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सिद्ध० वि०
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ॐ ह्री अकृतमनक्रोधसमारम्भपरमानन्दाय नम अध्यं । दोहा--समारम्भ क्रोधित सुमन, परकारित दुख नाहि ।
परमातम पद पाइयो, नमूसिद्ध गुरण ताहि ॥२७॥ ॐ ह्री अकारितमन क्रोधसमारम्भपरमानन्दाय नम. अर्घ्य ।
भुजगप्रयात छन्द । समारम्भ क्रोधी मनोयोग माहीं, धरे मोदना भाव को जीव ताहीं। भये आप संतुष्ट येत्याग भावा, नमसिद्ध सो दोष नाहीं उपावा॥२८॥ ___ॐ ह्री नानुमोदितमन क्रोधसमारम्भपरमानन्दसतुष्टाय नमः अध्यं ।
पद्धडी छन्द। निज क्रोधित मन प्रारम्भ ठान, जग जिय दुखमे सुख रहै मान । सो आप त्याग संक्लेश भाव, भये सिद्ध नमूधर हिये चाव ॥२६॥
ही अकृतमनः क्रोधारम्भस्वसस्थानाय नम अर्घ्य । क्रोधित मनसों प्रारम्भ हेत, पर प्रेरित निज अपराध लेत। जग जीवनकी विपरीत रीति, तुम त्याग भये शिव वर पुनीत ॥३०॥ पूजा ॐ ह्री प्रकारितमना क्रोधारम्भबन्धसस्थानाय नमः मय।
६४ क्रोधित मनसों प्रारंभ देख, जिय मानत है आनन्द विशेष ।
पचम