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FARHAT
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ह्री नानुमोदितमनोमायारंभ ग्रनन्तसुखाय नम अयं । लोभी मन द्वारे नहीं, करें सदा समरंभ | हम अनन्त हग सिद्धपद, पूजत है मनथंभ ॥५०॥ ॐ ह्रीं कृतमनो लोभसरम्भअनन्तदृगाय नम थध्यं । लोभी मन समरंभ को, परसों नाहि कराय । हगानन्द भावातमा, सिद्ध नमू मन लाय ॥५१॥
ॐ ह्री प्रकारितमन लोभसरम्भहगानन्दभावाय नम. ग्रध्यं । लोभी मन समरंभमे, माने नहीं आनन्द | नमूं न परमातमा, भये सिद्ध जगवंद ॥५२॥
ॐ ह्री नानुमोदितमनोलोभसरम्भसिद्धभावाय नमः श्रर्घ्यं । समारम्भ नह करत हैं, लोभी मनके द्वार । चिदानंद चिद्देव तुम, नमूं लहू पद सार ॥५३॥ ॐ ह्री प्रकुनमनोलोभसमारम्भचिद्देवाय नमः प्रयं । पर सो भी पूर्वोक्त विधि, कबहूँ नहीं कराय । निराकार परमात्मा, नमूं सिद्ध हर्षाय ॥ ५४ ॥
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पंचम
पूजा
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