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सिद्ध०
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निरभेद स्वरूप अनूपा, है श तनी शिव भूपा ।
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'तुम गुरण अनन्त श्रुत गाया, हम सरधत शीश नवाया ॥ ॐ ह्री पाठक दर्शनस्वरूपशरणाय नम अर्घ्यं ।। ३४१ ।। निजात्म-स्वरूप लखाया, इह काररण शिवपद पाया । तुम गुरण. ॐ ह्री पाठकसम्यक्त्वशरणाय नम अर्घ्यं ।। ३४२ ।।
प्रांतम-स्वरूप संरधाना, तुम शरण गहौ भगवाना । तुम गुण.
ॐ ह्री पाठकसम्यक्त्वस्वरूपाय नमः अध्यं ॥ २४३ ॥
निज तम साधन माहीं, पुरुषारथ छूटै नाहीं । तुम गुण. ह्री पाठकवीर्यशर रंगाय नमः अयं ॥ ३४४।। श्रातम शकती प्रगटावे, तब निज स्वरूप जिय पावै । तुम गुरण. ओ ह्री पाठकवीर्यस्वरूपशरणाय नम· श्रध्य “।।३४५।।
परमातम वीर्य महा है, पर निमित नं लेश तहां है । तुम गुरण. श्री ह्री पाठकवी परमात्मशरणाय नम अर्घ्यं ॥ ३४६ ॥ श्रुतद्वादशांग जिनवानी, निश्चय शिववास करानी । तुम गुरण. श्री ह्री पाठकद्वादशागशरणाय नमः अर्घ्यं ॥ २४७ ॥
षष्ठम
पूजा २२६