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सिद्ध०
वि०
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उत्तर गुरण सब लख चौरासी, पूरण चारित भेद प्रकाशी । सो रहंत सिद्धपद पायो, भाव सहित हम शीश नवायो ॥ ६८ ॥ ॐ ह्री पन्तगुणाय नमः अर्घ्यं ।
प्रतम शक्ति जास करि छीनी, तास नाश प्रभुताई लीनी । सो अरहंत सिद्धपद पायो, भाव सहित हम शीश नवायो ॥ ६६ ॥ ॐ ह्री महत्परमात्मने नमः अयं ।
निज गुरग निज ही मांहि समाया, गणधरादि बरनन न कराया । सो अरहंत सिद्धपद पायो, भाव सहित हम शीश नवायो ॥१००॥ ॐ ह्री अर्हस्वरूपगुप्ताय नमः श्रव्यं । दोधक छन्द ।
जो निज प्रातम साधु सुखाई, सो जगलेश्वर सिद्ध कहाई ।
लोक शिरोमरिण है शिवस्वामी, भाव सहित तुमको प्रणमामी ।१०१ ॐ ह्री सिद्ध ेभ्यो नम अर्घ्यं । सर्व विशुद्ध विरूप सरूपी, स्वातम रूप विशुद्ध अनूपी । लोक शिरोमरिण है शिवस्वामी, भाव सहित तुमको प्रणमामी ॥१०२॥ ॐ ह्री सिद्धस्वरूपेभ्यो नम अर्घ्यं ।
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सप्तमी
पूजा
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