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सिद्ध०
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ज्ञान ज्योति निज धरत हो, निश्चल परम सुठाम । लोकालोक प्रकाश कर, मै बंदूंसुखधाम ॥ॐ ह्रीं महस्वमासपरमासनाय नमःमध्य। एक स्थान सु थिर सदा, निश्चय चारित भूप । शुध उपयोग प्रभावतें, कर्म खिपावन रूप ॥ॐह्रींहं प्राणायामचरणाय नम अध्यं ।। विषय स्वादसो हट रहै, इन्द्री मन थिर होय । निज प्रातम लवलीन है, शुद्ध कहावै सोय ॥ॐ ह्रीमहं शुद्धप्रत्याहारायनम अध्यं ५० इन्द्री विषयन वश रहे, निज प्रातम लवलाय । सो जिनेन्द्र स्वाधीन है, बंदू तिनके पाय॥ॐ ह्रीपहँ जितेन्द्रियाय नमःमध्यं ॥१०॥ ध्यान विषै सो धारणा, निज प्रातम थिर धार । ताके अधिपति हो महा, भये भवार्णव पार ॥ॐ ह्री महं धारणाधीश्वरायममःमध्य रागादिक मल नाशिके, ध्यान सु धर्म लहाय । अचल रूप राजै सदा, बर्दूमन वच काय॥ह्रीप्रहं धर्मध्याननिष्ठायनम मध्यं ।५१२ पूजा निजानन्दमे मगन है, पर पद राग निवार । समदृष्टी राजत सदा,हमें करो भव पार॥ॐ ह्रीं प्रहं ,समाधिराजे नमःमध्यं ॥५१३।
अष्टम
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