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वि.
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जो करि पावत इष्ट वियोगह, खेदमई परिणाम सु शोकहिं । सिद्ध० सो तुम नाश कियो जगनाहि, शीस नम तुमको धरि हाहि ॥४३॥
___ॐ ह्रो शोककर्मरहिताय नम अध्य। हो उद्वेग उच्चाटन रूपहि, मन तन कंपित होत अरूपहि। सो तुम नाश कियो जगनाथहिं, शीस नमूतुमको धरि हाथहिं ॥४४
ॐ ही भयकमरहिताय नम. अध्यं । सवैया-जो परको अपराध उघारत, जो अपनो कछु दोष न जाने,
जो परके गुण औगुरण जानत, जो अपने गुण को प्रगटाने। सो जिनराज बखान जगप्सित, है जियनो विधिके वश ऐसो, हे भगवंत! नमूतुमको तुम, जीति लियो छिन में अरि तैसो।
___ॐ ह्री जुगुप्साकमरहिताय नम अयं । जो नर नारि रमावन की, निजसों अभिलाष धरै मनमाहीं।
पूजा सो अति ही परकाश हिये नित, काम की दाह मिटै छिन माहीं। १२ सो जिनराज बखान नपुंसक, वेद हनो विधिके वश ऐसो,
षष्ठम