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सिद्ध वि. ३३६
गरणधरादि जे जगतपति, तथा सुरेन्द्र सुरीश । तुमको पूजत भक्तिकरि,चरणधरै निजशीश॥ॐ ह्रीनहजगत्पितामहायनम अत्र्यं तुमहीसो भवि सुख लहै, तुम विन दुख ही पाय । नेमरूप यही है तुम्हें, महानाम हम गाय ॥ॐ ह्रीप्रहमहाकारुणिकायनम अध्यं ।५६४ महासुगुण की रास हो, राजत हो गुण रूप । लौकिक गुण औगुरगसही, सब ही द्वष सरूपहीमहशुद्धगुणाय नमःमध्य५६५ जन्म मरण आदिक महा, क्लेश ताहि निरवार । परम सुखी तुमको नम्,पाऊ भवदधि पारहीमहमहाक्लेशनिवारणायनम.प्रर्घ्य रागादिक नहीं भाव है, द्रव्य देह नहीं धार । दोऊ मलिनता छांडिके, स्वच्छ भये निरधार ॥ ह्रीमह महाशुचयेनम अध्यं ५६७ प्राधि व्याधि नहीं रोग है, नित प्रसन्न निज भाव । प्राकुलताविनशांति सुख, धारतसहज सुभाव॥ ह्रीमह भाजे नम प्रटी ।।५६८। पूजा यथायोग्य पद थिर सदा, यथायोग्य निज लीन । अविनाशी अविकार है, नमैं संत चित दीन॥ॐ ह्रीमहसदायोगाय नम अगे।५६९।
अष्टम