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मित वि० १२
ॐ ह्री श्रीसिद्धपरमेष्ठिने २५६ गुणसहित श्री समत्तणाणदसण वीर्य सुहमत्तहेव' भवग्गाहण अगु लघुमव्वावाह मोक्षफलप्राप्तये फल निवपामीति स्वाहा ॥८॥
समकित विमल वसु अंग युत करि अर्घ अन्तर भावही। वसु दरव अर्घ बनाय उत्तम देहु हर्ष उपावही॥ यह उभय द्रव्य संयोग त्रिभुवन पूज्य पूज रचावही । द्वे अर्द्ध शत षट् अधिक नाम उचार विरद सुगावही ॥
ॐ ह्री श्री सिद्धपरमेष्ठिने २५६ गुणसहित श्री समत्तणाणदसण वीय सुहमत्तहेव' अवग्गाहण अगुरुलघुमव्वावाह अन_पदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ॥६॥ गीताछंद-निर्मल सलिल शुभ वास चंदन, धवल अक्षय युत अनी।
शुभ पुष्प मधुकर नित रमें, चरु प्रचुर स्वादसुविधि घनी॥ वर दीपमाल उजाल, धूपायन रसायन फल भलै । करि अर्घ सिद्ध समूह पूजत, कर्मदल सब दलमलै ॥ ते कर्म प्रकृति नशाय युगपति, ज्ञान निर्मल रूप है। दुख जन्म टाल अपार गुरण, सूक्षम सरूप अनूप है। कर्माष्ट बिन त्रैलोक्य पूज्य, अछेद शिव कमलापती।
षष्ठम
पूजा
હર