं । ३५६ ।।
जु तुम चेतनता परकासी, न पावै ऐसी जग्रवासी । पूर्ण. श्रो हो पाठकएकत्वचेतनाय नमः अर्घ्यं ॥ ३६० ॥ ज्ञान दर्शन स्वरूपी हो, आसाधारण अनूपो हो । पूर्ण.
श्री ही पाठकएकत्वचेतन स्वरूपाय नमः मर्घ्यं ।। ३६१ ।।
पष्ठम
पूजा
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गह नित निज चतुष्टयको, मिलें कबहूँ नहीं परसों। पूर्ण.
ओ ह्री पाठकएकत्वद्रव्याय नम अध्यं ।। ३६२॥ स्वपद अनुभूत सुख रासी, चिदानन्द भाव परकासी । पूर्ण.
प्रो ह्री पाठचिदानन्दाय नम. प्रय॑ ।। ३६३ ॥ अन्त पुरुषार्थ साधक हो, जन्म मरणादि बाधक हो। पूर्ण.
प्रो ह्री पाठसिद्धमाघकाय नेम मध्यं ॥ ३६४ ॥ स्वप्रातम ज्ञान दरशाया, ये पूरण ऋद्धि पद पाया। पूर्ण.
यो ह्री पाठकऋद्धिपूर्णाय नम अयं ॥ ३६५ ॥ सकल विधि मूर्छा-त्यागी, तुम्ही, निरग्रंन्यं बड़भागी। पूर्ण
प्रो ह्री पाठनिग्रंन्याय नम अर्ध्य ॥ ३६६ ॥ निजाश्रित अर्थ जगनाही, अबाधित अर्थ तुममाहीं। पूर्ण.
___ो ह्री पाठकाविधानाय नम अयं ।। ३६७ ॥ न फिर संसार पद पाया, अपूरव बन्ध विनसाया। पूर्ण.
मो ह्री पाठकससाराननुबन्धाय नम: प्रेध्यं ॥ ३६८ ॥ आप कल्याणमय राजो, सकल जगवासं दुख त्याजो। पूर्ण.
प्रो ह्री पाठककल्याणाय नम: अर्घ्य ॥ ३६६ ।।
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मसमो पूजा
१ २२६
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२३०
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स्वपर हितकार गुणधारी, परम कल्याण अविकारी । पूर्ण श्रुतंज्ञान बल पाया, नमूसत्यार्थ उवझाया ॥ - प्रो ह्री पाठककल्याणगुणाय नम अर्घ्य ॥ ३७० ।। अहित परिहार पद जो है, परम कल्यारण तासो है । पूर्ण.
ओ ह्री पाठककल्याणस्वरूपाय नम. अयं ।। ३७१।। स्वसुख द्रव्याश्रये माहीं, जहां कछु पर निर्मित्त नाहीं। पूर्ण.
ओ ह्री पाठककल्यागा द्रव्याय नम, अध्यं ।। ३७२।। । जोहै सोहै अमित काला,, अन्यथा, भाव विधि टाला । पूर्ण.
___ ओ ह्री पाठकतत्त्वगुणाय नम अयं ॥ ३७३ ।। रहै नित चेतना माहीं, कहै चिद् प मुनि ताहीं। पूर्ण.
ओ ह्री पाठकचिद्र पाय नम अयं ॥ ३७४ ।।. सर्वथा ज्ञान परिणामी, प्रकट हैं चेतना नामी। पूर्ण.
. ॐ ह्रो पाठकचेतनाय नमोऽप्रय॑ ॥३७५॥ नहीं अन्यत्व भेदा है, गुणी गुरण निरविछेदा है। पूर्ण.
ॐ ह्री पाठकचेतनागुणाय नमोऽप्रय ||३७६।।
षष्ठम्
पूजा २३०
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घटाघट वस्तु परकाशी, धरे है जोति प्रतिभाशी। पूर्ण,
___ॐ ह्री पाठकज्योतिप्रकाशाय नमोऽय॑ ॥ ३७७॥ वस्तु सामान्य अवलोका, है युगपत दर्श सिद्धोंका । पूर्ण.
___ॐ ह्री पाठकदर्शनचेतनाय नमोऽयं ।। ३७८ ।।। विशेषण युक्त साकारा, ज्ञान दुति मे प्रगट सारा । पूर्ण.
___ॐ ह्री पाठकज्ञानचेतनाय नमोऽय॑ ।३७६॥ ज्ञानसो जीव नामी है, भेद समवाय स्वामी है। पूर्ण.
____ॐ ह्री पाठकजीवचिदानन्दाय नम: अध्यं ॥३८॥ चराचर वस्तु स्वाधीना, एक ही समय लख लीना। पूर्ण.
ॐ ह्री पाठकवीर्यचेतनाय नमः अध्यं ॥ ३८१ ।। सकल जीवोके सुख कारन, शरण तुमही हो अनिवारन । पूर्ण.
____ॐ ह्री पाठकसकलशरणाय नम अयं । ३८२ ॥ तुम हो त्रयलोक हितकारी, अद्वितीय शरण बलिहारी। पूर्ण सतभी
ॐ ह्री पाठकत्रैलोक्य शरणाय नम अध्यं ।। ३८३ ॥ तुम्हारी शरण तिहुँ काला, करन जग जीव प्रतिपाला । पूर्ण.3 २३१
ॐ ह्री पाठकत्रिकालशरणाय नम अध्यं ॥३४॥
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शरण अनिवार सुखदाई, प्रगट सिद्धान्त में गाई | पूर्ण श्रुतज्ञानं बल पाया, नमू सत्यार्थ उवझाया ॥ ॐ ह्री पाठकत्रिमगलशरणाय नमोऽयं ।। ३६५ ।।
लोकमे धर्म विख्याता, सों तुमही में सुखसाता । पूर्ण.
ॐ ह्री पाठकलोकशरणाय नमः अयं । ३८६ ॥
जोग विन प्राश्रव नाहीं, भये निर श्राश्रवा ताही । पूर्ण.
ॐ ह्री पाठकाश्रववेदाय नमः अयं ॥ ३८७॥
श्राश्रव करमका होना, कार्य था आपना खोना । पूर्ण.
ॐ ह्री पाठका विनाशाय नमः प्रयं ॥ ३८८ ॥
तत्त्व निर्बाध उपदेशा, विनाशे कर्म परवेशा । पूर्ण.
ॐ ह्री पाठक श्राश्रव उपदेशछेदकाय नम. अध्यं ।। ३८ ।।
प्रकृति सब कर्मकी चूरी, भाव मल नाश दुख पूरी । पूर्ण.
ॐ ह्री पाठकबध प्रन्तकोय नम मध्यं ॥ ३९०॥
न फिर संसार अवतारा, बन्ध विधि अन्त केर डारा । पूर्ण. ॐ ह्री पाठकबषमुक्ताय नम प्रध्यं ॥ ३१॥
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षष्ठम् पूजा
२३२
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प्राश्रव कर्म दुखदाई, रुके संवर ये सुखदाई । पूर्ण०
ॐ ह्री पाठकसवराय नम अध्य३६२॥ सर्वथा जोग विनसोया, स्वसंवर रूप दरशाया। पूर्ण.
ॐ ह्री पाठकसवरस्वरूपाय नम: मध्यं ॥३३॥ भावमें कलुषता नाहीं, भये संवर करण ताहीं । पूर्ण.
- ॐ ह्री पाठकसवरकरणाय नमः अयं । ३६४।। कुपरगति राग रुष नाशन, निरंजरा रूप प्रतिभासन । पूर्ण.
___ॐ ह्री पाठकनिर्जरास्वरूपाय नम अध्यं ॥३६॥ कामदेव दाह जंग सारा, आप तिस भस्प कर डारा । पूर्ण.
ॐ ह्री पाठककदपंछेदकाय नमः अध्यं ॥३६६ ॥ चहुँ विधि बंध विधि चूरा, ये विस्फोटक कहो पूरा । पूर्ण.
ॐ ह्री पाठकमविस्फोटकाय नम अध्यं ॥३९॥ दऊ विधि कर्मका खोना, सोई है मोक्षका होना । पूर्ण.
ॐ ह्री पाठकमोक्षाय नमः मयं । ३९८।। द्रव्य पर भाव मल टारा, नम शिवरूप सुखकारा । पूर्ण.
ॐ ह्री पाठकमोक्षस्वरूपाय नम. अध्यं ।। ३६६ ।।
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अरति रति परिनिमित खोई, आत्म रति है प्रगट सोई। पूर्ण श्रुतज्ञान बल पाया, नमूसत्यार्थ उवझाया।
ओ ह्री पाठकग्रात्मरतये नम अर्घ्य 11४००।।
लोलतरग छन्द तथा बडी चौपाई। अठाईस मूलसदागुरगधारी, सो सब साधु वरै शिव नारी। साधु भये शिव साधनहारै, सो तुम साधु हरो अघ म्हारै॥
ओ ह्री सर्वसाधुभ्यो नमः अर्घ्य ॥४०१॥ मूल तथा सब उत्तर गाये, ये गुण पालत साधु कहाये । साधु भये.
ओ ही सर्वसाधुगुणेभ्यो नम अर्घ्य ॥४०२।। साधुनके गुण साधुहि जाने, होत गुणी गुणही परमाने । साधु भये.
ओ ह्री सर्वसाधुगुणस्वरूपाय नम अध्यं ॥४८३॥ नेम थकी शिववास करे जो, द्रव्य थकी शिवरूप करै जो। साधुभये. ' ओ ह्री सर्वसाधुद्रव्याय नमः अर्घ्य ॥४०॥
ससमी जीव सदाचित भाव विलासी, पापही पाप सधै शिवराशी। साधुभये. पूजा नों ही सर्वसाधुगुरणद्रव्याय नम अयं ॥४०५॥
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सिद्ध० वि०
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ज्ञानमईनिज ज्योति प्रकाशी, भेद विशेष सबै प्रतिभासी । साधु भये. ॐ ह्री साधुज्ञानाय नमः श्रयं ॥ ४०६ ।
एक हि वार लखाय प्रभेदा, दर्शनको सब रोग विछेदा । साधु भये. ॐ ही सातदशनाय नम अर्घ्यं ॥ ४०७ ।।
हिसाधन साध्य तुम्हीहो, एक अनेक अबाध तुम्हीं हो। साधु भये. ॐ ह्री माधुद्रव्यभावाय नम अर्घ्यं ॥ ४०८ ॥
चेतनता निजभाव न छारे; रूप स्पर्शन आदि न धारे । साधु भये ॐ ह्री माधुद्रव्यम्वरूपाय नम अर्घ्यं ।। ४०६ ।।
उतपादभये इकबारा, सो निरबाध रहे अविकारा । साधु भये. 'ॐ ह्री साधुवीर्याय नम. अर्घ्य ॥। ४५० ।।
जो
है परनाम अभिन्न प्ररणामी, सो तुम साधु भये शिवगामी । साधु भये. ॐ ह्री साधुद्रव्यगुणपर्यायाय नमः श्रयं ॥ ४१११ ।।
जो
गुरण वा परियाय धरो हो, हो निज माहीं अभिन्न वरो हो साधु ।
ॐ ह्री साधु द्रव्यगुण पर्यायाय नम अर्घ्यं ।। ४१२ ।। मंगलमय तुम नाम कहावै, लेतहि नाम सु पाप नसावें । साधु. भये ॐ ह्री साधुमंगलाय नमः श्रयं ॥। ४१३ ।।
सप्तमी
पूजा
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मंगल रूप अनुपम सोहै, ध्यान किये नितं प्रानन्द होहै। स. साधु भये शिव साधनहार, सो तुम साधु हरो अघ म्हारै॥ वि०
ॐ ह्री साधुमगलस्वरूपाय नम अर्घ्य ॥ ४१४ ॥ २३६ पाप मिटै तुम शरण गहेते, मंगल शरण कहाय लहैतें। साधु.॥
___ॐ ह्री साधुमगलशरणाय नम. अयं ॥ ४१५ ।। देखत ही सब पापं नसे है, प्रानन्द मंगलरूप लसे है। साधु.॥
ॐ ह्री साधमगलदर्शनाय नम अध्यं ।। ४१६ ॥ जानत है तुमको मुनि नीके, पाप कलाप मिटै तिनहीके । साधु.॥
ॐ ह्री साधुमगलज्ञानाय नम अध्यं ॥ ४.७ ॥ ज्ञानमई तुम हो गुरणारासा, मंगल ज्योति धरो रविकासा। साधु.॥
ह्रो माधुज्ञानगुणमगलाय नम. अध्यं ॥ ४॥८॥ मंगल वीर्य तुम्हीं दर्शया, काल अनन्त न पीप लगाया। साधु.॥ - ओ ह्री साघुवीर्यमगलाय नम प्रेयं ॥ ४१६ ।। वीर्य महा सुखरूप निहारा, पाप बिनां नितं ही अविकारा। साधु.॥
मो ह्रो साधुवीर्यमगलस्वरूपाय नमः ॥ ४२०॥
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सिद्ध
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मंगल वीर्य महा गुणधामी, निज़ पुरुषार्थ हि मोक्ष लहामी । साधुः।
___ो ह्री साधुवीयपरममंगलाय नमः मध्यं । ४२१॥ वीर्य स्वभाविक पूर्ण तिहारा, कर्म नशाय भये भवपारा । साधु.
_ ओ माधुवीर्य द्रव्याय नम अर्घ्य ॥ ४२२॥ , तीन हि लोक लखे सब जोई, आप समान न उत्तम कोई । साधु,
पो ही साधुलोकोत्तमाय नम. अयं ॥ ४२३ ॥ लोक सभी विधि बन्धन माही, तुम सम रूप धरे ते नाहीं। साधु.
ओ ह्री साधुलोकोत्तमगुणाय नमः अर्घ्य । ४२४।। लोकनके गुण पाप कलेशा, उत्तम रूप नहीं तुम जैसा । साधुः
प्रो साधुलोकोत्तमगुणस्वरूपाय नमः अयं ।। ४२५ ॥ लोक अलोक निहारक नामी, उत्तम द्रव्य तुम्हीं अभिरामी। साधु ॥
ओ-ह्री साधुलोकोत्तमद्रव्याय नमः अयं ॥ ४२६ ॥ लोक सभीषद्रव्य रचाया, उत्तम द्रव्य तुम्ही हम पाया । साधु ॥
प्रो ही सालोकोत्तमद्रव्यस्वरूपाय नम अध्यं ।। ४२७ ।। ज्ञानमई चित उत्तम सोहै, ऐसे लोक विषै अरु को है । साधु.॥२३७
ओ ही साधुलोकोत्तमज्ञानाय नम अध्य" ।। ४२८ ॥
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ज्ञान स्वरूप सुभाव तिहारा, उत्तम लोक कहै इम सारा । सिद्ध साधु भये शिव साधनहारै, सो तुम साधु हरो अघ म्हारे || ही साधुलोकोत्तमज्ञानस्वरूपाय नम अर्घ्यं ॥ ४२६ ॥ देखनमे कुछ श्राड न आवै, लोग तनी सब उत्तम गावै । साधु ॥ श्रो ह्री माधुलोकोत्तमदर्शनाय नम अर्घ्यं ।। ४३० ।। देखन जानन भाव धरो हो, उत्तम लोकके हेतु ग ओ ही साधुलोकोत्तमज्ञानदशनाय नम अर्घ्यं ॥ ४३१ ॥
२३८
हो । साधु ॥
जाकर लोग शिखरपद धारा, उत्तम धर्म कहो जग सारा । साधु ॥ श्री ही साधुलोकोत्तमधर्माय नम अर्घ्यं ॥ ४३२ ॥
धर्म स्वरूप निजातम मांही, उत्तम लोक विषै ठहराई । साधु ॥ श्रीमाधुलोकोत्तमधर्मस्वरूपाय नम अध्यं ॥ ४३३ ॥
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अन्य सहाय न चाहत जाको, उत्तम लोग कहै बल ताको । साधु ॥
ओ ही साधुलोकोत्तमवीर्याय नमः अर्घ्य ॥ ४३४ ॥
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उत्तम वीर्य सरूप निहारा, साधन मोक्ष कियो अनिवारा । साधु ॥ ओ ही साधुलोकोत्तमवीर्यस्वरूपाय नम अर्घ्यं ॥ ४३२ ॥
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सप्तमी
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पूरण आत्मकला परकाशी, लोक विषअतिशय अविनाशी। साधु॥ सिद्ध
ॐ ह्रो साधुलोकोत्तमातिशयाय नम अध्यं ॥४६॥ वि०
राग विरोध न चेतन माही, ब्रह्म कहो जग उत्तम ताही । साधु ॥ २३६
ओ ह्री साधुलोकोत्तमब्रह्मज्ञानाय नमः प्रय॑ ।।४३७॥ ज्ञान स्वरूप अकम्प अडोला, पूरण ब्रह्म प्रकाश अटोला ।साधु.॥
ॐ ह्री साधुलोत्तमब्रह्मज्ञानस्वरूपाय नम अध्यं ।।४ ८॥ राग विरोध जयो शिवगामी, आत्म अनातम अन्तरजामी। साधु.॥
ॐ ह्री साधुलोकोत्तमजिनाय नम अयं ।।४२६। भेद विना गुरण भेद धरो हो, सांख्य कुवादिक पक्ष हरो हो । साधु.।।
ॐ ह्री साधुलोकोत्तमगुणसम्पन्नाय नमा अध्यं ॥४४०।। साधत बातम पुरुष सखाई, उत्तम पुरुष कहो जग ताई । साधु.॥
ॐ ह्री साधुलोकोत्तमपुरुषाय नमोऽयं ॥४४१।। । साधु समान न दीनदयाला, शरण गहै सुख होत विशाला । साधु ॥ सप्तमी
ॐ ह्री साधुलोकोत्तमशरणाय नमोऽय॑ ।।४४२॥ जे जन साधु शरण गही है, ते शिव आनन्द लब्धि लही है। साधु.॥
ॐ ह्री साधुलोकोत्तमगुणशरणाय नमोऽयं ।।४३।।
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साधुनके गुण द्रव्य चितारे, होत महासुख शरण उभारे । साधु० ॥ ___ॐ ह्रीं माधुगुग्णद्रव्यमरम्गाय नमोर्ग ॥४४॥
लायनी मन्द। तुमचितवतवाअवलोकतवासरधानी। इमशरण गहपावनिश्चयशिवरानी निजरूपमगनमन ध्यानधरै मुनिराज, मैनम साध सम सिद्धप्रकंपविराज
निजप ली माधुदगनशरणाय नमोऽध्यं ॥४४५: तुमअनुभवकरि शुद्धोपयोगमनधारा, यहज्ञानशरणपायोनिश्चै पविकारा
निजरूप. ही माधुनानगरणाग नमोणे ॥४४६॥ निजात्मरूपमें दृढसरधा तुमपाई, थिररूपसदा निवसों शिववासकराई
निजम्प *ही साधुग्रात्मशरग्गाय नमोऽध्यं ॥४.७॥ तुमनिराकारनिरभेद अछेवप्रनपा,तुम निरावरण निरद्वंद स्वदर्शस्वरूपा।
निजप *ली माधुरशंम्वरूपाय नमोऽयं ॥४४॥ तुमपरमपूज्यपरमेश परमपदपाया, हमशरणगही पूजै नित मनवचकाया समम
लिजरूप *लो साधुपरमात्मपरणाय नमोऽध्यं 1.४६॥ तुममनइन्द्रीव्यापार जीतसुप्रभीता,हमशरणगहीमनु प्राजकर्मरिपुजीता "
निजम्प सही माधुनिजारमशरणाय नमोऽध्यं ।।५।।
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भववासदुखीजेशरणगहै तुममनमे,तिनकोअवलम्बउभारो भयहर छिनमे !
निजरूप० ॐ ह्री साधुवीर्यशरणाय नमोऽयं ।।४।१।। गबोधअनन्तानन्तधरोनिरखेदा, तुम बलप्रपारशरणागतिविघनविछेदाई
निजरूप० ॐ ह्री साधुवीर्यात्मशरणाय नमोऽअध्यं ।। ४५२॥ निजज्ञानानन्दी महा लक्षिमी सोहै, सुर असुरनमे नितपरम भुनी मनमोहै। । निजरूप० ॐ ह्री साधुलक्ष्मीअलकृताय नमोऽयं ।।४५३॥ भववासमहादुखरासताहिविनशाया, अतिक्षीनलीनस्वाधीनमहासुखपाया
निजरूप ॐ ह्री साधुलक्ष्मीप्रणीताय नमोऽयं ।।४५४॥ त्रिभुवनका ईश्वरपना तुम्हींमैपाया, त्रिभुवनकेपातिक हरोमनू रविछाया । निजरूप० ॐ ह्री साधुलक्ष्मीरूपाय नमोऽध्यं ।।४५५।। तुमकालअनंतानंतअबाधविराजो,परनिमित्तविकारनिवारसुनित्यसुछाजो
निजरूप० ॐ ह्री साधुभ्र वाय नमोऽयं ।।४५६॥ तिमछायकलब्धि प्रभावपरमगुरणधारी,निवसोनिजानंदमांहिचलअवि-षष्ठम् । कारी। निजरूप. ॐ ह्री साधुगुणध्रुव'य नमोऽयं ।।४५७'। तेरमचौदस गुरणथान द्रव्यहैजैसो, रहै काल अनन्तानन्त शुद्धता तैसो।। २४१
निजरूप० ॐ ह्री साधुद्रव्यगुणधं वाय नमोऽध्यं ।।४५८१.
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फिर जन्ममरण नहीं होयजन्मवोपाया, संसारविलक्षणनिजअपूर्वपदपाया सिद्धः निजरूपमगनमन ध्यानधरै मनिराजै, मैन साध सम सिद्धअकंपबिराजै वि०
ॐ ह्री साधुद्रव्योत्पादाय नमोऽयं ।।४५८॥ २४२ सूक्षमअलब्धि पर्याप्त निगोद शरीरा, ते तुच्छ द्रव्य करनाश भयेभवतीरा
निजरूप० ॐ ह्री साधुद्रव्यव्यापिने नमोऽयं ॥४६०।। रागादिपरिग्रहटारितत्त्वसरधानी, इमसाधुजीवनिजसाधत शिवसुखदानी .. निजरूप० ॐ ह्री साधुजीवाय नमोऽयं ॥४६१।। स्वसंवेदनविज्ञान परमअमलाना, तजइष्टअनिष्ट विकल्प जाल दुखसाना • निजरूप० ॐ ह्री साधुजीवगुणाय नम अयं ॥४६२।। देखन जानन चेतनसुरूप अविकारी, गणगणी भेदमअन्यभेद व्यभिचारी
निजरूप० ॐ ह्री साधुचेतनगुणाय नम अयं ॥४६३ । चेतनकीपरिणति रहैसदाचित माहीं, ज्योसिंधुलहरहीसिंधु औरकछुनाहीं सप्तमी
निजरूप० ॐ ह्री साधुचेतनस्वरूपाय नम अध्यं ॥४६४।। चेतनविलाससुखरासनित्यपरकाशी, सोसाधुदिगम्बरसाधुभये अविनाशी २४२
ॐ ह्री माधुचेतनाय नम अयं ॥४६५।।
निजरूप
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सिद्ध तुमअसाधारण अरु परमात्मप्रकाशी, नहींअन्यजीवयहलहै गहैभववासी
निजरूप. ॐ ह्री साधुपरमात्मप्रकाशाय नम अध्यं ॥४६६।।। तुममोहतिमिरविनस्वयसूर्यपरकाशी,गुणद्रव्यपर्यसबभिन्नभिन्नप्रतिभासी
निजरूप० ॐ ह्री साधुज्योतिस्वरूपाय नम अध्य ।।४६७।। ज्योंघटपटादिदीपककोज्योतिदिखावै, त्योंज्ञानज्योतिसबभिन्न २ दरशावै
____ निजम्प० ॐ ह्री साधुज्योतिप्रदीपाय नम अध्यं ।।४६८|| सामान्यरूप अवलोकन युगपत सारा, तुमदर्शनज्योतिप्रदीपहरैअंधियारा, । निजरूप. ॐ ह्री साधुदर्शनज्योतिप्रदीपाय नम प्रध्यं ॥४६६ । साकार रूपसु विशेष ज्ञानाति माहीं, युगपतकरप्रतिबिंबित वस्तूप्रगटाई
____निजरूप० ॐ ह्री साधुज्ञानज्योतिप्रदीपाय नम अध्यं ।।४७०।। जेअर्थजन्य कहैज्ञान वो झूठेवादी, हैस्वपर प्रकाशकातम ज्योतिअनादी)
__ निजरूप० ॐ ह्री साधुप्रात्मज्योतिषे नम अध्यं ॥४७१॥ हैतारणतरणजहाजाश्रितभवसागर, हमशरणगहीपावैशिववासउजागर ससमी निजरूप० ॐ ह्री साधु शरणाय नम अध्यं ॥४७२।।
पूजा सामान्य रूप सब साधुमुक्ति मगसाध, हमपावै निजपद नेमरूप पाराधे ।
निजरूप० ॐ ह्री साधुमशरणाय नम अध्यं ।। ४७३।।
२४३
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त्रसनाडीही मैं तत्त्वज्ञान सरधानी,ताकर साधै निश्चय पावै शिवरानी। मिद निजरूपमगनमन ध्यानधरै मुनिराजै, मैनम् साध सम सिद्धअकंपबिराजै
ॐ ह्री साधुलोकशरणाय नमः अयं ॥४७९।। २४४ तिलोककरनहितवरते नित उपदेशा, हमशरणगही मेटो भववासकलेशा
निजत्प० ॐ ह्री साधुत्रिलोकशरणाय नम अध्यं ।।४७५।। संसारविषम दुखकारप्रसारअपारा,तिलछेदकवेदक सुखदायक हितकारा 5 निजरूप० ॐ ह्री साधुमसाग्छेदकाय नम अयं ॥४७६।। यद्यपिइकक्षेत्र अवगाहअभिन्न विराज, तद्यपिनिजसत्तामाहि भिन्नतासाज
निजरूप० ॐ ह्री साधुएकत्वाय नमः अध्यं ॥४७७॥ यद्यपिसामान्यसरूपसु पूरणज्ञानी,तद्यपिनिज आश्रयभावभिन्न परनामी
निजरूप० ॐ ह्रो साधुएकत्वगुणाय नम अयं ॥४७८।। हैप्रसाधारणएकत्व द्रव्य तुममाहीं, तुमसम संसार मंझारऔर कोउनाही , निजरूप
"महा पष्ठम ॐ ह्री साधुएकत्वद्रव्याय नम अयं ४७६।।
पूजा यद्यपि सबहीहोअसंख्यात परदेशी,तद्यपिनिजमे निजरूपस्वद्रव्यसुदेशी २४४
ॐ ह्री साधुएकत्वस्वरूपाय नम अयं ।। ४८०॥
निजरूप०
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सामान्यरूप सबब्रह्मकहावैज्ञानी, तिनमें तुम वृषभ सुपरम ब्रह्मपरणामी निजरूप० ॐ ह्री साधुपरब्रह्मणे नम अघ्यं । ४८१ ॥
सिद्ध०
• सापेक्षएक ही कहै सु नय विस्तारा, तुमभाव प्रकटकर क है सुनिश्चैकारा निजरूप० ॐ ह्री साधुपरमस्याद्वादाय नम अर्घ्यं ॥ ४३२ ॥
२४५
हैज्ञाननिमित यहवचनजाल परमारणा, है वाचकवाच्य संयोगब्रह्म कहलान श्री ही साधुशुद्धब्रह्मणे नमः अर्घ्यं ॥ ४६३ ||
निजरूप
षट्द्रव्य निरूपण करैसोई ग्रागम हो, तिसके तुम मूलनिधान सुपरमागमहो
निजरूप
ओ ही साधुपरमागमाय नम अर्घ्यं ॥ ४८४ ॥ तीर्थेश कहै सर्वज्ञदिव्यधुनिमाहीं, तुम गुरण अपारइमकहो जिनागम ताही ही माघुजिनागमाय नम अर्घ्यं ॥ ४८५ ॥
निजरूप०
तुमनाम प्रसिद्ध अनेक अर्थका वाची, ताके प्रबोधसोंहोप्रतीत मनसांची
निजरूप०
श्री ही साघुप्रनेकार्थाय नम अर्घ्यं ||४८६ ॥
लोभादिक मेटै विन न शौचता होई, है बृथा तीर्थ-स्नान करो भी कोई श्री ही साघुशौचाय नम अर्घ्यं ॥ ४८७ |
निजरूप०
हेमिथ्या मोहप्रबलमलइन काखोना, सोशुद्धशौचगुणयही न तनका धोना ह्री साधुशुचित्वगुणाय नमः श्रीं ||४८६ ॥
निजरूप०
सप्तमी
पूजा
२४५
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इकदेशकर्म मलनाश पवित्रकहायो, तुमसर्वकर्ममलनाशि परमपदपायो सिद्ध निजरूपमगनमनध्यानधरं मुनिराजे, मैनमूं साधुसमसिद्धप्रकम्प विराजै ओ ही साधुपवित्राय नमः ॥ ४८ ॥
वि
२४ तुम रहो बंधसो दूरिएकांतसुखाई, ज्योनभनलिप्तसबद्रव्यरहोतिसमाहीं निजरूप० श्री ही साधुविमुक्ताय नम अर्घ्यं ॥ ४० ॥
सबद्रव्यभाव नोकर्मबध छुटकाया, तुमशुद्धनिरंजन निजसरूपथिरपाया ही साधुवन्मुक्ताय नम अर्घ्यं । ४६१ ॥ डिल्ल छन्द ।
निजरूप०
भावाश्रवविन प्रतिशयसहित प्रबंधहो, मेघपटलबिनज्योंर विकिरणग्रमंद हो मोक्षमार्ग वा मोक्ष श्रेय सब साधु है, नमत निरंतर हमहूँ कर्म रिपुकोद है ॐ ह्री माबुवन्ध प्रतिबन्धकाय नम अर्घ्यं ॥ ४६२।। तुमस्वरूपमें लीन परम संवर करै, यह कारण अनिवार कर्म श्रावन हरें सप्तमी मोक्षमाग० ॐ ह्री माधुसवरकारणाय नम अर्घ्य ॥४६ युद्गलीक परिणाम आठ विधि कर्म है, तिनकीकरतनिर्जराशुद्धसु परम है ॐ ह्री साधुनिर्जराद्रव्याय नम प्रध्य ॥४४॥
पूजा
२४६
मोक्षमार्ग०
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पर्म शुद्ध उपयोग रूप वरते जहां, छिनमें नन्तानन्त कर्म खिर है तहां मोक्षमार्ग ० ॐ ह्री साधुनिर्जरानिमित्ताय नमः अयं । ४६५ ।।
सिद्ध
२४७
मोक्षमार्ग ० ॐ
सिकल विभाव प्रभाव निर्जरा करत है, ज्योरवितेजप्रचड सकलतमहरत है ह्री साधुनिर्जरागुणाय नम अर्घ्यं ।। ४६६ ।। जेसंसार निर्मित ते सब दुखरूप है, तुम निमित्त शिव कारण शुद्ध तूप हैं मोक्षमाग ॐ ही साधुनिमित्तमुक्ताय नम ग्रयं ॥४६७ ।
संशयरहित सुनिश्चै सम्मतिदाय हो, मिथ्या भूमतमनाशन सहज उपाय हो
मोक्षमार्ग ०
ह्री माधुबोधधर्माय नम अयं ॥ ४८ ॥
प्रतिविशुद्ध निजज्ञान स्वभावसुधरतहो, भव्यनकेसंशयत्रादिकतमहरत हो ! मोक्षमार्ग० श्री ही साधुवोधगुणाय नम अयं ॥ ४६ ॥ श्रविनाशी अविकार परम शिवधामहो, पायोसोतुमसुगतमहाअभिरामहो मोक्षमार्ग ० ॐ ह्रीं माघुमुगतिभावाय नम अध्यं ॥ ५०० ॥
जासो परे न और जन्म वा मरण है, सो उत्तम उत्कृष्ट परम गतिको लहँ सप्तमी मोक्षमार्ग० ॐ ह्री माधुकरमगतिभावाय नम प्रध्यं ॥ ५०१
पूजा
२४०
पर निमित्त रागादिक जे परनाम हैं, इन विभावसों रहित साधुशुभ नाम साघुविभावरहिताय नमः अर्घ्यं ॥ ५०२ ॥
मोक्षमार्ग
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निजतुभाव सामर्थ सु प्रभुता पाइयो, इन्द्र फनेंद्र नरेद्र शीश निजनाइयो । मनमोक्षमार्ग वा मोक्षश्रेय सब साधु है, नमत निरंतर हमहूँ कर्म रिपुको दहैं वि०१
प्रो ह्री माधुस्वभावसहिताय नमः अध्यं ।। ५०३ ।। २४८ कर्मबंधसो रहित सोई शिवरूप है, निवसे सदा प्रबंध स्वशुद्ध अनूप है ३ मोक्षमार्ग० ॐ ह्री माधुमोक्षस्वरूपाय नम. अर्घ्य ॥ ५०४ ।। सकल द्रव्य पर्याय विषै स्वज्ञान हो, सत्यारथ निश्चल निश्चै परमारण हो ३ मोक्षमार्ग० ॐ ह्री माधुपरमानन्दाय नम. अध्यं ॥५०५।
तीन लोकके पूज्य यतीजन ध्यावही, कर्म-शत्रुको जीत अर्ह पद पावही । मोक्षमाग० ॐ ह्री साधुमहतस्वरूपाय नम अयं ।।५०६।। परम इष्ट शिव साधत सिद्ध कहाइयो, तीन लोक परमेष्ट परमपद पाइयो । मोक्षमार्ग० ॐ ह्री साघुसिद्धपरमेष्ठिने नम अयं ॥५०॥ शिवमारगप्रकटावनकारणहोतुम्ही, भविजनपतितउधारनतारनहोतुम्ही षष्ठम् है मोक्षमार्ग० ॐ ह्री माधुसूरिप्रकाशिने नम अध्यं ।। ५०८।।
पूजा स्वपरस्वहितकरि परमबुद्धि भरतारहो, ध्यानधरतानंदबोधदातारहो
२४८
मोक्षमाग०
ॐही साघु उपाध्यायाय नमः अयं ॥५०९।।
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सिद्ध
पंच परम गुरु प्रकट तुम्हारो नाम है, भेदाभेद सुभाव सु प्रातमराम है मोक्षमार्ग ० ॐ ह्री माधुग्रतमिद्धाचार्योपाध्याय ममानुभ्यो नम प्रध्यं ॥ ५१० ॥ वि० लोकालोकसुव्यापकज्ञानसुभावते, तद्यपिनिजपद लीनविहीन विभावतें । मोक्षमार्ग ० ॐ ही माघुप्रात्मतये नम अर्घ्यं ।। ५११ ।।
२४६
रतनत्रय निज भाव विशेष अनंत है, पचपरमगुरुभये नमें नित संत हैं मोक्षमार्गः ॐ ह्री माधप्रति मिद्धाचार्योपाध्याय मर्ग साघुरनययात्मकानतगुणेभ्य नमः श्रध्यं । पंच परम गुरु नाम विशेषरणको धरै, तीन लोकमे मंगलमय आनंद करें पूरणकर थुतिनाम अन्त सुख कारणं, पूजूं हूँ युत भावसुप्रर्ध उतारगं ॐ ह्री प्रद्वादश घिकपचशनगुणयुतमिद्धेभ्यो नम पूयम् ।
अथ जय माला ।
रत्नत्रय भूषित महा, पंच सुगुरु शिवकार | सकल सुरेन्द्र नमें नमूं पाऊं सो गुणसार ॥१॥
•
पदडी छन्द ।
जय महामोह दल दलन सूरि, जय निर्विकल्प श्रानन्दपूर | जय द्वं विधि कर्म विमुक्त देव, जय निजानन्द स्वाधीन एव |१|
नप्तमी
पूजा
૪
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पद्ध
वि०
जय सशयादि भूमतम निवार, जय स्वामिभक्ति द्युतिश्रुति अपार जय युगपत सकल प्रत्यक्षलक्ष, जय निरावरण निर्मल अनक्ष ॥२॥ जय जय जय सुखसागर अगाध, निरद्वन्द निरामय निर-उपाधि । जय मन वच तन ब्यापार नाश, जय थिरसरूप निज पद प्रकाश ।३।। जय पर निमित्त मुख दुख निवार, निरलेप निराश्रय निविकार।। निजमे परको परमें न आप, परवेश न हो नित निर मिलाप ॥४॥ तुम परम धरम आराध्य सार, निज सम करि कारण दुनिवार । तुम पंच परम प्राचार युक्त, नित भक्त वर्ग दातार मुक्त ॥५॥ एकादशांग सर्वाग पूर्व, स्वै अनुभव पायो फल अपूर्व । अन्तर बाहिर परिग्रह नसाय, परमारथ साधू पद लहाय ॥६॥ हम पूजत निज उर भक्ति ठान, पावें निश्चय शिवपद महान । ज्यो शशि किरणावलि सियर पाय,मरिण चंद्रकाति द्रवतालहाय खापत
पप्तमी धत्तानन्द छन्द ।
पूजा जव भव-भयहारं, बन्धविडारं, सुख सारं शिव करतारं ।
२५०
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सिद्ध
वि०
२५१
नित " सन्त" सु ध्यावत, पाप नसावत, पावत पद निज श्रविकारं ॥ ह्री दादशाविकपच शतदलोपरिस्थित सिद्ध ेभ्यो नम पूर्णाय । सोरठा -- तुम गुण अमल अपार, अनुभवते भव भय नशै । "सन्त" सदा चित धार, शांति करो भवतप हरो ॥
इत्याशीर्वादः ।
17
यहाँ ओ ही असि श्रा उसा नम १०८ बार जपना चाहिये । इति सप्तमी पूजा समाप्त ।
अथ अष्टमी पूजा १०२४ गुगा सहित
(छप्पय छन्द ) - ऊरध अधो सुरेफ सु बिन्दु हकार विराज, अकारादि स्वरलिप्त करिणका अन्त सु छाजै । वर्गनि पूरित वसुदल अम्बुज तत्त्व संधिधर,
अग्र भागमे सन्त्र अनाहत सोहत प्रतिवर ॥ पुनि अन्त हों बेढ्यो परम पद, सुर ध्यावत अरि नागको,
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२५१
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२५२
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हदै केहरि सम पूजन निमित्त, सिद्धचक्र मंगल करो। ॐ ह्री नमामिद्धाण श्रासिद्धपरमेष्ठिन् ! १०२४ गुणसहित विराजमान अत्रावतरावतर सवौषट्, अत्र तिष्ठ २ ठठ, अत्र मम मन्निहितो भव भव वषट् ॥१॥
इति यन्त्र स्थापन। दोहा-सूक्ष्मादि गुण सहित है, कर्म रहित निररोग। . सिद्धचक्र सो थापहूँ, मिटै उपद्रव योग ॥
अथाष्टक गीताछन्द निज प्रात्मरूप सु तीर्थ मग नित, सरस आनन्द धार हो। नाशे त्रिविधि मल सकल दुखमय, भव जलधिके पार हो । यातै उचित ही है जु तुमपद, नीरसों पूजा करू।। इक सहस अरु चौबीस गुरण गरण भावयुत मनमे धरू॥
ॐ ह्री श्री सिद्धपरमेष्ठिने १०२४ गुणसयुक्ताय जन्म जरा मृत्यु विनाशनाय जल निर्मपामोति स्वाहा ॥१॥
शीतल सुरूप सुगन्ध चन्दन, एक भव तप नासही। सो भव्य मधुकर प्रिय सु यह, नहिं और ठौर सु बास ही॥
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सप्तमी
२५२
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सिद्ध
•२५३
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याते उचित ही है जु तुमपद, मलयसो पूजा करू । इक० ॥ ॐ ह्री श्रीसिद्धपरमेष्ठिने १०२४ गुणसयुक्ताय समारतापविनाणनाय बन्दन नि०२॥ अक्षय अबाधित आदि अन्त, समान स्वच्छ सुभाव हो। ज्यों तुस विना तंदुल दिपै त्यू , निखिल अमल अभाव हो । याते उचित ही है जु तुमपद, अक्षतं पूजा करू इक० ॥ ॐ ह्री श्री सिद्धारमेष्ठिने १०२४ गुणसयुक्ताय अक्षयपदप्राप्तये प्रक्षत नि० ॥३॥ गुण पुष्पमाल विशाल तुम, भवि कंठ पहिरै भावसों ! जिनके मधुप मनरसिक लुब्धित, रमत नित प्रति चावसो॥ यातै उचित ही है ज तमपद, पुष्पसों पूजा करूं। इक०॥ ॐ ह्री श्रीसिद्धपरमेष्ठिने १०२४ गुणमयुक्ताय श्रीकामवागविनाशनाय पुष्प नि०1४18 शुद्धात्म सरस सुपाक मधुर, समान और न रस कही। ताके हो आस्वादी सु तुम सम, और सतुष्टित नहीं ॥ यात उचित ही है ज तुमपद, चरुनसों पूजा कर। इक०॥
सतमा ॐ ह्री श्रीसिद्धपरमेष्ठिने १०२४ गुण सयुक्ताय क्षुधागेगांवनाशनाय नवेद्य नि० ॥५॥ पूज स्वपर प्रकाश स्वभावधर ज्य, निज स्वरूप संभारते।
२५
vammarramme
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सिद्ध वि० २५४
त्यू ही त्रिकाल अनंत द्रव्य, पर्याय प्रकट निहारते ॥ यातै उचित ही है ज तमपद, दीपसों पूजा कर। इक० ॥ ॐ ह्री श्रासिद्धपरमेष्ठिने ०२४ गुणसयुक्ताय मेहाधकारविनाशनाय दीप नि० ॥६॥ वर ध्यान अगनि जराय वसुविधि, ऊर्ध्वगमन स्वभावते । राजै अचल शिव थान नित, तिन धर्मद्रव्य अभावतें॥ यातै उचित ही है जु तुमपद, धूपसों पूजा करू। इक० ॥ ॐ ह्री श्रीसिद्धपरमेष्ठिने १०२४ गुणसयुक्ताय अष्टकर्मदहनाय धूप नि० ॥७॥ सर्वोत्कृष्ट सु पुण्य फल, तीर्थेश पद पायो महा। तीर्थेश पदको स्वरुचिधर, अव्यय अमर शिवफल लहा यातै उचित ही है जु तुमपद, फलनसों पूजा कर। इक सहस अरु चौबीस गुरण गण भावयुत मनमें धरू॥ ॐ ह्री श्रीसिद्धपरमेष्ठिने १०२४ गुणसयुक्ताय मोक्षफल प्राप्तये फल नि०।८।। अष्टांग मूल सु विधि हरो, निज अष्ट गुण पायो सही। अष्टार्द्ध गति संसार मेटि सु अचल हदै अष्टम मही॥
अष्टम
पूजा
२५४
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सिद्ध
वि.
यात उचित ही है जु तुपपद, अर्घसो पुजा कर। इक०॥ ॐ ह्री श्री सिद्धपरमेष्ठिने १०२४ गुण सयुक्ताय अनर्घ्यपदप्राप्तये अध्य नि० ॥
निर्मल सलिल शुभ वास चंदन, धवल अक्षत युत अनी। २५५ ॥
शुभपुष्प मधुकर नित रभे, चरुप्रचुर स्वादसुविधि घनी॥ वर दीपमाल उजाल धूपायन रसायन फल भलै । करि अर्घ सिद्ध समह पूजत, कर्मदल सब दलमलै ॥ ते क्रमावर्त नशाय युगपति, ज्ञान निर्मल रूप है। दुख जन्म टार अपार गुरण, सूक्षम सरग अनूप है। कर्माष्ट विन त्रैलोक्य पूज्य, अदूज शिवकमलापती। मुनि ध्येय सेय अभेय चहुगुरण-गेह धो हम शुभ मती॥पूर्णार्घ्य ॥ अथ १०२४ नाम गुराण माहित अर्घ ॥दोहा॥
पष्टम इन्द्रिय विषय कषाय है, अन्तर शत्रु महान ।
३ पूजा तिनको जीतत जिनभये, नम सिद्ध भगवान ॥ॐ ह्री अहं जिनाय नम अध्यं ।। २५५
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२५६
रागादिक जीते स जिन, तिनमे तुम परधान । सिद्ध० तातें नाम जिनेन्द्र है, नमूसदा धरि ध्यान ॥ही प्रर्ह जिनेन्द्राय नम प्रयं २। वि० रागादिक लवलेश विन, शुद्ध निरंजन देव ।
पूरण जिनपद तुम विषै, राजल होस्वयमेव ॥ॐ ह्रीमर्ह जिनपूणतायनम प्रय॑ ।। बाहय शत्रु उपचरितको, जीतत जिन नहीं होय । अंतर शत्रु प्रबल जये, उत्तम जिन है सोय ॥ॐ ह्रीमह जिनोत्तमाय नम अर्घ्य । ४॥ इन्द्रादिकपूजत चरन, सेवत है तिहुँ काल । गरणधरादिश्रुत केवली,जिनमाज्ञानिज भाल॥ह्रीप्रहं जिनप्रष्ठाय नम प्रध्यं ।।५।। गणधरादि सत पुरुष जे, वीतराग निरग्रंथ । तुमको सेवत जिन भये, साधत है शिवपंथ ॥ह्री प्रहं जिनाधिपायनम अयं ।।६ एक देश जिन सर्व मुनि, सर्व भाव अरहंत । द्रव्यभाव सर्वातमा, नरसिद्ध भगवंत ॥ोह्रौं मह जिनाधीशाय नम अयं ।।७।, पूजा गणधरादिसेवत चरण, शुद्धातम लवलाय । तीन लोक स्वामी भये, नमूसिद्ध अधिकाय ॥ोही अहजिनस्वामिने नम अयं ।
सप्तमी
२५६
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सिख नमत सुरासुर जिन चरन, तीन काल धरि ध्यान । वि०सिद्ध जिनेश्वर मै नम्, पाऊं शिवसुख थान ॥ ॐ ह्रीं ग्रह जिनेश्वराय नम अध्या। २५७ ६ तीन लोक तारण तरण, तीन लोक विख्यात।
सिद्ध महा जिननाथ है, सेवत पाप,नशात ॥ ॐ ह्री मह जिननायाय नम अध्यं ।।१०॥ एकदेश श्रावक तथा, सर्वदेश मुनिराज । नितप्रति रक्षकहो महा,सिद्धसु पुण्यसमाज ॥ ॐह्री प्रहं जिनपतये नमःप्रध्यं ॥१॥ त्रिभुवन शिखाशिरोमणी, राजत सिद्ध अनंत । ६ शिवमारग परसिद्धकर, नमतभवोदधि अंत ॥ ह्री अर्ह जिनप्रभवे नम.अध्यं ।१२। जिन आज्ञा त्रिभुवनविष, वरते सदा अखंड़। मिथ्यामति दुरपक्षको, देत नीतिसों दंड ॥ ॐही अहं जिनाधिराजायनम,मध्य ।१३।। ई तीन लोक परिपूर्ण है, लोकालोक प्रकाश ।
अष्टम राजत है विस्तीर्ण जिन, नमूहरोभववास॥ ॐही अहं जिनविभवे नमःप्रयं ।१४॥ पूजा प्रात्मज्ञ जिन नमत हैं, शुद्धातमके हेत।
३२५७ स्वामी हो तिहुँ लोकके, नमूबसे शिवखेत॥ ॐ ह्रीं गई जिनमत्र नम अयं ॥१५॥
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सिद्ध
वि०
मिथ्यामतिको नाश करि, तत्त्वज्ञान परकाश । दीप्ति रूप रविसम सदा, करो सदा उरवास ॥ ह्रीमहंतत्वपकाशायनम.प्रयं ।१६। कर्मशत्रुजीते सु जिन, तिनके स्वामी सार । धर्ममार्ग प्रकटात है, शुद्ध सुलभ सुखकार ॥ ॐ ह्री प्रहं जिनकमजितेनम प्रध्यं ॥१७॥ अमृत सम निज दृष्टिसो, यथाख्यात प्राचार । तिन सबके स्वामी नपायो शिवपद सार ।। ह्रौं प्रहं जिनेशाय नम अध्यं ॥१८॥ समोसरण आदिक विभव, तिसके तुम परधान । शद्धातम शिवपंद लहो, नम कर्मकी हान॥ ॐ ह्री महजिननायकायनम अध्यं ।।१९।। सूरज तम तिहुँ लोकले, मिथ्या तिमिर निवार ।
र।। *ही ग्रह जिनने नम प्रय॑ ।।२०। जन्म मरण दुख जीतिकर, जिन जिन नाम धराय।
अष्टम नमूसिद्ध परमातमा, भवदुख सहज नसाय॥ ॐ ह्री प्रहं जनजेत्रे नम प्रय॑ ।।२१। पूजा अचल अबाधित पद लहो, निज स्वभाव दृढ़ भाय ।
२५८ नमूसिद्धकर-जोरिकर, भाव सहित उर लाय॥ही महं जिनपरिदृढायनम अर्घ्य ।
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सिट सर्व-व्यापि परमातमा, सर्व पूज्य विख्यात ।
श्रीजिनदेवनमूत्रिविध, सर्व पाप नशि जात ॥ॐ ह्रीं पहं जिनदेवाय नम अध्यं ॥२३॥ २५६ , श्रीजिनेश जिनराज हो, निज स्वभाव अनिवार । । पर निमित्तविनशै सकल, बंदू शिवसुखकार ॥ ह्री अहं जिनेश्वराय नम अध्या२४।
परम धर्म दातार हो, तीन लोक सुखदाय । । तीनलोक पालक महा, मै बंदू शिवराय ॥ ॐ ह्रीं अहं जिनपालकाय नम अध्यं ।२५ ॥ । गणधरादि सेवत महा, तुम आज्ञा शिर धार ।
अधिकाधिकजिनपदलहो,न करो भवपार ॐ ह्री प्रहं जिनाधिराजायनम प्रय॑ २४ । परम धर्म उपदेश करि, प्रकटायो शिवराय ।
श्रीजिन निज़ आनंद मै, वर्ते बंदूताय ॥ॐ ह्री अहं जिनशामनेशाय नम अर्ध्य २७ , पूरण पद पावत निपुण, सब देवनके देव ।।
अष्टम #पजनित भावसों, पाऊं शिव स्वयमेव ॥ॐ ह्री प्रहजिनदेवाधिदेवायनम अy २० । पूजा तीन लोक विख्यात हैं, तारण तरण जिहाज ।
२५६ तुमसम देवन और है, तुम सबके शिरताज ॥ॐ ह्री अहंजिनाद्विनीयायनम.अयं ।२६४
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सिद्ध० वि० २६०
तीन लोक पूजत चरन, भाव सहित शिर नाय । इन्द्रादिक थुति करि थके, मै बंदू तिस पाय ॥४ह्री अर्हजिनाधिनाथायनमामय ३० तुम समान नहीं देव है, भविजन तारन हेत। चरणाम्बुज सेवत सुभग, पावै शिवसुखखेत ॥ ह्रीप्रर्ह जिनेन्द्रविवप्राय नम अध्यं ३१ भवातापकरि तप्त है, तिनकी विपति निवार । धर्मामृत कर पोषियो, वरते शशि उनहार॥ ॐह्री पहँ जिनचन्द्राय नम प्रध्यं ।।३२ः। मिथ्यातम करि अन्ध थे, तीन लोकके जीव। तत्त्व मार्ग प्रकटाइयो, रवि सम दीप्त अतीव ॥ॐ ह्रीअजिनादित्याय नम अध्यं ।३३ विन कारण तारण तरण, दीप्त रूप भगवान । इन्द्रादिक पूजत चरण, करत कर्मको हान ॥ह्री अहं जिनदीप्तरूपाय नम अयं ।३४ जैसे कुजर चक्रके, जाने दलको साज ॥
माज।।ॐ ह्री प्रहं जिनकुञ्जराय नम अध्यं ।३५। दीप्त रूप तिहुँ लोकमे, है प्रचण्ड परताप । भक्तनको नित देत है, भोगै शिवसुख प्राप॥ॐह्री महं जिनार्काय नम अयं ॥३६॥
अष्टम
चार
पूजा २६०
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वि०
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NAANAAM
रत्नत्रय मग साधकर, सिद्ध भये भगवान । सिद्ध पुरण निजसुखधरतहै, निजमें निजपरिणामह्री ग्रह जिनघोर्याय नम'मध्य ३७६
तीन लोकके नाथ हो, ज्यू तारागण सूर्य। २६१६ शिवसुखपायो परमपद, बंदी श्रीजिन धूयं ॥ॐ ह्री व्ह जिमघूर्याय नम प्रध्यं ॥३८॥
पराधीन बिन परम पद, तुम बिन लहै न और। उत्तमातमामै नम,तीन लोक शिरमौर ॥ ॐ ह्रीप्रहं जिनोत्तमाय नम प्रय॑ ।।३।। जहा न दुखको लेश है, तहाँ न परसो कार।
तुमविन कहूँ न श्रेष्ठता,तीन लोक दुखटार॥ ही अहत्रिलोकदु खनिवारणायनम अध्य । पूर्ण रूप निज लक्ष्मी, पाई श्री जिनराज ।
परमश्रेय परमातमा,बंदू शिवसुख साज ॥ॐ ह्रीं अहं जिनवराय नम अयं ।।४।। ६ निरभय हो निर प्राश्रयी, निःसंगी निबंध ।
प्रष्ट निजसाधन साधक सुगुन, परसो नहिं संबंध ॥ॐ ह्रीं अहं जिननि.सगाय ।माप्रय ४० पूजा अन्तराय विधि नाशक, निजानन्द भयो प्राप्त ।
२६१ त ह्रीं मह जिनोद्वाहायनम अध्य ||४|
MATA
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वि०
शिवमारग में धरत हो, जग मारगर्ते काढ़। सिद्ध० धर्मधुरन्धर मैं नमू, पाऊंभव वन बाढ़ ॥ ॐ ह्रीं अहं जिनवृषभाय नम.प्रयं ॥४४॥
धर्मनाथ धर्मेश हो, धर्म तीर्थ करतार। २६२ रहो सथिर निज धर्म मे, मै बंदू सुखकार ॥ ह्री अहं जिनधर्माय नमःमध्यं ॥४५॥
जगत जीव विधि धूलि सो, लिप्त न लहै प्रभाव। रत्नराशिसमतुमदिपो,निर्मल सहज सुभाव ॥ॐही अहं जिनरत्नायनम अयं ॥४॥ तीन लोकके शिखर पर, राजत हो विख्यात । तुमसम और न जगतमे, बड़ा कोई दिखलात॥ॐ ह्रीं महंगिनोरमायनम मध्यं ।।४।। इन्द्रिय मन व्यापार बहु, मोह शत्रु को जीत।
ॐ ह्री अहं जिनेशाय नम अध्यं ॥४८॥ चारि घातिया कर्मको, नाश कियो जिनराय। घातिप्रघाति विनाश जिन, अग्रभयेसुखदाय ॥ॐ ह्रीं अर्हजिनाग्रायनम अध्य।।४६॥ पूजा निज पौरुषकर साधियो, निज पुरुषारथ सार। अन्य सहाय नहीं चहै, सिद्ध सुवीर्य अपार ॥ॐ ह्रीं प्रहं जिनभादू लाय नम अध्यं ।५।।
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। इन्द्रादिक नित ध्यावते, तुम सम और न कोय। मिदा तीन लोक चहामरिण, नम सिखसागतोय
Rr2414 वि० निजानन्द पदको लहो, यविरोधी मल नाम।
समकितविनतिलोकमें, और नहींमागम ।। , t. 11: ६ जगत शत्र को जीतिके, कल्पित जिन कहलाय। मोहशत्रजीतेर जिन,उत्तम सिन गाय : ५. .. ? ...1111 द्रव्य भाव दोनों नहीं, उत्तम शिवसालीना मनवचतनकरिमन,निज ममभाव जुम्तीन 1.1..........! चार संघ नायक प्रभू, शिवमग सुलभ कराय। तारणतरण जहान के. मैं बंदु शिवराय |stat.., स्वयं बद्ध शिवमार्ग में, ग्राप नले अनिवार। भविजन अग्रेश्वर भये चंदू भक्ति विचार Metraft's 1 17th atta शिवमारगके चिह्न हो, सुवसागरको पाल । शिवपुरके तुम हो धनी, धर्म नगर प्रतिपालsatertaint, ar ॥
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तुम सम और न जगतमें, उत्तम श्रेष्ठ कहाय । आपतिरै पर तार ते, बंदू तिनके पाय ॥ॐ ह्री अहं जिनसत्तमाय नमः अध्यं ।।५८।। स्व पर कल्याणक हो प्रभू, पंचकल्याणक ईश। श्रीपति शिव-शंकर नमू,चरणाम्बुज धरिशीश ॥ॐ ह्रीमहंजिनप्रमवायनम'।५६। मोह महाबल दलमलो, विजय लक्ष्मीनाथ । परमज्योति शिवपद लहो,चरण नमू धरि माथ ॥ ॐ ह्रीग्रहपरमजिनायनम ।६।। चहँ गति दुःख विनाशिया, पूरा निज पुरुषार्थ । नम् सिद्ध कर-जोरिक,पाऊ मै सर्वार्थ ॥ ॐह्री अहं जिनचहुँगतिदुःखान्तकायनम ।६१॥ जीते कर्म निकृष्टको, श्रेष्ठ भये जिनदेव।
॥ ॐह्री महं जिनश्रेष्ठाय नम.अध्यं । ६२।। आप मोक्ष मग साधियो, औरन सुलभ कराय। आदि पुरुष तुम जगतमे, धर्म रीत वरताय ॥ॐ ह्रीं अहं जिनज्येष्ठायनम अध्यं ॥६३।। पूजा मुख्य पुरुषारथ मोक्ष है, साधत सुखिया होय । मैं बंदू तिन भक्तिकरि, सिद्ध कहावे सोय ॥ ॐह्री अहं जिनमुखाय नम अयं ।।६।।
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सूरज सम अग्रेश हो, निज-पर- भासनहार । आप तिरे भवि तारियो, बंदू योग संभार ॥ ही ग्रह जिनाग्राय नमः प्रष्ये ।। ६५ ।। वि०रागादिक रिपु जीत तुम, श्री जिन नाम धराय ।
२६५ सिद्ध भये कर जोरिके, बंदू तिनके पाय ॥ ह्रीं श्रीं श्रीजिनाय नम ग्रव्यं ॥६६॥ विषय कषाय न लेश है, दृष्टि ज्ञान परिपूर्ण ।
उत्तमजिन शिवपदलियो, नमतकर्मको चूर्ण ॥ॐ ह्रीं प्रजिनोत्तमायनम श्रध्यं । ६७॥
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चहुँ प्रकार के देवता, नित्य नमावत शीश ।
तुम देवनके देव हो, नमू सिद्ध जगदीश ॥ ॐ ह्रीं जिनवृन्दारकाय नम ग्रध्र्घ्यं |६८| जो निज सुख होने न दे, सो सत रिपु है जोय ।
ऐसे रिपुको जीतके, नमू सिद्ध जो होय ॥ॐ ही प्रर्ह प्ररिजिताय नम श्रर्घ्यं ।।६६।। अविनाशी अविकार हो, अचलरूप विख्यात ।
जामे विघ्न न लेश है, नमू सिद्ध कहलात ॥ॐ ह्रीं ग्रह निविघ्नाय नम प्रध्यं ॥ ७० ॥ रागदोष मद मोह अरु, ज्ञानावरण नशाय ।
शुद्ध निरंजन सिद्ध है, बंदू तिनके पाय ॥ ॐ ह्रीं ग्रह विरजसे नम. मध्यं ।।७१।।
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मत्सर भाव दुखी करे, निजानन्द को घात । सोतुमनाशो छिनकमें,शम सुखियाकहलात ॥४ह्री ग्रह निरस्तमत्सरायनमःप्रयं । परकृत भाव न लेश है, भेद कहयो नहिं जाय। वचन अगोचर शुद्ध हैं, सिद्ध महा सुखदाय ॥ ह्रीं ग्रह शुद्वाय नम मध्यं ॥७३॥ रागादिक मल बिन दिपो, शुद्ध सुवर्ण समान। शुद्धनिरंजन पदलियो, नमूचरण धरिध्यान॥ ह्रीमह निरजनायनम प्रध्यं ।७५६ ज्ञानावर्णी आदि ले, चार घतिया कर्म। तिनको अंत खिपाइके,लियो मोक्षपद पर्म॥ ह्रींप्रघातिकन्तिकाय नमाप्रयं ।।७६१ ज्ञानावरणी पटल विन, ज्ञान दीप्त परकाश। शुद्ध सिद्ध परमातमा, बंदित भवदुख नाश । ह्रीमह जिनदीप्तय नम अर्घ्य ।।७७॥ कर्म रुलावे आत्मा, रागादिक उपजाय । तिनको मर्म विनाशक, सिद्ध भये सुखदाय ॥ॐ ह्रीमह कर्मममभिदे नम अध्यं ७८॥ पाप कलाप न लेश है, शुद्धाशुद्ध विख्यात ।
पूजा मुनि मन मोहनरूप है, नमूजोरि जुग हाथ ॥ ह्रींग्रह अनुदयाय नम अध्यं ।।७।।
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राग नहीं थुतिकारसों, निंदकसो नहीं द्वेष । सिद्ध सम मुखिया प्रानंद-घन, बंदू सिद्ध हमेश॥ ह्रींमह वीतरागाय नम प्रध्यं ।।८.15 वि० क्षुधा वेदनी नाशकर, स्व-सुख भुजनहार। २६७ ४ निजानन्द सतुष्ट है, बंदू भाव विचार ॥ ॐ ह्री अहं अक्षुधाय नम प्रध्यं ॥१॥
एक दृष्टि सबको लखें, इष्ट अनिष्ट न कोय । द्वेष अंश व्यापै नहीं, सिद्ध कहावत सोय॥ॐ ह्रीं ग्रह अद्वैपाय नमःप्रधं ॥२॥ भवसागर के तीर है, शिवपुरके है राहि। मिथ्यातमहर सूर्य है, मै बंदूंहूँ ताहि ॥ॐ ह्री अहं निर्मोदय नम अध्यं ।।८३|| जगजनमें यह दोष है, सुखीदुखी बहु भेव । ते सब दोष निवारियो, उत्तम हो स्वयमेव ॥ॐ ह्री अहं निर्दोपाय नम अयं ।। जनम मरण यह रोग है, तिनको कठिन इलाज। परमौषध यह रोगकी, बंदू मेटन काज ॥ ॐ ह्रीं अहं अगदाय नम अयं ॥८॥ पूजा राग कहो ममता कहो, मोह कर्म सो होय।। सो निज मोह विनाशियो, नमूसिद्धहै सोय ॥ ॐह्रीअर्हनिर्ममत्वाय नम अध्या८६।।
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तृष्णादुखकोमूल है, सुखी भये तिस नाश ।
मनवचतन करि मै नमू, है आनन्दविलास ॥४ह्रीं प्रहं वीततृष्णायनम अयं ।८७। सिद्ध अन्तर बाहय निरिच्छ है, एकी रूप अनूप ।
निष्पृह परमेश्वर नमू, निजानंद शिवभूप ॥ॐ ह्री प्रहं प्रसगाय नम अध्यं ।।८८॥ क्षायिक समकितको धरै, निर्भय थिरता रूप। निजानंदसो नहिं चिगें, मैं बंदूशिवभूप ॥ॐ ह्री ग्रह निर्भयाय नम अयं 1;८६|| ६ स्वप्न प्रमादी जीवके, अल्प-शक्ति सो होय। निज बल अतुल महा धरै, सिद्ध कहावै सोय॥ह्रीं अहं अस्वप्नाय नम अयं ६०। दर्श ज्ञान सुख भोगतै, खेद न रंचक होय । सो अनत बलके धनी, सिद्ध नमामी सोय ॥ ॐ ह्री ग्रह नि श्रमाय नम अयं ॥११॥ युगपत सब प्रापत भये, जानत है सब भेव । ३ संशय विन आश्चर्य नहीं, नमूसिद्धस्वयमेव ॥ॐ ह्रीं ग्रह वोसविस्मयाय नमोऽयं । अष्ट सिद्ध सनातन कालतें, जगमें है परसिद्ध । तथा जन्म फिर नहीं धरै, नमजोर करसिद्ध ॥ॐ ह्रींग्रह प्रजन्मिने नम अर्घ्य ।१३।
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भम विन ज्ञान प्रकाश मे, भासै जीव अजी। सिद्ध । संशय विन निश्चल सुखी,बंदूसिद्ध सदीव ॥ ह्रींगहनि सशयाय नम अध्यं ।।१४
तुम पूरण परमातमा, सदा रहो इक सार । जरा न व्यापै तुम विषै,नमसिद्ध अविकार॥ॐ ह्रीं पहँ निर्जराय नम अयं । ६५।। है तुम पूरण परमात्मा, अन्त कभी नहीं होय ।
मरण रहित बंदूंसदा, देउ अमरपदसोय ॥ ॐही अहं अमराय नम.प्रय ||६|| निजानन्द के भोगमें कभी न भारत पाय । यातें तुम अरतीत हो, बंदू सिद्ध सुहाय ॥ॐ ह्री अहं प्ररत्यतीतायनम प्रध्यं ।।६।।
होत नहीं सोच न कभू, ज्ञान धरै परतक्ष । इनमसिद्ध परमात्मा, पाऊं ज्ञान अलक्ष ॥ॐ ह्री अहं निश्चिताय नमःमध्यं ।।८।।
जानत है सब ज्ञेयको, पर ज्ञेयनतै भिन्न । यातें निविषयी कहे, लेश न भोगै अन्य ।। ह्रीं महं निर्विषयाय नम अध्यं ।।६॥ अष्ट, अहंकार प्रादिक त्रिषट्, तुम पद निवसै नाहि ।
३ पूजा सिद्ध भये परमात्मा मै, बन्दूहूँ ताहि ॥ॐ ह्री अहं त्रिषष्टिजिते नम अध्यं ॥१०॥
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जेते गुरण परजाय है, द्रव्य अनन्त सुकाल ।
सिद्ध तिनको तुम जानो प्रभू, बंदु मै नमि भाल ॥ॐ ही यह नवजाय नम.प्र । १०६ । ज्ञान आरसी तुम विषै, झलके ज्ञेय अनन्त ।
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सिद्ध भये तिनको नमे, तीनो काल सु संत ॥ॐ ही यह सर्वविदे नम ग्रयं । १०२ । चक्षु प्रचक्षु न भेद है, समदर्शी भगवान ।
नमूं सिद्ध परमातमा, तीनों जोग प्रधान ॥ ह्री ग्रह सर्वदर्शिने नमः ययं ॥ १०३॥ देखन कछु बाकी नहीं, तीनो काल मझार ।
सर्वालोकी सिद्ध है, नमूं त्रियोग सम्हार ॥ ॐ ह्रीं श्रीं सर्वावनोकायनम अर्घ्यं । १०४ तुम सम प्राक्रम और सब, जगवासी मे नाहिं |
निज बल शिवपद साधियो, मैबंदू हूँ ताहि ॥ह्रो ममनन्तविक्रमाय नमः प्रयं १०५ निजसुख भोगत नहीं चिगे, वीर्य अनन्त धराय ।
तुम अनंत बलके धनी, बंदू मनवचकाय ॥ ॐ ह्रीं श्रीं अनतत्रीर्याय नम श्रयं ॥ १०६ ॥ सुखाभास जग जीवके, पर निमित्त से होय । निज प्रश्रय पूरण सुखी, सिद्ध कहावै सोय ॥ ॐ ह्रीं श्रींनंतसुखायनम ग्रर्घ्यं ॥ १०७
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निज सुखमे सुख होत है, पर सुखमे सुख नाहि ।
सो तुम निज सुखके धनी, मै बंदू हूँ ताहि ॥ॐ ह्री ग्रह अननगौम्यायनम गय॑ १०८ ॥ वि., तीन लोक तिहुँ कालके, गुरण पर्यय कछु नाहि । २७११ जाको तुम जानो नहीं, ज्ञान भानुके माहि ॥ॐ ह्री अहं विश्वज्ञानागनम अयं ।१०६६
द्रव्य तथा गुरण पर्यको, देखै एकीबार । विश्व दर्श तुन नाम है, बंदो भक्ति विचार॥ॐ ह्री पहं विश्वणिनेनम अध्यं ।।१०। संपूरण अवलोकते, दर्शन धरोअपार।
नमू सिद्ध कर-जोरिक, करो जगत से पार ॥ ही प्रहअखिलाथदणिनेनम प्रध्यं १११ । इन्द्रिय ज्ञान परोक्ष है, क्रमवर्ती कहलाय । इविन इंद्रिय प्रत्यक्ष है, धरो ज्ञान सुखदाय ॥४ह्री प्रहं निष्पक्षदर्शनायनम मध्य ११२ , । विश्व मांहि तुम अर्थ सब, देखो एकीबार ।
विश्वचक्षु तुम नाम है, बंदू भक्ति विचार ॥ही अहं विशाचक्षुपेनम अर्घ्य । ११. अष्टम है तीन लोकके अर्थ जे, बाकी रहो न शेष। युगपततुम सब जानियो, गुरण पर्याय विशेष ॥ॐ ह्री ग्रह अशेषविदेनम अयं ।१४।।
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पराधीन अरु विघ्न विन, है सांचा आनन्द । सिद्ध सो शिवगतिमे तुम लियो, मै बंदू सुखकंद ॥ॐ ह्री प्रहं प्रानदाय नम प्रय॑ ।।१५। वि० सत प्रशंसता नित बहै, या सद्भाव सरूप । २७२
सो तुममे आनंद है, बंदत हूँ शिवभूप ॥ ह्रीं ग्रह सदानदाय नग अध्यं ॥११६।। उदय महा सत्रूप है, जामें असत न होय । अंतराय अरु विघन विन, सत्य उदै है सोय ॥ ही प्रहं सदोदयाय नम प्रय। ११७॥ नित्यानन्द महासुखी, हीनादिक नहीं होय । । नहीं गत्यंतर रूप हो, शिवगति में है सोय ॥ ही अहं नित्यानदायनम.अणं ।। १८ ६ जासों परे न और सुख, अहमिन्द्रनमे नाहि । है सोई श्रेष्ठ सुख भोगते, बंदूहूँ मै ताहि ॥ॐ ह्री ग्रह परमानदाय नम अयं ॥११॥ । पूरण सुखकी हद धरै, सो महान प्रानन्द ।
सो तुम पायो शिव-धनी, बंदूपद अरविंद ॥ॐ ह्री अहं महानदायनम अयं ॥१२०॥ पूजा उत्तम सुख स्वाधीन है, परम नाम कहलाय ।
२७२ चारों गतिमें सो नहीं, तुम पायो सुखदाय ॥ॐ ह्री पहं परमानदायनम अयं ।१२१
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जामे विर्घन न लेश है, उदय तेज विज्ञानं'।
जाकोहमजानतनहीं,सुलभरूप विधि ठान ही अहं परोदयाय नम अध्यं ॥१२२॥ । परम शक्ति परमातमा, पर सहाय विन प्राप ।
स्वयं वीर्य आनंदके, नमत कटै सब पाप ॥ॐ ह्री ग्रह परमौजमे नम प्रध्यं ।।१२३॥ । महातेजके पुंज हो, अविनाशी अविकार।
झलकत ज्ञानाकार सब, दर्पणवत् आधार ॥ॐ ह्री ग्रहं परमतेजसेनम.प्रयं ॥१२४६ परम धाम उत्कृष्ट पद, मोक्ष नाम कहलाय । जासोंफिरावतनहीं, जन्ममरगनशि जाय ॥ही अहं परमतेजसेनम अध्यं १२५ जगतगुरु सिद्ध परमातमा, जगत सूर्य शिव नाम । परमहंस योगीश हैं, लियो मोक्ष अभिराम ॥ॐ ह्रीं महं परमहसाय नम अध्यं ।१२६ । दिव्यज्योति स्व-ज्ञानमें, तीन लोक प्रतिभास । शंकाविनविश्वासकर, निजपरकियोप्रकाश ॥ ह्री महं प्रत्यक्षज्ञात्रेनमःअध्यं । १२७ ६ पूजा निज विज्ञान सुज्योतिमे, संशयः प्रादिक नाहिं। सो तुम सहज प्रकाशियो, मै बंदूहूँ ताहि ॥ ही अहं ज्योतिषे नम प्रय॑ ।।१२।।
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शुद्ध बुद्ध परमातमा, परम ब्रह्म कहलाय ।
सिद्ध० सर्व लोक उत्कृष्ट पद, पायो बंदू ताय ॥ ॐ ह्रीं श्रीं परमब्रह्मणे नमः अर्घ्यं ॥ १२१ ॥ चार ज्ञान नहिं जामें, शुद्ध सरूप अनूप ।
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परको नाहि प्रवेश है, एकाकी शिवरूप ॥ॐ ह्रीं प्रर्हं परमरहसे नम अर्घ्यं ।। १३०।। निज गुरण द्रव्य पर्यायमें भिन्न भिन्न सब रूप ।
एक क्षेत्र श्रवगाह करि, राजत है चिद्रूप ॥ॐ ह्री मर्हं प्रत्यक्षात्मने नम प्रर्घ्यं ।।१३१। शुद्ध बुद्ध परमातमा, निज विज्ञान प्रकाश । स्व-प्रतमके बोधतें, कियो कर्म को नाश ॥ॐ ह्री श्रहं प्रबोधात्मने नम अर्घ्यं । १३२ कर्म मैलसे लिप्त है, जगति श्रात्म दिन रैन ।
कर्म नाश महपद लियो, बंदू हूँ सुख देन ॥ॐ ह्रीं ग्रहं महात्मने नमःश्रयं ।। १३३॥ श्रातमको गुरण ज्ञान है, यही यथारथ होय ।
ज्ञानानन्द ऐश्वर्यता, उदय भयो है सोय ॥ॐ ह्री प प्रात्ममहोदयायनम श्रयं १३४ दर्श ज्ञान सुख वीर्यको, पाय परम पद होय ।
सो परमातम तुमभये, नमूं जोर कर दोय ॥ ॐही ग्रह परमात्मने नम प्रर्घ्यं । ३५|
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। मोहकर्म के नाशते, शान्ति भये सुखदेन । विक्षोभरहित प्रशान्त हो, शांत नमूसुखलेन ॥ ही अहं प्रशा तात्मने नम प्रध्यं । १३॥ २७५ / पूरण पद तुम पाइयो, यातै परे न कोय ।
तुम समान नहीं और है, बंदू हूँ पददोय ॥ॐ ह्री अहं परमात्मने नमोऽपयं ।। १३७॥
पुद्गल कृत तन छारक, निज आतममे वास। ३ स्व प्रदेश गृहके विषे, नित ही करत विलास ॥हीअहं प्रात्मनिकेतनाय नम अयं । ६
औरन को नित देत हैं, शिवसुख भोगै पाप । परमइष्ट तुमहो सदा, निजसम करत मिलाप ॥ ह्रीमहं परमेष्ठिने नम अयं १३९७ । मोक्ष लक्ष्मी नाथ हो, भक्तन प्रति नित देत । । महा इष्ट'कहलात हो, बंदूशिवसुख हेत ॥ह्रोपहँ महिनात्मने नम प्रध्यं ॥१४॥ रागादिक मल नाशिक, श्रेष्ठ भये जगमांहि ।
अष्टम सो उपासना करणको, तुम सम कोई नाहि ॥ ह्रीअहं श्रेष्ठात्मने नम प्रय॑ ।१४१ परमें ममत विनाशक, स्व आतम थिर धार । पर विकल्प संकल्प विन,तिष्ठो सुखनाधार ॥ ह्रीं अहं स्वात्मनिष्ठिताय नम.अध्यं
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स्व-प्रातममें मग्न है, स्व प्रातम लवलीन । परमें भमरण कर नहीं, सन्त चरण शिर दीन ॥ॐ ह्रीमहं ब्रह्मनिष्ठायनमःअध्य।।१४३ तीन लोकके नाथ हो, इन्द्रादिक कर पूज। तुमसम और महानता, नहिं धारत है दूज ॥ह्रीं महं महाजेष्ठायनम अध्यं ।१४४। तीन लोक परसिद्ध हो, सिद्ध तुम्हारा नाम ।
सर्व सिद्धता.ईश हो, पूरहु सबके काम ॥ॐ ह्री प्रहं निरूढात्मने नमःअध्य ॥१४५।। । स्वै पातम थिरता धरै, नहीं चलाचल होय । निश्चल परम सुभावमें, भये प्रकृतिको खोय॥ह्री अर्ह दृढ़ात्मने नम.प्रध्य १४ा
क्षयोपशम नानाविधै, क्षायक एक प्रकार । । सो तुममें नहीं और मे,बंदू-योगसंभार॥ॐ ह्री ग्रहं एकविधाय नम. अध्यं ।।१४७॥ कर्म पटलके नाशते, निर्मल ज्ञान उदार । तुम महान विद्याधरो, बन्दू योगसंभार॥ह्रो अह महाविद्याय नम अध्यं । १४॥ पूजा परम पूज्य परमेश पंद, पूरण ब्रह्म कहाय । पायो सहज महान पद, बर्दू तिनके पाय ॥ ह्रीमहं महापदेश्वरायनम अयं ।१६।
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पच परम पद पाइयो, ब्रह्म नाम है एक।
पज मन वच काय करि, नाशैविघ्न अनेक ॥हीं पहंपचनह्मणेनम प्रध्यं ।।१५०।। वि० निज विभूति सर्वस्व तुम, पायो सहज सुभाय।
हीनाधिकबिनबिलसते,बंदू ध्यान लगाय॥ ॐ ह्रीं प्रई मर्याय नम अध्यं ॥१५१ ।
पूरण पण्डित ईश हो, जुद्ध धाम अभिराम । है बंदमन वच काय करि, पाऊं मोक्ष सुधाम ॥ ह्री प्रहमवविद्येश्य रापनम.पy.५२ इमोह कर्म चकचरतें, स्वाभाविक शुभ चाल । ६ शुध परिणाम धरै सदा, बंदू नित नमि भाल॥ह्रीं ग्रहं गुनये नमःप्रध्यं ।।१५३।
ज्ञान दर्श आवर्ण विन, दीपो अनंतानंत । सकल ज्ञेयप्रतिभास है, तुम्है नमै नित संत ॥ॐ ह्रीं प्रहं प्रनतदीप्तयेन मोऽध्य ॥ १५४, इक इक गुरण प्रतिछेदको, पार न पायो जाय ।
प्रष्ट सो गुण रास अनंत है, बंदू तिनके पाय ॥ह्री महं मनतात्मने नम अयं ॥ ५॥ पूजा अहमिदनकी शक्ति जो, करो अनंती रास ।
१२७७ १ सोतुमशक्ति अनंत गुण, कर अनंतप्रकाश ॥ह्रीं पहं अनतशक्तये नम मध्य १५,
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इछायक दर्शन जोति में, निरावरण परकास । सिद्धार सो अनंतहग तुम धरौ, नमै चरण नित दास॥ह्रीमहं अनतदर्शयेनम.अध्यं १५७ वि० जाकी शक्ति अपार है, हेत अहेत प्रसिद्ध । २७८४ गरगधरादि जानत नहीं मै बर्दू नितसिद्ध ॥ ॐ ह्री ग्रह अनतशक्तयेनम.मयं ।।१५८।
चेतन शक्ति अनंत है, निरावरण जो होय। 5 सोतम पायी सहज ही, कर्म पुंजको खोय ॥ॐ ह्रौं प्रहं अनतचिदेशायनम अध्य।१५६
जो सुख है निज आश्रये, सो सुख परमें नाहिं। निजानन्द रस लीन है, मै बंदूंहूँ ताहि ॥ ॐ ह्री अहं अनतमुदे नम प्रध्यं ॥१६०।। जाकै कर्म लिपै न फिर, दिपै सदा निरधार । सदा प्रकाशजु सहित है, बंदूंयोग सम्हार ॥ ह्रीमहं सदाप्रकाशाय नम प्रध्यं १६१ निजानन्दके माहि हैं, सर्व अर्थ परसिद्ध ।
अष्टम सोतम पायो सहजही, नमतमिले नवनिद्ध ॥ॐ ह्रीग्रहं सर्वाथसिद्धेम्योनम अध्य। १६२ पूजा अति सूक्षम जे अर्थ है, काय काय कहाय ।
२७८ साक्षात् सबको लखो, बन्दू तिनके पांय ॥ ॐ ह्रींप्रहंसाक्षात्कारिणेनम मध्यं ।१६३
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सकल गुणनमय द्रव्य हो, शुद्ध सुभाव प्रकाश । सिद्धः तुम समान नहीं दूसरो, बन्दत पूरै पास ॥ह्रीं प्रहं ममग्रद्धये नम अध्यं ।।१६४॥ वि० सर्व कर्मको छीन करि, जरी जेवरी सार। २७६ । सो तुम धूलि उडाइयो, बंदू भक्ति विचार ॥ ह्रीं ग्रह कमक्षीणायनम अयं। १६५
चहुँ गति जगत कहात हैं, ताको करि विध्वंश । । अमरअचल शिवपुर वस,भर्म न राखो अंश ॥ ह्रीं अहंजगद्विध्वसिनेनम अयं १६६, ॥ इन्द्री मन व्यापार में, जाको नहिं अधिकार। सोअलक्ष प्रातम प्रभू, होउ सुमति दातार ॥ह्रीं हूँ प्रलक्षात्मने नम प्रध्यं । १६७ ६
नहीं चलाचल अचल है, नहीं भमरण थिर धार । है सोशिवपुरमे वसत हैं, बंदू भक्ति विचार ।।ॐ ह्रीं अहंप्रचलस्थानायनम अध्य।१६८ पर कृत निमत बिगाड है, सोई दुविधा जान । सो तुममें नहीं लेश है, निराबाध परणाम ॥ॐ ह्रीं मह निराबाधायनम अध्यं १६॥ पूजा जैसे हो तुम प्रादिमें, सोई हो तुम अन्त । एक भांति निवसो सदा, बंदत है नित संत ॥ॐ ह्रीं अहं प्रप्रताय नमःप्रयं ।१७०।
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धर्मनाथ जगदीश हो, सुर मुनि माने प्रान ।
सिद्ध० मिथ्यांमत नहीं चलत है, तुम श्रागे परमाण॥ॐ ह्रीं श्रीं धर्म चक्रिणे नम अर्घ्यं १७१ ज्ञान शक्ति उत्कृष्ट है, धर्म सर्व तिस माहिं ।
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२८० श्रेष्ठ ज्ञानतम पुंज हो, परनिमित्तकछु नाहिं ॥ॐ ह्रीं विदावरायनम म्रर्घ्यं । १७२ निज प्रभाव से मुक्त हो, कहै कुवादी लोग ।
भूतात्मा सो मुक्त है, सो तुम पायो जोग ॥ॐ ह्रीं महँ भूतात्मने नम प्रर्घ्यं ।।१७३।। सहज सुभाव प्रकाशियो पर निमित्त कछु नाहि । सो तुम पायो सुलभतें, स्वसुभाव के माहि ॥ ही ग्रहँ सहजज्योतिषे नमःप्रयं। १७४ विश्व नाम तिहुँ लोक में, तिसमे करत प्रकाश ।
विश्वज्योति कहलात हैं, नमत मोहतम नाश ॥ॐ ह्रीं प्रर्हविश्वज्योतिषेनम प्रर्घ्यं १७५ फरश आदि मन इन्द्रियां, द्वार ज्ञान कछु नाहि ।
यातें प्रतिइन्द्रिय कहो, जिन-सिद्धांतके माहिं ॥ ह्री पहँ प्रतींद्रियायनम ग्रर्घ्यं । १७६ एक मान असहाय हो, शुद्ध बुद्ध निर श्रंश । केवल तुमको धर्म है, नमें तुम्हें नित संत ॥ ॐ ह्री न केवलायनम श्रध्यं । १७७।।
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लौकिक जन या लोकमें, तुम सारू गुरण नाहिं ।
केवल तुमही में बसै, मैं बंदू हूँ ताहि ॥ ॐ ह्री ग्रहँ केवलानोकाय नम'नर्घ्यं ।।१७८।: लोक अनन्त कहो सही, तातेंऽनन्तानन्त ।
सिद्ध० हैलो अवलोकियो, तुम्हें नमें नित सत ॥ॐ ह्री प्रहुँलोकालोकावलोकायनम‘प्रर्घ्यं ज्ञान द्वार निज शक्ति हो, फैलो लोकालोक ।
वि०
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भिन्नभिन्न सब जानियों, नमूं चररण दे धोक ॥ ह्रीं श्रीं विवृनाय नम ग्रध्र्यं । १८०) विन सहाय निज शक्ति हो, प्रकटो आपोआप ।
स्वय बुद्ध स्व सिद्धहो, नमत नसे सब पाप ॥ ॐ ह्री ग्रहं केवलावलोकायनम म्रर्घ्यं । १८१ सूक्ष्म सुभग सुभावतें, मन इन्द्रिय नहिं ज्ञात ।
वचन अगोचर गुरण धरै, नमूं चरन दिन रात ॥ॐ ह्रीमव्यक्तायनम अर्घ्यं । १८२ कर्म उदय दुख भोगवे, सर्व जीव संसार ।
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प्रष्टम
तिन सबको तुमही शरण, देहो सुक्ख श्रपार ॥ॐ ह्रीप्रर्हं सर्वशरणायनम।अर्घ्यं। १८३ पूजा चितवनमें वे नहीं, पार न पावे कोय | महाविभवके हो धनी, नमूं जोर कर दोयं ॥ॐ ह्रीं यह प्रवित्य विभवाय नमःप्रर्घ्यं ।
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छहों कायके वासको, विश्व कहै सब लोक ।
तिनके थंभनहार हो, राज काजके जोग॥ ॐ ह्रीं ग्रह विश्वभृते नम मध्यं ॥१५॥ सिद्ध० घट घटमें राजो सदा, ज्ञान द्वार सब ठोर।
विश्व रूप जीवात्म हो, तीन लोक सिरमोर॥ ह्रींयह विश्वरूपात्मने नम' अर्घ्य ૨૮ર
घट घटमें नितब्याप्त हो, ज्यों घर दीपक जोति । विश्वनाथ तुम नाम है, पूजत शिवसुख होत ॥ॐ ह्रीं महविश्वात्मने नम अध्यं ।१८७ इन्द्रादिक जे विश्वपति, तुम पद पूजै प्रान। यातें मुखिया हो सही, मै पूजू धरि ध्यान॥ॐ ह्रीं ग्रहं विश्वतोमुखाय नम प्रय ज्ञान द्वार सब जगतमें, व्यापि रहे भगवान । विश्वव्यापिमुनिकहतहै,ज्यूंनभमेशशि भान॥ॐ ह्रीमहं विश्वव्यापिनेनम अध्यं १८६ निरावरण निरलेप है, तेजरूप विख्यात । ज्ञान कला पुरण धरै,मै बंदू दिन रात॥ह्रीं पह स्वय नोतिषे नम.प्रय ।।१६०॥ अष्टम चितवनमें प्रावै नहीं, धारै सुगुरण अपार । मन वच काय नमूसदा,मिट सकल संसार ॥ ह्रीमह प्रचित्यात्मनेनम प्रय॑ १९१ र
पूजा
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नय प्रमाणको गमन नहीं, स्वयं ज्योति परकाश । अद्भत गुरण पर्यायमें, सुखसूकर विलास ही पहं पमिामायनमा ११२
मती आदि क्रमवत विन, केवल लक्ष्मीनाय । सिद्ध महाबोध तम नाम है, नम पांय धरि माय || महायोगाय नम पाis
कर्मयोगते जगतमें, जीव शक्ति को नाश। स्वयंवीर्य अद्भत धरै, नम चरण सुखरासदीपमहानमा पाए। छायक लब्धि महान है, ताको लाभ लहाय । महालाभ यात कहै, बंदू तिनके पाय ॥ पई मामा. १९५॥ ज्ञानावरणादिक पटल, छायो प्रातम ज्योति । ताको नाश भये विमल, दीप्त रूप उद्योत ॥ोप मा म प १ ? ज्ञानानन्द स्व लक्ष्मी को, भोगै वाधाहीन। पंचम गतिमें वास है, नमू जोग पद लीन ॥ोप मोगगुगामे नम मध्यं ॥१७॥ । पर निमित्त जामें नहीं, स्व आनन्द अपार।
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प्रष्टम
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जप्राधारानीवमहानागानमः पापं ॥११॥
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दर्श ज्ञान सुख भोगते, नेक न बाधा होय। अंतुल वीर्य तुम धरतं हो, मैं बंदूंहूँ सोय ॥ ही अतुलवीर्यायनम अध्यं ।१६६ शिवस्वरूप प्रानन्दमय, क्रीडा करत विलास। महादेव कहलात है, बन्दत रिपुगणनाश ॥ॐह्रीं प्रहं यज्ञार्हाय नमःप्रयं ॥२०॥ महा भाग शिवपति लहो, तासम भान न और। सोई भगवत है प्रभू, नमूपदाम्बुज ठौर ॥ ह्री अहं भगवते नम अयं ।।२०।। तीन लोकके पूज्य है, तीन लोकके स्वामि । कर्म-शत्रु को छय कियो, तातै अरहत नाम ॥ॐहीग्रह अहते नम'मध्यं ।।१०२।। सुरनर पूजत चरण युग, द्रव्य अर्थ जुत भाव । महाअर्घ तुम नाम है, पूजत कर्म प्रभाव ॥ॐ ह्री ग्रह महार्धाय नम अयं ॥२०३।। शत इन्द्रन करि पूज्य हो, अहमिंद्रनके ध्येय । द्रव्य भाव करि पूज्य हो, पूजक पूज्य अमेय ॥ॐ ह्री महंमधवचितायनम अध्यार ४ . अ
अष्टम छहो द्रव्य गुरणपर्यको, जानत भेद अनन्त। . . महापुरुष त्रिभुवन धनी, पूजतहै नित संत ॥हीअहंभूताथयज्ञपुरुषायनम अध्य२०५
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तुमसो कछु छाना नहीं, तीन लोकका भेद ।
दर्पण तल सम भास है, नमत कर्ममल छेव ।।लीप: nimn urf . वि. सकल ज्ञेयके ज्ञानतें, हो सबके सिरमोर । २८५१ पुरुषोत्तम तुम नाम है, तुम लग सवकी दौर॥जली AT TITAuri । स्वयं बुद्ध शिवमग चरत, स्वयंबुद्ध अविरुद्ध ।
शिवमगचारी नित जज, पावै प्रातम शुद्ध हो पर TAMATLi : २०८१ । सब देवनके देव हो, तीन लोक के पूज्य । ३ मिथ्या तिमिर निवारते,सूरज और न दूज ॥ीप नाकाम पर
सुरनर मुनिके पूज्य हो, तुमसे श्रेष्ठ न कोय । इ तीन लोकके स्वामिहो,पूजत शिवसुख होय होप मानेम १८ ॥२१॥ ३ महा पूज्य महा मान्य हो, स्वयंवुद्ध अविकार । मन वच तनसे व्यावते,सुरनर भक्ति विचारली म
टम महाज्ञान केवल कहो, सो दीखे तुम मांहि।
पूजा महा नामसों पूजिये, संसारी दुख नाहि ॥ ही पद मार नम पाय ।।२१२॥
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पूज्यपरगा नहीं और में, इक तुम ही में जान । सद्ध महार्ह तुम गुण प्रभू, पूजत हो कल्याण
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होंर्हं महार्हाय नम ग्रध्यं । २१३। अचल शिवालय के विषै, अमित काल रहैं राज । चिरजीवी कहलात हो, बंदू शिवसुख काज ॥ ॐ ह्री ग्रह तत्रायुषे नम प्रध्य २१४॥ मररण रहित शिवपद लसै, काल श्रनन्तानन्त ।
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दीर्घायू तुम नाम है, बन्दत नितप्रति सत ॥ ह्री ग्रह दोर्घायुषे नम प्रध्य । २१५। सकल तत्त्व के श्रर्थ कहि, निराबाध निरशंस ।
धर्ममार्ग प्रकटाइयो, नमत मिटै दुख अंश ॥ॐ ह्रीग्रह प्रावाचे नम प्रयं ॥ २१६ मुनिजन नितप्रति ध्यावतें, पावे निज कल्याण ।
सज्जन जन श्राराध्य हो, मै ध्याऊं धरि ध्यान ॥हीग्रह मज्जनवल्लभाय नम शिवसुख जाको ध्यावत, पावै सन्त मुनीन्द्र ।
परमराध्य कहात हो, पायो नाम अतीन्द्र ॥ॐ ह्रीं श्रहं परमाराध्यायनम श्रध्यं । २१८ पंचकल्याण प्रसिद्ध हैं, गर्भ आदि निर्वारण | देवन करि पूजित भये, पायो शिवमुखयान ॥ ही ग्रहं पचकल्याणपूनितायनम •
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! देखो लोकालोकको, हस्त रेखको सार । सिद्ध इत्यादिक गुरण तुम विषै, दीखै उदय अपार ॥हीमदर्शनविधि गुणोदयाय नम वि. छायक समकितको धरै, सौधर्मादिक इन्द्र । 01 तुम पूजन परभावतें,अन्तिम होय जिनेन्द्र॥ॐही पहं सुरामितागनम मध्य ।२२१ ॥
निर्विकल्प शुभ चिह्न है, वीतराग सो होय । । सो तुम पायो सहजही, नमू जोर कर दोय॥ई हो प्रहमुग्यदात्मनेनम पत्र्या२२२।। । स्वर्ग प्रादि सुख थानके, हो परकाशन हार ।
दीप्त रूप बलवान है, तुम मारग सुखकार ॥ ही प्रहं दियौतम नम.मयं ।।२२३।। । गर्भ कल्याणक के विषै, तुम माता सुखकार । षट् कुमारिका सेवती, पावें भवदधि पार॥ह्रींपर्ह गोगवितमातृकायनम प्रय।
अति उत्तम तुम गर्भ है, भवदुख जन्म निवार । । रत्नराशि दिवलोकतें, वर्षे मूसलधार ॥ॐ ह्री पह रत्नगर्माय नम मयं ।।२२६॥ प्रप्टम । सुर शोधनतें गर्भमें, दर्पण सम प्राकार । ।यों पवित्र तुम गर्भ है, पावै शिवसुख सार॥ ही प्रहं गर्माय नमःप्रयं ॥१२६।।
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जाके गर्भागमनत, पहले उतसव ठान ।
दिव्य नारि मंगल सहित, पूजत श्रीभगवान ॥ॐ ह्रीं महंगर्मोत्मवसहिताय नम अयं । ' वि० नित नित आनन्द उरधरै, सुर सुरीय हरषात ।
मंगल साज समाज सब, उपजावै दिन रात ॥ ही अहं नित्योपनागेपचितायनम केवलज्ञान सुलक्षमी, धरत महा विस्तार । चरणकमल सुर मुनि जजै,हमपूजतहितधार ॥ॐही पह पद्मप्रभवे नम अय।२२६।। तिहुँविध विधि मल धोयकर, उज्ज्वल निर्मल होय । शिवालयमें वसत है, शुद्ध सिद्ध है सोय॥ ॐ ह्री अहं निस्कलाय नम अध्यं ।। २३ ०।। असंख्यात परदेशमे, अन्य प्रदेश न होय । स्वयं स्वभाव स्वजात हैं, मैं प्रणमामी सोय ॥ ह्रींग्रहस्वयस्व मावायनमः प्रध्य २३११ पूज्य यज्ञ आराधना, जो कुछ भक्ति प्रमाण । तुम ही सबके मूल हो, नमत अमंगल हान ॥ॐही प्रहमीयजन्मने नम अध्य।।२३२॥ सूर्य सुमेरु समान हो, या सुरतरुकी ठौर ।
१२८८ महा पुन्यकी राशि हो, सिद्ध न कर जोर ॥ही अहं पुण्यागाय नम प्रय।।२३।।
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ज्यू सूरज मध्याहनमे, दिपै अनंत प्रभाव ।
त्यों तुम ज्ञानकला दिप,मिथ्यातिमिरप्रभाव ॥ॐ ह्रीं प्रहं मास्वते नम'मध्य २३४ । २८९ । चहुँविधि देवनमे सदा, तुम सम देव न पान ।
निजानंदमे केलिकर, पूजत हूँ धरि ध्यान ॥ॐ ह्रीं अहंप्रभुतदेवाय नम अध्या२५३ विश्व ज्ञात युगपत धरै, ज्पू दर्पण प्राकार । स्वपर प्रकाशकहोसही, नमूभक्ति उरधार ॥ॐ ह्री अहं विश्वज्ञातृमम्भृतेन म पy सत स्वरूप सत ज्ञान है, तुम ही पूज्य प्रधान । पूजत है नित विश्वजन, देव मान परमान ॥ ह्रीं प्रहविश्वदेवाय नम. अय।२३७ सृष्टिको सुख करत हो, हरत दुक्ख भववास । मोक्ष लक्षमी देत हो, जन्म जरा मृत नास ॥ॐह्रीं मह सृष्टिनिवृत्तायनम अध्या२३ ॥ ६ इन्द्र सहस लोचन किये, निरखत रूप अपार ।
अष्टम मोक्ष लहै सो नेमतें, मै पूजू मनधार ॥ॐ ह्रीं महं सहवासद्गुरसहाय नमःमगा२३६ पूजा संपरण निज शक्ति के है परताप अनन्त ।
१२६ सो तुम विस्तीररण करो, नमे चरण नित संत ॥ॐ ह्री प्रहसवंशक्तयेनम अयं २४०
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ऐरावतपर रूढ़ हैं, देव नृत्यता मांड। मद्ध० यूजत है सो भक्तिसो, मेटि भवार्णव हांड ॥* ही अहं देवरावतासीनायनमःअध्यं । वि. सुरनर चारण मुनि जजै, सुलभ गमन अकाश।
परिपूरण हर्षात हैं, पूरै मन की आश॥ ह्री मह हर्षाकुलामरखगचारणार्षिमतोत्सवाय -रक्षक हो षट कायके, शरणागति प्रतिपाल। सर्वव्यापि निज ज्ञानतें, पूजत होय निहाल ॥४ह्री ग्रहं विष्णवे नम अध्यं ।। २४३।। महा उच्च प्रासन प्रभू, है सुमेर विख्यात । जन्माभिषेक सुरेन्द्र करि, पूजतमनउमगात ॥ ही अहस्नानपीठताहसराजे नम प्रय जाकरि तरिए तीर्थसो, मान मुनिगरण मान्य । तुम सम कौन जुश्रेष्ठ है,असत्यार्थ है अन्य ॥ॐहीहतीर्थसामान्यदुग्धाब्धयेनम अध्य लोकस्नान गिलानता, मेटै मैल शरीर। पातम प्रक्षालितकियो, तुम्ही ज्ञान सुनीर॥ह्री ग्रह स्नानाम्बूस्वावासवायनम अयं पूजा तारण तरण सुभाव है, तीन लोक विख्यात । ज्यूं सुगंध चम्पाकली,गन्धमई कहलात राहीमहँगन्धपवित्रितत्रिलोकायनम अयं२४७
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सूक्षम तथा स्थूलमें, ज्ञान कर परवेश ।
जाको तुम जानों नहीं, खाली रहो न देश ॥ ही पहं ववसूचनमःमध्यं ॥२८॥ Re! औरन प्रति प्रानन्द करि, निर्मल शुचि प्राचार ।
आप पवित्र भये प्रभू, कर्म धूलिको टार ॥ॐ ह्री पहं शुचिप्रवसे नम, अध्यं ॥२४६॥3 कर्मों करि किरतार्थ हो, कृत फल उत्तम पाय। करपर कर राजत प्रभू, बंदहूँ युग पाय॥हीमहकृतार्थकृतहस्तायनम अध्य।२५० । दर्शन इन्द्र प्रघात हैं, इष्ट मान उर माहिं।
कर्म नाशि शिवपुर बसै, मैं बंदूहूँ ताहि ॥ॐ ह्री प्रहं शक्रेष्ठाय नमःअध्यं ।।२५१॥ है । मघवा जाके नृत्य करि, ताक तृप्ति महान । । सो मै उनको जजत हूँ, होय कर्मको हान ॥ही अहंन्द्रनन्यतृप्तिकाय नम. प्रय॑ ।। शची इन्द्र अरु काम ये, जिन दासनके दास ।
ग्रण्टम निश्चयमनमे नमन कर, नितवंदित पदजासही प्रहंशचीविम्मापितायनम मध्य पूजा जिनके सनमुख नृत्य करि, इन्द्र हर्ष उपजाय । -
३२६१ जन्म सुफल मानै सदा,हम पर होउ सहाय ।। हो महंशक्रारम्यानदनृत्याय नमानध्या ।
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धन सुवर्ण लोकमें, पूरण इच्छा होय ।
सिद्ध० चक्रवर्ती पद पाइये, तुम पूजत है सोय ॥ ॐ ह्री ग्रह रैंदपूर्णमनोरथाय नमः | २५५ तुम आज्ञा में हैं सदा, श्राप मनोरथ मान ।
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इद्रसदा सेवन करै, पाप विनाशक जान ॥ ॐ ह्री ग्रह आज्ञार्थीन्द्रकृत सेवाय नमः श्रयं। सब देवनमे श्रेष्ठ हो, सब देवन सिरताज ।
सब देवन के इष्टहो, बंदत सुलभ सुकाज ॥ॐ ह्री महं देवश्रेष्ठायनमःश्रयं । । २५७।। तीन लोक उच्च हो, तीन लोक परशंस ।
सो शिवगति पायोप्रभू, जजत कर्मविध्वंस ॥ॐ ह्रीग्रशिबौद्यमानायनम श्रर्घ्यं । २५८। 'जगत्पूज्य शिवनाथ हो, तुम ही द्रव्य विशिष्ट ।
हित उपदेशक परमगुरू, मुनिजनमाने इष्ट ॥ ॐही मर्हं जगत्पूज्यशिवनाथनम ग्नर्घ्यं । मति श्रुतवधि, अवर्णको, नाश कियो स्वयमेव ।
केवलज्ञान स्वतै लियो, श्राप स्वयंभू देव ॥ ॐ ह्रो नहं स्वयभुवे नम' प्रर्घ्यं ।। २६० ।। समोसरण अद्भुत महा, श्रौर लहै नहीं कोय | धनपति रचो उछाहसों, मैं पूजू हू सोय ॥ ॐ ह्रीं ग्रहं कुवेररचितस्थानाय नमः म्रयं ।
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जाको अन्त न हो कभी, ज्ञान लक्षमी नाथ ।
सिद्ध सोईशिवपुरके धनी, नमूं भाव धरि नाथ ॥ नममर्यं । २६२ गिरधरादि नित ध्यावते, पावै शिवपुर वास ।
२६३ परम ध्येय तुम नाम है, पूरै मनकी प्राशही ग्रह योगीशाय नम त्र्यं २६३ परम ब्रह्मका लाभ हो, तुम पद पायो सार ।
त्रिभुवन ज्ञाताहो सही, नय निश्चय व्यवहार ॥ॐ ह्रीं पहं ब्रह्मविदे नम. ग्रर्यं । २६४। सर्व तत्त्वके श्रादिमें, ब्रह्म तत्त्व परधान ।
पतये नमः ।।२९६ ।
तिसके ज्ञाता हो प्रभू, मै बंद धरि ध्यान ॥ ही स्वाय नमः पत्यं । २६५ द्रव्य भाव द्वै विधि कही, यज्ञ यजनकी रोति । सो सब तुमही हेत, रचत नशै सब भीति ॥ महादेव शिवनाथ हो, तुमको पूजत लोक । मैं पूजूं भावस, मेटो मनको शोक ॥ॐ ह्रीं प्र विनापाय नमःप्रये ॥ २६७॥१ कृत्य भए निज भावमें, सिद्ध भये सब काज । पायो निज पुरुषार्थको, बंदू सिद्ध समाज ॥ॐ ह्रीं
कृतकृताय नम. पर्घ्यं । २६८ ।।
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यज्ञविधानके अंग हो, मुख नामी परधान ।
सिद्ध० तुमविन यज्ञ न होकभी, पूजत होय कल्यान ॥ॐ ह्री प्रहं यज्ञांगाय नमः अयं॥ २६ वि० मररंग रोगके हररणसे, श्रमर भये हो आप ।
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२९४ शरणागतिको श्रमरकर, अमृतहो निष्पाप ॥ॐ ह्रीं अर्ह अमृताय नम घर्घ्यं ॥ २७० ॥
पूजन विधि प्रस्थान हो, पूजत शिवसुख होय । सुरनर नित पूजन करें, मिथ्या मतिको खोय ॥ जो हो सो सामान्य कर, धरत विशेष अनेक ।
सुभाव यही कहो, बंदू सिद्ध प्रत्येक ॥ॐ ही नहँबस्तूत्पादकायनम.प्रर्घ्यं ।२७२। इन्द्र सदा तुम थुति करें, मनमें भक्ति उपाय ।
सर्वशास्त्रमे तुम युति, गरणधरादि करि गाय ॥ॐ ह्रीं प्रस्तुती श्वराय नम.प्रघ्यं २७३ मगन रहो निज तत्त्वमें, द्रव्य भाव विधि नाश ।
जो है सो है विविध विन, नमूं अचलअविनाश ॥ॐ ह्रीं प्रभावाय नम प्रर्घ्यं । २७४ तीन लोक सिरताज है, इन्द्रादिक करि पूज्य । धर्मनाथ प्रतिपाल जग, और नहीं है दूज्य ॥ ॐ ह्री ममहपतये नमः श्रध्यं ।।२७५।।
ह्री अर्हं यज्ञाय नम-म्रर्घ्यं । २७१।
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। महाभाग सरधानतें, तुम अनुभव करि जीव । सिद्ध० सो पनि सेवत पाप तज, निजसुख लहै सदीव ॥ॐ ह्रीमहमहागजायनम भय२०६६
यज्ञ-विधि उपदेशमे, तुम अग्रेश्वर जान । यज्ञ रचावनहार तुम, तुम ही हो यजमान ॥ ह्रींमहप्रप्रयाजनायनम.प्रयं ।।२०।। । तीन लोकके पूज्य हो, भक्ति भाव उर धार ।
धर्म अर्थ अरु मोक्षके, दाता तुम हो सार ॥ह्रीं महजगत्पूज्याय नमःप्रध्य 1२७८। । दया मोह पर पापतें, दूर भये स्वतंत्र। ब्रह्मज्ञानमे लय सदा, जपूनाम तुम मंत्र॥ही महे दणापराय नम.प्रयं ॥२८६ । तुम ही पूजन योग्य हो, तुम ही हो प्राराध्य । महा साधु सुख हेतुते, साधे है निज साध्य ॥ ह्रींपर्ह पूज्यायिनम.प्रध्ये ॥२८॥ निज पुरुषारथ सधनको, तुमको अर्चत जक्त ।
प्रप्टम मनवांछित दातारहो, शिव सुख पावै भक्त ॥ॐहीपहजगदाच्चितायनमःमध्य २८१ पूजा । ध्यावत है नितप्रति तुम्है, देव चार परकार।।
३२६५ ३ तुम देवनके देव हो, नमू भक्ति उर धार ।। ॐ ह्रींप्रर्हदेवाधिदेवायनम.प्रय ८२.8
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। इन्द्र समान न भक्त हैं, तुम समान नहीं देव । सिद्धार ध्यावत है नित भावसों, मोक्ष लहै स्वयमेव ॥ॐ ह्रींप्रहंशकाञ्चितायनमःमध्य २८३ वि०. तुम देवन के देव हो, सदा पूजने योग्य । । २६६ जे पूजत है भावसो, भोगै शिवसुख भोग॥ही ग्रहं देवदेवाय नम अध्यं ।।२८४॥ । तीन लोक सिरताज हो, तुम से बड़ा न कोय ।
सुरनर पशु खग ध्यावते, दुविधामन की खोय॥ॐ ह्रीअहंजगद्गुरवेनम अध्यं २८५ ६ जोहो सोही तुम सही, नहीं समझमे प्राय ।
सुरनर मुनिसब ध्वावते, तुम वारणीको पाय॥ही अहं देवसघाचार्याय नम अर्ध्य । ज्ञानानन्द स्वलक्ष्मी, ताके हो भरतार ।
स्वसुगंध वासित रहो, कमल गंधकी सार॥ ही अहं पद्मनन्दाय नम.अध्यं ॥ ९॥ ६ सब कुवादि वादी हते, वज़ शैल उनहार । ६ विजयध्वजा फहरात है, बंदूं भक्ति विचार हींग्रहंजयध्वजानम अध्या२८८। पूजा ६. दशोदिशा परकाश है, तनकी ज्योति अमंद ।
भविजन कुमुद विकास हो, बंदू पूरण चंद ॥ ही पहुँमामण्डलिने नम मध्य। १८६)
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१ चमरनि करि भक्ति करै, देव चार परकार। । यह विभूति तुम ही विष, बंदूं पाप निवार ॥ॐ ह्रीप्रईचतु षष्टीचामरायनम'प्रयं ।
। देव दुदुभी शब्द करि, सदा करै जयकार। मिद्ध तथा प्राप परसिद्ध हो, ढोल शब्द उनहार॥ह्रोग्रहंदेवदु दुभिय नम प्रय।।२९१।। कि तुम वाणी सब मनन कर, समझत है इकसार।
अक्षरार्थ नहीं भूम पड़े, संशय मोह निवार॥ॐ ह्रीअहंवाङ् स्पष्टायनम भय॑ ।।२६२॥ धनपति रचि तुम प्रासनं, महाप्रभूता जान। तथा स्वासन पाइयो, अचल रहो शिवथान ॥ॐ ह्रोहलब्धासनायनमःअध्य। २६॥ तीन लोकके नाथ हो, तीन छत्र विख्यात। भव्यजीव तुम छाहमें,सदा स्व प्रानंद पात ॥ ह्री ग्रहं छत्रत्रयाय नम अध्य।।२६४।। पुष्पवृष्टि सुर करत है, तीनो काल मझार । तुमसुगंधदशदिशरमी, भविजनभूमर निहार ॥ ह्रीग्रहपुष्पवृष्टयेनम अयं ।२९५। पूजा देव रचित आशोक है, वृक्ष महा रमणीक ।
३ २९७ समोसरण शोभा प्रभु, शोक निवारण ठीक ॥ ह्रींप्रहं दिव्याशोकायनम.प्रय।२९६ ॥
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मानस्तम्भ निहारके कुमतिन मान गलाय । समोसरण प्रभुता कहै, नमू भक्ति उर लाय॥ ह्रीप्रहमानस्थम्भायनमःमध्य २९७ सुरदेवी संगीत कर, गावै शुभ गुण गान । भक्ति भाव उरमे जगे, बंदत श्रीभगवान ॥ ही अहंसगीतार्हाय नम मध्य'।२६८। मंगल सूचक चिह्न है, कहै अष्ट परकार। तुम समीप राजत सदा, 'नमूअमंगल टार॥ह्री ग्रहप्रष्टमगलाय नम मध्य २६६। भविजन' तरिये तीर्थसो, तुम हो श्रीभगवान । कोई न भंगे पान जिन, तीर्थ चक्रसो जान ॥ॐ ह्रीमहंतीर्थचक्रवर्तिनेनमःअध्यं ।३..। सम्यग्दर्शन धरत हो, निश्चै परमवगाढ।' संशय आदिक मेटिके, नासो सकल विगाढ़ः॥ॐ ह्रीं अहंसुदर्शनाय नम अयं ॥३०१, कर्ता हो शिव काजके, ब्रह्मा जगकी रीति। वर्णाश्रमको थाप, प्रकटायी शुभ नीति ॥ ॐ ह्रीं महं कत्रे नमःअध्य ।।३०२।। सत्य धर्म प्रतिपालके, पोषत हो संसार ।
पूजा यति श्रावक दो धर्मके, भये नाथ सुखकार ॥ ह्रीं प्रहंतीर्थम नम अयं ।३.३॥
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धर्म तीर्थ मुनिराज है, तिनके हो तुम स्वामि ।
धर्मनाथ तुम जानके, नितप्रति करूं प्रणाम। ह्रींअहंतीर्थेशायनम'मध्यं ।३०४. । ई लोक तीर्थ में गिनत हैं, धर्मतीर्थ परधान । सिद्ध सो तम राजत हो सदा, मै बंदू धरि ध्यान ॥ ह्रीमहंधर्मतीर्थयुतायनम अध्यं ५०५ ... तुम बिन धर्म न हो कभी, ढूढो सकल जहान ।
दश लक्षण स्वधर्मके, तीरथ हो परधान ॥ ह्रींमहधर्मतीर्थयुताय नम अध्यं ।३.६॥ !
धर्म तीर्थ करतार हो, श्रावक या मुनिराज । । दोनोविधि उत्तम कहो, स्वर्ग मोक्षके काज ह्रीमहंधमतीर्थकरायनम अर्घ्य ३०७४ ई तुमसे धर्म चले सदा, तुम्ही धर्मके मूल ।
सुरनर मुनि पूजे सदा, छिदहि कर्मके शूल ॥ ह्रीमहंतीर्थप्रवत्तंकाय नमःअध्यं ३०८।। धर्मनाथ जगमे प्रकट, तारण तरण जिहाज । तीन लोक अधिपति कहो, बंदू सुखके काज ॥ ह्रीमहं तीर्थवेधसेनमःप्रय ।।३०॥ पूजा श्रावक या सुनि धर्मके, हो दिखलावनहार । अन्य लिंग नहीं धर्मके, बुधजन लखो विचार॥ ह्रीमई तीविषायकायनमामध्य
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स्वर्ग मोक्ष दातार हो, तुम्ही मार्ग सुखदान ।
अन्य कुभेषिनमे नहीं, धर्म यथारथ ज्ञान ह्रीमहंसत्यतीर्थक रायनम.अयं ।३११॥ सिद्ध.
सेवन योग्य सु जक्तमें, तुम्ही तीर्थ हो सार । वि०
॥ॐहीपई तीर्यसेव्याय नम अध्य|३१२॥ भव समुद्र भवसे तिरै, तुम तीर्थ कहाय । हो तारण तिहुँ लोकमें, सेवत हूँ तुम पाय ॥ लीपर्हतीर्थतारकाय नम-प्रयं ॥३१३
सर्व अर्थ परकाश, करि, निर इच्छा तुम बैन । , धर्म सुमार्गप्रवर्तको, तुम राजत हो ऐन ॥ॐ ह्रीमहंमत्यवाक्याधिपाय नम अध्यं ।।१४
धर्म मार्ग परगट करै, सो शासन कहलाय। सो उपदेशक आप हो, तिस सकेत कहाय ॥ ह्रीहंसत्यगासनाय नम अयं ॥३१५।। अतिशय करि सर्वज्ञ हो, ज्ञानावरण विनाश। नेमरूप भविसुनत ही, शिवसुख करत प्रकाश ॥ॐ ह्रीमहंअप्रतिगामनाय नम प्रध्यं० अष्टम कहैं कथञ्चित धर्मको, स्यात् वचन सुखकार । सो प्रमारगतै साधियो, नय निश्चय व्यवहार ॥ ह्रींमहस्पाद्वादिनेनम-मध्य ।।१७
३००
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निर अक्षर वाणी खिर, दिव्य मेघ की गर्ज। सिद्ध ई अक्षरार्थ हो परिणवै, सुन भव्यन मन अज॥ॐहीं अहंदिव्यध्वनयेनम'प्रय।३१८॥ वि० । नय प्रमाण नहीं हतत है, तुम परकाशे अर्थ। ३०१ शिवसखके साधन विषै, नहीं गिनत है व्यर्थ ॥ ही पहं अव्याहतार्थाय नम अध्यं०
करै पवित्र सु प्रात्मा, अशुभ कर्ममल खोय । पहुँचावै ऊंची सुगति, तुम दिखलायो सोय ॥ॐ ह्रीमहं पुण्यवाचे नम अध्यं ॥३२॥ तत्त्वारथ तुम भासियो, सम्यक विष प्रधान । मिथ्या जहर निवारणं, अमृत पान समान॥ॐ ह्रीप्रहं प्रर्यवाचे नमः अध्य।।३२१॥ देव अतिशयसो खिरत ही, अक्षरार्थ मय होय । दिव्यध्वनि निश्चयकरै,संशय तमको खोय ॥ॐ ह्रींमहंप्रदमागधीयुक्तयेनम प्रध्या३२२१ । सब जीवनको इष्ट है, मोक्ष निजानन्द वास। । सो तुमने दिखलाइयो, संशय मोह विनाश ॥ ॐ ह्रीं पहँइष्टवाचे नम अयं ।।३२३॥ अष्टम । नय प्रमाण ही कहत है, द्रब्य पर्याय सुभेद।
अनेकांत साधै सही, वस्तु भेद निरखेद ॥ॐ ह्रीप्रहं प्रनेकातदशिनेनम.अयं ।।३२४॥
पुजा
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दुर्जय कहत एकांतको, ताको अन्त कराय ।
सिद्ध० सम्यक्मति प्रकटाइयो, पूजूं तिनके पाय ॥ ह्री महंदुनंयांतकाय नमःश्रयं । ३२५।। एक पक्ष मिथ्यात्व है, ताको तिमिर निवार ।
विश्
३०२
स्यादवाद समन्यायतें, भविजन तारे पार ॥ अहो हेएकातध्वातमिदे म· मध्ये ३२६ जो है सो निज भावमे, रहे सदा निरवार ।
मोक्ष साध्य में सार है, सम्यक् विषै अपार ॥ ॐ ह्रीमहंतस्त्रवाचे नम अध्यं ।।३२७।। निज गुरण निज परयायमें सदा रहो निरभेद ।
शुद्ध बुद्ध श्रव्यक्त हो, पूजूं हूँ निरखेद ॥ॐ ह्री अर्हं पृथवकृते नम'अर्घ्यं ।।३२८।। स्यातकार उद्योतकर, वस्तु धर्म निरशंस ।
ह्रीम स्यात्कारष्वजावाचेनम.०
तासुध्वजा निर्विघ्नको, भाषो विधि विध्वंस ॥ परम्परा इह धर्मकी, उपदेशो श्रुत द्वार । भवि भवसागर - तीरलह, पायोशिवसुखकार ॥ ॐ ही मवाचे मम प्रयं ॥ ३३ ॥ द्रव्य दृष्टि नह पुरुष कृत, है अनादि परमान । सो तुम भाष्य है सही, यह पर्याय सुजान ॥ॐ ह्रीय प्रगौरवेय वाचेनम.प्र ।।३३१।।
भ्रष्टम
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३०२
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नहीं चलाचल होठ हो, जिस वारणी के होत ।
सिद्ध सो मैं बंदू हों किया, मोक्षमार्ग उद्योत ॥ ह्रीं ग्रहं प्रचलोष्ठवाचे नमःप्रर्घ्यं । ३३२ । तुम सन्तान श्रनादि है, शाश्वत नित्य स्वरूप ।
वि०
३०३
तुमको बंदू भावसो, पाऊँ शिव-सुख कूप ॥ॐ ह्रीं श्रीं प्रशाश्वताय नमः ग्रध्यं । ३३३ । हीनादिक वा और विधि, नहीं विरुद्धता जान ।
एक रूप सामान्य है, सब ही सुखकी खान ॥ ॐ ह्री ग्रहं प्रविरुद्धाय नम अर्घ्यं ॥ ३३४॥ नय विवक्षते सधत है, सप्त भंग निरवाध ।
भानमत हूँ, वस्तु रूपको साध ॥ॐ ह्री श्रीँ मप्तभगीवाचे मम ग्रर्घ्यं ।
अक्षर विन वारणी खिरे, सर्व श्रर्थ करि युक्तं । भविजन निज सरधानतें, पावै जगतें मुक्त ॥ ह्रीं श्रीं श्रवणगिरे नम अर्घ्यं । ३३६
क्षुद्र तथा क्षुद्र मय, सब भाषा परकाश ।
तुम मुखतेंखिर करें, भर्म तिमिरको नाश ॥होम्रर्हं मर्वभाषामयगिरे नम श्रर्घ्यं । अष्टम
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३०३
कहने योग्य समर्थ सब, अर्थ करै परकाश ।
तुम वाणी मुखतै खिरे, करै भरम तमनाश ॥ ह्री ग्रहं व्यक्तिगिरे नमः श्रयं ॥३३८।।
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३०४
तम वाणी नहीं व्यर्थ है, भंग कभी नहीं होय । सिद्ध० लगातार मुखतें खिरे, संशय तमको खोय ॥ ह्रीमह अमोघवाचे नम अध्य||३३६।। वि. वस्तु अनन्त पर्याय है, वचन अगोचर जान ।
तुम दिखलाये सहज ही, हरी कुमति मतिवान ॥ ही मर्हप्रवाच्यानतवाचेनम मध्य वचन अगोचर गुरण धरो, लहै न गरगधर पार । तुम महिमा तुमहीं विष, मुझ तारो भवपार॥ॐ ह्रीं पहं प्रवाचे नम पय॑ ॥३४॥ तुम सम वचन न कहि सके, असतमती छमस्थ । धर्म मार्ग प्रकटाइयो, मेटी कुमति समस्त ॥ॐ ह्री अहं अद्वैतगिरे नमःप्रयं ।३४२॥ सत्य प्रिय तुम बैन हैं, हितमित भविजन हेत। सो मनिजन तुम ध्यावतै, पावै शिवपुर खेत ॥ही प्रहं मूनृतगिरे नमःप्रयं ।३४३ नहीं सांच नहीं झूठ है, अनुभव वचन कहात । सो तीर्थंकर ध्वनि कही, सत्यारथ सत बात ॥ ह्रीमह सत्यानुमयगिरेनमानय ३४४ पूजा मिथ्या अर्थ प्रकाश करि, कुगिरा ताको नाम।
३०४ सत्यारथ उद्योत करै, सुगिराताको नास ॥ॐ ह्रीं प्रहं सुगिरे नम अध्यं ॥३४५।।
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सिद्ध
योजन एक चहूँ दिशा, हो वाणी विस्तार।
श्रवरण सुनत भविजन लहै, प्रानंदहियेअपार ॥ॐ ह्रींग्रहंयोजनव्यापिगिरे नम प्रय॑ । ३०५६ निर्मल क्षीर समान है, गौर श्वेत तुम बैन।
पाप मलिनता रहित है, सत्य प्रकाशक ऐन ॥ॐ ह्रीं अर्हक्षीरगौरगिरे नम अर्घ्य ३४७ ६ तीर्थ तत्त्व जो नहीं तजै, तारण भविजन वान।
यातें तीर्थंकर प्रभू, नमत पाप मल हान ॥ॐ ह्री प्रहं तीर्थतत्त्वगिरे नम प्रध्यं ।।३४८1 । उत्तमार्थ पर्याय करि, प्रात्म तत्त्वको जान। । सो तुम सत्यारथ कहो, मुनिजन उत्तम मान ॥ॐ ह्री ग्रहपरमार्थगवेनम अयं ३४६ ॥ भिव्यनिको श्रवणनि सुखद, तुम वाणी सुख देन ।
मै बंदू हूँ भावसों, धर्म बतायो एन॥ॐ ह्री ग्रह भव्यकश्रवणगिरे नम:अयं ।.३५०॥ ई संशय विभूम मोहको, नाश करो निर्मूल ।
सत्य वचन परमारण तुम, छेदत मिथ्या शूल ॥ॐ ह्रीं महं सद्गवे नम अध्यं ॥३५१। पूजा तुम वाणीमे प्रकट है, सब सामान्य विशेष । नानाविध सुन तर्कमे, संशय रहै न शेष ॥ॐ ह्री अहं चित्रगवे नमःमध्यं ॥३५२।।
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परम कहै उतकृष्टको, अर्थ होय गम्भीर । सिद्ध० सो तुम वारणीमे खिरै, बंदत भवदधि तीर ॥ॐह्री अहं परमार्थगवेनमःमध्य। ३५३। वि० मोह क्षोभ परशांत हो, तुम वारणी उरधार । ३०६ भविजनको संतुष्ट कर, भव आताप निवार ॥ॐही अहंप्रशातगवे नम अयं ३५४
बारह सभासु प्रश्न कर, समाधान करतार । मिथ्यामति विध्वंस करि, बंदूमनमें धार ॥ॐही अहं प्राश्निकगिरे नम अध्यं । ३५५ महापुरुष महादेव हो, सुरनर पूजन योग। वारणी सुन मिथ्यात तज, पावै शिवसुख भोगे ॥ह्रीप्रहयाज्युश्रुतेनम अयं ३५६ शिवमग उपदेशक सुश्रुत, मनमे अर्थ विचार । साक्षात् उपदेश तुम, तारे भविजन पार ॥ॐ ह्री अर्ह श्रुतये नम प्रय॑ ।।३५७।। तुम समान तिहुँ लोकमे, नहीं अर्थ परकाश । भविजन सम्बोधे सदा, मिथ्यामतिको नाश ॥ॐ ह्री अहमहाश्रुतये नम अयं ३५८ पूजा जो निज प्रात्म-कल्याणमे, बरतै सो उपदेश ।
३०६ धर्म नाम तिस जानियो, बंदूंचरण हमेश॥ ह्रीग्रह धर्मश्रुतये नम अध्यं ।।३५९॥
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जिन शासनके अधिपती, शिवमारग बतलाय । वा भविजन संतुष्ट करि, बंदू तिनके पाय ॥ॐ ह्री अहं श्रुतपतये नम अध्यं ।३६.६ धारण हो उपदेशक, केवल ज्ञान संयुक्त । शिवमारग दिखलात हो, तुमको बंदन युक्त ॥ॐ ह्री अहंश्रुतघृतायनम अध्य ३६१ जैसो है तैसो कहो, परम्पराय सुरीत ।
सत्यारथ उपदेशतें, धर्म मार्गकी रीत ॥ॐ ह्री मह घ्र वश्रुतये नमःप्रयं ॥३६२।। j मोक्ष मार्गको देखियो, और न को दिखलाय। है तुम सम हितकारक नहीं, बंदूहूँतिन पांय॥हीमह निर्वाणमार्गोपदेशकायनमः ! । स्वर्ग मोक्ष मारग कहो, यति श्रावकको धर्म । । तुमको बन्दत सुख महा, लहैब्रह्मपद पर्म ॥ हीग्रह'यतिश्रावकमार्गदेशकापनमोऽयं, तत्त्व अतत्त्वसु जानियो, तुम सब ही परतक्ष ।
अष्टम निज प्रातम संतुष्ट हो, देखो लक्ष अलक्ष ॥ॐ ह्रीं अहं तत्वमार्गदृशे नम मध्यं। ३६४ ३ पूजा । सार तत्त्व वर्णन कियो, अयथार्थ मत नाश ।
5३०७ स्वपर प्रकाशक हो महा, बंदे तिनको दास ॥ॐ ह्री अहँसारतत्त्वयथार्थाय नमःप्रयं ।
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वि०
पाप तीर्थ औरन प्रति, सर्व तीर्थ करतार । सिद्धः उत्तम शिवपुर पहुँचना,यही विशेषरण सार ॥ ह्रीग्रहपरमोत्तमतीर्थकुतायनम प्रय
दृष्टा लोकालोकके, रेखा हस्त समान। युगपत सबको देखिये, कियो भर्मतम हान ।ॐह्री प्रहं दृष्टाय नमःअध्यं ॥३६८॥ जिनवारणीके रसिक हो, तासो रति दिन रैन।
ह्रीं प्रहवाग्मीश्वरायनम अर्घ्य ३६६। जो संसार-समुद्रसे, पार करत सो धर्म। तुम उपदेश्या धर्मक, नमत मिटै भव भर्म ॥ ही अहं धर्मशासनायनम.अयं ३:. धर्म रूप उपदेश है, भवि जीवन हितकार । मै बंदू तिनको सदा, करौ भवार्णव पार ॥हीग्रह धर्मदेशकाय नमःप्रयं ।३७१। सब विद्याके ईश हो, पूरन ज्ञान सु जान । तिनको बंदूभावसे, पाऊं ज्ञान महान ॥ॐ ह्री पहं वागीश्वराय नम प्रध्य ॥३७॥ पूजा सुमति नार भरतार हो, कुमति कुसौत विडार । मै पूजू ह भावसों, पाऊं सुमती सार ॥ॐ ह्रीं प्रहं पीनाथाय नम प्रय ।३७३ ।
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धर्म अर्थ अरु मोक्षके, हो दाता भगवान । सिद्ध० मै नित प्रति पायन परू, देहु परम कल्याण ॥ ह्रीमहं विभगीशायनम अध्य ३७४६ १०४ गिरा कहै जिन वचनको, तिसका अन्त सु धर्म।
मोक्ष करै भविजननको, नाशै मिथ्या भर्म ॥ ही अह गिरापतये नम प्रय। ३७५॥ जाकी सीमा मोक्ष है, पुरण सुख स्थान । शरणागत को सिद्ध है,नमसिद्ध धरि ध्यान ॥ॐ ह्रींप्रहं सिद्धागायनम प्रणं .३७६। नय प्रमारणसो सिद्ध है, तुम वारणी रवि सार । मिथ्या तिमिर निवारक, करै भव्य जन पार ॥ह्रीमह सिद्रवार मयायनम प्रध्य। । निज पुरुषारथ साधक, सिद्ध भये सुखकार । । मन वच तन करि मैं नमू,करो जगतसै पार॥ ह्रींअहं मिद्धाय गम अध्यं ॥३७॥ है सिद्ध करै निज अर्थको, तुम शासन हितकार।
प्रष्टम भविजन मान सरदहै, करै कर्म रज छार ॥ॐह्रींग्रहं सिद्धशामनाय नम.मj 38 पूजा तीन लोकमे सिद्ध है, तुम प्रसिद्ध सिद्धान्त । अनेकात परकाश कर, नाशे मिथ्या ध्वांत ही पई नगदपमिद्धमिद्धातायाम,
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प्रोकार यह मंत्र है, तीन लोक परसिद्ध । सिद्ध तुम साधक कहलात हो, जपत मिलै नवनिद्ध ॥ ह्रीमह मिद्धमत्रायनम अयं ३८१ वि०६ सिद्ध यज्ञको कहत है, संशय विभम नाश । १ मोक्षमार्ग मेले धरै, निजानन्द परकाश ॥ॐ ह्रीमहं सिद्धवाचे नम प्रध्य ॥३८२।।
मोहरूप मलसो दुरी, वाणी कही पवित्र । १ भब्य स्वच्छता धारिके, लहै मोक्षपद तत्र ॥ ह्री प्रहं शुचिवाचे नम अध्यं ।३८३।।
कर्ण विषयमें होत ही, करै आत्म-कल्याण । इतुम वारणी शुचिताधरै, नमे संत धरि ध्यान॥ ह्रीग्रह शुचि प्रवसे नम अयं ।३८४ १ वचन अगोचर पद धरो, कहते पंडित लोग।
तुम महिमा तुमहीं विषै, सदा बंदने योग्य ॥ ह्रींग्रह निशक्तोक्ताय नम.अयं ।३८५ सुरनर माने आन सब, तुम आज्ञा शिर धार। इ मानो तत्र विधान करि, बांधे एक लगार॥ॐ ह्री अहं तत्रकृते नम अयं । ३८६।। ६ जाकरि निश्चय कीजिए, वस्तु प्रमेय अपार ।
सो तुमसे परकट भयो, न्यायशास्त्र रुचि धार॥ह्री ग्रह न्यायशास्त्रकृते नम अर्पा
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गुरण अनन्त पर्याय युत, द्रव्य अनन्तानन्त ।
युगपति जानो श्रेष्ठ युत, धरो महा सुखवत ॥ ह्री ग्रह्णे महाज्येष्ठायनम ग्रर्घ्यं ३८८। तम पद पावै सो महा, तुम गुरण पार लहाय ।
शिवलक्ष्मी के नाथ हो, पूजूं तिनके पाय ॥ॐ ह्री प्रर्हं महानन्दाय नम. ग्रर्थ्यं । ३८६। तुम सम कविवर जगत मे, और न दूजो कोय |
गरणधर से श्रुतकार भी, अर्थ लहैं नहीं सोय ॥ॐ ह्रीं ग्रहँ कर्वोन्द्राय नम अर्घ्यं ॥३१० हित करता षट् कायके, महा इष्ट तुम बैन ।
तुमको बंदू भावसो, मोक्ष महासुख देन ॥ ॐ ही मीं महेष्टाय नम प्रध्र्घ्यं ।।३११। मोक्ष दान दातार हो, तुम सम कौन महान ।
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तीन लोक तुमको जजै, मनमें आनंद ठान ॥ ह्री ग्रर्ह महृनददाश्र्नम प्रध्ये।३६२। द्वादशांग श्रुतको रच, गरणधर से कविराज ।
प्रष्टम
तुम श्राज्ञा शिर धारके, नमू निजातम काज ॥ॐ ह्रीं श्रीँकवीश्वराय नम श्रध्यं ३१३ पूजा देव महा ध्वनि करत हैं, तुम सन्मुख धर भाव ।
३११
केवल अतिशय कहत है, मैं पूजू युतचाव ॥ॐ ह्रीं श्रदु दुमीश्वराय नमः अर्घ्यं ॥३१४
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इन्द्रादिक नित पूजते, भक्ति पूर्व शिर नाय । सिद्ध त्रिभुवन नाथ कहातहो, हम पूजत नित पॉय॥ ह्रींप्रर्हत्रिभुवननाथाय नम अर्घ्य ।
।यह दोहा व प्रघं मूलप्रति में नहीं है। ३१६ १ अहमिन्द्रके नाथ हो, तुमहि नमू धरि माथ ॥ॐ ह्रीप्रहं महानाथायनम अर्घ्य ।३६६ १ भिन्न भिन्न देख्यो सकल, लोकालोक अनन्त ।
तम सम दृष्टि न औरकी, तुमै नमें नित सत॥ॐ ह्री अहं परदृष्टे नम अध्यं ३६७।
सब जगके भरतार हो, मुनिगणमें परधान । । तुमको पूजै भावसो, होत सदा कल्याण ॥ॐ ह्रींसह जगत्पतये नम अध्य १३६८। ६ श्रावक या मुनिराज हो, तुम आज्ञा शिर धार । ६ वरतें धर्म पुरुषार्थ में, पूजत हूँ सुखकार ॥ॐ ह्रीमह स्वामिने नम प्रय॑ ॥३६६।।
धर्म कार्य करता सही, हो ब्रह्मा परमार्थ। ६ मालिक हो तिहुँ लोकके, पूजनीक सत्यार्थ ॥ॐ ह्री प्रहं कत्रे नम अध्य ॥४.०॥ पूजा तीन लोकके नाथ हो, शरणागत प्रतिपाल ।
३१२ चार संघके अधिपती, पूजूहूँ नमि भाल ॥ ह्रीअर्हचतुर्विधसघाधिपतये नम अध्य।
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तुम सम और विभव नहीं, धरो चतुष्ट अनंत । क्यों न करो उद्धार अब, दास कहावै 'संत' हीपई पद्वितीययिमयधार कायनम.
जामे विघन न हो कभी, ऐसी श्रेष्ठ विभूत । ६ पाई निज पुरुषार्थ करि, पूजत शुभ करतूत ॥ ह्रीमहं प्रभवे नम प्रयं ।।४०३।।
तुम सम शक्ति न औरकी, शिवलक्ष्मीको पाय ।
भोगैसख स्वाधीन कर, बंदू तिनके पाय | होमहं पदिनीय कपारकायनम प्रन्यं । है तुमसे अधिक न औरमें, पुरुषारथ कहुँ पाइ।
हो अधीश सब जगतके, बंदू तिनके पांइ॥ही प्रहं प्रयोश्वराय नम अध्यं ॥४०५॥ । अग्रेश्वर चउ संघ के शिवनायक शिरमोर।
पजत हैं नित भावसों, शीश दोऊ कर जोर॥हीप प्रमोशाय नमःमध्य ।४.६॥ । सहज सुभाव प्रयत्न विन, तीन लोक आधीश ।
प्रिप्टम शुद्ध सुभाव विराजते, बंदू पद धर शीश ॥ॐ ह्रीं ग्रह सर्वाधीशाय नम प्रध्य ४.७ छायक सुमति सुहावनी, बीजभूत तिस जान । तमसै शिवमारग चलै, मैं बंदू धरि ध्यान ॥ॐ ह्रींपहं प्रघोशिये नमामध्यं ।४०८३
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है स्वयं बुद्ध शिवनाथ हो, धर्म तीर्थ करतार।
तुम सम सुमति न को धरै, मै बंदू निरधार ॥ ह्रीमहंघर्मतीर्थकर्त्रे नम अध्यं ४०६,
पूरण शक्ति सुभाव धर, पूजत ब्रह्म प्रकाश । ३१४ पूरण पद पायो प्रभू, पूजत पापविनाश ॥ ह्रीग्रह पूर्णपदप्राप्ताय नम प्रय॑ ।।४१।।
तुमसे अधिक न और है, त्रिभुवन ईश कहाय । तीन लोक अत्यन्त सुख, पायो बंदूताय ॥ॐ ह्रीमहं त्रिलोकाधिपतयेनम मध्यं ॥४११
तीन लोक पूजत चरण, ईश्वर तुमको जान । ६ मै पूजों हो भावसो, सबसे बड़े महान ॥ॐ ह्री महं ईशाय नम अयं ।।४१२।।
सूरज सम परकाश कर, मिथ्या तम परिहार । भविजन कमल प्रबोधको, पायोनिजहितकार॥ॐ ह्रीमहं ईशानाय नम.मध्य ४१३ ॥ क्रोडा करि शिवमार्ग मे, पाय परम पद आप।। प्राज्ञा भगन हो कभी, बदत नाशे पाप ॥ॐ ह्री अहं इन्द्राय नमः अध्यं ॥४१४।। उत्तम हो तिहुँ लोकमे, सबके हो सिरताज। शरणागत प्रतिपाल हो, पूजू प्रातम काज ॥ॐ ह्रीग्रहं त्रिलोकोत्तमाय नम अध्य॑ ४१५
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अधिक भूतिके हो धनी, सर्व सुखी निरधार।
सुरनर तुम पदको लहै, पूजत हूँ सुखकार ॥ॐ ह्री पहँ अधिभुवे नम अध्यं ।४१६॥ है तीन लोक कल्याण कर, धर्म मार्ग बतलाय।
सब देवनके देव हो, महादेव सुखदाय ॥ॐ ह्रीं प्रह महेश्वराय नमः अयं ।।४१७।। । महा ईश महाराज हो, महा प्रताप धराय।
महा जीव पूर्जे चरण, सब जन शरण सहाय ॥ॐ ह्रीप्रहं महेशाय नम अयं ।।१८।। परम कहो उत्कृष्टको, धर्म तीर्थ वरताय । परमेश्वर यातें भये, बंदू तिनके पाय ॥ॐ ह्री प्रहं परमेश्वराय नमःअध्य॑ ।।४१६।। तुम समान कोई नहीं, जग ईश्वर जगनाथ । महा विभव ऐश्वर्यको,धरो नमू निज माथ॥ॐ ह्री ग्रह महेशिने नम.प्रय ४२० चार प्रकारनके सदा, देव तुम्हें शिर नाय। सब देवनमें श्रेष्ठहो, नमूयुगल तुम पाय॥ॐही अहं अधिदेवाय नम अध्यं ॥४२॥ पूजा तुम समान नहिं देव अरु, तुम देवनके देव । यो महान पदवी धरौ, तुम पूजत हूँ एव ।।ॐही अहँ महादेवाय नम अयं ॥४२२॥
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शिवमारग तुममें सही, देव पूजने योग। सहचारी तुम सुगुरण है, और कुदेव अयोग॥ॐ ह्रां अहं देवाय नमःप्रयं ॥४२३।। तीन लोक पूजत चरण, तुम आज्ञा शिर धार । त्रिभुवन ईश्वर हो सही, मै पूजू निरधार ॥ ह्रींगहँत्रिभुवनेश्वरायनम अर्घ्य ।४२४ विश्वपती तुमको नमैं, निज कल्याण विचार। सर्व विश्वके तुम पती, मैं पूजू उर धार ॥ॐ ह्रीं अहं विश्वेशाय नम:प्रयं ।।४२५।। जगत जीव कल्याण कर, लोकालोक अनन्द । षटकायिक पालादकर, जिम कुमोदनी चंद॥ॐ ह्रीअर्हविश्व भूतेशाय नम प्रय। इन्द्रादिक जे विश्वपति, तुमको पूजत पान । यातें तम विश्वेश हो, सांच नमूधर ध्यान ॥ॐ ह्रीं अहं विश्वेशाय नम अध्यं ।४२७॥ विश्व बन्ध दृढ़ तोड़के, विश्व शिखर ठहराय । चरण कमल तल जगत है,यूं सब पूजत पाय॥४ह्रींअहविश्वेश्वरायनम प्रध्य।४२८। अष्टम शिव मारगकी रीति तुम, बरतायो शुभ योग ।
पूजा तिहूँ काल तिहुँ लोकमे, और कुनीति अयोग॥४ह्री अहं अधिराजे नम.प्रयं ।४२६
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लोक तिमिर हर सूर्य हो, तारण लोक जिहाज ।
सिद्ध लोकशिखर राजत प्रभू, मैं बंदू हित काज ॥ह्री लोकेश्वरायनम ग्रन्यं । ४३० तीन लोक प्रतिपाल हो, तीन लोक हितकार ।
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तीन लोक तारण तरण, तीन लोक सरदार ॥ ॐही ग्रह लोकपतये नम अध्यं४३१ लोक पूज्य सुखकार हो, पूजत हैं हित धार ।
मै पूजो नित भावसों, करो भवार्णव पार ॥ ॐ ह्रीग्रहं लोकनाथाय नम ग्रध्यं ।४३२, पूजनीक जगमे सही, तुम्हें कहै सब लोग ।
धर्म मार्ग प्रकटित कियो, यातें पूजन योग ॥ॐ ह्रीं ग्रहं जगपूज्याय नम ग्रध्यं ॥४३३० ऊरध अधो सु मध्य है, तीन भाग यह लोक ।
तिनमे तुम उत्कृष्ट हो, तुम्है देत नित धोक ॥ ह्री ग्रहं त्रिलोकनाथायनम ग्रध्य। तुम समान समरथ नहीं, तीन लोकमे और ।
स्वयं शिवालय राजते, स्वामी हो शिरमौर ॥ॐ ह्री ग्रह लोकेशायनम अर्घ्यं ॥ ४३५॥ जगत नाथ जग, ईश हो, जगपति पूजे पाँय ।
मैं पूजूं नित भाव युत, तारण तरण सहाय ॥ॐ ह्री जगन्नाथाय नम पये ४३६
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महा भूति इस जगतमे, धारत हो निरभंग। सिद्ध सब विभूति जग जीतिक, पायो सुख सरवंग॥ ही अहं जगत्प्रभवे नम अध्यं ।४३७ वि० मुनि मन करण पवित्र हो, सब विभावको नाश ।
तुमको अंजुलि जोरकर, नमूहोत अघनाश ॥ ही अहं पवित्राय नम अध्यं ।४३८। मोक्ष रूप परधान हो, ब्रह्मज्ञान परवीन । बंध रहित शिव-सुख सहित, नमैसंत प्राधीन ॥ ही महंपराक्रमायनम प्रय। ४३६ जामें जन्म मरण नहीं, लोकोत्तर कियो वास। अचल सुथिर राजै सदा, निजानंद परकाश ॥ॐ ह्री ग्रह परत्राय नम अयं ।।४।। मोहादिक रिपु जीतके, विजयवन्त कहलाय । जैत्र नाम परसिद्ध है, बंदू तिनके पाय ॥ॐ ह्री अहं जैत्रे नमः अर्घ्य । ४४१।। रक्षक हो षट् कायके, कर्म शत्रु क्षयकार ।
र॥ॐ ह्री अहं जिष्णवे नम अध्यं । ४४२॥ करता हो विधि कर्मके, हरता पाप विशेष । पुन्यपाप सु विभाग कर, भूम नहीं राखो लेश॥ॐ ह्रीमह कर्त्रे नम प्रध्य ।४४३।
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स्वानंद ज्ञान विनाश विन, अचल सुथिर रहे राज। सिद्ध अविनाशी अविकारहो, बंदू निजहित काज ॥ी पहपनि म.ari वि., इन्द्रादिक पूजित चरन, महा भक्ति उर धार। ३१६ ! तुम महान ऐश्वर्यको, धारत हो अधिकार | Hifarmi ta cry । गुण समूह गुरुता धरै, महा भाग सुख रूप।
तीन लोक कल्याण कर, पूजू शिव भूप मा महा विभवको धरत है, हितकारण मितकार । धर्म-नाथ परमेश हो, पूजत हूँ सुखकार ॥ी या न विन कारण असहाय हो, स्वयं प्रभा अविरुद्ध । तुमको बंदूभावसों, निज प्रातम कर शुद्ध पगा
लोकवासको नाश कर, लोक सम्बन्ध निवार । । अचल विराजे शिवपुरी, पूजत हूँ उर धार पनि नम:ri विश्व नाम संसार है, जन्म मरण सो होय । सोई ब्याधि विनासियो, जजोड़ करदोय
॥ीतिम.
प्रष्टम
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विश्व कषाय निवारके, जग सम्बन्ध विनाश । सिद्ध० जनममरण विनधू व लसै,नमूज्ञानपरकाश ॥ ह्रीप्रहं विश्वजेत्रे नम अध्यं ४५१ ॥ वि० विश्व-वास तुम जीतियो, विश्व नमावै शीश । ३२० पूजत है हम भक्तिसौं, जयवन्तो जगदीश ॥ह्री अहं विश्वजिते नम अयं ।।४५२॥
इन्द्रादिक जिनको नमें, ते तुम शीश नवाय । विश्वजीत तुम नाम है, शरणागत सुखदाय ॥ ॐ ह्रीग्रह विश्वजिन्वराय नम अध्यं । तीन लोककी लक्ष्मी, तुम चरणांबुज ठौर। यातै सब जग जीतिके, राजत हो शिरमौर । ह्री प्रहं जगज्जेत्राय नम प्रध्यं ४५४।। तीन लोक कल्याण कर, कर्मशत्रुको जीत । भव्यन प्रति प्रानंद कर, मेटत तिनकी भीति॥ह्रीप्रहं जगजिष्णवेनम अध्यं ५। है जग जीवनको अन्ध कर, फैलो मिथ्या घोर ।
अष्टम धर्ममार्गप्रकटायकर, पहुँचायो शिव ठौर ॥ॐ ह्रीं प्रहं जगन्नेत्राय नम अध्यं ४५६ पूजा मोहादिक जिन जीतियो, सोई जगमे नाम ।
१ ३२० सो तुम पद पायो महा, तुम पदकरू प्रणाम॥ ह्रीप्रहं जगजयिनेनम अध्यं ।४५७।।
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सिद्ध०
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जो तुम धर्म प्रकट करि, जिय श्रानन्दित होय ।
भये कल्यान कर, तुम पद प्ररणम् सोय ॥ॐ ह्रीं श्रीं प्रप्रण्ये नम प्रध्यं । ४५८ रक्षा करि षट कायकी, विषय कषाय न लेश ।
त्रास हरी जमराजको, जयवन्तो गुरण शेष ॥ ॐ ह्री प्रह् दयामूर्तये नमःश्रर्घ्यं४५। सत्य श्रसत्य लखना करें, सोई नेत्र कहाय ।
पुद्गल नेत्र न नेत्र हो, सांचे नेत्र सुखाय ॥ॐ ह्री श्रीँ दिव्यनेश्राय नम ग्रर्घ्यं।४६०॥ सुरनर मुनि तुम ज्ञानतै, जानै निज कल्याण ।
ईश्वर हो सब जगतके, श्रानंद संपति खान ॥ ॐ ह्रीग्रहं अधीश्वरायनमःश्रघ्यं । ४६१ धर्माभास मनोक्तके, मूल नाश कर दीन ।
सत्य मार्ग बतलाइयो, कियो भव्य सुख लीन ॥ ही अहं धम्मँनायकाय नमः अयं ऋद्धिनमें परसिद्ध है, केवल ऋद्धि महान ।
सो तुम पायो सहज ही, योगीश्वर मुनि मान ॥ ॐ ह्रीमहंऋद्धीणाय नमःप्रर्घ्यं ४६३ जो प्रारणी संसारमे, तिन सबके हितकार । श्रानंदसों सब नमत है, पावै भवदधि पार ॥ ह्रौं श्रहं भूतनाथाय नमः श्रध्यं ॥४६४॥
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प्रारिणनके भरतार हो, दुख टारन सुखकार । सिद्ध. तुमाश्रय करिजीवसब, आनंद लहै अपार ॥ ही अहं भूतभर्ने नम अध्यं ।४६५। वि० सत्य धर्मके मार्ग हो, ज्ञान मात्र निरशंस। ३२२ तुम ही आश्रय पायके, रहै न अघको अंश ॥ही अहं जगत्पात्रे नमाअध्यं ॥४६६।।
अतुल वीर्य स्वशक्ति हो, जीते कर्म जरार । तुम सम बल नहीं और मे, होउ सहायअवार ॥ॐ ह्रीप्रहंअतुलबलायनमःप्रय ४६७ धर्म मूर्ति धरमीतमा, धर्म तीर्थ बरताय । स्व सुभाव सोधर्म है, पायो सहज उपाय॥ॐ ह्री प्रहं वृपाप नम मध्यं ।।४६८॥ हिंसाको वजित कियो, जे अपराध महान । परिग्रह पर प्रारंभ के, त्यागी श्री भगवान ॥ॐह्रींप्रहपरिग्रहत्यागोजिनायमम अध्यं सर्व सिद्ध तुम सुलभ कर, पायो स्वयं उपाय । सांचे हों वश करणको, जगमें मंत्र कराय ॥ॐ ह्री अहं मत्रकृते नम अध्यं ॥४७०॥ जितने कई शुभ चिह्न हैं, दीप्त अशेष स्वरूप । शुभ लक्षण सोहत अति, सहजे तुम शिवभूप॥ॐहोपहशुभलक्षणायनम अध्यं ।४७१
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लोकविषै तुम मार्गको, मानत हैं बुधवन्त । तर्क हेतु करुणा लिये, यातें माने संत ॥ही पह लोकाध्यक्षाय नम प्रध्य । ४७२ । काहूके वशमे नहीं, काहू नमत न शीश । कठिन रीति धारै प्रभू, नमू सदा जगदीश ॥ॐही प्रहं दुरोघ्रष्टाय नम प्रध्यं ।४७३ ३ दासनिके प्रतिपाल कर, शरणागति हितकार। भवि दुखियनको पोषकर, दियो अखं पदसार हीग्रह मव्यबन्धवे नम प्रय,४७४, निराकरण करि कर्मको, सरल सिद्ध गति धार । शिवथल जाय सुवास लहि, धर्म द्रव्यसहकार ॥ॐ ह्री मह निरस्तकर्माय नमःमर्थ्य ! मुनि ध्यावै पावै सुपद, निकट भव्य धरि ध्यान । पावे निज कल्याण नित, ध्यान योग तुममान ॥ॐह्रींप्रहपरमध्येजिनायनमाग्री रक्षक हो जगके सदा, धर्म दान दातार ।
प्रष्टम पोषित हो सब जीवके, बंदूभाव लगार ॥ ही पहूँ जगनापहराय नमः अध्य|४॥ पूजा मोह प्रचंड बली जयो, अतुल वीर्य भगवान ।।
३३२३ । शीघ्र गमन करि शिवगये, नमूहेत कल्याण ॥ॐ ह्री महं मोहारिजयाय नमः अध्य||
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तीन लोक शिरमौर तुम, सब पूजत हरषाय । मिद्ध० परमेश्वर हो जगतके, बंदत हूँ तिन पाय ॥ॐ ह्रीनहत्रिजगत्परमेश्वरायनमःप्रय ४७६ वि० लोकशिखरपर अचल नित, राजत है तिहुँ काल ।
सर्वोत्तम आसन लियो, लोक शिरोमरिणभाल ॥ॐ ह्रीमहविश्वासिनेनम अध्य|४८० विश्वभूति प्राणीनके, ईश्वर है भगवान । सबके शिरपर पग धरै, सर्व प्रान तिन मान ॥ॐ ह्रीमह विश्वभूतेशायनम मयं ४८१ मोक्ष संपदा होत ही, नित अक्षय ऐश्वर्य । कौन मूढ़ कौड़ी लहै, सर्वोत्तम धनवर्य ॥४ह्रीमहं विभवाय नमःअयं ।।४८३।। त्रिभुवन ईश्वर हो तुम्हीं, और जीव है रंक । तुम तज चाहै औरको, ऐसो को बुध बंक ॥ ह्रीग्रह त्रिभुवनेश्वराय नमःप्रय । उत्तरोत्तर तिहुँ लोकम, दुर्लभ लब्धि कराय। तुम पद दुर्लभ कठिन है, महा भाग सो पाय ॥ॐ ह्रीअर्हत्रिजगदुर्लभाय नम अध्यं .बढवारी परणामसो, पूर्ण अभ्युदय पाय ।
गय ॥ॐ ह्रीं मह प्रभ्युदयाय नम प्रध्यं ॥४८॥
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। तीन लोक मंगल करण, दुखहारण सुखकार । सिद्ध हमको मंगल द्यो महा, पूजो बारम्बार॥हीमहंत्रिजगन्मगलोदयायनम प्रध्या४८६ १६ पाप धर्मके सामने, और धर्म लुप जॉय ।
धर्म चक्रायुध धरो, शत्रु नाश तब पाँय।। ह्रीमहं धर्मनक्रायुधाय नमःमध्य।। । सत्य शक्ति तुम ही सही, सत्य पराक्रम जोर ।
हैप्रसिद्ध इस जगतमे, कर्म शत्रु शिरमोर ॥ ह्रींप्रह मद्योजातायन नम अध्य।।४८८ 5 मंगलमय मंगलकरण तीन, लोक विख्यात । । समररणध्यानसु करतही, सकलपापनाशि जात ॥ ह्रीपहनिमोफमगलाय नम'प्रध्य।
द्रव्य भाव दऊ वेद विन, स्वातम रति सुख मान ।
पर आलिंगन रतिकरण, निरइच्छुकभगवान ॥ ह्रीं प्रहं प्रवेदाय नम'प्रय ४६० ई घातिरहित स्वपर दया. निजानन्द रसलीन।
अष्टम सखसों अवगाहन करै, संत चरण आधीन ॥ ह्रीपहं प्रप्रतिघाताय नम प्रध्या४६॥ पूजा निजानन्द स्व-देशमें, खंड खंड नहीं होय । पूरण अविनाशी सुखी, पूजत हूँ भूम खोय॥ही ग्रहं पच्छेद्याय नमःप्रय ४२
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सिद्ध समान सु शुभ नहीं, और नाम विख्यात ।
सिद्ध० कभू न जगमे जन्म फिर, सोई हढ़ कहलात ॥ॐ ह्रीं अहं दृढीयसे नमः प्रर्घ्यं ॥ ४१३॥ जन्म मरणके कष्ट से; सर्व लोक भयवंत ।
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.ताको नाश अभय कररण, तुम्हे नमे जियसंत ॥ॐ ह्रीं श्रहं भ्रमयकराय नम प्रर्घ्यं । ४१४
ज्ञानानन्द स्व लक्ष्मी, भोगत हो निरखेद ।
महाभोग या भये, है स्वाधीन प्रवेद ॥ॐ ह्री ग्रहं महामोगाय नम अर्घ्यं ||४१५।। असाधारण असमान हो, सर्वोत्तम उतकृष्ट ।
परसो भिन्न खिन्न हो, पायो पद विनष्ट ॥ॐ ह्रीं श्रहं निरौपम्यायनम मध्यं । ४१६ • दश लक्षरण शुभ धर्मके, राजसम्पदा भोग । नायक हो धर्म, पूजि नम तिहुँ योग ही धर्मसाम्राज्यनाथकायनमःश्रर्घ्यं अधिपति स्वामि स्वभाव- निज, पर कृत भाव विडार । तिहू वेद रति मान बिन, संपूररण सुखकार ॥ ॐ ह्री महं निर्वेदप्रवृत्ताय नमः अयं ४६८ - यथायोग्य पद पाइयों, यथायोग्य संपूर्ण ।
नमू त्रियोग संभारिके, करू पाप मल चूर्ण ॥ॐ ह्रीं सपूर्णयोगिने नमःप्रयं । ४११
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६ सब इन्द्रिय मन रोकक, पारोहरण तिस भाव । सिद्ध है श्रेणी उच्च चढ़ावमे, तत्पर अन्त सुपाव ॥ ह्रींसह समारोहणतत्पराय नम.अध्यं । ।
ई एकाश्रय निज धर्ममे, परसों भिन्न सदीव । १ सहज स्वभाव विराजते, सिद्धराज सबजीव॥ह्रींअहं सहजसिद्धस्वरूपाय नमःअध्यं । ३ राग द्वेष विन सहज ही, राजत शुद्ध स्वभाव।
मन विकल्प नहीं भावमें, पूजत हों धरि चाव॥ॐह्रींग्रहं सामायिकाय नम मयं । । निजानन्द निज लक्षमी, भोगत ग्लानि न होय । अतुल वीर्य परभावतै, परमादी नहीं होय॥ ह्रीमहं निष्प्रमादाय नमःअध्यं ।५. है अनादि संतान करि, कभी भयो नहीं आदि । नित्य शिवालय पूर्णता, बसै जगत अघवादि॥ह्री प्रहप्रकृताय नम अयं ।५०४३ पर पदार्थ नहीं इष्ट है, निजपदमे लवलीन ।
अष्टम विघ्न हरण मंगल करण, तुम पद मस्तक दीन ॥ॐ ह्रीपहँ परममावाय नमाप्रयं पूजा नित्य शौच संतोष मय, पर पदार्थसों रोक ।
३३२७ निश्चय सम्यक् भाव मय, है प्रधान धू धोक॥ॐ ह्री ग्रहं प्रधानाय नमःअध्यं ५.६।।
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ज्ञान ज्योति निज धरत हो, निश्चल परम सुठाम । लोकालोक प्रकाश कर, मै बंदूंसुखधाम ॥ॐ ह्रीं महस्वमासपरमासनाय नमःमध्य। एक स्थान सु थिर सदा, निश्चय चारित भूप । शुध उपयोग प्रभावतें, कर्म खिपावन रूप ॥ॐह्रींहं प्राणायामचरणाय नम अध्यं ।। विषय स्वादसो हट रहै, इन्द्री मन थिर होय । निज प्रातम लवलीन है, शुद्ध कहावै सोय ॥ॐ ह्रीमहं शुद्धप्रत्याहारायनम अध्यं ५० इन्द्री विषयन वश रहे, निज प्रातम लवलाय । सो जिनेन्द्र स्वाधीन है, बंदू तिनके पाय॥ॐ ह्रीपहँ जितेन्द्रियाय नमःमध्यं ॥१०॥ ध्यान विषै सो धारणा, निज प्रातम थिर धार । ताके अधिपति हो महा, भये भवार्णव पार ॥ॐ ह्री महं धारणाधीश्वरायममःमध्य रागादिक मल नाशिके, ध्यान सु धर्म लहाय । अचल रूप राजै सदा, बर्दूमन वच काय॥ह्रीप्रहं धर्मध्याननिष्ठायनम मध्यं ।५१२ पूजा निजानन्दमे मगन है, पर पद राग निवार । समदृष्टी राजत सदा,हमें करो भव पार॥ॐ ह्रीं प्रहं ,समाधिराजे नमःमध्यं ॥५१३।
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वीतराग निर्विकल्पं है, ज्ञान उदय निरशंस। समरसभाव परम सुखी, नमत मिटै दुख अंश ॥ ही पहंस्कृरितममरसीमावायनम
एकै रूप विराजते, नय विकल्प नहिं ठौर। सिद्ध वचन अगोचर शुद्धता, पापविनाशो मोर ॥ॐ ह्रीं ग्रह एकीमायनयरूपाय नमःप्रयं
परम दिगम्बर मुनि महा, समदृष्टी मुनिनाथ।
ध्या पावं परम पद, नमू जोर जुग हाथ ॥ॐ ह्री महनिग्रन्यनाथायनमःपय ५१६३ । योग साधि योगी भये, तिनको इन्द्र महान।
ध्यावत पावत परम पद, पूजत निज कल्याण ॥हीमहंयोगोन्द्रायनम अध्य।५१७ ॥ । शिव मारग सिद्धांतके, पार भये मुनि ईश।
तारण तरण जिहाजहो, तुम्हेनमूनित शीश॥ह्रीमहं ऋषये नम अध्यं ॥५१८॥ निज स्वरूपको साधिकर, साधु भये जग माहि । निजपर हितकर गुणधरै, तीनलोकनमिताहि॥ ह्रीमहं माधवे नम प्रत्र्यं ॥५१॥ पूजा रागादिक रिपु जीतके, भये यती शुभ नाम ।
१ ३२९ धर्म धुरंधर परम गुरु, जुगपद करू प्रणाम ॥*हीग्रह पतये नमःमध्यं ॥२०॥
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पर संपतिसू विमुख हों, निजपद रुचिकरि नेम ।
मुनि मन रंजन पद महा, तुम धारत हो एम॥ ॐ ह्री अह मुनये नमःअध्य।५२१॥ वि० महाश्रेष्ठ मुनिराज हो, निज पद पायौ सार। । महा परम निरग्रन्थ हो, पूजत हूँ मन धार॥ ह्रीमह महर्षिणे नम अयं ।।५२२।।
साधु भार दुर गमन हैं, ताहि उठावन हार। शिव-मन्दिर पहुँचात हो, महाबली सुखकार ॥ ह्रीमहंसाधुधौरेयायनम भयं५२॥ । इन्द्री मन जित जे जती, तिनके हो तुम नाथ ।
परम्परा मरजाद धर, देहु हमें निज साथ ॥ॐ ह्रीं अहं यतीनाथाय नमःअध्यं ।५२४। ६ चार संघ मुनिराजके, ईश्वर हो परधान ।
पर हितकर सामर्थ्यहो, निज समकरिभगवान ॥ॐही अहंमुनोश्वराय नम अध्यं । | गणधरादि सेवक महा, तिन आज्ञा शिरधार । ६ समकित ज्ञान सु लक्षमी, पावत, निरधार ॥ ही अहं महामुनये नमःअध्यं ।५२६॥ अष्टम
महामुनि सर्वस्व हो, धर्म मूति सरवांग । ३ तिनको बंदू भाव युत, पाऊं मै धर्मांग ॥ ॐ ह्री भर्ह महामोनिने ममाप्रयं ।।५२७॥
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इष्टानिष्ट विभाव विन, समदृष्टी स्वध्यान । । मगन रहै निज पद विषै, ध्यान रूप भगवान॥ॐ ह्रीपह महाध्यानिने नम मध्यं । ,
। स्व सुभाव'नहीं त्याग है, नहीं ग्रहण पर माहि। सिद्ध पाप कलाप न आपमे, परम शुद्ध नमूताहि ॥ॐ ह्री प्रहं महानतिने नम.प्रध्या५२९ ।
क्रोध प्रकति विनाशके, धरै क्षमा निज भाव। , समरस स्वादसु लहत है, बंदू शुद्ध स्वभाव हीमह महामाय नमःप्रध्यं ॥५३012
मोह रूप सन्तापविन, शीतल महा स्वभाव । पूरण सुंख'पाकुल नहीं, बंदू मनधर चाव ॥ ही प्रहमहाशोतलायनम प्रन्यं ५३१ । - मन इन्द्रिय के क्षोभ विन, महा शांति सुखरूप। निजपद रमरण स्वभाव नित,में बंदू शिवभूप॥ होमहं महाशाताप नमःप्रयं ।। मन इन्द्रिय को दमन कर, पायो ज्ञान अतीन्द्र । स्वाभाविक स्वशक्ति कर बंदू भये जितेन्द्र ॥ह्रोमह महोदयाप नम मध्य ५३३॥ पर पदार्थ को क्लेश तजि, व्याप निजपद माहि। स्वच्छ स्वभाव विराजते,पूजत हूँ नित ताहि ॥ॐ ह्रींग्रहं नितंपायनमःमध्यं ।५३४॥
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संशयादि दृष्टी नहीं, सम्यक ज्ञान मझार ।
सब पदार्थ प्रत्यक्ष लख, महा तुष्ट सुखकार ॥ ॐ ह्रीग्रह निर्भ्रातायनम अयं । ५३५ शांतिरूप निज शांति गुरण, सो तुमही मे पाय ।
निज मन शांति सुभावधर, पूजत हू युगपाय ॥ ॐ ह्री ग्रह प्रशाताय नमः प्रर्घ्यं । ५३६ मुनि श्रावक द्वै धर्मके, तुम अधिपति शिवनाथ ।
भविजनको आनंद करि, तुम्हें नवाऊं माथे ॥ह्रोग्रहं धर्माध्यक्षायनम ग्रर्घ्यं । ५३७ दया नीति बरताइयो, सुखी किये जगजीव । कल्पित रागग्रसत नहीं, जानत मार्ग सदीव ॥ ॐ ह्रीं श्रीं दयाध्वजायनमःश्रध्यं । ५३८ । केवल ब्रह्म स्वरूप हो, अन्तर बाह्य प्रदेह |
ज्ञान ज्योतिधन नमत हूँ मनवचतनधरि नेह ॥ ॐ ह्रीग्रहं ब्रह्मयोनये नमःश्रर्घ्यं।५४०। स्वयं बुद्ध श्रविरुद्ध हो, स्वयं ज्ञान परकाश ।
निज परभाव दिखात हो, दीपकसमप्रतिभास ॥ ॐ ह्रीं प्रहस्वयबुद्धाय नमः मध्ये ५४० रागादिक मल नाशियो, महापवित्र सुखाय । शुद्ध स्वभाव धरै करै, सुरनर युति न श्रधाय ॥ॐ ह्री पूतात्मने नम म्रध्यं । ५४१
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वीतराग श्रद्धानता, संपूरण वैराग ।
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हीग्र प्रमदमावायनम ग्रयं । ५४३
सिद्ध द्वेषरहितशुभगुरणसहित, रहू सदापगलाग ॥ ॐ ही ग्रहं स्नातकाय नमः प्रन्ये ॥ ५४२१ माया मद श्रादिक हरे, भये शुद्ध सुख खान । निर्मल भाव थकी जजू, होत पाप की हान अतुल वीर्य जा ज्ञानमें, सूर्य समान प्रकाश । मोक्षनाथ निज धर्म जुत, स्व ऐश्वर्य विलास ॥ह्रीम परमैश्वपयतम प्रध्यं । ५४४ मत्सर क्रोध जु ईर्ष्या, पर में द्वेष सुभाव ।
सो तुम नाशो सहजी, निंदितदुषित विभाव ॥ प्रीतमत्सराय नम प्रयं । धरम भार सिर धारकर, समाधान परकाज ।
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तुमसमश्रेष्ठ न धर्म अरु, तारण तरणजिहाज ॥ ॐ ह्रीमह्यमनृपायनम प्रध्य ५४६ क्रोध कर्म जडसे नसौ, भयो ज्ञोभ सब दूर |
महा शांति सुखरूप हो, पूजत अघ सब चूर ॥ होप्रत्रक्षोमाय नमः श्रर्घ्यं । ५४७ इष्टमिष्ट बादरझरी, विद्युत विधि कर खण्ड |
. जिष्णुमहा कल्याणकर, शिवमग भागप्रचण्ड ॥ ह्रीममहाविघिसडायनम श्रध्य
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अमृतमय तुम जन्म है, लोक तुष्टताकार । सिद्ध जन्म कल्याणक इन्द्र कर,क्षीरनीर करधार॥ह्रीमहंप्रमृतोद्भवायनम प्रध्या५४६ वि० इन्द्री विषय सुविषहरण, काम पिशाच विडार । ३३४ मूर्तीक'शुभ मंत्र हो, देव जजै हित धार ॥ ह्री महं मत्रपतये नमःप्रयं ।।५५० ॥
'सौम्य दशा प्रकटी घनी, जाति विरोधी जीव । वैर छांड समभाव धर, सेवत चरण सदीव ॥ ह्रींप्रहं निरसौम्यमावायनम प्रय पराधीन इन्द्री विना, राग विरोध निवार । हो स्वाधीन न कर्णपर, स्वयं सिद्ध सुखकार ॥होमहस्वतन्त्राय नम'प्रध्या५५२ ब्रह्मरूप नहीं बाहय तन, संभव ज्ञान स्वरूप । स्वयंप्रकाश विलास धर,राजत अमल अनूप ॥ ह्रीमहंग्रह्ममम्मवायनमःमध्यं५५३ पानन्दधार सु मगन है, सब विकल्प दुख टार ।
प्रष्टम पर प्राश्रित नहीं भाव है, पूजू आनंद धार॥ ही अहं सुप्रसन्नाय नम प्रध्यं ।५५४) पूजा परिपूरण गुरण सीम है, सर्व शक्ति भण्डार ।
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वकार।।ॐहीं पहं गुणधिये नमःप्रध्यं ५५५।'
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ग्रहरत्यागको भाव तज, शुभ वा अशुभ प्रभेद ।
व्याधिकार है वस्तुमे, तुम्हे नमू निरखेद ॥ ही पर्हपुण्यपापनिरोधकाय नमःप्रये। सूक्षम रूप अलक्ष है, गरणधर आदि अगम्य ।
श्राप गुप्त परमातमा, इन्द्रिय द्वार अरम्य ॥ॐ ह्रीं ममागम्यरूपायनम अन्तरगुप्त स्व आत्मरस, ताको पान करात ।
प्रनित्मानम प्रप्यं । ५५६
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पर प्रवेश नहीं रंच है, केवल मग्न सुजात ॥ीग्रहं सुगुप्तात्मन नम प्रयं । ५५८ निजकारक निज कर्णकर, निजपद निज श्राधार । सिद्धकियो निज रस लियो, पूजतहू हितकार ॥ नित्य उदै बिन अस्त हो, पूरण दुति घन श्राप ग्रह न राहू जास शशि, सो हो हर सन्ताप ॥ लियो अपूरव लाभको, अचल भये सुखधाम । पूज रचं जे भावसों, पूर्ण होइ सब काम है प्रशंस तिहुँ लोकमें, तुम पुरुषार्थ उपाय । पायो धर्म सुधामको, पूजों तिनके पाय ॥ ॐ ही पहुँ महोपरापाय नम.प्रत्र्यं ॥५६२।
निरुपमानमप्रणयं ५६०
ही महँ महोदय नम ग्रयं ॥६२॥
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गरणधरादि जे जगतपति, तथा सुरेन्द्र सुरीश । तुमको पूजत भक्तिकरि,चरणधरै निजशीश॥ॐ ह्रीनहजगत्पितामहायनम अत्र्यं तुमहीसो भवि सुख लहै, तुम विन दुख ही पाय । नेमरूप यही है तुम्हें, महानाम हम गाय ॥ॐ ह्रीप्रहमहाकारुणिकायनम अध्यं ।५६४ महासुगुण की रास हो, राजत हो गुण रूप । लौकिक गुण औगुरगसही, सब ही द्वष सरूपहीमहशुद्धगुणाय नमःमध्य५६५ जन्म मरण आदिक महा, क्लेश ताहि निरवार । परम सुखी तुमको नम्,पाऊ भवदधि पारहीमहमहाक्लेशनिवारणायनम.प्रर्घ्य रागादिक नहीं भाव है, द्रव्य देह नहीं धार । दोऊ मलिनता छांडिके, स्वच्छ भये निरधार ॥ ह्रीमह महाशुचयेनम अध्यं ५६७ प्राधि व्याधि नहीं रोग है, नित प्रसन्न निज भाव । प्राकुलताविनशांति सुख, धारतसहज सुभाव॥ ह्रीमह भाजे नम प्रटी ।।५६८। पूजा यथायोग्य पद थिर सदा, यथायोग्य निज लीन । अविनाशी अविकार है, नमैं संत चित दीन॥ॐ ह्रीमहसदायोगाय नम अगे।५६९।
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स्वामृत रसको पान करि, भोगत है निज स्वाद ।
पर निमित्ति चाहें नहीं, करै न तिनको याद ॥ ह्रीं श्रीं सदाभोगाय नमःश्रध्यं ५७० निर उपाधि निज धर्ममें, सदा रहै सुखकार ।
रत्नत्रयकी मूरती, अनागार ग्रागार ॥ ॐ ह्रीं श्रीं सदाभृतये नम' श्रयं ॥ ५७२।। रागद्व ेष नहीं मूल है, है मध्यस्थ स्वभाव |
ज्ञाता दृष्टा जगतके, परसो नही लगाव ॥ॐ ह्रीं ग्रहं परमोदापोनाय नमः अष्यं आदि अन्त विन वहत है, परम भाम निरधार ।
अन्तर परत न एकछिन, निज सुख परमाधार ॥ ॐ ह्री ग्रह शाश्वताय नम श्र मूल देह श्राकृति रहैं, हो नहिं अन्य प्रकार ।
सत्याशन इम नाम हैं, पूजूं भक्ति लगार ॥ॐ ह्रीं श्रीं सत्याशने नमः प्रयं परम शांतिसुखमय सदा, क्षोभ रहित तिस स्वामि ।
तीन लोकप्रतिशांतिकर, तुम पद करूं प्रणामि ॥ॐ ह्री ग्रहं गातिनायकाय नम प्रर्घ्यं । काल अनंतात करि, रुल्यो जीव जगमाहिं । श्रात्मज्ञान नहीं पाइयो, तुम पायो है ताहि ॥ॐ ह्री श्रप्रपूर्वविद्याय नम ग्रघ्यं । ५७६
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यथाख्यात चारित्रको, जोनो मानो भेद । सिद्ध० आत्मज्ञान केवल थकी, पायो पद निरभेद ॥ ही अहं योगज्ञायकाय नमःप्रय|५७७। वि० धर्ममूर्ति सर्वस्व हो, राजत शुद्ध स्वभाव ।
धर्ममूर्ति तुमको नमू,पाऊं मोक्ष उपाव॥ ॐ ह्री अहं धर्ममूर्तये नम. अयं ।।५७८।। स्व प्रातम परदेशमें, अन्य मिलाप न होय।। प्राकृतिहै निजधर्मकी, निज विभावको खोय॥ही अहंमदेहाय नम अयं ।५७६ स्वामीहो निजात्म के, अन्य सहाय न पाय । स्वयं सिद्ध परमातमा, हम पर होउ सहाय॥ ह्रीमहं ब्रह्मेशाय नम अर्घ्य ।५८० । निज पुरुषारथ करि लियो, मोक्ष परम सुखकार । करना था सो करि चुके, तिष्ठ सुख आधार ॥ॐ ह्री प्रहं कृतकृतये नम अयं ।५८१ असाधारण तुम गुण धरत, इन्द्रादिक नहीं पाय । लोकोत्तम बहुमान्य हो, बदू हूँ युग पाय॥ ही महं गुणान्मकाय नम प्रध्य।।५८२।। पूजा तुम गुण परम प्रकाश कर, तीन लोक विख्यात । सूर्य समान प्रतापधर, निराकरण उघरात ॥ॐहीमह निराकरण गुणप्रकाशायनम •
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समय मात्र नहीं प्रादि हैं, वहै अनादि अनंत।
तुम प्रवाह इस जगतमें, तुम्है नमै नित संत ॥ ह्रीअहं निनिमेषाय नम अध्यं ।५८३॥ 8 योग द्वारा विन करम रज, चढे न निज परदेश ।
ज्योविन छिद्र न जलग्रहै, नवका शुद्ध हमेश॥ ह्रींग्रह निराश्रवायनम अध्यं परम ब्रह्म पद पाइयो, पूरण ज्ञान प्रकाश । । तीन लोकके जीव सब, पूजें चरण निवास॥ॐ ह्रींअहमहाब्रह्मपतयेनम प्रय । द्रव्य पर्याथिक दोऊ, साधत वस्तु स्वरूप ।
गुरण अनंत अवरोधकर, कहत सरूप अनूप॥ॐ ह्री अहं सुनयतत्त्वज्ञाय नमः अयं । है, । सूर्य समान प्रकाश कर, कर्म दुष्ट हनि सूर । शरण गही तुमचरणकी,करो ज्ञान दुति पूरि ॥ॐ ह्रीमहं सूरये नमःअध्यं ।।५८८।। तुम सम और न जगतमे, सत्यारथ तत्त्वज्ञ । सम्यग्ज्ञान प्रभावतें, हो प्रदोष सर्वज्ञ ॥ॐ ह्रीं अहं तत्त्वज्ञाय नम मध्यं ॥५८६।। पूजा तीन लोक हितकार हो, शरणागति प्रतिपाल । भब्यनि मनानंद करिबंदूंदीनदयाल ॥ॐ ह्रीं महं महामित्राय नम अध्यं ।५६०। 5.
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समता मुखमे मगन है, राग द्वेष संक्लेश । सिद्ध ताकोनाशि सुखीभये,युगयुग जिनो जिनेश ॥ॐ ह्रीमहं साम्यमावधारकजिनायनमः
निरावरण निज ज्ञानमें, संशय विभूम नाहि । सम्यग्यज्ञान प्रकाशते, वस्तु प्रमाण दिखाय॥ॐ ह्रीग्रहप्रक्षीणबन्धायनम अध्यं५६२ एक रूप परकाश कर, दुविधि भाव विनशाय। पर निमित्त लवलेश नहीं, बंदू तिनके पाय ॥ॐही अहं निद्वन्द्वाय नम अध्यं ।५६३। मुनि विशेष स्नातक कहै, परमातम परमेश। तुम ध्यावत निर्वाण पद, पावै भविक हमेश ॥ॐही अहस्नातकाय नम अध्यं ॥५६४॥ पंच प्रकार शरीर बिन, दीप्त रूप निजरूप । सुर मुनि मन रमणीय हैं, पूजत हूँ शिवभूपहीअहं अनगाय नम.अयं 1५६५। द्वय प्रकार बन्धन रहित, नित हो मोक्ष सरूप। भविजन बंध विनाशकर, देहो मोक्ष अनूप ॥ ह्री प्रहं निर्वाणाय नमःअध्यं ॥५६॥ पूजा सगुण रत्नकी राशके, आप महा भण्डार। अगम अथाह विराजते, बद्भाव विचार ॥ ली अहं मागराय नम अयं ।।५६७
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मुनिजन ध्यावै भावयुत, महा मोक्षप्रद साध । सिद्ध भये मै नमत हूँ,चहूँ संघ आराध ॥ॐ ह्री प्रह महामारावे नम पय॑ ।।२६८। ६ ज्ञान ज्योति प्रतिभासमें, रागादिक मल नाहिं। विशद अनुपम लसतहो, दीप्तज्योतिशिवराह| ह्रींप्रविमला मायनम:मध्य ५६५ द्रव्यभाव मल नाशकर, शुद्ध निरंजन देव । निजातममें रमत हो, पाश्रय विन स्वयमेव ॥ॐ ह्रींमहं शुद्धात्मने नमःमभ्यं ।६०.१ शुद्ध अनन्त चतुष्ट गुरण, धरत तथा शिवनाथ ।
श्रीधर नाम कहात हो, हरिहर नावत माथ ॥ ह्रींप्रहं श्रीधराय नम. पथ्यः६.१॥ ६ मरणादिक भयसे सदा, रक्षित हैं भगवान । । स्वयं प्रकाश बिलासमे, राजत सुख की खान ॥ॐ ह्रींपर्हमरणभयनिवारणाय नमः ६ राग द्वेष नहीं भावमे, शुद्ध निरंजन प्राप। ज्योकत्यो तुम थिर रहो, तनक न व्याप पाप ॥ॐ ह्रीमहंप्रमनमायायनम अध्य६०२ पूजा भवसागर से पार हो, पहँचे शिवपद तीर।
३३४१ भावसहिततिन नमत,लहून पुनि भव पीर ह्रींपहं उद्धरणायनमामय।६०४१४
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सिद्ध ध्यावत ह"
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अग्निदेव या अग्नि दिश, ताके देव विशेष । ध्यावत है तुम चरणयुग,इन्द्रादिक सुर शेष ॥ ह्रीमहंअग्निदेवाय नम.मध्य।६०५॥
विषय कषाय न रंच है, निरावरण निरमोह। १२१ इन्द्री मनको दमन कर, बंदूंसुन्दर सोह॥ॐ ह्री प्रहं सयमाय नम.अध्यं ॥६०६॥ ६.मोक्षरूप कल्याण कर, सुख-सागरके पार।
महादेव स्वशक्ति धर, विद्या तिय भरतार॥ॐह्रीं महं शिवाय नम अध्यं ।६०७॥ पुष्पभेट धरजजत सुर, निजकर अजुलि जोड़। कमलापति कर कमलमे, धरै लक्ष्मी होड़॥ह्री अहं पुष्पाजलये नमःअध्यं ।६०८। । पूरण ज्ञानानद मय, अजर अमर अमलान । अविनाशीध वअखिलपद,अधिकारीसबमान॥ह्रींप्रहं शिवगुणायनम अध्यं ।६०६ रोग शोक भय आदि विन, राजत नित प्रानन्द ।
अष्टम खेदरहित रतिरति विन, विकसत पूरणचंद्र ॥होंग्रह परमोत्साहजिनायनम पूजा जो गुरण शक्ति अनन्त है, ते सबै ज्ञान मझार।
३४२ ह्रीं मह ज्ञानाय नम मध्य ६११॥
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परम पूज्य परधान है, परम शक्ति प्राधार ।
सिद्ध परम पुरुष परमातमा, परमेश्वर सुखकार ॥ॐ ह्री परमेश्वराय नम ग्रर्घ्यं । ६१२॥ दोष प्रकोष प्ररोष हो, सम सन्तोष श्रलोष ।
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पंच परम पद धारियत, भविजनको परिपोष ॥ॐ ह्रीश्रविमलेशायनम प्रध्र्घ्यं६१३ पचकल्याणक युक्त है, समोसररण ले आदि ।
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इन्द्रादिक नितकरत है, तुम गुरणगरण अनुवाद ॥ ॐ ह्रीं प्रयशोधराय नमः मध्य । ६१४ कृष्ण नाम तीर्थेश है, भावी काल कहाय ।
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सुमति गोपियन संग रमत, निजलीला दर्शाय॥ॐ ह्री प्रहं कृष्णाय नम प्रयं । ६१५ । सम्यग्ज्ञान जु समति धर, मिथ्या मोह निवार । परहितकर उपदेश है, निश्चय वा व्यवहार ॥ह्रीग्रर्हं ज्ञानमतये नमःमध्य ,६१६ वीतराग सर्वज्ञ हैं, उपदेशक, हितकार | सत्यारथ परमारण कर, अन्य सुमति दातार ॥ह्री महं शुद्धमतये नमःश्रध्यें ॥६॥७
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मायाचार न शल्य है, शुद्ध सरल परिणाम । ज्ञानानंद स्वलक्षमी, भोगत हैं अभिराम ॥ ॐ ह्रींअहं, मद्राय नमः श्रर्घ्यं ।। ६१८ ।।
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शील स्वभाव सुजन्म लै, अन्त समय निरवारण। सिद्ध० भविजन आनंदकार है, सर्व कलुषता हान ॥ॐ ह्रींअहं शांतिजिनायनमाअध्या१॥ वि० धरम रूप अवतार हो, लोक पापको भार ।
मृतक स्थल पहुँचाइयो,सुलभकियोसुखकार ह्रीं ग्रह वृषमाय नम. अयं ।६३० अन्तर बाहिर शत्रुको, निमिष पर नहीं जोर। विजय लक्षमी नाथ हो, पूजू द्वय कर जोर ॥ॐह्रीं प्रहं अजिताय नमःअध्य||६२१॥ तीन लोक आनद हो, श्रेष्ठ जन्म तुम होत । स्वर्ग मोक्ष दातार हो, पावत नहीं कुमोत ॥ॐ ह्रीं महं समवाय नम.अयं ।६२२। परम सुखी तुम आप हो, पर आनंद कराय। तमको पूजत भावसों, मोक्ष लक्षमी पाय ॥ ह्रीं अहं मभिनन्दनाय नमःप्रया६२३ सब कुवादि एकांतको, नाश कियो छिन माहि। भविजन मन संशयहरण, और लोकमें नाहिं॥ ह्रींसह सुमतयेनम.मध्य|६२४॥ भविजन मधुकर कमल हो, धरत सुगन्ध अपार । तीन लोकमे विस्तरी, सुयश नामको धार ॥ ह्रींमहं पचप्रमायनम अर्घ्य ।६२५॥
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पारस लोहा हेम करि, तुम भव बंध निवार। मोक्ष हेतु तुम श्रेष्ठ गुरण, धारत हो हितकारी प म ९१६
तीन लोक प्राताप हर, मुनि-मन-मोदन चन्द । सिद्ध लोक प्रिय अवतार हो, पाऊमुख तुम चंद रानीपमा Part 11 । मन मोहन सोहन महा, धार रूप अनुप । दरशत मन प्रानंद हो, पायो निज रस कूप भी TETTE भव भव दाह निवार कर, शीतल भए जिनेश । मानो अमृत सीचियो, पूजत सदा सुरेश पाई गोगमापार म.प , तीर्थकर श्रेयांस हम देहो श्री शुम भाग।
श्रीसु अनंत चतुष्ट हो, और सकल दुरभाग 1 ARITAL GE. त्रिस नाड़ी या लोकमें, तुम ही पूज्य प्रधान ।
तमको पूजत भावसो, पाऊं मुख निरवाण गान TT Tran " द्रव्य भाव मल रहित है, महा मुनिनके नाय । इन्द्रादिक पूजत सदा, नमू पदांबुज माय || परिमापार मापा १२॥
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जाको पार न पाइयो, गरगधर और सुरेश। थकित रहै असमर्थ करि, प्रणमे संत हमेश।। ह्रीअहं अनतनाथायनम अयं ६३३
अनागार आगारके, उद्धारकः जिनराज। १४६ धर्मनाथ प्रणम् सदा, पाऊं शिवसुख साज॥हीअहं धर्मनाथाय नमःप्रयं ।६३०
शांति रूप पर शांति कर, कर्म दाह विनिवार । शांति हेतु बंदू सदा, पाऊं भवदधि पार॥ॐही अहं शातिनाथाय नम.प्रयं ।६३५॥ क्षुद्र वीर्य सब जीवके, रक्षक है तीर्थेश । शरणागत प्रतिपाल कर, ध्यावै सदा सुरेश ॥४ह्रो ग्रह कुन्युनाथायनमःप्रय ६३६ पूजनीक सब जगतके, मंगलकारक देव । पूजत है हम भावसो, विनशै अंघ स्वयमेव ॥ॐही अहं प्ररनाथाय नम प्रय।६३७॥ मोह काम भट जीतियो, जिन जीतो सब लोक । लोकोत्तम जिनराजके,नमूचरण दे धोक ॥ ह्रीमह मल्लिनाथाय नम अध्यं ६३८ पंच पापको त्यागकरि, भव्य जीव आनन्द ।
।। , ॐ ह्रीं अहं मुनिसुव्रताय नम अध्यं ।।६३६।।
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इ सुरनर मुनि नित नमन करि, जान धरम अवतार । तिनको पूजू भाव युत, लहूँ भवार्णव पार ॥ ही प्रहं नमिनायायनम प्रय॑६४० ।
नेम धर्म में नित रमे, धर्मधुरा भगवान । मिद्ध धर्मचक्र जगमे फिरे, पहुँचावे शिव थान ॥ ॐह्रौं पई नेमिनायाग
शरणागति निज पास दो, पाप फांस दुख नाश । तिसको छेदो मूलसों, देह मुकत गति वास ॥हीमहपाश्वनाथाय नम प्रध्य ।६४२॥
वृद्ध भावतें उच्चपद, लोक शिखर आरुढ । । केवल लक्षमी बर्द्धता, भई सु अन्तर गूढ ॥ ह्रीं ग्रह वर्द्धमानाय नम'मयं ।।६४३।। ६ अतुल वीर्य तन धरत है, अतुल वीयं मन बीच । ६ कामिन वश नही रंचभी, जैसे जल बीचमीच ॥ह्रींप्रहमहावीरायनम.प्रध्य। ६४४ ६ मोह सुभटकू पटकियो, तीन लोक परशंस ।
श्रेष्ठ पुरुष तुम जगतमें, कियो कर्म विध्वंस ॥ह्रीं प्रहं सुयोराय नम:प्रयं ॥१४५३ इमिथ्या-मोह निवार करि, महा सुमति भण्डार ।
१३४७ ३ शुभ मारग दरशाइयो,शुभअरुप्रशुभविचार ॥ॐ ह्रीं पहं सन्मतये नम.अध्य। ६४६
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निज आश्रय निर्विघ्न नित, निज लक्ष्मी भण्डार । चरणाम्बुजनितनमत हम,पुष्पांजलिशुभधार ॐ ह्रीग्रहमहापद्माय नम प्रम॑६४७ ।। हो देवाधीदेव तुम, नमत देव चउ भेव।
ह्रीं प्रहं सुरदेवाय नम अयं ।।६४।। निरावर्ण आभास है, ज्यो बिन पटल दिनेश। लोकालोक प्रकाश करि,सुन्दर प्रभा जिनेश ॥ॐ ह्री प्रहं सुप्रमाय नम अयं ॥ प्रातमीक जिन गुरण लिये, दीप्ति सरूप अनुप । स्वयं ज्योति परकाशमय, बंदत हूं शिवभूप ॥ॐ ह्रीं अहं स्वयप्रमाय नम अयं । निजशक्ती निज करण है, साधन वाह्य अनेक । मोहसभट क्षयकरनको, आयुध राशि विवेक ह्रीं अहं सर्वायुधाय नम अयं । जयजय सुरधुनि करत है, तथा विजय निधिदेव । तुम पद जे नर नमत है, पावै सुख स्वयमेव॥ ह्रीं अहं जयदेवाय नम मध्यं ॥ अष्टम तुम सम प्रभा न पोरमें, धरो ज्ञान परकाश ।
पूजा नाथ प्रभा जगमे भये,नमत मोहतम नाश ह्रीं अहं प्रमादेवाय नम अध्यं १६५९
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रक्षक हो षट्कायके, दया सिन्धु भगवान ।
सिद्ध शशिसम जिय श्राह्लादकरिपूजनीकधरिध्यान। हो म उदकाय नम. प्रयं । ६५४ समाधान सबके करै, द्वादश सभा मझार ।
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सर्वश्रर्थ परकाश कर, दिव्य ध्वनि सुखकार ॥ ॐही यह प्रश्नकीर्तये नमः प्रच्यं ॥ काहू विधि बाधा नहीं, कबहू नहीं व्यय होय ।
उन्नति रूप विराजते, जयवन्तो जग सोय ॥ॐ ह्री श्रहं जयाय नम प्रध्यं ।। ६५६ ॥ केवल ज्ञान स्वभावमे, लोकत्रय इक भाग ।
पूरणताको पाइयो, छांडि सकल अनुराग ॥ ॐ ह्री ग्रहं पूर्णत्रुवाय नमःप्रयं । पर प्रालिंगन भाव तज, इच्छा क्लेश विडार ।
निज संतोष सुखी सदा, पर संबंध निवार ॥ही ग्रहं निजात वसतुष्टजिनाय नम प्रध्यं मोहादिक मल नाशकर, अतिशय करि श्रमलान ।
विमल जिनेश्वर मै नमू, तीन लोक परधान॥ ह्रीम विमलप्रमायनम प्र. ६५६ प्रष्ट स्वपदमे नित रमत है, कभी न आरति होय । तुलवीर्य विधि जीतियो, नमूं जोरकरदोय॥ ही महावनाय नम. मध्यं । ६६०
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द्रव्य भाव मल कर्म है, ताको नाश करान । ' सिद्धः शुद्धनिरंजन होरहै, ज्यों बादल विन भान ॥ॐ ह्री प्रहं निर्मलाय नम अध्यं ।६६१॥ वि० तुम चित्राम अरूप है, सुरनर साधु अगम्य ।
निराकार निर्लेप है, धारत भाव असम्य ॥ ॐ ह्रीमह चित्रगुप्ताय नम अध्यं ।६६२।। मग्न भये निज आत्ममें, पर पदमें नहिं वास । लक्ष अलक्ष विराजते, पूरो मन की प्राश ॥ॐ ह्रीअहंसमाधिगुप्तये नम अध्य।।६६३।।। निजगुण प्रातम ज्ञान है, पर सहाय नहीं चाह । स्वयं भाव परकाशियो,नमत मिटै भव दाह ह्रीं अहं स्वयमुवे नम अध्यं ।६६४१ । मन मोहन सोहन महा, मुनि मन रमरण अनन्द । महातेज परताप हैं, पूरण ज्योति अमन्द ॥ॐ ह्री ग्रह कदय नमःअध्यं ।।६६५ । । विजय लक्ष्मी नाथ है, जीते कर्म प्रधान । तिनको पूजै सर्व जग,मै पूजो धरि ध्यान ॥ ह्रीमहं विजयनाथाय नम प्रध्य।६६६। पूजा गणधरादि योगीश जे, विमलाचारी सार। तिनके स्वामी होप्रभू, राग द्वष मल जार ॥ ही महं विमलेशाय नम अध्यं ।।६।।
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दिव्य अक्षर ध्वनि खिरै, सर्व अर्थ गुरणधार ।
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भविजन मन संशय हरन, शुद्ध बोध प्राधार ॥ॐ ह्रीप्रर्हद्विव्यवादायनम ग्रर्घ्यं । ६६८। वि०नहीं पार जा वीर्यको स्वाभाविक निरधार ।
३५१ सो सहजै गुण धरत हो, नमूं लहूँ भनपार ॥ ह्रीय प्रनन्त्रवीर्याय नम प्रर्घ्यं६६९ पुरुषोत्तम परधान हो, परम निजानंद धाम ।
चक्रपती हरिबल नमे, मै पूजूं निष्काम ही ग्रह महापुरुषदेवाय नम अर्घ्यं । ६७० । शुभ विधि सब आचरण हैं, सर्व जीव हितकार ।
श्रेष्ठ बुद्ध प्रति शुद्ध है, नमू करो भवपार ॥ॐ ह्री ग्रहं सुविधये नमोऽर्घ्यं ।।६७१।। है प्रमाण करि सिद्ध जे, ते हैं बुद्धि प्रमारण ।
सो विशुद्धमय रूप है, संशय तुमको भान ॥ॐ होमप्रज्ञापरिमाणाय नम' अर्घ्यं ६७२ समय प्रमाण निमित तनी, कभी अन्त नहीं होय ।
अविनाशी थर पद धरै, मैं प्रणम् हूँ सोय ॥ही हं श्रव्ययाय नम अर्घ्यं । ६७३। प्रतिपालक जगदीश है, सर्वमान परमान । श्रधिकशिरोमणिलोकगुरु, पूजतनितकल्यारण ॥ ॐह्री मर्हं पुराणपुरपाय नम प्रध्यें
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धर्म सहायक हो प्रभू, धर्म मार्ग को लीक ।
मर्यादा बंध प्रति, करण चलावन ठीक॥ॐ ह्रींसह धर्मसारथये नम प्रय।६७५ शिव मारग दिखलाय कर, भविजन कियो उद्धार । धर्म सुयश विस्तार कर, बतलायो शुभ सारहीअहं शिवकोतिजिनाय नम अध्या मोह अन्ध हन सूर्य हो, जगदीश्वर शिवनाथ । मोक्षमार्ग परकाश कर, नमजोर जुगहाथा॥ ह्रीपहंमोहाधकार विनाशकजिनाय नम मन इन्द्री व्यापार विन, भाव रूप विध्वंश । ज्ञान प्रतीन्द्रिय धरतहो,नमत नशै अघवंश!ॐ ह्रीअहं प्रतीन्द्रियज्ञानरूपजिनायनम पर उपदेश परोक्ष विन, साक्षात् परतक्ष । जानत लोकालोक सब,धारै ज्ञान अलक्ष॥ॐ ह्रीमहं केवलज्ञानजिनाय नम अयं ELE व्यापक हो तिहुँ लोकमें, ज्ञान ज्योति सब ठौर । तमको पूजत भावसों, पाऊं भवदधि अोर ॥ ह्रीं महं विश्वभूतये नमःमध्यं ।६०। पूजा इन्द्रादिक कर पूज्य हो, मुनिजन ध्यान धराय । तीन लोक नायक प्रभू, हमपर होउ सहाय॥ ॐ ह्रींग्रहं विश्वनायकाय नमःअयं ।
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तुम देवनके देव हो, महादेव है नाम ।। । विन ममत्व शुद्धात्मा, तुम पद करू प्रणाम ॥ॐ ह्री अहंदिगम्बराय नम अर्घ्य ६८२ १७३ सर्व व्यापि कुमती कहै, करो भिन्न विश्राम ।
जगसों तजी समीपता, राजत हो शिवधाम ॥ ह्रींग्रहं निरतरजिनायनम अर्घ्य ६८३ हितकारी अति मिष्ट है, अर्थ सहित गम्भीर । प्रियवाणी कर पोखते, द्वादश सभासु तीर॥ह्रीमह मिष्टदिव्यध्वनिजिनायनमःअध्यं ।
भवसागरके पार हो, सुखसागर गलतान । ६ भव्य जीव पूजत चरन, पावै पद निरवान ॥ ह्रीअहं भवातकाय नमःमध्य ।६८५ ॥ । नहीं चलाचल भाव हैं, पाप कलाप न लेश ।
हद परिणत निजात्मरति,पूजू श्रीमुक्तेश॥ह्रोप्रहं दृढव्रताय नम अर्घ्य ।६८६६ असंख्यात नय भेद है, यथायोग्य वच द्वार ।
अष्टम तिन सबको जानोसुविध,महानिपुरणमतिनार॥ ह्रीप्रहनयात्तु गायनम अध्य।६८७ पूजा क्रोधादिक सु उपाधि हैं, प्रात्म विभाव कराय।
१३५३ तिनको त्याग विशुद्ध पद,पायो पूजू पाय ॥ॐहीअहँ निष्कलकाय नम.अध्यं ।६८८०
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ज्यों शशि किरण उद्योत है, पूरणं प्रभा प्रकाश । सिद्ध० क
कलंधिार सौह सु इम, पूजते अघ-तम नाश ॥ ह्रीअहं पूर्णकलाघरायनमःमध्य ६८६ वि० जन्म मरणको अादि ले, जगम क्लेश महान । ३५४ तिसके हता हो प्रभू, भोगत सुख निर्वाण ॥ ह्रीमह सर्वक्लेशहराय नम अध्या६६.'
धू व स्वरूप थिर है सदा, कभी अन्त नहीं होय । अव्यांबांध विराजते, पर सहायको खोय ॥ॐ ह्रीमहं प्रौव्यरूपजिनायनम.प्रध्यं ६६१ व्यय उत्पाद सुभाव है, ताको गौण कराय।
अचलप्रनंत स्वभावमे तीनलोकसुखदाय ॥ह्रीअहं अक्षयानतस्वभावात्मकजिनाय 'स्व ज्ञानादि चतुष्ट पद, हृदय माहिं विकसायें। 'सोहंत है शुभ चिह्न करि,भवि आनंद कराय॥हीमहँश्रीवत्सलाछनायनमःअध्यं। । धर्म रीति परकट कियो, युगकी प्रादि मझार। - भविर्जन पोषे सुख सहित,आदि धर्मअवतार॥ॐ ह्रीमहंम टिब्रह्मणेनम अयं ।६६४ पूजा
चतुरानन परसिद्ध हैं, दर्श होयं चहुँ ओर। 'चउ अनुयोगबखानते, सब दुख नासौ मोर॥ ह्रीमहं चतुर्मुखाय नम अर्ण ।६९५॥
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जगत जीव कल्याण कर, धर्म मर्याद बखान । ब्रह्म ब्रह्म भगवान हो, महामुनी सब मान॥ॐ ह्रीमहं ब्रह्मणं नम पर्ण ॥६६६ प्रजापति प्रतिपाल कर, ब्रह्मा विधि करतार । मन्मथ इन्द्री वश करन, बंटू सुख आधार ॥ॐह्री महं विधाने नम अध्यं ॥६६॥ तीन लोककी लक्षमी, तुम चरणाम्बुज वास । श्रीपति श्रीधर नाम शुभ, दिव्यासन सुखरास ॥ ह्रीमह कममासनाय नम प्रश्नी । बहुरि न जगमें भमण है, पंचम गति में बास। नित्य अंमरता पाइयो, जरा मृत्युको नाश ॥ ह्री ग्रह मनम्मिने नमाअध्यं ।।६६६, । पांच काय पुद्गलमई, तामें एक न होय । । केवल प्रात्म प्रदेश ही, तिष्ठत है दुख खोय॥ही अहं प्रात्ममुवे नम अध्या ६ लोक शिखर सुखसों रहै, ये ही प्रभुता जान । धारत हैं तिहुँ लोकमे, अधिक प्रभा परधान ॥ ह्रींगहलोकशिखरदिवासिनेनमःअध्यं पूजा अधिकंप्रतापप्रकांश है, मोह तिमिरको नाश । शिवमग दिखलायत सही,सूरजसमप्रतिभास॥ॐहीहंसुरज्येष्ठाय नमःप्रयं।७०२।
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प्रजापाल हित धार उर, शुभ मारग बतलाय । सिद्ध० सत्यारथ ब्रह्मा कहै, तुमरे बंदूपाय ॥ॐ ह्री अहँ प्रजापतये नम.अध्यं ।।७०३।। वि० गर्भ समय षट्मास ही, प्रथम इन्द्र हर्षाय।
रत्नवृष्टि नित करत है, उत्तम गर्भ कहाय ॥ ह्रीग्रहं हिरण्यगर्भाय नम.प्रयं ।७०४ तुम हि चार अनुयोगके, अंग कहै मुनिराज। तुमसो पूरण श्रुत सही, नान्तर मंगल काज ॥ ह्रीमहं वेदांगाय नम अध्य।।७०५॥ तुम उपदेश थकी कहै. द्वादशांग गरगराज । पूरण ज्ञाता हो तुम्हीं, प्ररणममै शिवकाज ॥ॐ ह्री अहं पूर्णवेदज्ञानाय नमःअध्यं । पार भये भवसिंधु के, तथा सुवर्ण समान । उत्तम निर्मल थुति धरै, नमत कर्ममल हान ॥ॐ ह्रीअहं भवसिंधुपारगायनम अध्यं । सुखाभास पर निमित्तते, पर उपाधिते होत । स्वतः सुभाव धरो सही, सत्यानन्द उद्योत॥ॐ ह्रीअहँ सत्यानन्दाय नम अध्यं ७.८ मोहादिक परबल महा, सो इसको तुम जीत । औरनकी गिनती कहां, तिष्ठो सदा अभीत।।ह्री प्रहं अजयाय नम अध्य'७०६।
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दिव्य रत्नमय ज्योतिहो, अमित अकंप अडोल। मनवांछित फलदाय हो, राजत अखय अमोल ॥ ह्रीग्रहमनवांछितफलदाय नम • देह धार जीवन मुकत, परमातम भगवान । सर्यसमान सुदीप्त धर, महा ऋषीश्वर जान।। ह्रीं पहनीवनमुक्तजिनाय नम अध्य स्व भय आदिकसे परै, पर भय आदि निवार। पर उपाधि बिन नित सुखी, बंदूभाव सम्हार । ह्रींपहं गतानदायनम अध्य७१२ है ईश्वर हो तिहुँ लोकके, परम पुरुष परधान। ज्ञानानन्द स्वलक्ष्मी, भोगत नित अमलान ॥ॐ ह्रीं महं विष्णवे नम.प्रध्यं ।७१३।। रत्नत्रय पुरुषार्थ करि, हो प्रसिद्ध जयवंत । कर्मशत्रको क्षय कियो, शीश नमें नित संत॥हीं पहँ त्रिविक्रमाय नम प्रध्य ७१ सूरज हो शिवराहके, कर्म दलन बल सूर।
अप्टम संशय केतुनि ग्रहणसम, महासहजसुखपूर ह्रींपहँमोक्षमार्गप्रकाशकादित्यरूप जिनाय, पूजा सुभग अनंत चतुष्टपद, सोई लक्षमी भोग। स्वामी हो शिवनारिके,नमूजोरि तिहुँ योग॥ ह्रीपर्ह श्रीपतये नम:मयं ।७१६॥
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इ.इन्द्रादिक पूजत जिन्हैं। पंचकल्यारणक-थापः। मादिभत-पराक्रमको धरै, नमत'नस भव पाप ह्रीमहं पुरुषोत्तमायनमःअध्य७१७, वि०निज प्रदेश में बसत हैं, परमातमको वास।. ३५८ 'श्रीप मोक्षकनाथ हो; आप हि मोक्ष निवासहीअहंवैकुण्ठाधिपतयेनमःमध्ये ७१८
सर्व-लोक कल्याणकर, विष्णु नाम भगवान । श्री अरहंत स्व लक्ष्मी , ताके भरता जान ॥ॐ ह्रीं प्रहं सर्वलोकश्रेयस्करजिनामनम मुनिमन कुमुदनि मोदकर, भव संताप विताश । १ परण चन्द्र त्रिलोकमे, पूरण प्रभा प्रकाश ॥ ह्री प्रहं हृषीकेशाय नमोऽध्यं ॥७२.15 ६. दिनकर सम परकाश कर, हो देवनके देव । ब्रह्माविष्णु कहातहो,शशि समदुति स्वयमेव ॥ह्रींमह हरये नमोऽध्यं ।।७२१॥ स्वयं विभवके हो धनी, स्वयं ज्योति परकाश ।।
अष्टम । स्वयंज्ञानहग वीर्य सुख, स्वयं सुभाव विलास॥ॐ ह्रीमह स्वयमुवे नम अध्य।७२२१ पूजा धर्म-भारधर धारिणी, हो जिनेन्द्र भगवान ।
- १३५८ तमको पंजों भावसो, पाँऊ पद निर्वाण ॥ॐ ह्रीमह विश्वम्भरायनम अयं ।।७२३॥
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असुर काम पर हास्य इन, आदि कियो विध्वंश । सिद्ध महाश्रेष्ठ तुमको नमू, रहै न अघको अंश ॥ॐ ह्रीमहंप्रसुरध्वसिने नमःप्रध्या७२४॥ वि०
सुधाधार द्यो अमरपद, धर्म थूलकी बेल । इशभ मति गोपिन संगमें, हमे रोख निज गेल॥ॐ ह्री प्रहं माधवाय नम:अध्य|७२५ ॥
विषय कषाय स्व वश करी, बलि वश कियो जु काम। ३ महाबली परसिद्ध हो,तुम पद करूं प्रमाण ॥ ह्रीमहं वलिवन्धनाय नमाअध्य|७२६ तीन लोक भगवान हो, निज परके हितकार। सरनर पश पूजत सदा,भक्ति भाव उर धार ॥ ह्रीमहं अधोक्षजायनम अध्या७२७, हितमित मिष्ट प्रिय वचन, अमृत सम सुखदाय । धर्म मोक्ष परगट करन,बंदूतिनके पाय॥होंअहं हितमितप्रियवचनजिनाय नम.मध्य निज लीलामे मगन है, सांचा कृष्ण सु नाम ।
अष्टम तीन खंड तिहुँ लोकके, नाथ करू पररणामहीमहं केशवाय नम अध्यं ।।७२९॥ पूजा सखे तुरंण सम जगत की, विभव जान करवास। धरै सरलता जोगमै, करै पापको नाश ह्रीं अहं विष्ट रश्रवसे नमःअध्यं ॥७३.15
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श्रीकहिये प्रातम विभव, ताकरि हो शुभ नीक। सोहत सुन्दर वदनकरि,सज्जनचित रमणीक॥ ॐ ह्रीग्रह श्रीवत्सलाछनाय नमः । सर्वोत्तम अतिश्रेष्ठ है, जिन सन्मति थुति योग। धर्म मोक्ष मारग कहै, पूजत सज्जन लोग ॥ ॐ ह्री अह श्रीमतये नम अयं ।।७३२॥ अविनाशी अविकार है, नहीं चिगे निज भाव। स्वयं सुबाश्रय रहत है, मै पूजू धर चाव॥ॐ ह्रीमह अच्युताय नम.अयं 1७३३॥ नाशी लौकिक कामना, निर इच्छुक योगीश। नार श्रृंगार न मन बसै, बंदत हूं लोकोश ॥ ह्रींअहं नरकान्तकाय नम अध्यं ।७३४ व्यापक लोकालोक मे, विष्णु रूप भगवान। धर्मरूप तरलहि लहै, पूजत हूँ धर ध्यान॥ॐ ह्री अहं विश्वसेनाय नमःमय ।७३५॥ धर्म चक्र सन्मुख चले, मिथ्यामति रिपुघात।
अष्टम तीन लोक नायक प्रभू, पूजत हूँ दिनरात॥ॐ ह्रीं अह चक्रपाणये नम.प्रयं ।७३६। पूजा सुभग सुरूपी श्रेष्ठ अति, जन्म धर्म अवतार। तीन लोककी लक्षमी, है एकत्र उधार ॥ॐ ह्री अहं पद्मनाभाय नम अध्या७३७। .
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मुनिजन अादर जोग हो, लोक सराहन योग। सुरनरपशु पानंद कर,सुभग निजातम भोग॥ ह्रीपहँ जनार्दनाय नम अध्यं ।७३८६
सब देवनके देव हो, महादेव विख्यात । सिद्ध ज्ञानामत सुखसों खिरै, पीवत भवि सुख पातहीअहंश्रीकण्ठायनम अध्य|७३६), वि० पाप पुञ्जका नाश करि, धर्म रीत प्रगटाय । ३६१ ३ तीन लोकके अधिपती,हमपर दया कराया। ह्रीग्रहं त्रिलोकाधिपणकराय नम.प्रध्यं ।
। स्वयं व्यापि जिन ज्ञान करि, स्वयं प्रकाश अनूप । । स्वयं भाव परमातमा, बंदू स्वयं सरूप ॥ही ग्रह स्वय प्रभवे नम अयं ७४१॥3
सब देवनके देव हो, महादेव है नाम । ३ स्वपर सुगंधित रूपहो,तुम पद करू प्रणाम।। ह्री ग्रहं लोकपालाय नम प्रध्यं ।७४२३
धर्मध्वजा जग फरहरै, सब जग माने आन। संबजगशीशनमेचरण, सब जगको सुखदान॥ह्री महं वृषमकेतवे नम प्रय।७४३॥ पूजा जन्म जरा मृत जीतिक, निश्चल अव्यय रूप । सुखसों राजत नित्य हो, बंदू हूं शिवभूप ॥हीमहं मृत्युञ्जयाय नम.अध्या७४४
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सब इन्द्री मन जीतिके, करि दीनो तुम व्यर्थ ।
स्वयं ज्ञान इन्द्री जग्यौ, नमूं सदा शिव अर्थ ॥ ॐ ही श्रीँ विरूपाक्षाय नम म्रुघ्र्घ्यं।७४५। - सुन्वरुरूप मनोज्ञ है, मुनिजन मन वशकार ।
असाधारण शुभ रंगु लगे, केवलज्ञान मझार॥ह्रीग्रर्ह कामदेवाय नमःप्रयं । ७४६॥ सम्यग्दर्शन ज्ञान अरु, चारित एक सरूप ।
धर्म मार्ग दरशात है, लोकत रूप अनूप ॥ॐ ह्रीं ग्रहं त्रिलोचनाय नम प्रर्घ्यं ।७४७ निजानन्द स्व लक्ष्मी, ताके हो भरतार |
शिवकामिनि नितभोगते, परमरूप सुखकार। हींग्रहं उमापतये नम श्रध्यं । ७४८ जे श्रज्ञानी जीव है, तिन प्रति बोध करान ।
रक्षक हो षट् कायके, तुम सम कौन महान ॥ॐ ही अहं पशुपतये नमः प्रर्घ्यं ।। ७४ ।। रमण भाव निज शक्तिसो, धरै तथा दुति काम ।
अष्टम
कामदेव तुम नाम है, महाशक्ति बल धाम ॥ॐ ह्रीं श्रीं शम्बरारये नम अध्यं । ७५० कामदाहको दम कियो, ज्यो अंगनी जलधार । निजातमाचरणनित, महाशीलश्रियसार॥ ह्रीप्र त्रिपुरान्तकाय नम' श्रध्यं । ३६२
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निज सन्मति शुभ नारसो, मिले रलै अरधांग।
ईश्वर हो परमातमा, तुम्है नमू सर्वांग ॥ॐ ह्रीमह अर्द्धनारीश्वराय नम.प्रध्या७५२ B, नहीं चिगे उपयोगसे; महा कठिन परिणाम । सिद्ध महावीर्य धारक नम तुसको आठों जाम ॥ॐह्रीं ग्रह रुद्राय नम अध्यं ॥७५३॥
गुण पर्याय अनन्त युत, वस्तु स्वयं परदेश । स्वयं काल स्व क्षेत्र हो; स्वयं सुभाव विशेष ॐ ह्रीमहं भावाय नम प्रर्ण । ७५४।।। सूक्षम गुप्तः स्वगुरण धरै, महा शुद्धता धार।। चारज्ञान धर नहीं लखै, मै पूजू सुखकार ॥ ह्रीमहंगभकल्याणकजिनायनमःअध्य शिव तिय संग सदा रमें, काल अनत न और ।
अविनाशी अविकार हो, महादेव शिरमौर ॥ॐही महंसदाशिवाय नम.प्रध्यं ।७५६, ६. जगत कार्य तुमसो सरै, सब तुमरे आधीन ।
सबके तुम सरदार हो, आप धनी जगदीन । हो अह जगत्का नम मध्यं ७५ पूजा महा घोर अंधियार है, मिथ्या मोह कहाय । । जगमे शिव मंग लुप्तथा,ताको तुम दरशाय ॥ ह्रींग्रहअन्धकारातकायनम.अय७५८ ॥
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संतति पक्ष जुदी नहीं, नहीं श्रादि नहिं अन्त ।
सदा काल बिन काल तुम, राजत हो जयवंत ॥ ही ग्रह अनादिनिधनाय नम प्र तीन लोक आराध्य हो, महा यज्ञको ठाम ।
तुमको पूजत पाइये, महा मोक्षसुख धाम ॥ॐ ह्री ग्रह हराय नम प्रध्य ॥७६०।। महा सुभट गुरगुरास हो, सेवत हैं तिहुँ लोक ।
शरणागत प्रतिपालकर, चरणांबुज दूं धोक ॥ह्री घर्ह महासेनायनम.श्रयं ॥७६१ गणधरादि सेवें चरण, महा गणपती नाम |
पार करो भवसिंधुतें, मंगलकर सुखधाम ॥ही श्रर्हं महागणपतिजिनाय नम.प्रध्य चार संघके नाथ हो, तुम प्रज्ञा शिर धार ।
धर्म मार्ग प्रवर्त्त कर, बंदू पाप निवार ॥ॐ ह्री ग्रहं गणनाथाय नम म्रध्य ।।७६३।।
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मोह सर्पके दमनको, गरुड समान कहाय ।
सबके आदरकार हो, तुम गणपति सुखदाय ॥ ॐ ह्रीममहाविनायकाय नम ग्रध्य । जे मोही अल्पज्ञ है, तिनसों हो प्रतिकूल । धर्माधर्म विरोध कर, धरूं शीश पग धूल ॥ ॐ ह्रींग्रह विशेषविनाशकजिनाय नम प्र
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जितने दुख संसारमे, तिनको वार न पार । सिद्ध इक तुम ही जानो सही,ताहि तजो दुखमार ली है fuनागनाय नम: वि० सब विद्याके बीज हो, तुम वाणी परकाश। ३६५ | सकल अविद्या मूलतें, इक छिनमें हो नारा लोगों का नाम नम.पणे ७६..
पर निमित्तसे जीवको, रागादिक परिणाम। तिनको त्याग सुभाव,राजत है सुखधाम ॥ोपमाहापनम, पायं 13 ६ अन्तर वाहिर प्रबल रिपु, जीत सके नहीं कोय । निर्भयअचल सथिर रहै, कोटि शिवालयसोय॥ी पनगाय नम' artist घन सम गर्जत वचन हैं, भागे कुनय कुवादि । प्रबल प्रचंड सुवीर्य है, धरै सुगुरण इत्यादि ॥दी पहें BETAIT नम पर्ण 10७. पाप सघन वन, दाह दव, महादेव शिव नाम । अतुल प्रभा धारो महा, तुम पद करूं प्रणाम पोपट माननम:प्रय 1531 तुम अजन्म विन मृत्यु हो, सदा रहो प्रविकार । ज्योंके त्यो मरिण दीपसम,पूजत हूँ मन धारापह परामरा (नाय नम
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संस्कारादि स्वगुरण सहित, तिन करि हो आराध्यं ।
सिद्ध० तुमको बंदों भावसों, मिटे सकल दुख व्याध्य ॥ ही श्रहं द्विजा राध्याय नम अर्घ्यं ७७३ वि० निजै श्रातम निज ज्ञान है, तामे रुचि परतीत ।
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पर पद सोहै अरुचिता, पाई श्रक्षय जीत ॥ॐ ह्री ग्रहँ सुषाशोचिषे नम.प्रध्यं । ७७४। जन्म मरणको प्रादि लै, सकल रोगको नाश ।
दिव्य औषधि तुप धरों, श्रसर करन सुखरास ॥ ॐ ह्रीं श्रीं प्रौषधीशाय नम प्रध्य।७-१ पूररण गुरण परकाश कर, ज्यो शशि किरण उद्योत ।
मिथ्य तप निस्वारतै, दर्शित आनंद होत ॥ॐ ह्रीग्रहं कमलानिधये नम श्रध्यं ॥७७६ ॥ सूर्य प्रकाश धरै सही, धर्म मार्ग दिखलाय ।
चार संघ नायक प्रभू, बंदू तिनके पाय ॥ ह्री ग्रह नक्षत्रनाथाय नमः श्रयं ॥७७७ भव-तप-हर हो चन्द्रमा, शीतलकार कपूर ।
तुमको जो नर सेवते, पाप कर्म हो दूर ॥ ॐ ह्री ग्रहं शुभ्राणवे नमःप्रघ्यं । ७७८ स्वर्गादिककी लक्ष्मी, तासो भी जु ग्लान । स्वै पदमें आनंद है, तीन लोक भगवान ॥ ॐ ह्रीप्रसौम्यमावरताय नमः मर्घ्यं॥७७ε
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पर पदार्थ को इष्ट लखि, होत नहीं अभिमान । सिद्ध हो अबंध इस कर्मते, स्व आनद निधान ॥ॐ ह्रीं ग्रहं कुमुदयाघव वि० संबं विभावको त्यांग करि, है स्वधर्ममें लीन । ३६७ । तातें प्रभुता पाइयो, है नहीं बन्धाधीन ॥ॐ ह्रीं अहं धर्मरतये नम अध्यं ॥७॥
आकुलता नहीं लेश है, नहीं रहै चित भंग। सदा सुखी तिहुँ लोकमे, चरन नमू सब अंग॥ॐ ह्रीं पहँ प्राकुलतारहितजिनायनम शुभ परिणति प्रकटायके, दियो स्वर्गको दान । धर्मध्यान तुमसे चले, सुमरत हो शुभ ध्यान॥ॐह्री अहंपुण्यजिनाय नमःअध्य।७८३ १ भविजन करत पवित्र अति, पाप मैल प्रक्षाल।
ईश्वर हो परमातमा,नसंचरन निज भाल॥हीग्रहपुण्यजिनेश्वरायनम अध्य।७८४ । ३ श्रावक या मुनिराज हो, धर्म आपसे होय ।
धर्मराज शुभ नीति करि, उन्मार्गनको खोय॥ ह्रीमहं धमराजाय नम अध्यं ७८५ अष्ट है स्वयं स्व प्रातम रस लहो, ताही कहिये भोग ।
पूज अन्य कुपरिणतित्यागियो,न पदांबुजयोग ॥ॐ ह्रींमहं भोगराजायनमःप्रय।७८६ ॥
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दर्शन ज्ञान सुभाव धरि, ताहीके हो स्वामि । सिद्ध सब मलिनतात्यागियो,भयेशुद्धपरिणामि॥ॐ ह्रीं महं दर्शनज्ञानचारित्रात्मजिनाय० वि० सत्य उचित शुभ न्यायमें, है आनन्द विशेख।
सब कुनीतिको नाशकर, सर्व जीव सुख देख ॥ ह्रीअहं भूतानन्दायनम अध्या७८८ | पर पदार्थक सगसे, दुखित होत सब जीव। ताके भयसो भय रहित,भोगें मोक्ष सदीव ॥ ह्रीम सिद्धिकान्तजिनाय नम अयं । जाको कभी न अन्त हो, सो पायो प्रानन्द । है अचलरूपनिजात्ममय, भाव प्रभावी वृंद ॥ ह्रींग्रहमक्षयानदाय नम अर्घ्य ७६० शिव मारग परकट कियो दोष, रहित वरताय । दिब्यध्वनि करि गर्ज सम, सर्व अर्थ दिखलाय ॥ॐहीमह वृहतापतयेनम प्रध्य।७६१ . चौपई छन्द-हितकारक अपूर्व उपदेश,तुमसम और नहीं देवेश। पूजा
सिद्धसमूह जजू मनलाय, भव भवमे सुखसंपतिदाय॥ ३६८
ॐ ह्री अपूर्वदेवोपदेष्ट्र नमः अध्यं ॥७६२॥
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कर्मविषै संस्कार विधान, तीनलोकमे विस्तर जान । सिद्धसमूह० ॥ ॐ ह्री सिद्धसमूहेभ्यो नम भ्रष्ट ।। ७९३ ।।
धर्म उपदेश देत सुखकार, महाबुद्ध तुम हो अवतार । सिद्धसमूह० ॥
ॐ ह्रीं शुद्धबुद्धाय नमः श्रध्यं ।। ७१४ ।।
तीन लोकमे हो शशि सूर, निज किरणावलि करि तम चूर । सिद्ध० ॥
ॐ ह्री पहं तमोभेदने नमः श्रयं ॥ ७६५ ।।
धर्ममार्ग उद्योत करान, सब कुवादकी कर हो हान । सिद्ध० ॥ ॐ ह्री प्र धर्म मार्गदशकजिनाय नम मध्यं ॥ ७६६ ।।
सर्व शास्त्र मिथ्या वा सांच, तुम निज दृष्टि लियो है जांच | सिद्ध०
ॐ ह्री प्रसवशास्त्र निर्णायक जिनाय नमः श्रध्यं ॥७७॥
पंचमगति विन श्रेष्ठ न और, सो तुम पाय त्रिजग शिरमौर । सिद्ध०
ॐ ह्री श्रहं चमगतिर्जिनाय नम अध्यं । ७६८ ।।
श्रेष्ठ सुमति तुम्हीं हो एक, शिवमारग की जानो टेक | सिद्ध० ॥
ॐ ह्री श्रेष्ठसुमतिदात्रीजिनाय नम श्रध्यं ॥७६॥
वृष मर्जाद भली विधि, थाप, भविजन मेटे सब संताप | सिद्ध०
ॐ ह्रीं श्रीं सुगतये नमः अध्यं ॥ ८ ॥
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श्रेष्ठ करै कल्याण सु ज्ञान, सम्पूरण संकल्प निशान। . सिद्ध० सिद्धसमूह जजू मनलाय, भव भवमें सुखसंपतिदाय ॥ वि०
- ॐ ह्री महं श्रेष्ठकल्याणकारकजिनाय नम. अध्यं ।। ८०१ ।। ३७० निज ऐश्वर्य धरो संपूर्ण, पर विभूति विन हो अघ चूर्ण । सिद्ध० ॥
ॐ ह्रीं अहं परमेश्वरीयसम्पन्नाय नम' अध्यं ।।८०२।। श्रेष्ठ शुद्ध निजब्रह्म रमाय, मंगलमय पर मंगलदाय । सिद्ध० ॥
ॐ ह्रीं अहं परब्रह्मणे नमः अध्यं ।। ८०३ ।। श्री जिनराज कर्मरिपु जीति, पूजनीक है सबके मीत । सिद्ध० ॥
___ॐ ह्री अहं कर्मारिजिते नम अध्यं ।। ८०४॥ षट् पदार्थ नव तत्त्व कहाय, धर्म अधर्म भलीविधि गाय । सिद्ध०॥
____ॐ ह्री अहं सर्वशास्त्रज्ञजिनाय नम अयं । ८.५॥ है शुभ लक्षण मय परिणाम,पर उपाधिको नहिं कछु काम। सिद्ध०॥ अष्टम
ॐ ह्रीं अहं सुलक्षणजिनाय नम अयं ॥ ८०६ ।। सत्य ज्ञानमय है तुम बोध, हेय अहेय बतायो सोध । सिद्ध० ॥
___ ॐ ह्रीं अहं सर्वबोधसत्वाय नम अयं ।।८०७॥
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इष्टानिष्ट न राग न द्व ेष, ज्ञाता दृष्टा हो अविशेष | सिद्ध० ॥ ग्रह निर्विकल्पाय नमः अयं । ८०८ ||
जो तुम सम नहीं भगवान, धर्माधर्म रीति बतलान । सिद्ध० ॥
ह्रीं द्वितीयबोधजिनाय नम प्रध्यं ॥ ८० ॥ महादुखी संसारी जान, तिनके पालक हो भगवान | सिद्ध० ॥ ह्री ग्रह लोकपालाय नमः श्रध्यं ।। ८१० । जगविभूति निरइच्छुक होय, मानरहित श्रातम रत सोय । सिद्ध० ॥ अहं श्रात्मरसरत जिनाय नम श्रध्यं ॥ ८११ ॥ ज्यों शशि तापहरै अनिवार, अतिशय सहित शांति करतार | सिद्ध०॥
ह्री शातिदात्रे नमः अष्य । ८१२ ।।
हो निरभेद छेद अशेष, सब इकसार स्वयं परदेश | सिद्ध० ॥ ह्री ग्रह प्रभेद्याछेद्य - जिनाय नम अयं ॥ ८१३॥
मायाकृत सम पांचो काय, निजसों भिन्न लखो मत ॐ ह्रीं श्रहं पच कषमयात्मदृशे नम ग्रध्य ॥ ६१४ ॥
बीती बात देख संसार, भवतन भोग विरक्त उदार । सिद्ध० ॥ ॐ ह्रीं श्रीं भूतार्थ भावनासिद्धाय नमोऽध्य ॥ ८१५ ।।
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धर्माधर्म जान सब ठीक, मोक्षपुरी दिखलायो लीक । सिद्ध सिद्धसमूह जजू मनलाय, भव भवमें सुखसंपतिदाय ॥ वि०
ॐ ह्रीं प्रहं चतुराननजिनाय नमः अभ्यं ।।१६।। ३ वीतराग सर्वज्ञ सु देव, सत्यवाक वक्ता स्वयमेव । सिद्ध० ॥
ॐ ह्री महं मत्यवक्त्रे नमः अयं ॥८१७॥ मन वच काय योग परिहार, कर्मवर्गणा नाहि लगार । सिद्ध० ॥
___ॐ ह्री महं निराश्रवाय नमः अध्यं ।।१८।। चार अनुयोग कियो उपदेश, भव्य जीव सुख लहत हमेश । सिद्ध०॥
ॐ ह्री अहं चतुर्भूमिकशासनाय नम अयं ॥१६॥ ६ काहू पदसों मेल न होय, अन्वय रूप कहावै सोय । सिद्ध० ॥
ॐ ह्रीं अहं अन्वयाय नम अध्यं ॥५२०॥ हो समाधिमे नित लवलीन, विन आश्रय नित ही स्वाधीन । सिद्ध०॥ अष्टम ॐ ह्री प्रहं समाधि-निमग्न-जिनाय नम' अध्यं ।।२१।।।
पूजा लोक भाल हो तिलक अनूप, हो लोकोत्तम.शेष स्वरूप। सिद्ध०॥ ३७२
ॐ ह्री पह लोकमालतिलकजिनाय नम अध्यं ।।२२।।
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अक्षाधीन हीन है शक्त, तिसको नाश करी निज व्यक्त। सिद्ध०॥
ॐ ह्री अहं तुच्छमावमिदे नम अध्यं ।।८२३।। जीवादिक षट् द्रव्य सुजान, तिनको भलीभांति है ज्ञान । सिद्ध०॥
ॐ ह्री प्रहं षद्रव्यदृशे नमःअध्यं ।।१२।। विकलरूप नय सकल प्रमाण, वस्तु भेद जानो स्वज्ञान । सिद्ध०॥
ॐ ह्रीं अहं सकलवस्तुविज्ञात्रे नम अध्यं ।।१२।। सब पदार्थ दर्शन तुम बैन, संशय हरण करण सुख चैन । सिद्ध० ॥
___ॐ ह्री अहं पोडशपदार्थवादिने नम. अध्यं ।।८२६॥ वर्णन करि पंचासतिकाय, भब्य जीव संशय विनशाय । सिद्ध०॥
ॐ ह्रीं अहं पचास्तिकायबोधकजिनाय नम प्रध्यं ।।८२७॥ प्रतिबिंबित हो प्रारसि माहि, ज्ञानाध्यक्ष जान हो ताहि । सिद्ध०॥
ॐ ह्री अहँ ज्ञानाध्यक्ष जिनाय नमःअध्यं ॥२८॥ जामे ज्ञान जीव को एक, सो परकाशो शुद्ध विवेक । सिद्ध० ॥ अष्टम ॐ ह्री प्रहं समवायसार्थक जिनाय नम अध्य ।।२९।।
पूजा भक्तनिके हो साध्य सु कर्म, अन्तिम पौरुष साधन धर्म। सिद्ध० ॥ ३७३
ॐ ह्री ग्रह भक्तैकसाधकधर्माय नम अध्यं ।।३०।।
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बाकी रहो न गुरण शुभ एक, ताको स्वाद न हो प्रत्येक। सिद्ध सिद्धसमूह जजू मनलाय, भव भवमे सुखसंपतिदाय ॥ .
ॐ ह्री प्रहं निरवशे गुणामृताय नमःप्रयं ।।८३१॥ ३७४६ नय सुपक्ष करि सांख्य कुवाव,तुम निरवाद पक्षकर वाद । सिद्ध०॥
ॐ ह्री अर्ह माख्यादिपक्षविध्वसजिनाय नम अध्यं ।।८३२॥ ६ सम्यग्दर्शन है तुम वैन, वस्तु परीक्षा भाखो ऐन । सिद्ध० ॥
ॐ ह्री अहं समीक्षकाय नम अध्यं 1८३३॥ धर्मशास्त्रके हो कर्तार, आदि पुरुष धारो अवतार । सिद्ध०॥
ॐ ह्री ग्रह आदि पुरुष जिनाय नम अध्यं ।।८३४।। नय साधत नयायक नाम, सो तुम पक्ष धरो अभिराम । सिद्ध०॥
ॐ ह्री अहं पविशतितत्त्ववेदकाय नम अध्यं ।।८३५॥ स्वपर चतुष्क वस्तुको भेद, व्यक्ताव्यक्त करो निरखेद । सिद्ध० ॥ अष्टम ॐ ह्री अहं व्यक्ताव्यक्तज्ञानविदे नम अध्यं ।।८३६।।
पूजा दर्शन ज्ञान भेद उपयोग, चेतनामय है शुभ योग । सिद्ध०॥ ३७४
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ॐ ह्रीं ग्रहं जानचैतन्यभेददृशे नम अध्यं ॥३७॥
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स्वसंवेदन शुद्ध धराय, अन्य जीव हैं मलिन कुभाय । सिद्ध० ॥
ॐ ह्रीं स्वसवेदनज्ञानयादिने नमः पद्म । ८३८॥
द्वादश सभा करें सतकार, आदर योग वैन सुखकार | सिद्ध० ॥
ॐ ह्रीं ममत्रसरण - मापनमा ८२
आगम अक्ष अनक्ष प्रमान, तीन भेदकर तुम पहचान । सिद्ध० ॥ ॐ ही यह प्रमाणाय नमः ॥ ४० ॥
विशद शुद्ध मति हो साकार, तुमको जानत है सु विचार | सिद्ध० ॥
ॐ ह्रीं प्रहं प्रध्यक्षप्रमाणाय नमः ||६८१ ॥
नयसापेक्षक है शुभ वैन, है प्रशंस सत्यारथ ऐन । सिद्ध० ॥ ॐ ह्रीं पहुं स्याद्वादवादिनं नम ध्यं ॥६२॥ लोकालोक क्षेत्रके मांहि, श्राप ज्ञान है सव दरशाहिं । सिद्ध० ॥
ॐ ह्रीं क्षेत्रमा म प ||८४३॥
अन्तर बाह्य लेश नहीं और केवल प्रातम मई घोर | सिद्ध० ॥
ॐ ही शुद्धात्मजिनाय नमः प्रप्यं ॥ २४४ ॥ अन्तिम पौरुष साध्यो सार, पुरुष नाम पायो सुखकार | सिद्ध० ॥ ही हे पुरुषार-जिनाय नमः यं ॥६४५॥
स्प्रष्टम पुत्रा ३७
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सिद्ध वि.
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चहुँगतिमे नरदेह मझार, मोक्ष होत तुम नर आकार । सिद्धसमूह जजू मनलाय, भव भवमे सुखसंपतिदाय । सिद्ध० ॥
श्री ह्री अहे नराधिपाय नम अध्यं ॥८४६॥ दर्श ज्ञान चेतन की लार, निरावर्ण तुम हो अविकार । सिद्ध० ॥
पो ह्री प्रहं निगवरणचेतनाय नम अध्यं ।।१४७॥ भावन वेद वेद नरदेह, मोक्ष रूप है नहिं सन्देह । सिद्ध० ॥
प्रों ह्रीं पर्ह मोक्षरूपजिनाय नम अध्यं ।।९४८।। । सत्य यथारथ हो सब ठीक, स्वयं सिद्ध राजो शुभ नीक । सिद्धसमूह जजू मनलाय, भव भवमे सुखसंपतिदाय । सिद्ध०॥
"ओ ह्रीं अहं अकृत्रिम जिनाय नम अध्यं ॥४॥ दोहा-जाकरि तुमको जानिये, सो है अगम अलक्ष । इनिर्गण यातै कहत है,भव भयतै हम रक्ष॥ ही अहं निर्गुणाय नम प्रध्यं ॥५०॥ चेतनमय हैं अष्टगुण, सो तुममें इक नाम ।
मामोह्रींमहं प्रमूर्ताय नम. अयं ॥५१॥
अष्टम
पूजा ३७६
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उमापती त्रिभुवन धनी, राजत भू भरतार । निजानन्द को आदि ले, महा तुष्ट निरधार ॥ॐह्रीं अहं उमापतये नमःअत्र्या८५२॥ ६ व्यापक लोकालोकमे, ज्ञान ज्योतिके द्वार । सिद्ध लोकशिखर तिष्ठत अचल, करोभक्त उद्धार ह्रींप्रहं सर्वगताय नम प्रध्य ।८५३ , वि० योग प्रबन्ध निवारियो, रागद्वेष निरवार । ३७७ ३ देहरहित निष्कंपहो, भये प्रक्रिया सार ॥ ॐ ह्री ग्रह प्रक्रियाय नमा अध्यं ॥८५४॥ । सर्वोत्तम अति उच्च गति, जहां रहो स्वयमेव ।
देव वास है मोक्ष थल, हो देवनके देव ॥ॐ ह्रीं अहं देयेष्जिनाय नम'प्रध्यं ।८५४ । भवसागर के तीर हो, अचलरूप अस्थान।
फिर नहीं जगमें जन्म है, राजत हो सुखथान ॥ ह्रींमह तटस्थाय नम अयं ॥८५६ , १ ज्योके त्यो नित थिर रहो, अचलरूप अविनाश।
प्रप्टम निजपदमयराजत सदा, स्वयं ज्योतिपरकाश ॥ॐ ह्रींप्रहं कूटस्थाय नम.अध्य।८५० पूजा
तत्त्व प्रतत्त्व प्रकाशियो, ज्ञाता हो सब भास। इ ज्ञानमति हो ज्ञानघन, ज्ञान ज्योति अविनाश ॥ ह्रींप्रहं जाये नमःप्रयं ।८५८। ।
३७७
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३७८
पर निमित्तके योगतै, ब्यापै नहीं विकार।
निज स्वरूपमें थिर सदा, हो अबाध निरधार॥ह्री ग्रह निराबाधापनम अध्यं ८५६ सिद्ध० चारवाक वा सांख्यमत, झूठी पक्ष धरात।
'अल्प मोक्ष नहीं होत है, राजत हो विख्यात ॥ोह्रीमहं निरामावाय नम अध्य।८६० तारण तरण जिहाज हो, अतुल शक्तिके नाथ । भव वारिधि सेपारकर, राखो अपने साथ ॥ ह्रींप्रहमववारिधिपारकरायनमःप्रयं बन्ध मोक्षको कहन है, सो भी है व्यवहार । तम विवहार प्रतीत हो, शुद्ध वस्तु निरधार॥ ह्रीमहंववमोक्षरहिताय नमःअध्यं । चारो पुरुषारथ विषै, मोक्ष पदारथ सार । तमसाधो परधान हो, सबम सुख प्राधार॥ह्रीं अहं मोक्षसाधनप्रधानजिनायनम कर्ममल प्रक्षालक, निज प्रातम लवलाय ।
शिवथलविषै, अन्तरमल विनशाय ॥ह्रींमहकर्मवधमोक्षरहितायनम अध्ये अष्टम निज सभाव जिन वस्तुता, निज सुभावमें लीन ।
पूजा बंद शद्ध स्वभावमय, अन्य कुभाव मलीन ।। ह्रीमहनिजस्वभावस्थितिजिनायनमः
३७८
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वि०
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निज स्वरूप परकाश है, निरावर्ण ज्यों सूर । है तुमको पूजत भावसों, मोह कर्मको चूर ॥ॐ ह्रीमहनिरावरणमूर्यविनाय नम अध्य। ।
निज भावनते मोक्ष हो, ते ही भाव रहात । , मिद्ध० स्वगरण स्व परजायमे, थिरता भाव धरात ॥ॐ ह्रीमह स्वरूपाजिनाय नम अध्यं ।।
सब कुभावको जीतियो, शुद्ध भये निरमूल। शद्धातम कहलात हो, नमत नशे अघ शूल ॥ॐ ह्रीग्रह प्रकृतिप्रियायनम अध्यं ।८६८ निज सन्मतिके सन्मती, निज बुधके बुधवान।
शुभ ज्ञाता शुभ ज्ञान हो, पूजत मिथ्या हान॥होपहविशुद्धसन्मतिजिनायनम अध्या, । कर्म प्रकृतिको अंश बिन, उत्तर हो या मूल। शद्धरूप अति तेज घन,ज्यो रविबिंब अधूल॥हीग्रहशुद्धरूपजिनायनम अयं ।८७० आदि पुरुष आदीश जिन, आदि धर्म अवतार।
प्रष्टम आदि मोक्ष दातार हो,प्रादि कर्म हरतार ॥ ही अहं प्राद्यवेदमे नमोऽयं ॥१७॥ पूजा नहिं विकार पावै कभी, रहो सदा सुखरूप । रोग शोक व्याप नहीं, निवसै सदा अनूप ॥ॐ ह्री प्रहं निर्विकृतये नमोऽयं ८७२
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निज पौरुष करि सूर्य सम, हरो तिमिर मिथ्यात ।
तुम पुरुषारथ सफल है, तीन लोक विख्यात ॥ॐ ह्रीअहमिथ्यातिमिरविनाशकायनम मित वस्तु परीक्षा तुम विना, और झूठ कर खेद । वि०
अंध कूप मे आप सर, डारत है निरभेद ॥ ही मर्ह मीमांस काय नम अध्यं ॥८७४।। होनहार या हो लई, या पइये इस काल । अस्तिरूप सब वस्तु है,तुम जानो यह हाल ह्रींअहं अस्तिसर्वज्ञाय नम अध्यं ।८७५॥ जिनवारणी जिन सरस्वती, तुम गुणसों परिपूर।। पूज्य योग तुमको कहैं, करै मोहमद चूर॥ही महं श्रुतपूज्याय नमःमध्यं ।।८७६।। स्वयं स्वरूप आनंद हो, निज पद रमन सुभाव। सदा विकासित हो रहै, बंदू सहज सुभाव ॥ ह्रींमहं सदोत्सवाय नम.प्रध्यं । ८७७ मन इन्द्री जानत नहीं, जाको शुद्ध स्वरूप। वचनातीत स्वगुरगसहित,अमल अकाय अरूपोह्रींअहं परोक्षज्ञानागम्याय नमः अष्टम जो श्रुतज्ञान कला धरै, तिनको हो तुम इष्ट ।
पूजा तमको नित प्रति ध्यावते,नाशेसकल अनिष्ट ॥ोह्रीं महं इष्टपाठकाय नमःमध्यं । १८०
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निज समरथ कर साधियो, निज पुरुषारथ सार। सिद्ध सिद्ध भये सबकाम तुम, सिद्ध नाम सुखकार । ह्रौंग्रह सिद्धकर्मक्षयाय नमःमध्य८८०१ वि० । पृथ्वी जल अगनी पवन, जानत इनके भेद । ३८१ । गण अनंत पर्याय सब, सो विभाग परिछेद ॥ॐह्री प्रहं मिथ्यामनिवारकाय नम.पघ्या,
निज सवेदन ज्ञानमे, देखत होय प्रत्यक्ष । रक्षक हो तिहुँ लोकके,हम शरणागत पक्ष ॥ॐ ह्रीग्रह प्रत्यक्षकप्रमाणाय नम अध्यं ।। विद्यमान शिवलोकमे, स्वगुरण पर्य समेत ।
कहै अभाव कुमतीमती, निजपर धोका देत॥हीग्रह अम्तिमुक्ताय नम:प्रय।३८८ । तुम आगमके मूल हो, अपर गुरू हैं नाम । है तुम वानी अनुराग ही, भये शास्त्र अभिरामहीमहं गुरुश्रुतये नमःअध्यं ।८५४।
तीन लीक नाथ हो, ज्यो सुरगरणमें इन्द्र। निजपद रमन स्वभावधर, नमे तुम्है देवेन्द्र।।ॐ ह्रींअहँ त्रिलोकनाथाय नमःप्रय।८८५॥ अष्टम सब स्वभाव अविरुद्ध है, निजपर घातक नाहिं।
पूजा सहचारी परिणाम है, निवसत है तुममाहि॥हीग्रह स्वस्वभावाविरुद्ध जिनाय नम
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३३८३
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३८२
ब्रहम ज्ञानको वेदकर, भये शुद्ध अविकार। सिद्धः पुरण ज्ञानी हो नमू, लहो वेदको सार ॥ॐह्री प्रहं ब्रह्मविदे नम अध्यं ॥८८७॥ वि० शब्द ब्रह्मके ज्ञानते, आतम तत्त्व विचार।
शक्लध्यानमेलय भए,हो अतर्क अविचार॥ ह्रीग्रह शब्दाद्वैतब्रह्मणे नम अध्यं ८८८ सक्षम तत्त्व प्रकाश कर,सक्षम कर्म उच्छेद । मोक्षमार्ग परगट कियो,कहोसु अन्तर भेदहीग्रहं मूक्ष्मतत्त्वप्रकाशनिनाय नमः। तीन शतक त्रेसठ जु है, सब मानै पाखण्ड। धर्म यथारथ तुमकहो,तिन सबको करि खंड ॥ह्री अहं पाखण्डखण्डकाय नम अयं ।। कर्णरूप करतार हो, कोइक नयके द्वार । सुरमुनि करि पूजत भए,माननीक सुखकार ॥हीअहँ नयाधीनजे नमःप्रयं ।८६१.६ केवलज्ञान उपाइके, तदनन्तर हो मोक्ष ।
अष्टम साक्षात् बडभागस, पूजू इहाँ परोक्ष ॥ॐ ह्रीग्रह अन्तकृते नम प्री ।।८९२॥ पूजा शरणागतको पार कर, देत मोक्ष अभिराम ।
१ ३८२ तारण तरणसु नाम है, तुम पद करू प्रणाम ॥ॐ ह्रीपहपारकृते नमःप्रय ८९२।।
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सिद्ध
भव समुद्र गम्भीर है, कठिन जासको पार ।
निज पुरुषार्थ करि तिरै, गहो किनारो सार॥हीग्रहंतीरप्राप्ताय नमःप्रयं ।८९४६ वि० एकवार जो शरण गहि, ताके हो हितकार । ३८३ यातें सब जग जीवके, हो आनंद दातार ॥ह्रीं अहंपरहितस्थिताय नमःप्रयं ।८१५॥ ६ रत्नत्रय निज नेत्रसो, मोक्षपुरी पहुँचात । महादेव हो जगत पितु, तीन लोक विख्यात ह्रीमह रत्नत्रयनेत्रजिनायनम अयं ।
तीन लोकके नाथ हो, महा ज्ञान भण्डार । ३ सरल भाव विन कपट हो,शुद्ध बुद्ध अविकार ॥हीअहं शुद्धबुद्धजिनाय नमःअध्यं ।
निश्चै वा व्यवहार के, हो तुम जाननहार । ३ वस्तुरूप निज साधियो, पूजत हूँ निरधार॥ह्रींग्रह ज्ञानकमसमुच्चयिने नम अध्यं । , । सुरनर पशु न अघावते, सभी ध्यावते ध्यान ।
तुमको नितही ध्यावते, पावै सुख निर्वाण॥हीअर्हनित्यतृतजिनायनम अयं ८६ अष्टम कर्म मैल प्रक्षाल करि, तीनों योग सम्हार । । पापशैल चकचूर कर, भये प्रयोग सुखार॥ह्रीग्रहपापमलनिवारकजिनाय नम अध्य
पूजा
३८३
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सिद्ध०
३८४
सरज हो निज ज्ञान घन, ग्रहरण उपद्रव नाहिं ।
बैखटके शिवपंथ सब, दीखत है जिस माहिं ह्रीहनिरावरणज्ञानघनजिनायनम • वि० जोग योग संकल्प सब, हरो देहको साथ ।
रहो अकंपित थिर सदा,मै नाऊं निज माथा ह्रीमह उच्छिन्नयोगाय नम अध्यं ६०२ जोग सुथिरताको हरे, करै आगमन कर्म। तुम तासों निर्लेप हो, नशौ मोहमद शर्म ॥ॐ ह्रीग्रहयोगकृतनिर्लेपायनम.अध्य।१०३ निज प्रातममे स्वस्थ है, स्वपद योग रमाय । निर्भय तम निर इच्छु हो, नमजोरकर पाय ॥ॐ ह्रीग्रह स्वस्थनयोगरतजिनायनम • , महादेव गिरिराज पर, जन्म समै जिम सूर।। योग किरण विकसात हो,शोकतिमिरकरदूर॥ ह्रींअहगिरिसयोगजिनायनम अर्ण सूक्ष्म निज परदेश तन, सूक्ष्म क्रिया परिणाम । चितवत मन नहिंवचचले,राजतहोशिवधामहीमहसूक्ष्मीकृतवपु क्रियायनम अध्यं सूक्ष्म तत्त्व परकाश है, शुभ प्रिय वचनन द्वार।
३८४ भविजनको आनंदकरि, तीनजगत गुरुसार॥ह्रींग्रह मूक्ष्मवामितयोगाय नम अध्य
अष्टम
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कर्म रहित शुद्धात्मा, निश्चल क्रिया रहात ।
स्वप्रदेश मय थिर सदा,कृत्याकृत्य सुख पात ॥ॐ ह्रीहनिष्कर्मशुद्धात्मजिनायनम प्रय ME विद्यमान प्रत्यक्ष है, चेतनराय प्रकाश ।
कर्म कालिमासो रहित, पूजतहो अघनाश ॥ ह्रीग्रहं भूताभिव्यक्तचेतनाय नम अध्यं | गृहस्थाचरण सुभेद करि, धर्मरूप रसरास । एकतुम्हीं हो धर्मकरि, पायो शिवपुर वास॥ह्रौंग्रह धर्मरासजिनायनमःअध्यक्ष१. 1 सूर्यप्रकाशन मोह तम, हरता हो शुभ पंथ । पाप क्रिया विन राजते, महायती निरग्रंथ॥ होगह परमह साय नमःमध्यं ।९११॥ । बन्ध रहित सर्वस्व करि, निर्मल हो निर्लेप ।
शुद्ध सुवर्ण दिपै सदा, नहीं मोह मल लेप ॥ ह्रीं अहं परमसवरायनम प्रध्यं ।९१२६ मेघ पटल विन सूर्य जिम, दीप्त अनन्त प्रताप ।
अष्टम निरावरण तुम शुद्ध हो,पूजत मिटि है पापहीग्रह निरावरणाय नम अध्यं ६१३ पूजा कर्म अंश सब झर गिरे, रहो न एक लगार। परम शुद्धता धारक, तिष्ठो हो अविकार ॥ॐह्री प्रहंपरमनिरायनम.अर्घ्य 1९१४
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वि०
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तेज प्रचण्ड प्रभाव है, उदय रूप परताप ।
अन्य कुदेव कुप्रा गिया, जुग जुग धरत कलाप ॥ ॐ ह्रीय प्रज्वलितप्रभावाय नम श्र भये निरर्थक कर्म सब, शक्ति भई है होन ।
तिनको जीते छिनकमे, भये सुखी स्वाधीन॥ह्री ग्रह ममस्तकर्मक्षय जिनाय नम प्र कर्म प्रकृतिक रोग सम, जानी हो क्षयकार |
निज स्वरूप श्रानन्दमे, कहो विगार निहार ॥ॐ ह्रो ग्रहं कर्मविस्फोटकायनम ग्र हीन शक्ति परमादको, आप कियो है अन्त ।
निज पुरुषार्थ सुवीर्ययो, सुखीभए सुप्रनंत ॥श्रीर्हं प्रनतवीर्यंजिनाय नम अर्घ्यं ११८ एक रूप रस स्वादमे, निर श्राकुलित रहाय ।
विविध रूपरस पर निमित, ताको त्यागकराय ॥ ॐ ह्रीम एकाकार रसास्वादाय नम इन्द्री मनके सब विषय, त्याग दिये इक लार ।
निजानंदमे मगन हैं, छांडो जग व्यापार ॥ ॐ ह्री पनिश्वाकार र साकुलितायनमःश्रध्यं । पर सम्बन्धी प्रारण विन, निज प्रारणानि प्राधार । सदा रहे जीतव्यता, जरा मृत्यु को टार ॥ॐ ह्री ग्रह मदाजीविताय नम अयं । १२१॥
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निज रसके सागर धनी, महा प्रिय स्वादिष्ट ।
अमर रूप राज सदा, सुर मुनिके हो इष्ट ॥ॐ ह्री पह प्रमृताय नम प्रध्य ॥९२२॥ २० पूरण निज आनन्दमें, सदा जागते आप।
नहिं प्रमादमे लिप्त है, पूजत विनशे पाप॥ ही महं नापते नम.प्रय।।१३।
क्षीरण ज्ञान ज्ञानावरण, करै जीवको नित्य । । सो पावर्ण विनाशियो, रहो अस्वप्न सुवित्य ॥ ह्रींपई पमुभाय नमः
स्व प्रमारणमे थिर सदा, स्वयं चतुष्टय सत्य। निराबाध निर्भय सुखी,त्यागतभाव असत्य॥ॐ ह्रीमहंम्बप्रमाणस्थितायनमःम ६२५३ श्रमकरि नहिं पाकुलितहो, सदारहो निरखेद। स्वस्थरूप राजो सदा, वेदो ज्ञान अभेद ॥ हीपई निरामिनिनाय नम प्रध्या १६ मन वच तन व्यापार था, तावत रहो शरीर । ताको नाश अकंप हो, बन्दूँ मन धर धीर॥ॐ ह्रीं प्रहं प्रयोगिने नम प्रय।।१२७॥ पूजा जितने शुभ लक्षण कहे, तुममे हैं एकत्र ।
६३८० तुमको बंदू भावसों, हरो पाप सर्वत्र॥ ह्रीपई पतुरणीतिलक्षणाय नम पत्र्यं ।६२८15
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तुम लक्षण सूक्षम महा, इन्द्रिय विषय अतीत । सिद्ध वचन अगोचर गुरगधरी,निर्गुण कहत सुनीत॥ह्रौप्रहं प्रगुणायनम अध्या९२६॥ - वि०६ अगुरुलघू पर्याय के, भेद अनन्तानन्त । ३८८ । गुरण अनंत परिणामकरि,नित्यनमे तुम संत॥ ह्रीमहंप्रनतानन्तपर्यायाय नम.अयं ।
राग द्वेष के नाशते, नहीं पूर्व संस्कार । निज सुभावमे थिर रहै, अन्य वासना टार ॥ॐ ह्री अहंपूवसम्कारनाशकायनम अध्य गुरण चतुष्टमे वृद्धता, भई अनन्तानन्त ।
ॐ ह्रीप्रहं अनन्तचतुष्टवृद्धाय नम.प्रयं । आर्ष कथित उत्तम वचन, धर्म मार्गअरहन्त। ६ सो सब नाम कहो तुम्ही,शिवमारगके सत॥ॐ ह्रीपहँ प्रियवचनाय नमःअध्यं ६३३॥ | महाबुद्धिके धाम हो, सूक्षम शुद्ध अवाच्य ।
चार ज्ञान नहीं गम्य हो, वस्तुरूप सो साच्य ॥ॐह्रीप्रहं निग्वचनीयाय नम.अगे। पूजा सूक्षमतें सूक्षम विष, तुमको है परवेश । प्रापै सूक्षम रूप हो, राजत निज परदेश ॥ॐहीअहं अनीशाय नमः अध्यं ॥९३५।।
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कर्म प्रबन्ध सुघन पटल, ताको छायानवार । सिद्ध रविघन ज्योति प्रकट भई, पूरणता विधि धारीय गायन वि० निज प्रदेशमें यिर सदा, योग निमित्त निवार। ३८६३ अचल शिवालयके विष,तिष्ठ सिद्ध अपार पहं देर :
सन्त नमन प्रिय हो अती, सज्जन वल्लभ जान। है जनि जन मन प्यारे सही, नमत होतकल्याणीप Na Times काल अनन्तानन्त ली, कर शिवालय वास। अव्यय अविनाशी सथिरस्वयंज्योतिपरकाशहीपान १ स्व प्रातममें वाग है, रुलत नहीं संसार। ज्योके त्यों निश्चल सदा, बंदत भवधि पार होपनिrefers इसुभग सरावन योग्य है, उत्तम भाव धराय।
पष्टम तीन लोकमे सार है, मुनिजन बंक्तिपाय |हीपह प्रेमापार IITTET जा सबके अग्रेसर भये, सबके हो सिरताज ।
३३८५ तमसे बड़ा न और है, सवके कर हो काज 1 ही पदं पेष्ठाय नम पापं ॥१४॥
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स्व प्रदेश निष्कम्प है, द्रव्य भाव विधि नाश । सद्ध इष्टानिष्ट निमितधरै, निज आनन्दविलास॥ॐ ह्रीमह निष्कपप्रदेशजिनायनम मध्यं । वि०१ उचित क्षमादिक अर्थ सब, सत्य सुन्यास सुलब्ध । ३६० तिन सबके स्वामीन,पूरण सुखी सुअब्ध ॥ ह्रीमह उत्तमक्षमादिगुणान्धिजिनाय०३
महा कठिन दुःशक्य है, यह संसार निकास। तुमपायो पुरुषार्थ करि,लहोस्वलब्धि अवास॥ह्री महंपूज्यपादजिनाय नम मध्य । परमारथ निज गुरण कहें, मोक्ष प्राप्तिमें होय। स्वारथ इन्द्रियजन्य वे,सो तुम इनको खोय ॥ॐ ह्रींग्रहपरमार्थगुणनिधानायनम'प्रध्य। पर निमित्त या भेद करि, या उपचरित कहाय । सो तुममें सब लय भये,मानो सुप्त कराय॥ ही अहं ब्यवहारमुप्ताय नम अध्यं ।१४७॥ स्व पदमे नित रमन है, अप्रमाद अधिकाय। निज गुरण सदाप्रकाशहै,अतुलबलीन पाय॥ ह्रींग्रह प्रतिजागरूकाय नम प्रय।१४- पूजा सकल उपद्रव मिटि गये, जे थे परकी साथ। निर्भय सदा सुखी भये, बंदूंनमि निजमाथ॥ ह्रीअहं प्रतिसुस्थिताय नम.अध्यं ।१४४
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कहै हुवे हो नेमस, परमाराध्य अनादि । तुम महातमा जगतके, और कुदेव कुवादि ॥ीप उदिनोस्तिमात्मानम प्रय तत्त्वज्ञान अनुकूल सब, शब्द प्रयोग विचार। तिसके तुम अध्याय हो, अर्थ प्रकाशन हार हीपहारमाननियनमप्रयं । ना काहूँ सो जन्म हो, ना काहू सो नाश।
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पपरकाशीपई प्रतिमाय नम पा९५२
६ अप्रमारग अत्यन्त है, तुम सन्मति परकाश । तेजरूप उत्सवमई, पाप-तिमिरको नाश ॥ॐ ह्री प्रहं प्रमेयमहिम्ने नम अयं ॥९५३ रागादिक मलको हरै, तनक नहीं अनवास। महाविशुद्ध अत्यंत है, हरो पाप-अहि-डांस॥ॐहीं पह प्रत्यन्तशुद्धायनम प्रय|९५४ } स्वयं सिद्ध भरतार हो, शिव कामिनिके संग।
प्रष्टम रमण भाव निज योगमे, मानो अति आनंद ॥ॐ ह्रींग्रह मिद्धिम्बय वरायनम मध्य पूजा ६ विविध प्रकार न धरत है, है अजन्म अव्यक्त। सक्षम सिद्ध समान है, स्वयं स्वभाव सव्यक्त होगह मिदानुसार नम वयं ..
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मोक्षरूप शभ वासके, आप मार्ग निरखेद । मिद्ध भविजन सुलभगमन करै, जगत वासको छेद ॥ ह्रींप्रहशिवपुरीपयायनमःअध्य९५७ वि०१ गुरणसमूह अत्यन्त है कोई न पावै पार ।
थकित रहेश्रुतकवली,निज बल कथनअगार ॥ह्रांग्रहअनन्तगुणसमूहजिनायनमः० इक अवगाह प्रदेशमे, हो अवगाह अनन्त । पर उपाधि निग्रहकियो,मुख्य प्रधान अनंत ॥ॐ ह्रींमहंपरउपापिनिग्रहकारकजिनाय० स्वयं सिद्ध निज वस्तु हो, आगम इन्द्रिय ज्ञान । कादिक लक्षण नहीं, स्वयं स्वभाव प्रमान ॥ॐ ह्रींमहंस्यप सिद्धजिनायनमःअध्य। हो प्रछन्न इन्द्रिय अगम, प्रकट न जाने कोय। सकलगुणको लकियो,निजातमसेखोय ॥ोह्रीमह इन्द्रियागम्यजिनायनम प्रय निज गुण करि निज पोषियो, सकल क्षुद्रता त्याग। पूरण निजपद पाय करि, तिष्ठत हो बड़भाग॥ोह्रीं ग्रहं पुष्टाय नमःअयं ।९६२॥ पूजा ब्रह्मचर्य पुरण धरै, निजपद रमता धार ।
३९२ सहसपठारह भेदकरि,शील सुभाव सुसार॥ॐ ह्रीप्रहं मष्टादशसहस्रशीलेश्वरायनमः ।
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महा पुन्य शिवपदकमल, ताके दल विकसान ।
मुनि मन भूमर रमरण सुथल, गंधानंद महान ॥ॐ ह्री ग्रहपुण्य सकुलायनम अर्घ्यं ॥ ९६४ मति श्रुतश्रवधि त्रिज्ञान युत, स्वयं बुद्ध भगवान ।
मिद्ध ऋतयुगमे मुनि व्रत धरो, शिवसाधकपरधान ॥ॐ ह्रीं ग्रर्हं व्रताग्रयुग्यायनम प्रर्घ्यं । १६५ परम शुक्ल शुभ ध्यानमे, तुम सेवन हितकार ।
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संत उपासक आपके, कर्मबंध छुटकार ॥ ॐ ह्रीं श्रीं परमशुक्लध्यानिने नमःप्रयं । ९६६ क्षारवार इस जलधिको, शीघ्र कियो तुम अन्त । गोखुरकार उलधियो, धरो स्व भुज बलवंत ॥ॐ ही पहं ससारसमुद्रता र कजिनाय नमः एक समय मे गमन कर, कियो शिवालय वास ।
काल अनंत अचल रहो, मेटो जग भूम त्रास ॥ ह्रीं श्रीं क्षेपिष्ठाय नमःग्रर्घ्यं । १६८। पंचाक्षर लघु जापसे, जितना लागे काल ।
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प्रतिम पाया शुक्लका, ध्याय बसै जग भाल ॥ ह्री प्रपचलध्वक्षरस्थितये नमः मध्यं । पूजा प्रकृति त्रयोदश शेष है, जबतक मोक्ष न होय ।
सर्व प्रकृति थिति मेटकै पहुँचेशिवपुर सोय ॥ॐ ह्रीमहंत्रयो दणप्रकृतिस्थितिविनाशकाय
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। तेरह विधि चारित्रके, तुम हो पूरण शूर । सिद्ध
निजपुरुषारथकरिलियो,शिवपुर आनंद पूर॥प्रोह्रीग्रह त्रयोदशचारित्रपूर्णताय नमः । निज सुखमें अन्तर नहीं, परसो हानि न होय । स्वस्थरूप परदेश जिन, तिन पूजत हूँ सोय ॥ ह्रीमहंपच्छेजिनायनमःअध्यं ॥१७॥ निज पूजनतें देत हो, शिव संपति अधिकाय । याते पुजन योग्य हो, पूजूमन वच काय॥ॐ ह्रींप्रहं शिवदाश्रीजिनाय नम अध्यं ॥१७३३
मोह महा परचण्ड बल, सके न तुमको जीत। ३ नम तुम्हे जयवंत हो, धार सु उरमें प्रीत॥ॐह्री अहं प्रजयजिनाय नमःमय 1९७४ १ यग विधानमे जजत ही, आप मिले निधि रूप। ६ तुमसमान नहींऔर धन,हरत दरिद दुखकूप ॥ॐ ह्रींप्रहं याज्याय नम मध्य। १७॥
लोकोत्तर सम्पद विभव, है सर्वस्व अघाय । तमसे अधिक न औरहै,सुख विभूतिशिवराय॥ॐ ह्रीमहं मनपरिग्रहायनम प्रय॑ । तुमरो अाह्वानन यजन, प्रासुक विधिसे योग । त्रिजगप्रमोलिक निधिसही,देतपर्म सुखभोगह्री प्रहं अनर्घहेतवेनम.मध्यं ।९७७ १
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सिद्ध
एक देश मुनिराज हैं, सर्व देश जिनराज । भव तन भोग विरक्तता,निर्ममत्त्व सुख साज ॥ीप रहा या परदुखमै दुख हो जहां, मोह प्रकृतिके द्वार ।
दया कहै तिसको सुमति, सोतुम मोहनिवार ॥ोप पयागोहापाम.पर्धा वि० स्वयं बुद्ध भगवान हो, सुर मुनि पूजन योग।
विन शिक्षा शिवमार्गको,साधोहो धरि योग।पोह्रीं पढ़ पान या नमःपाय 18017 तुम एकत्व अन्यत्व हो, परसो नहीं सम्बन्ध । स्वयसिद्ध अविरुद्ध हो, नाशो जगत प्रवन्ध ।। पाहोपर मनानाग नम पाय
काहूको नहिं यजन करि, गुरुका नहिं उपदेश । ई स्वयंबुद्ध स्व-शक्ति हो, राजो शुद्ध हमेश ॥ ही पह परीक्षाय नम पार्य । ६८२॥
तुम त्रिभुवनके पूज्य हो, यजो न काहू और । निजहितमे रतहो सदा, पर निमित्त को छोर॥ ही पह त्रिभुनपूग्यापनम पयं । " अरहन्तादि उपासना, मोह उदयसो होय ! स्वय ज्ञानमें लय भए, मोह कर्मको खोय ॥ हों महं मोक्षकाप नम.पर्य |
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गौरण रूप परिणाम है, मुख धु वता गुरण धार । अक्षयप्रविनश्वरस्वपद,स्वस्थसुथिर अविकार॥ह्रीमहं प्रक्षयाय नमःअध्यं ९८५ सक्षम शुद्ध स्वभाव है, लहै न गरणधर पार। इन्द्र तथा अहमिन्द्र सन, अभिलाषितउरधार॥हीअहं अगम्यायनम अध्य।९८६ ।। अचल शिवलायके विषै, टंकोत्कीर्ण समान । सदाविराजो सखसहित,जगत भमरणको हान ॥ ह्रीमहं अगमकायनमःअध्या९८७ रमरण योग छद्मस्थके, नाहि अलिंग सरूप । पर प्रवेश विन शुद्धता, धारत सहज अनूपपोह्री प्रहं भरम्याय नम अध्यं ।९८८ पर पदार्थ इच्छुक नहीं, इष्टानिष्ट निवार । सथिर रहो निज आत्ममे, बंदत हूँ हितधार॥ोह्रीमहनिजात्मसुथिराय नम.अध्यं । जाको पार न पाइयो, अवधि रहित अत्यन्त । सो तम ज्ञान महान है, आशा राखे संत्त॥ोह्रीं पहँ ज्ञाननिमंराय नमःमयं ॥१६० अष्टम मनिजन जिन सेवन करै, पावै निज पद सार। महा शुद्ध उपयोग मय, वरतत हैं सुखकार ॥ॐह्रीमहमहायोगीश्वरायनमःमध्यं ॥ २९५
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भाव शुद्ध सो देहमे, द्रव्य शुद्ध विन देह । सिद्धः कर्म वर्गरणा विन लिये, पूजत हूँ धरि नेह॥ॐह्रीप्रहं द्रव्यशुद्धाय नम प्रध्यं ।९१२॥ वि० पंच प्रकार शरीरको, मूल कियो विध्वंश । ३९७ स्व प्रदेशमय राजते,पर मिलाप नहीं अंश ॥ॐ ह्री प्रहं प्रदेशाय नम प्रयं । ६६३।
जाको फेर न जन्म है, फिर नाहीं संसार। सो पंचमगति शिवमई, पायो तुम निरधार ॥ ह्रींपह पपुनभगायनम प्रय। सकल इन्द्रियां व्यर्थ करि, केवलज्ञान सहाय । सब द्रव्यनिको ज्ञान है, गुरण अनंत पर्याय ॥ ही प्रहं जानकांवदे नमःप्रय 1880 जीव मात्र निज धन सहित, गुरण समूह मरिण खान। अन्य विभाव विभव नहीं, महा शुद्ध अविकार ॥ॐ ह्रींग्रहनीवधनायनमःप्रयं सिद्ध भये परसिद्ध तुम, निज पुरुषारथ साध। महा शुद्ध निज प्रात्म मय,सदा रहे निरबाध ॥ॐ ह्रीग्रह मिनाय नम प्रय। १९७ प्रष्टम लोकशिखरपर थिर भए, ज्यो मंदिर मरिण कुम्भ । निजशरीर अवगाहमें,अचल सुथान अलुम्भ ॥ॐ ह्रीपहनोकास्थितायनम अध्यं ६
पूजा 1 ३६८
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सहज निरामय भेद विन, निराबाध निस्संग।
एक रूप सामान्य हो,निज विशेष मई अंग ॥ ह्रीमहनिर्द्वन्दाय नम.अयं IIEEEII वि० जे अविभाग प्रछेद हैं, इक गुणके सु अनत । ३६८ तुममें पूरण गुरण सही, धरो अनंतानन्त ॥ह्रीमहंप्रनतानतगुणायनम अध्यं १०००
पर मिलाप नहीं लेश है, स्वप्रदेशमय रूप।। क्षयोपशम ज्ञानी तुम्हें, जानत नहीं स्वरूप॥ॐ ह्रीमहं प्रात्मरूपाय नम प्रध्या १००१। क्षमा प्रात्मको भाव है, क्रोध कर्मसों घात । सो तुम कर्म खिपाइयो, क्षमा सु भाव धरात॥ ह्रीमह महाक्षमायनम प्रध्य १००२६ शील सुभाव सु प्रात्मको, क्षोभ रहित सुखदाय। निर प्राकलता धार है, बंदू तिनके पाय॥ॐ ह्रीमहमहाशीलाय नम प्रध्यं । १००३।। शशि स्वभाव ज्यों शांति धर, और न शांति धराय ।
अष्टम श्राप शांतिपर शांतिकर, भवदुख दाह मिटाय॥हीप्रहमहाशातायनम मज़१००४ पूजा तुम सम को बलवान है, जीत्यो मोह प्रचंड । धरोअनंत स्व वीर्यको,निजपद सुथिर अखंड॥ ह्रीमह मनतवीर्यात्मकायनम. मध्यं। SV
६.३६०
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लोकालोक विलोकियो, संशय विन इकवार । सिद्धः खेद रहित निश्चल सुखी, स्वच्छ पारसी सार॥ह्री महलोपालोकज्ञायनम अध्य।
निरावर्ण स्वै गुण सहित, निजानन्द रस भोग । ३९६ अव्यय अविनाशीसदा,अजरअमर शुभयोग ॥ॐहीमह निगवरणायनम प्रध्यं १ ००७
परम मुनीश्वर ध्यान धर, पावै निजपद सार । ज्यों रविबिंब प्रकाशकर,घटपटसहज निहार ॥ॐ ह्रीअर्हध्येयगुणाय नम.प्रयं १०००६ कवलाहारी कहत हैं, महा मूढ़ मतिमंद । प्रशन असाता पीरविन,पाप भये सुखकंद ह्रीमहंअनशनदग्धायनमःमध्यं। १.०६१ लोक शीश छवि देत हो, घरो प्रकाश अनूप। बुधजन आदर जोग हो,सहज अकम्प सरूप ॥ ह्रीमहं त्रिलोकमणयेनम अध्यं १०१.४ ६ महा गुणन की रास हो, लोकालोक प्रजन्त । । सुर मुनि पार न पावते,तुम्है नमै नित संत ॥ॐ ह्रीमहंमनतगुणप्राप्ताय नम अयं । अष्टम । परम सु गुरण परिपूर्ण हो, मलिन भाव नहीं लेश ।
पूजा जगजीवन आराध्य हो,हम तुम यही विशेष ॥ॐही अहं परमात्मने नमःप्रध्या १०१२ ३
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सिद्ध
वि०
४.०
केवल ऋद्धि महान है, अतिशय युत तप सार। सो तुम पायो सहज हो,मुनिगरण बंदनहार ॥ह्रोग्रहमहाऋषये नम अयं । १० १३ भूत भविष्यत् कालको, कभी न होवे अन्त । नितप्रति शिवपद पायकर, होत अनंतानंत ॥ ह्रींग्रहअनन्तसिद्धेभ्योनम अध्य।१०१४ निर्भय निर आकुलित हो, स्वयं स्वस्थ निरखेद । काहू विधि घबाट नहीं,निज आनंद अभेद ॥ॐ ह्रीग्रह प्रक्षोमायनम'मध्यं ।१०१५ जो गुण गुरपी सुभेद करि, सो जड़ मती अजान । निज गुरण गुरणी सु एकता,स्वयंबुद्ध भगवान ॥ॐ ह्रीमहस्वयबुद्धाय नम अध्यं।१०१६ निरावरण निज ज्ञानमे, सर्व स्पष्ट दिखाय । संशयविन नहिं भरमहै,सुथिर रहो सुखपाय ॥ ह्रीअर्हनिरावरणज्ञानायनम अध्या । राग द्वेष के अंश मे, मत्सर भाव कहात । सो तुम नासो मूल ही, रहै कहांसो पात ॥ॐह्रीग्रह वीतमत्सराय नम अयं ।१०१८। पूजा अणुवत् लोकालोक है, जाके ज्ञान मझार ।
४०० सो तुम ज्ञान अथाह है, बंदू मै चितधार ॥ॐ ह्रीमहंप्रनन्तानन्तज्ञानाय नम अध्य।१०१६/
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हस्तरेख सम देख हो, लोकालोक सरूप । वि० सो अनंत दर्शन धरो, नमत मिटै भूम कूप ॥हीअहंप्रनतानतदर्शनाय नम अयं । है ४०१ तीन लोकका पूज्यपन, प्रकट कहै दिखलाय ।
। तीनलोक शिरवास है, लोकोत्तम सुखदाय ॥ ह्रीमहलोकशिखरवासिने नम अध्या है ईनिज पदमे लवलीन है, निज रस स्वाद अघाय। . । परसों इह रस गुप्त है, कोटि यत्न नहीं पाय॥ ह्रीहंसगुमात्मनेनम अयं । १०२२ १
कर्म प्रकृतिको मूल नहीं, द्रव्य रूप यह भाव । महा स्वच्छ निर्मल दिपै,ज्यो रवि मेघप्रभाव ॥ ह्रीमहंपूतात्मनेनम प्रय हीन अभाव न शक्ति है, कर्मबन्धको नाश ।
अष्टर उदय भये तुम गुणसकल,महा विभवको राश ॥ ही अहमहोदयाय नम अर्घ्य १०२४४ जना पाप रूप दुख नाशियो, मोक्ष रूप सुख रास । दासन प्रति मंगलकरण,स्वयं'संत'हैदासाह्रींमहं महामगलात्मकजिनाय नम प्रध्वं ।।
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दोहा--कहैं कहालो तुम सुगुण, अंशमात्र नहीं अन्त ।
मंगलीक तुम नाम ही, जानि भजै निज 'संत' ॥१॥ ह्री अर्ह पूर्णस्वगुणजिनाय नम' अर्घ्य, पूर्णाऱ्या निर्वपामीति स्वाहा ।
- अथ' जयमाला । दोहा--होनहार तुम गुण कथन, जीभ द्वार नहीं होय। ।
काष्ठ पांवसै अनिल थल, नाप सके नहीं कोय ॥१॥ सूक्षम शुद्ध स्वरूपका, कहना है व्यवहार ।। सो व्यवहारातीत है, यातें हम लाचार ॥२॥ पै जो हम कछु कहत है, शान्ति हेत भगवन्त । वार वार थुति करनमे, नहिं पुनरुक्त भनन्त ॥३॥
पद्धडी छन्द मात्रा-१६ । जय स्वयं शक्ति प्राधार योग, जय स्वयं स्वस्थ आनंद भोग । जय स्वयं विकास प्राभास भास, जय स्वयं सिद्ध निजपद निवास॥४॥
अष्टम
४०२
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जय स्वयंबुद्ध संकल्प टार, जय स्वयं शुद्ध रागादि जार। जय स्वय स्वगुरण प्राचार धार, जय स्वयं सुखी अक्षय अपार ॥५॥ जय स्वयं चतुष्टय राजमान, जय स्वयं अनन्त सुगुरण निधान ।। जय स्वयं स्वस्थ सुस्थिर अयोग, जय स्वयं स्वरूप मनोग योग ॥६॥ जय स्वयं स्वच्छ निज ज्ञान पूर, जय स्वयं वीर्य रिपु वज चर।। जय महामुनिन आराध्य जान, जय निपुरणमती तत्त्वज्ञ मान ॥७॥ जय सन्तनि मन आनन्दकार, जय सज्जन चित वल्लभ अपार । जय सुरगण गावत हर्ष पाय,जय कवि यश कथन न करि अघाय॥८॥ तुम महा तीर्थ भवि तरण हेत, तुम महाधर्म उद्धार देत । । तुम महामंत्र विष विघ्न जार, अघ रोग रसायन कहो सार ॥६॥ । तुम महाशास्त्रका मूल ज्ञेय, तुम महा तत्त्व हो उपादेय।
प्रष्टम | तिहुँ लोक महामंगल सु रूप, लोकत्रय सर्वोत्तम अनूप ॥१०॥ पूजा
तिहुँ लोक शरण अघ-हर महान, भवि देत परम पद सुख निधान । १४०३ । संसार महासागर प्रथाह, नित जन्म मरण धारा प्रवाह ॥११॥
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सो काल अनन्त दियो बिताय, तामे झकोर दुख रूप खाय ।
वि०
सिद्ध मो दुखी देख उर दया आन, इम पार करो कर ग्रहरण पान ॥१२॥ तुम ही हो इस पुरुषार्थ जोग, अरु है अशक्त करि विषय रोग । सुर नर पशु दास कहें अनन्त, इनमें से भी इक जान 'सन्त' ॥१३॥
४०४
घत्ता - कवित्त |
जय विधन जलधि जल हनन पवन बल सकल पाप मल जारन हो । जय मोह उपल हन वजू असल दुख अनिल ताप जल कारन हो ॥ ज्यू पंगु चढ़ गिर, गूंग भरे सुर, अभुज सिन्धु तर कष्ट भरें । त्यो तुम थुति काम महा लज ठाम, सु अंत 'संत' पररणाम करें || ॐ ह्री चतुर्विंशत्यधिकसहस्रगुरणयुक्तसिद्ध' भ्यो नम अध्यं निर्वपामीति स्वाहा । इति पूर्णाध्यं ।
दोहा -- तीन लोकचूड़ामणि, सदा रहो जयवन्त । विघ्नहरण मंगल करन, तुम्हें नमें नित 'संत' ॥१॥
इत्याशीर्वाद ।
अष्टम
पूजा
४०४
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बि०
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[ पूर्ण आशीर्वाद ] डिल्ल छन्द |
पूरण मंगलरूप महा यह पाठ है; सरस सुरुचिं सुखकार भक्तिकोठाठ है । शब्दग्रर्थ मे चूकहोय तो होकहीं; श्रुतिवाचक सबशब्द अर्थ यामेंसही |१| जिनगुणकररण प्रारंभहास्यकोधाम है; वायसका नहिसिंधु उतीरण कामहै पै भक्तनिकी रीति सनातन है यही; क्षमाकरो भगवंत शांति पूररणमही । २
इत्याशीर्वाद - परिपुष्पाञ्जलि क्षिपेत् ।
इति श्री सिद्धच पाठ भाषा — कवि सन्तलालजी कृत ममाप्त । जाप्य मत्र - ॐ ह्रीं असि श्रा उ सा नम ॥ १०८ ॥
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★ श्री सिद्धचक्र की आरती
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जय सिद्धचक्र देवा जय सिद्धचक देवा ।
करत तुम्हारी निश दिन मन मे सुरनरमुनि सेवा ॥ जय ॥ ज्ञानावर दर्शनावरणी मोह अन्तराया ।
नाम गोत्र वेदनि आयु को नाशि मोक्ष पाया ॥ जय ॥ ज्ञान अनत अनत दर्श सुख वल अनतवारी ।
अव्यावाघ अमूर्ति प्रगुरुलघु अवगाहनधारी ॥ जय ॥
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सिद्ध वि० ४०६
तुम अशरीर शुद्र चिन्मूरति स्वातम रसभोगी।
तुम्हे जपे आचार्योपाध्याय सर्वसाधुयोगी ।। जय.॥ ब्रह्मा विष्णु महेश सुरेश गणेश तुम्हे घ्यावें।
भवि-अलि तुम चरणावुज सेवत निर्भयपद पावे ॥ जय.॥ सकट टारन अघम उघारन-भवसागर तरणा।
अष्ट दुष्ट रिपु कर्म नष्ट करि जन्म मरण हरणा ।। जय ।। दीन दुखी असमर्थ दरिद्री निर्धन तन रोगी ।
सिद्धचक्र को ध्याय भये ते सुर नर सुख भोगी ॥ जय ।। डाकिनि शाकिनि भूत पिशाचिनि व्यन्तर उपसर्गा।
नामलेत भगिजाय छिनकमे सब देवीदुर्गा ॥ जय ॥ वन रन शत्रु अग्निजल पर्वत विषधर पचानन ।
मिटे सकल भय कष्ट करैजे सिद्धचक्र सुमिरन ।। जय.।। मैनासुन्दरि कियो पाठ यह पर्व अठाइनिमे ।
पति युत सात शतक कोढिन का गया कुष्ट छिनमें ।जय ।। कार्तिक फागुन साढ आठ दिन सिद्धचक्र पूजा।
कर शुद्ध भावो से 'मक्खन' लहैं न भव दूजा ।। जय.॥
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वि०
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1
-: भजन :--
श्री सिद्धचक्र का पाठ करो दिन आठ, ठाठ से प्रारणी, फल पायो मैना राणी ॥ टेक ॥। मैना सुन्दरि इक नारी थी, कोढी पति लखि दुखिया थी ।
नही पडे चैन दिन रैन व्यथित अकुलानी ।। फल पायो० ॥
जो पति का कष्ट मिटाऊ गी, तो उभय लोक सुख पाऊ गी ।
नहिं अजागलस्तनवत् निष्फल जिन्दगानी || फल पायो० ।।
इक दिवस गई जिन मन्दिर मे, दर्शन करि अति हर्षी उरमे ।
फिर लखे साधु निग्रंथ दिगम्बर ज्ञानी ॥ फल पायो० ॥
बैठी मुनिको करि नमस्कार, निज निन्दा करती बार बार ।
भरि अश्रु नयन कही मुनि सो दुखद कहानी || फल पायो० ॥
बोले मुनि पुत्री धैर्य धरो, श्री सिद्धचक्र का पाठ करो ।
ह रहे कुष्ठ की तन मे नाम निशानी ।। फल पायो० ॥
सुनि साघु वचन हर्षी मैना, नहि होय झूठ मुनि के बैना ।
करि के श्रद्धा श्री सिद्धचक्र की ठानी || फल पयो० ॥
जब पर्व अठाई आया है, उत्सवयुत पाठ कराया है ।
सब के तन छिडका यन्त्र हवन का पानी ।। फल पायो० ॥
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________________ सिद्ध वि० भव भोग भोगि योगीश भये, श्रीपाल कर्म हनि मोक्ष गये / दूजे भव मैना पावे शिव रजधानी // फल पायो० / / जो पाठ करै मन वच तन से, वे छूटि जाय भव-बन्धन से। "मक्खन" मत करो विकल्प कहा जिन-बानी।।फल पायो०।। 408 १अष्टम AMMA पूजा -Resreranam