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दुर्जय कहत एकांतको, ताको अन्त कराय ।
सिद्ध० सम्यक्मति प्रकटाइयो, पूजूं तिनके पाय ॥ ह्री महंदुनंयांतकाय नमःश्रयं । ३२५।। एक पक्ष मिथ्यात्व है, ताको तिमिर निवार ।
विश्
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स्यादवाद समन्यायतें, भविजन तारे पार ॥ अहो हेएकातध्वातमिदे म· मध्ये ३२६ जो है सो निज भावमे, रहे सदा निरवार ।
मोक्ष साध्य में सार है, सम्यक् विषै अपार ॥ ॐ ह्रीमहंतस्त्रवाचे नम अध्यं ।।३२७।। निज गुरण निज परयायमें सदा रहो निरभेद ।
शुद्ध बुद्ध श्रव्यक्त हो, पूजूं हूँ निरखेद ॥ॐ ह्री अर्हं पृथवकृते नम'अर्घ्यं ।।३२८।। स्यातकार उद्योतकर, वस्तु धर्म निरशंस ।
ह्रीम स्यात्कारष्वजावाचेनम.०
तासुध्वजा निर्विघ्नको, भाषो विधि विध्वंस ॥ परम्परा इह धर्मकी, उपदेशो श्रुत द्वार । भवि भवसागर - तीरलह, पायोशिवसुखकार ॥ ॐ ही मवाचे मम प्रयं ॥ ३३ ॥ द्रव्य दृष्टि नह पुरुष कृत, है अनादि परमान । सो तुम भाष्य है सही, यह पर्याय सुजान ॥ॐ ह्रीय प्रगौरवेय वाचेनम.प्र ।।३३१।।
भ्रष्टम
पूजा
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