________________
८८
ॐ ह्री अहं' अष्टाविंशत्यधिकशतदलोपरिस्थितसिद्ध भ्यो नमः अर्घ्य । मिद्धः दोहा--जो तुम ध्यावें भावसों, ते पावें निज भाव।। वि. अगनि पाक संयोग करि, शुद्ध सुवर्ण उपाय ॥१२॥
इत्याशीर्वादः।
इति पञ्चमी पूजा सम्पूर्ण । * अथ श्री षन्तमी पूजा २५६ गुण पहित *
छप्पय छन्द ! ऊरध अधो सरेफ बिन्दु हंकार विराजै, अकारादि स्वर लिप्त कणिका अन्तसु छाजै । वर्गनि परित वसुदल अम्बुज तत्त्व संधि धर,
अग्रभागमें मंत्र अनाहत सोहत अतिवर ॥ पुनि अन्त ही बेढयो परम, सुर ध्यावत अरि नागको। हवै केहरि सम पूजन निमित, सिद्धचक्र मंगल करो ॥१॥ ॐ ह्री श्री सिद्धपरमेष्ठिन् २५६ गुण सहित विराजमान पत्रावतरावतर सवौषट् प्राह्वानन, अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठ. स्थापनं । पत्र मम सन्निहितो भव २ वषट् सन्निधिकरणं ।
षष्ठम पूजा