________________
परम कहै उतकृष्टको, अर्थ होय गम्भीर । सिद्ध० सो तुम वारणीमे खिरै, बंदत भवदधि तीर ॥ॐह्री अहं परमार्थगवेनमःमध्य। ३५३। वि० मोह क्षोभ परशांत हो, तुम वारणी उरधार । ३०६ भविजनको संतुष्ट कर, भव आताप निवार ॥ॐही अहंप्रशातगवे नम अयं ३५४
बारह सभासु प्रश्न कर, समाधान करतार । मिथ्यामति विध्वंस करि, बंदूमनमें धार ॥ॐही अहं प्राश्निकगिरे नम अध्यं । ३५५ महापुरुष महादेव हो, सुरनर पूजन योग। वारणी सुन मिथ्यात तज, पावै शिवसुख भोगे ॥ह्रीप्रहयाज्युश्रुतेनम अयं ३५६ शिवमग उपदेशक सुश्रुत, मनमे अर्थ विचार । साक्षात् उपदेश तुम, तारे भविजन पार ॥ॐ ह्री अर्ह श्रुतये नम प्रय॑ ।।३५७।। तुम समान तिहुँ लोकमे, नहीं अर्थ परकाश । भविजन सम्बोधे सदा, मिथ्यामतिको नाश ॥ॐ ह्री अहमहाश्रुतये नम अयं ३५८ पूजा जो निज प्रात्म-कल्याणमे, बरतै सो उपदेश ।
३०६ धर्म नाम तिस जानियो, बंदूंचरण हमेश॥ ह्रीग्रह धर्मश्रुतये नम अध्यं ।।३५९॥
अष्टम