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ते निरावर्ण निर्देह निरुपम सिद्धचक्र परसिद्ध जजू।।
सुर मुनि नित ध्यावै प्रानन्द पावै, मैं पूजत भवभार तजू॥ सिद्ध
इत्याशीर्वाद ॥ इति प्रथम पूजा सम्पूर्णम् ।।
अथ द्वितीय पूजा । इ छप्पय छन्द-ऊरध अधो सरेफ बिंदु हंकार विराजे,
अकारादि स्वरलिप्त करिणका अन्त सु छाजै । वर्गनिपूरित वसुदल अम्बुज तत्व संधिधर, अग्रभाग में मंत्र अनाहत सोहत अतिवर ॥ पुनि अंत ही बेढ्यो परम. सुर ध्यावत अरि नागको
हदै केहरिसम पूजन निमित. सिद्धचक्र मंगल करो १ ___ॐ ह्री णमोसिद्धाण श्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो नम पोडशगुणसयुक्तसिद्धपरमेष्ठिन् अत्राव३ तरावतर सवौषट् आह्वानन । अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ ठः स्थापन । अत्र अत्र मम मन्निहितो प्रथम है भव भव वषट् सन्निषिकरणं ।।
पूजा दोह-सूक्ष्मादि गुण सहित है, कर्म रहित नीरोग।
सिद्धचक्र सो थापहूं, मिटै उपद्रव जोग ।
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