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वि०
रत्नत्रयमंडित महा, विषय कषाय न लेश
संशय हरण सुहित करन, करत सुगुरु उपदेश ॥४॥ सिद्ध० छप्पय छंदः-निर्मल मंडप भूमि दरव-मंगल करि सोहत।
सुरभि सरस शुभ पुष्प-जाल मंडित मन मोहत ॥ यथायोग्य सुन्दर मनोज्ञ, चित्रास अनूपा। दीरघ मोल सुडोल, वसन झखझोल सरूपा॥ हो वित्तसार प्रासुक दरब, सरब अंग मनको हरै।
सो महाभाग आनंद सहित, जो जिनेन्द्र अर्चा करै ॥५॥ दोहा:--सुर मुनि मन आनन्द कर, ज्ञान सुधारस धार।
सिद्धचक्र सो थापह, विधि-दव-जल उनहार ॥६॥ अडिल्लः--अह शब्द प्रसिद्ध अर्द्ध मात्रिक कहा,
अकारादि स्वर मंडित अति शोभा लहा। अति पवित्र अष्टांग अर्घ करि लायके, पूरव दिशि पूरे यष्टांग नमायके ॥७॥
प्रथम
पूजा