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सिद्ध०
वि०
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निज प्रात्म विषै नित मगन रहें, जगके सुखमूल न भूलि चहैं । धरि० ॐ ह्री सूरिहासाय नम अयं ॥ २५६ ॥
बनवास उदास सदा जगतै, पर ग्रास न खास विलास रतै । धरि० ॐ ह्री सूरिहसगुणाय नम अध्य ।। २६० ।।
निज नाम महागुरण मंत्र धरै छिन मात्र जपे भवि प्राश वरं । धरि० ॐ ह्री सूरिमत्रगुणानन्दाय नमः अयं ॥ २६१ ।।
परमोत्तम सिध परियाय कही, अति शुद्ध प्रसिद्ध सुखात्म मही । धरि० ॐ ह्री सूरिमिदानन्दाय नम प्रयं ।। २६२ ||
( माला छन्द) - शशि सन्ताप कलाप निवारण ज्ञान कला सरसं, मिथ्यातम हरि भवि आनंद करि अनुभव भाव दरसं । सूरि निजभेद कियो परसै,
भये मुक्ति में नमू शीश नित जोर युगल करसें ॥ २६३ ॥ ॐ ह्री सूरिश्रमृतचन्द्राय नम अयं ॥ २६३ ॥
पूररण चन्द्र सरूप कलाधर ज्ञान सुधा बरसै ।
भवि चकोर चित चाहत नित मनु चररण जोति परसं । सूरि० ॐ ह्रीं सूरिघाचन्द्रस्वरूपाय नमः श्रयं ॥ २६४ ॥
स्पष्ठम्
पूजा
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