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________________ ३४० समता मुखमे मगन है, राग द्वेष संक्लेश । सिद्ध ताकोनाशि सुखीभये,युगयुग जिनो जिनेश ॥ॐ ह्रीमहं साम्यमावधारकजिनायनमः निरावरण निज ज्ञानमें, संशय विभूम नाहि । सम्यग्यज्ञान प्रकाशते, वस्तु प्रमाण दिखाय॥ॐ ह्रीग्रहप्रक्षीणबन्धायनम अध्यं५६२ एक रूप परकाश कर, दुविधि भाव विनशाय। पर निमित्त लवलेश नहीं, बंदू तिनके पाय ॥ॐही अहं निद्वन्द्वाय नम अध्यं ।५६३। मुनि विशेष स्नातक कहै, परमातम परमेश। तुम ध्यावत निर्वाण पद, पावै भविक हमेश ॥ॐही अहस्नातकाय नम अध्यं ॥५६४॥ पंच प्रकार शरीर बिन, दीप्त रूप निजरूप । सुर मुनि मन रमणीय हैं, पूजत हूँ शिवभूपहीअहं अनगाय नम.अयं 1५६५। द्वय प्रकार बन्धन रहित, नित हो मोक्ष सरूप। भविजन बंध विनाशकर, देहो मोक्ष अनूप ॥ ह्री प्रहं निर्वाणाय नमःअध्यं ॥५६॥ पूजा सगुण रत्नकी राशके, आप महा भण्डार। अगम अथाह विराजते, बद्भाव विचार ॥ ली अहं मागराय नम अयं ।।५६७ अष्टम ३४०
SR No.010799
Book TitleSiddhachakra Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSantlal Pandit
PublisherVeer Pustak Bhandar Jaipur
Publication Year
Total Pages442
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript, Ritual, & Vidhi
File Size10 MB
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