________________
सिद्ध०
वि०
१७७
पराश्रित सर्व विभाव निवारा, स्वाश्रित सर्व अबाध अपारा । लोक शिरोमरिण है शिवस्वामी, भावसहित तुमको प्रणमामी |१०३ ॥ ॐ ह्री सिद्धगुणेभ्यो नम अर्घ्यं ।
प्राकुलता सब ही विधि नाशी, ज्ञायक लोकालोक प्रकाशी । लोक शिरोमरिण है शिवस्वामी, भावसहित तुमको प्रणमामी |१०४ ॥ ॐ ह्री सिद्धज्ञानेभ्यो नमः प्रव्यं
जीव जीव लखे विचारा, हो नहीं अन्तर एक प्रकारा । लोक शिरोमरिण है शिवस्वामी, भावसहित तुमको प्रणमामी |१०५ | ॐ ह्री सिद्धदर्शनेभ्यो नम अध्यं ।
अन्तर बाहिर भेद उधारी, दर्श विशुद्ध सदा सुखकारी । लोक शिरोमरिण है शिवस्वामी, भावसहित तुमको प्रणमामी |१०६॥ ॐ ह्री सिद्धशुद्धसम्यक्त्वेभ्यो नम अध्यं । एक अणू मल कर्म लजावै, सोय निरंजनता नहि पावै । लोक शिरोमणि है शिवस्वामी, भावसहित तुमको प्रणमामी ॥१०७॥ ॐ ह्री सिद्धनिरजनेभ्यो नम श्रध्यं ।
स्पष्ठम्
पूजा
१७७