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सिद्ध०
वि०
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गवंत महासुखकारा, तुम ज्ञान महा श्रविकारा ।
तुम गुरण श्रनन्त श्रुत गाया, हम सरधत शीश नवाया ॥
ॐ ह्री पाठकदर्शनस्वरूपाय नम अध्यं ।। ३२६ ॥
निरशंस अनन्त प्रबाधा, निज बोधन भाव भराधा । तुम गुरण ० ॐ ह्री पाठकसम्यक्त्वाय नम अर्घ्यं ॥ २२७ ॥
सम्यक्त्व महासुखकारी, निज गुरण स्वरूप अविकारी । तुम गुरण० ॐ ह्री पाठकसम्यक्त्वगुरणस्वरूपाय नम अयं ।। ३२८ । निरखेद छेद प्रभेदा, सुख रूप वीर्य निवेंदा । तुम गुरण०
ॐ ह्री पाठकवीर्याय नम श्रध्यं ।। ३२६ ।।
निज भोग कलेश न लेशा, यह वीर्य अनन्त प्रदेशा । तुम गुरग० ॐ ह्री पाठकवीर्यं गुणाय नमः अर्घ्य ॥ ३३० ।।
परनाम सुथिर निज माहीं, उपजै न कलेस कदाही । तुम गुरग० सप्तमी ही पाठकवीर्यपर्यायाय नमः मध्यं ।। ३३१ ॥
पूजा
द्रव्य भाव लहो तुम जैसो, पावै जगजन नहिं ऐसो । तुम गुरग० ही पाठकवीर्यद्रव्याय नम अध्यं ।। ३३२ ।।
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