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सिद
समय मात्र नहीं प्रादि हैं, वहै अनादि अनंत।
तुम प्रवाह इस जगतमें, तुम्है नमै नित संत ॥ ह्रीअहं निनिमेषाय नम अध्यं ।५८३॥ 8 योग द्वारा विन करम रज, चढे न निज परदेश ।
ज्योविन छिद्र न जलग्रहै, नवका शुद्ध हमेश॥ ह्रींग्रह निराश्रवायनम अध्यं परम ब्रह्म पद पाइयो, पूरण ज्ञान प्रकाश । । तीन लोकके जीव सब, पूजें चरण निवास॥ॐ ह्रींअहमहाब्रह्मपतयेनम प्रय । द्रव्य पर्याथिक दोऊ, साधत वस्तु स्वरूप ।
गुरण अनंत अवरोधकर, कहत सरूप अनूप॥ॐ ह्री अहं सुनयतत्त्वज्ञाय नमः अयं । है, । सूर्य समान प्रकाश कर, कर्म दुष्ट हनि सूर । शरण गही तुमचरणकी,करो ज्ञान दुति पूरि ॥ॐ ह्रीमहं सूरये नमःअध्यं ।।५८८।। तुम सम और न जगतमे, सत्यारथ तत्त्वज्ञ । सम्यग्ज्ञान प्रभावतें, हो प्रदोष सर्वज्ञ ॥ॐ ह्रीं अहं तत्त्वज्ञाय नम मध्यं ॥५८६।। पूजा तीन लोक हितकार हो, शरणागति प्रतिपाल । भब्यनि मनानंद करिबंदूंदीनदयाल ॥ॐ ह्रीं महं महामित्राय नम अध्यं ।५६०। 5.
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अष्टम
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