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मिद्ध वि.
卐 दो शब्द) सिद्धचक्र विधान का समाज मे काफी प्रचलन है । गत २०-२५ वर्षों में इसका प्रचार काफी बढा है । फलत विभिन्न प्रकाशको द्वारा अनेक बार यह पूजा छप चुकी है। पर हर सस्करण मे अशुद्धिया रह ही गई हैं। एक बार अशुद्ध छपजाने पर उसका सशोधन नहीं होपाता । हम इस प्रयत्न मे थे कि इसका किसी शुद्ध प्रतिसे मिलान करके छापे तो ठीक हो । नकुड निवासी श्रीमान् सेठ नरेशचन्द्रजी साहब जैन रईस सर्राफ से इस सम्बन्ध मे पत्र व्यवहार हुआ । और हम उनके अत्यन्त आभारी हैं कि उनने कवि सतलालजी की स्व-हस्त लिखित प्रति से मिलान करके एक मुद्रित प्रति हमारे पास भेजी जिसके अनुसार हम इस पुस्तक मे सशोधन कर पाये हैं । हमारे यहा से प्रकाशित पूर्व सस्करण के समाप्त होजाने से पुस्तक पुन छपाने की जल्दी थी, अत नकुड से सशोधित प्रति आने से पूर्व पुस्तक प्रेस मे छपने देदी गई । १२८ पृष्ठ छप जाने के वाद हमे वह प्रति मिली-प्रत शुद्धि पत्र देना पडा है–पाठक उससे शुद्ध करने के बाद ही पूजन पढे-ऐसा विनम्र निवेदन है।
इस भाषा सिद्धचक्र विधान के रचयिता कवि सन्तलालजो हैं जो सहारनपुर के कस्बा नकुड के रहने वाले थे। इनके पिता का नाम श्री सज्जन कुमारजी था। ये सहारनपुर के