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सिद्ध०
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( पायता छंद ) - निर्विघ्न निराश्रय होई, लोकोत्तम मंगल सोई ।
तुम गुरण अनन्त श्रुत गाया, हम सरधत शीश नवाया ॥ ॐ ह्री पाठकमगलोत्तमाय नमः अयं ।। ३१ ।। जगजीवनको हम देखा, तुम ही गुरण सार विशेखा । तुम गुण अनन्त श्रुत गाया, हम सरधत शीश नवाया ॥ ॐ ह्री पाठकगुणलोकोत्तमाय नम ग्रयं ॥ ३२० ॥
षद्रव्य रचित जग सारा, तुम उत्तम रूप निहारा । तुम गुरग० ॐ ह्री पाठकद्रव्यलोकोत्तमाय नम अर्घ्यं । ३२१ ।।
निज ज्ञान शुद्धता पाई, जिस करि यह है प्रभुताई । तुम गुरण०
ॐ ह्री पाठकज्ञानाय नम अध्यं ।। ३२२||
जग जीव अपूरण ज्ञानी, तुम ही लोकोत्तम मानी । तुम गुरग० ॐ ह्री पाठकज्ञानलोकोत्तमाय नम श्रध्यं ॥ ३२३ ॥
युगपत निरभेद निहारा, तुम दर्शन भेद उधारा । तुम गुरण० ॐ ह्री पाठकदर्शनाय नम अध्यं ॥ ३२४ ॥
हम सोवत है नित मोही, निरमोही लखे तुमको ही । तुम गुरण० ॐ ह्री पाठकदर्शनलोकोत्तमाय नम अर्घ्य ।। ३२५ ।।
सप्तमी
पूजा
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