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सिद्ध:
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स्वामृत रसको पान करि, भोगत है निज स्वाद ।
पर निमित्ति चाहें नहीं, करै न तिनको याद ॥ ह्रीं श्रीं सदाभोगाय नमःश्रध्यं ५७० निर उपाधि निज धर्ममें, सदा रहै सुखकार ।
रत्नत्रयकी मूरती, अनागार ग्रागार ॥ ॐ ह्रीं श्रीं सदाभृतये नम' श्रयं ॥ ५७२।। रागद्व ेष नहीं मूल है, है मध्यस्थ स्वभाव |
ज्ञाता दृष्टा जगतके, परसो नही लगाव ॥ॐ ह्रीं ग्रहं परमोदापोनाय नमः अष्यं आदि अन्त विन वहत है, परम भाम निरधार ।
अन्तर परत न एकछिन, निज सुख परमाधार ॥ ॐ ह्री ग्रह शाश्वताय नम श्र मूल देह श्राकृति रहैं, हो नहिं अन्य प्रकार ।
सत्याशन इम नाम हैं, पूजूं भक्ति लगार ॥ॐ ह्रीं श्रीं सत्याशने नमः प्रयं परम शांतिसुखमय सदा, क्षोभ रहित तिस स्वामि ।
तीन लोकप्रतिशांतिकर, तुम पद करूं प्रणामि ॥ॐ ह्री ग्रहं गातिनायकाय नम प्रर्घ्यं । काल अनंतात करि, रुल्यो जीव जगमाहिं । श्रात्मज्ञान नहीं पाइयो, तुम पायो है ताहि ॥ॐ ह्री श्रप्रपूर्वविद्याय नम ग्रघ्यं । ५७६
अष्टम
पूजा
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