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अरति रति परिनिमित खोई, आत्म रति है प्रगट सोई। पूर्ण श्रुतज्ञान बल पाया, नमूसत्यार्थ उवझाया।
ओ ह्री पाठकग्रात्मरतये नम अर्घ्य 11४००।।
लोलतरग छन्द तथा बडी चौपाई। अठाईस मूलसदागुरगधारी, सो सब साधु वरै शिव नारी। साधु भये शिव साधनहारै, सो तुम साधु हरो अघ म्हारै॥
ओ ह्री सर्वसाधुभ्यो नमः अर्घ्य ॥४०१॥ मूल तथा सब उत्तर गाये, ये गुण पालत साधु कहाये । साधु भये.
ओ ही सर्वसाधुगुणेभ्यो नम अर्घ्य ॥४०२।। साधुनके गुण साधुहि जाने, होत गुणी गुणही परमाने । साधु भये.
ओ ह्री सर्वसाधुगुणस्वरूपाय नम अध्यं ॥४८३॥ नेम थकी शिववास करे जो, द्रव्य थकी शिवरूप करै जो। साधुभये. ' ओ ह्री सर्वसाधुद्रव्याय नमः अर्घ्य ॥४०॥
ससमी जीव सदाचित भाव विलासी, पापही पाप सधै शिवराशी। साधुभये. पूजा नों ही सर्वसाधुगुरणद्रव्याय नम अयं ॥४०५॥
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