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मिद्ध०
वि०
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आदि अनत अविरुद्ध मंगलमय मूरति । निज सरूपमे बसै सदा परभाव विदूरित । शिष्यनके०
- ॐ ह्री पाठकद्रव्य मगलाय नम प्रय॑ ।।३१४॥ जितनी परणति धरो सबहि मंगलमय रूपी, अन्य अवस्थित टार धार तद्रूप अनूपी। शिष्यनके०
ॐ ह्री पाठकमगलपर्यायाय नम प्रध्यं ।।३१५।। निश्चय वा विवहार सर्वथा मंगलकारी, जग जीवनके विघन विनाशन सर्व प्रकारी। शिष्यनके०
ॐ ह्री पाठकद्रव्यपर्यायमगलाय नम अध्यं ।।३१६ । भेदाभेद प्रमारण वस्तु सर्वस्व बखानो, वचन अगोचर कहो तथा निर्दोष कहानो। शिष्यनके०
ॐ ह्री पाठकद्रव्यगुणपर्यायमगलाय नम अध्यं ॥३७॥ सब विशेष प्रतिभासमान मंगलमय भासे, निर्विकल्प प्रानन्दरूप अनुभूति प्रकाशे । शिष्यनके०
ॐ ह्री पाठकस्वरूपमगलाय नम अयं ॥३१८।।
सप्तमी पूजा २२२