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साधुनके गुण द्रव्य चितारे, होत महासुख शरण उभारे । साधु० ॥ ___ॐ ह्रीं माधुगुग्णद्रव्यमरम्गाय नमोर्ग ॥४४॥
लायनी मन्द। तुमचितवतवाअवलोकतवासरधानी। इमशरण गहपावनिश्चयशिवरानी निजरूपमगनमन ध्यानधरै मुनिराज, मैनम साध सम सिद्धप्रकंपविराज
निजप ली माधुदगनशरणाय नमोऽध्यं ॥४४५: तुमअनुभवकरि शुद्धोपयोगमनधारा, यहज्ञानशरणपायोनिश्चै पविकारा
निजरूप. ही माधुनानगरणाग नमोणे ॥४४६॥ निजात्मरूपमें दृढसरधा तुमपाई, थिररूपसदा निवसों शिववासकराई
निजम्प *ही साधुग्रात्मशरग्गाय नमोऽध्यं ॥४.७॥ तुमनिराकारनिरभेद अछेवप्रनपा,तुम निरावरण निरद्वंद स्वदर्शस्वरूपा।
निजप *ली माधुरशंम्वरूपाय नमोऽयं ॥४४॥ तुमपरमपूज्यपरमेश परमपदपाया, हमशरणगही पूजै नित मनवचकाया समम
लिजरूप *लो साधुपरमात्मपरणाय नमोऽध्यं 1.४६॥ तुममनइन्द्रीव्यापार जीतसुप्रभीता,हमशरणगहीमनु प्राजकर्मरिपुजीता "
निजम्प सही माधुनिजारमशरणाय नमोऽध्यं ।।५।।