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सिद्ध समान सु शुभ नहीं, और नाम विख्यात ।
सिद्ध० कभू न जगमे जन्म फिर, सोई हढ़ कहलात ॥ॐ ह्रीं अहं दृढीयसे नमः प्रर्घ्यं ॥ ४१३॥ जन्म मरणके कष्ट से; सर्व लोक भयवंत ।
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.ताको नाश अभय कररण, तुम्हे नमे जियसंत ॥ॐ ह्रीं श्रहं भ्रमयकराय नम प्रर्घ्यं । ४१४
ज्ञानानन्द स्व लक्ष्मी, भोगत हो निरखेद ।
महाभोग या भये, है स्वाधीन प्रवेद ॥ॐ ह्री ग्रहं महामोगाय नम अर्घ्यं ||४१५।। असाधारण असमान हो, सर्वोत्तम उतकृष्ट ।
परसो भिन्न खिन्न हो, पायो पद विनष्ट ॥ॐ ह्रीं श्रहं निरौपम्यायनम मध्यं । ४१६ • दश लक्षरण शुभ धर्मके, राजसम्पदा भोग । नायक हो धर्म, पूजि नम तिहुँ योग ही धर्मसाम्राज्यनाथकायनमःश्रर्घ्यं अधिपति स्वामि स्वभाव- निज, पर कृत भाव विडार । तिहू वेद रति मान बिन, संपूररण सुखकार ॥ ॐ ह्री महं निर्वेदप्रवृत्ताय नमः अयं ४६८ - यथायोग्य पद पाइयों, यथायोग्य संपूर्ण ।
नमू त्रियोग संभारिके, करू पाप मल चूर्ण ॥ॐ ह्रीं सपूर्णयोगिने नमःप्रयं । ४११
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अष्टम
पूजा
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