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3 निज ज्ञान सुधारस पीवत, आनंद सुभाव सु जीवत । तुम गुण सिद्ध
ओ ह्री पाठकवीर्यगुणपर्यायाय नम अर्घ्य ।। ३३३ ।। वि० अविशेष अनन्त सुभावा, तुम दर्शन माहि लखावा । तुम गुरग०
पो ह्री पाठकदर्शनपर्यायाय नम अध्यं ।। ३३४ ।। इकबार लखे सबहीको, तद्रूप निजातम ही को। तुम गुरग०
प्रो ह्री पाठकदर्शनपर्यायस्वरूपाय नम अध्यं ॥ ३३५ ॥ सपरस प्रादिक गुण नाहीं, चिद् प निजातम माहीं । तुम गुरग०
*ह्री पाठकज्ञानद्रव्याय नमः अध्यं ।। ३३६ ।। शरणागति दीनदयाला, हम पूजत भाव विशाला । तुम गुण.
ॐ ह्री पाठरशरणाय नम अध्यं ।। ३३७ ।। जिनशरण गही शिव पायो, इम शरण महा गुणगायो । तुम गुरण०
ॐ ह्री पाठकगुणशरणाय नम अयं ।। ३३८ ।। अनुभव निज बोध करावै, यह ज्ञान शरण कहलावै । तुम गुरण.
ॐ ह्री पाठकज्ञानगुणशरणाय नम अध्यं ॥ ३६॥ हग मात्र तथा सरधाना, निश्चय शिववास कराना । तुम गुरण.
ॐ ह्री पाठकदर्शनशरणाय नम. अयं ।। ३४० ।।
पष्ठम् पूजा
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