________________
३७२
धर्माधर्म जान सब ठीक, मोक्षपुरी दिखलायो लीक । सिद्ध सिद्धसमूह जजू मनलाय, भव भवमें सुखसंपतिदाय ॥ वि०
ॐ ह्रीं प्रहं चतुराननजिनाय नमः अभ्यं ।।१६।। ३ वीतराग सर्वज्ञ सु देव, सत्यवाक वक्ता स्वयमेव । सिद्ध० ॥
ॐ ह्री महं मत्यवक्त्रे नमः अयं ॥८१७॥ मन वच काय योग परिहार, कर्मवर्गणा नाहि लगार । सिद्ध० ॥
___ॐ ह्री महं निराश्रवाय नमः अध्यं ।।१८।। चार अनुयोग कियो उपदेश, भव्य जीव सुख लहत हमेश । सिद्ध०॥
ॐ ह्री अहं चतुर्भूमिकशासनाय नम अयं ॥१६॥ ६ काहू पदसों मेल न होय, अन्वय रूप कहावै सोय । सिद्ध० ॥
ॐ ह्रीं अहं अन्वयाय नम अध्यं ॥५२०॥ हो समाधिमे नित लवलीन, विन आश्रय नित ही स्वाधीन । सिद्ध०॥ अष्टम ॐ ह्री प्रहं समाधि-निमग्न-जिनाय नम' अध्यं ।।२१।।।
पूजा लोक भाल हो तिलक अनूप, हो लोकोत्तम.शेष स्वरूप। सिद्ध०॥ ३७२
ॐ ह्री पह लोकमालतिलकजिनाय नम अध्यं ।।२२।।
mmmmmmmmmmmmm