SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 371
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सिद्ध: वि० ३३७ www www स्वामृत रसको पान करि, भोगत है निज स्वाद । पर निमित्ति चाहें नहीं, करै न तिनको याद ॥ ह्रीं श्रीं सदाभोगाय नमःश्रध्यं ५७० निर उपाधि निज धर्ममें, सदा रहै सुखकार । रत्नत्रयकी मूरती, अनागार ग्रागार ॥ ॐ ह्रीं श्रीं सदाभृतये नम' श्रयं ॥ ५७२।। रागद्व ेष नहीं मूल है, है मध्यस्थ स्वभाव | ज्ञाता दृष्टा जगतके, परसो नही लगाव ॥ॐ ह्रीं ग्रहं परमोदापोनाय नमः अष्यं आदि अन्त विन वहत है, परम भाम निरधार । अन्तर परत न एकछिन, निज सुख परमाधार ॥ ॐ ह्री ग्रह शाश्वताय नम श्र मूल देह श्राकृति रहैं, हो नहिं अन्य प्रकार । सत्याशन इम नाम हैं, पूजूं भक्ति लगार ॥ॐ ह्रीं श्रीं सत्याशने नमः प्रयं परम शांतिसुखमय सदा, क्षोभ रहित तिस स्वामि । तीन लोकप्रतिशांतिकर, तुम पद करूं प्रणामि ॥ॐ ह्री ग्रहं गातिनायकाय नम प्रर्घ्यं । काल अनंतात करि, रुल्यो जीव जगमाहिं । श्रात्मज्ञान नहीं पाइयो, तुम पायो है ताहि ॥ॐ ह्री श्रप्रपूर्वविद्याय नम ग्रघ्यं । ५७६ अष्टम पूजा ३३७
SR No.010799
Book TitleSiddhachakra Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSantlal Pandit
PublisherVeer Pustak Bhandar Jaipur
Publication Year
Total Pages442
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript, Ritual, & Vidhi
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy