________________
सिद्ध०
वि०
३३५
ग्रहरत्यागको भाव तज, शुभ वा अशुभ प्रभेद ।
व्याधिकार है वस्तुमे, तुम्हे नमू निरखेद ॥ ही पर्हपुण्यपापनिरोधकाय नमःप्रये। सूक्षम रूप अलक्ष है, गरणधर आदि अगम्य ।
श्राप गुप्त परमातमा, इन्द्रिय द्वार अरम्य ॥ॐ ह्रीं ममागम्यरूपायनम अन्तरगुप्त स्व आत्मरस, ताको पान करात ।
प्रनित्मानम प्रप्यं । ५५६
।
पर प्रवेश नहीं रंच है, केवल मग्न सुजात ॥ीग्रहं सुगुप्तात्मन नम प्रयं । ५५८ निजकारक निज कर्णकर, निजपद निज श्राधार । सिद्धकियो निज रस लियो, पूजतहू हितकार ॥ नित्य उदै बिन अस्त हो, पूरण दुति घन श्राप ग्रह न राहू जास शशि, सो हो हर सन्ताप ॥ लियो अपूरव लाभको, अचल भये सुखधाम । पूज रचं जे भावसों, पूर्ण होइ सब काम है प्रशंस तिहुँ लोकमें, तुम पुरुषार्थ उपाय । पायो धर्म सुधामको, पूजों तिनके पाय ॥ ॐ ही पहुँ महोपरापाय नम.प्रत्र्यं ॥५६२।
निरुपमानमप्रणयं ५६०
ही महँ महोदय नम ग्रयं ॥६२॥
प्रष्टम
पूजा
३३५