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रागादिक जीते स जिन, तिनमे तुम परधान । सिद्ध० तातें नाम जिनेन्द्र है, नमूसदा धरि ध्यान ॥ही प्रर्ह जिनेन्द्राय नम प्रयं २। वि० रागादिक लवलेश विन, शुद्ध निरंजन देव ।
पूरण जिनपद तुम विषै, राजल होस्वयमेव ॥ॐ ह्रीमर्ह जिनपूणतायनम प्रय॑ ।। बाहय शत्रु उपचरितको, जीतत जिन नहीं होय । अंतर शत्रु प्रबल जये, उत्तम जिन है सोय ॥ॐ ह्रीमह जिनोत्तमाय नम अर्घ्य । ४॥ इन्द्रादिकपूजत चरन, सेवत है तिहुँ काल । गरणधरादिश्रुत केवली,जिनमाज्ञानिज भाल॥ह्रीप्रहं जिनप्रष्ठाय नम प्रध्यं ।।५।। गणधरादि सत पुरुष जे, वीतराग निरग्रंथ । तुमको सेवत जिन भये, साधत है शिवपंथ ॥ह्री प्रहं जिनाधिपायनम अयं ।।६ एक देश जिन सर्व मुनि, सर्व भाव अरहंत । द्रव्यभाव सर्वातमा, नरसिद्ध भगवंत ॥ोह्रौं मह जिनाधीशाय नम अयं ।।७।, पूजा गणधरादिसेवत चरण, शुद्धातम लवलाय । तीन लोक स्वामी भये, नमूसिद्ध अधिकाय ॥ोही अहजिनस्वामिने नम अयं ।
सप्तमी
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