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सिद्धः
वि०
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इष्टानिष्ट न राग न द्व ेष, ज्ञाता दृष्टा हो अविशेष | सिद्ध० ॥ ग्रह निर्विकल्पाय नमः अयं । ८०८ ||
जो तुम सम नहीं भगवान, धर्माधर्म रीति बतलान । सिद्ध० ॥
ह्रीं द्वितीयबोधजिनाय नम प्रध्यं ॥ ८० ॥ महादुखी संसारी जान, तिनके पालक हो भगवान | सिद्ध० ॥ ह्री ग्रह लोकपालाय नमः श्रध्यं ।। ८१० । जगविभूति निरइच्छुक होय, मानरहित श्रातम रत सोय । सिद्ध० ॥ अहं श्रात्मरसरत जिनाय नम श्रध्यं ॥ ८११ ॥ ज्यों शशि तापहरै अनिवार, अतिशय सहित शांति करतार | सिद्ध०॥
ह्री शातिदात्रे नमः अष्य । ८१२ ।।
हो निरभेद छेद अशेष, सब इकसार स्वयं परदेश | सिद्ध० ॥ ह्री ग्रह प्रभेद्याछेद्य - जिनाय नम अयं ॥ ८१३॥
मायाकृत सम पांचो काय, निजसों भिन्न लखो मत ॐ ह्रीं श्रहं पच कषमयात्मदृशे नम ग्रध्य ॥ ६१४ ॥
बीती बात देख संसार, भवतन भोग विरक्त उदार । सिद्ध० ॥ ॐ ह्रीं श्रीं भूतार्थ भावनासिद्धाय नमोऽध्य ॥ ८१५ ।।
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भाय । सिद्ध० ॥
अष्टम
पूजा
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