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यज्ञविधानके अंग हो, मुख नामी परधान ।
सिद्ध० तुमविन यज्ञ न होकभी, पूजत होय कल्यान ॥ॐ ह्री प्रहं यज्ञांगाय नमः अयं॥ २६ वि० मररंग रोगके हररणसे, श्रमर भये हो आप ।
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२९४ शरणागतिको श्रमरकर, अमृतहो निष्पाप ॥ॐ ह्रीं अर्ह अमृताय नम घर्घ्यं ॥ २७० ॥
पूजन विधि प्रस्थान हो, पूजत शिवसुख होय । सुरनर नित पूजन करें, मिथ्या मतिको खोय ॥ जो हो सो सामान्य कर, धरत विशेष अनेक ।
सुभाव यही कहो, बंदू सिद्ध प्रत्येक ॥ॐ ही नहँबस्तूत्पादकायनम.प्रर्घ्यं ।२७२। इन्द्र सदा तुम थुति करें, मनमें भक्ति उपाय ।
सर्वशास्त्रमे तुम युति, गरणधरादि करि गाय ॥ॐ ह्रीं प्रस्तुती श्वराय नम.प्रघ्यं २७३ मगन रहो निज तत्त्वमें, द्रव्य भाव विधि नाश ।
जो है सो है विविध विन, नमूं अचलअविनाश ॥ॐ ह्रीं प्रभावाय नम प्रर्घ्यं । २७४ तीन लोक सिरताज है, इन्द्रादिक करि पूज्य । धर्मनाथ प्रतिपाल जग, और नहीं है दूज्य ॥ ॐ ह्री ममहपतये नमः श्रध्यं ।।२७५।।
ह्री अर्हं यज्ञाय नम-म्रर्घ्यं । २७१।
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अष्टम
पूजा
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