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सिद्ध०
वि०
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विविध कुरूप सर्व जगवासी, केवल स्वयं सरूपी । सो त नमू शिवनायक, सुखप्रद सार अनूपी ॥५३॥ ॐ ह्री प्रल्लोकोत्तम केवलस्वरूपाय नमः श्रर्घ्यं । हीनाधिक धिक धिक जग प्रारणी, धन्य एक धू वरूपी । सो अरहंत नमूं शिवनायक, सुखप्रद सार अनूपी ॥ ५४ ॥ ॐ ह्री अल्लोकोत्तम वभावाय नमः अयं । दोहा -- संसारिनके भाव सब, बन्ध हेत वररणाय ।
मुक्तिरूप अरहंतके, भाव नमूं सुखदाय ॥५५॥ ॐ ह्री अल्लोकोत्तमभावाय नमः अर्घ्यं । कबहुँ न होय विभावमय, सो थिर भाव जिनेश । मुक्तिरूप प्ररणमूं सदा, नाशे विधन विशेष ॥५६॥ ॐ ह्री अर्हल्लोकौत्तमस्थिरभावाय नम अर्घ्यं । जा सेवत वेवत स्वसुख, सो सर्वोत्तम देव । शिववासी नाशी त्रिजग -- फांसी नमहूँ एव ॥ ५७॥ ॐ ह्री मच्छरणाय नमः श्रध्यं ।
सप्तमी
पूजा
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