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मन वक्र द्वार उपकर्ण ठान, विधि समारंभ को नहिं करान। सिद्ध० निज साम्य धर्ममे रहो लिप्त, तुम सिद्ध नमों पद धार चित्त ॥४५॥ वि.
ॐ ह्री प्रकारितमनो-माया-समारभसाम्यधर्माय नम अयं । ६८ दोहा-मायावी मनमे नहीं, समारंभ प्रानन्द ।।
नमो सिद्ध पद परम गुरु, पाऊ पद सुख वृन्द ॥४६॥ - ॐ ह्री नानुमोदितमनो माया समारंभगुरवे नम अयं ।
पद्धडी छन्द। बहु विधिकार जोडै अशुभ काज, आरम्भ नाम हिंसा समाज । मायावी मन द्वारै करेय, तुम सिद्ध नमू यह विधि हरेय ॥४७॥
ॐ ह्री अकृत मनो मायारम्भपरमशाताय नमः अध्यं । पूर्वोक्त अकारित विधि सरूप, पायो निर प्राकुल सुख अनूप । सर्वोत्तम पद पायो महान, हम पूजत हैं उर भक्ति ठान ॥४८॥
___ॐ ह्री अकारित-मनोमायारभनिराकुलाय नम अध्यं । दोहा-मायावी प्रारम्भ करि, मनमे आनन्द मान ।
सो तुम त्यागो भाव यह, भये परम सुख खान ॥४६॥
पषम
पूजा