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दर्शन ज्ञान सुभाव धरि, ताहीके हो स्वामि । सिद्ध सब मलिनतात्यागियो,भयेशुद्धपरिणामि॥ॐ ह्रीं महं दर्शनज्ञानचारित्रात्मजिनाय० वि० सत्य उचित शुभ न्यायमें, है आनन्द विशेख।
सब कुनीतिको नाशकर, सर्व जीव सुख देख ॥ ह्रीअहं भूतानन्दायनम अध्या७८८ | पर पदार्थक सगसे, दुखित होत सब जीव। ताके भयसो भय रहित,भोगें मोक्ष सदीव ॥ ह्रीम सिद्धिकान्तजिनाय नम अयं । जाको कभी न अन्त हो, सो पायो प्रानन्द । है अचलरूपनिजात्ममय, भाव प्रभावी वृंद ॥ ह्रींग्रहमक्षयानदाय नम अर्घ्य ७६० शिव मारग परकट कियो दोष, रहित वरताय । दिब्यध्वनि करि गर्ज सम, सर्व अर्थ दिखलाय ॥ॐहीमह वृहतापतयेनम प्रध्य।७६१ . चौपई छन्द-हितकारक अपूर्व उपदेश,तुमसम और नहीं देवेश। पूजा
सिद्धसमूह जजू मनलाय, भव भवमे सुखसंपतिदाय॥ ३६८
ॐ ह्री अपूर्वदेवोपदेष्ट्र नमः अध्यं ॥७६२॥
अष्टम