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सिद्ध
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सौरठा-मोहादिक रिपु जीति, निजगुण निधि सहजे लहो । विलसो सदा पुनीति, अचल रूप बन्दो सदा ॥२२८॥
ॐ ह्री प्रचलगुरणाय नम अयं । उत्तम क्षाइक भाव, क्षय उपशम सब गये विनशि । पायो सहज सुभाव, अचल रूप बन्दो सदा ॥२२६॥
ॐ ह्री अचलगुणाय नमः अर्घ्य । अथिर रूप संसार, त्याग सुथिर निज रूप गहि । रहो सदा अविकार, अचल रूप बन्दों सदा ॥२३०॥ ____ह्री प्रचलस्वरूपाय नमः अर्घ्य ।
मोतीयादाम छन्द । निराश्रित स्वाश्रित पानंद धाम, परै परसो न परै कछु काम । प्रबिन्दु प्रबंधु अबंध अमंद, करू पद बंद रहूँ सुखवृन्द ॥२३१॥
____ॐ ह्री निरालम्बाय नम अध्यं ।। अराग प्रदोष अशोक अभोग, अनिष्ट संयोग न इष्ट वियोग । अबिन्दु प्रबंधु अबंध अमंद, कर्पद बंद रहूं सुखवृन्द ॥२३२॥
____ॐ ह्री पालम्बरहिताय नमः अर्घ्य ।
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पष्ठम
पूजा
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