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सद्ध०
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ॐ ह्री श्री सिद्धपरमेष्ठिने २५६ गुरण सहित श्री समत्तणाणदसण वीर्य सुहमत्तहेव अवग्गाहरण अगुरुल घुमब्वावाह क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्य नि०॥५॥
सरधान दीप प्रदीप्त अंतर मोह तिमिर नशावही। मरिणदीप जगमग ज्योति तेज सुभास भेंट धरावही ॥
यह उभय० । अर्द्ध शत षट०॥ ॐ ह्री श्री सिद्धपरमेष्ठिने २५६ गुण सहित श्री समत्तणाणदसण वीर्य सुहमत्तहेव अवग्गाहरण अगुरुलघुमवावाह मोहांधकार विनाशनाय दीपं नि०६||
आनन्द धर्म प्रभावना मन घटा धूम् सु छावहीं। गंधित दरव शुभ घारण प्रिय प्रति अग्नि संग जरावहीं॥ यह उभय द्रव्य संयोग त्रिभुवन पूज्य पूज रचावही अर्द्ध
ॐ ह्री श्रासिद्ध रमेष्ठिने २५६ गुण सहित श्री समत्तणाणदसण वीर्य सुहमत्तहेव अवग्गाहरण प्रगुरुलघुमवावाह प्रष्ट कर्मवहनाय धूप निर्वपामोति स्वाहा ।।७।।
शुभ चितवन फल विविध रस युत भक्ति तरु उपजावही। करसना लुभावन कल्पतरुके सुर असुर मन भावही॥ यह उभय द्रव्य संयोग त्रिभुवन पूज्य पूज रचावही । अर्द्ध
"केला नरगी विल्व आम्र सु चारु कमरख लावही" ऐसा पाठ भी है।
ही प्रसिद्ध रमेष्ठिनष्ट कर्मवहनाय धूप ति
तरु उपजावह
षष्ठम
पूजा