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सिद्ध वि. १३०
निजाकृति में नहिं लेश कषाय, अमूरति शांतिमई सुखदाय । आकुलता बिन साम्य स्वरूप, नम तिनको नित आनंद रूप॥
ॐ ह्री साम्यस्वरूपाय नमः अध्यं ॥१६६।। अनन्त गुरणातम द्रव्य पर्याय, यही. विधि पाप धरै बहु भाय । सभी कुमति करि हो अलखाय, नम् जिनवैन भली विधि गाय ॥
ॐ ह्री अनन्तगुणाय नमः मंध्यं ॥१६७।। अनन्त गुरणातम रूप कहाय, मुरणी गुरण भेद सदा प्ररणमाय । महागुरण स्वच्छमयी तुम रूप, नमू तिनको पद पाइ अनूप ॥
ॐ ह्री मनन्तगुणस्वरूपाय नम. अध्यं ।।१६८। अभेद सुभेद अनेक सु एक, धरो इन आदिक धर्म अनेक । विरोधित भावनसों अविरुद्ध, नमू जिन पागम की विधि शुद्ध ॥ ॐ ह्री अनन्तधर्माय नमः अध्यं ।।१६६॥ .
षष्ठम रहै धर्मी नित धर्म सरूप, न हो परदेशनसों अन्यरूप। , पूजा चिदातम धर्म सभी निजरूप, धरो प्रणम् मन भक्ति स्वरूप ॥ १३०
ॐ ह्री अनन्तधर्मस्वरूपाय नमः प्रध्यं ।। १७०।।